समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
सन्त कबीर साहब ने कहा है-
“ जल परिमाने माछरी, कुल परिमाने बुद्धि ।
जाको जैसा गुरु मिला, ताकी तैसी शुद्धि ।।”
जल के अनुपात से ही मछली की वृद्धि होती है। जहाँ जितनी जल की अगाधता होती है, मछली के शरीर की उतनी ही विशालता होती है। छोटी-सी ताल-तलैया में जो मछली होती है, वह छोटी होती है। छोटी नदियों की मछलियाँ छोटी-छोटी होती हैं। बड़ी नदियों की मछलियाँ बड़ी-बड़ी होती हैं। समुद्र की मछलियाँ और बहुत बड़ी-बड़ी होती हैं। तो जल के परिमाण में मछली की वृद्धि होती है। जिस कुल में जिस परिवार में जैसा जो कुछ प्रचलन होता है, उसी संस्कार में उस परिवार के लोग संस्कृत होते हैं; उसी तरह की बुद्धि उपजती है, उसी तरह का विवेक- व्यवहार होता है। उसी तरह जिनको जिस तरह के गुरु मिलते हैं, उनको उसी तरह का ईश्वरीय मार्ग-दर्शन मिलता है। सन्त कबीर साहब कहते हैं-
“ गुरू गुरू में भेद है, गुरू गुरु में भाव ।
सोइ गुरु नित बन्दिये, (जो) शब्द बतावे दाव ।।”
सभी गुरु एक-से नहीं होते! लौकिक व्यवहार में भी हम यही देखते हैं कि लोअर प्राइमरी से लेकर एम0ए0 तक की जो पढ़ाई होती है, सबमें गुरु होते हैं। सबकी संज्ञा ‘गुरु’ की ही होती है; लेकिन सबकी योग्यता एक-सी नहीं होती। लोअर-प्राइमरी के गुरुजी हैं। अपर प्राइमरी के गुरुजी हैं, मिडिल के हैं, मैट्रिक के हैं, आइ0ए0 के हैं, बी0ए0 के हैं; सब शिक्षक-ही- शिक्षक हैं। सबकी संज्ञा शिक्षक-ही-शिक्षक है और जितने पढ़नेवाले हैं, उनकी संज्ञा विद्यार्थी-ही-विद्यार्थी है; लेकिन विद्यार्थी-विद्यार्थी में भेद है और शिक्षक- शिक्षक में भी भेद है। उसी तरह से अध्यात्म-ज्ञान के जो गुरु होते हैं, इन गुरुओं और इन शिष्यों में भी भिन्नता है। सबकी योग्यता एक-सी नहीं होती।
इसलिए कबीर साहब कहते हैं-
“ प्रथम गुरु है माता पिता ।
रज बीरज का सोई दाता ।।
दूसर गुरु है मन की धाई ।
गिरह बास की बंध छुड़ाई ।।
तीसर गुरु जिन धरिया नामा ।
लै लै नाम पुकारै गामा ।।
चौथे गुरु जिन शिक्षा दीन्हा ।
जग व्यवहार सभै तब चीन्हा ।।
पंचम गुरु जिन वैष्णव कीन्हा ।
रामनाम का सुमिरन दीन्हा ।।
छठे गुरु जिन भरम गढ़ तोड़ा ।
दुबिधा मेटि एक से जोड़ा ।।
सातवँ गुरु जिन सतशब्द लखाया ।
जहाँ का तत्त्व सो तहाँ समाया ।।”
“ (कबीर) सात गुरू संसार में, सेवक सब संसार ।
सतगुरु सोई जानिये, (जो) भवजल उतारे पार ।।”
जो संसार-सागर से पार कर दे, वास्तव में सन्त सद्गुरु वे ही हैं। जैन धर्म में उन्हीं को तीर्थंकर कहा गया है। तीर्थं करोति इति तीर्थंकरः।’ जो तीर्थ करते हैं, उनको तीर्थंकर कहते हैं। ‘तीर्थ’ का अर्थ है-तीर्ण अर्थात् उत्तीर्ण। जो स्वयं भव-सागर से उत्तीर्ण हो गये हैं और संसार के जीवों का उद्धार करने के लिए लगे हुए हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। उन्हीं तीर्थंकरों में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर थे। इनकी साधना बड़ी ऊँची थी। स्वयं वे भवसागर पार करके जीवों को भवसागर पार कराते थे। इन्होंने जिस वस्त्र को पहनकर साधना आरंभ की थी, वह वस्त्र शरीर पर ही गल गया, दिगम्बर हो गये। श्वेत वस्त्र पहनकर ध्यान करने के लिए बैठे थे, तो उनके कुछ अनुयायी श्वेताम्बर हो गये। और ध्यान करते-करते वर्षा ऋतु में उनका वस्त्र गल गया, तो हो गये वे दिगम्बर। इसलिये दूसरा पंथ हुआ दिगम्बर। इस तरह श्वेताम्बर और दिगम्बर-ये दो पंथ उनके चल पड़े। वास्तव में भगवान महावीर का ‘अहिंसा परमो धर्मः’ मत था और ‘आत्मानं विद्धि’ अर्थात् आत्मा को जानो। जो कोई आत्मा को जानते हैं, वे ही परमात्मा को जानते हैं। जबतक कोई आत्मा को नहीं जानते, तबतक वे परमात्मा को नहीं जानते। इसलिए अध्यात्म-ज्ञान के जो गुरु होते हैं, वे सर्वोपरि होते हैं। उनसे बढ़कर और कोई गुरु नहीं होता।
संसार में लोग आत्म-कल्याण की खोज करते- फिरते हैं। चाहते हैं कि हमारा आत्म-कल्याण हो। तो जो आत्म-कल्याण प्राप्त गुरु होते हैं, उनसे भेंट होने पर उस तरह का ज्ञान उन्हें मिलता है और सदाचार-समन्वित हो साधना करने पर उनका आत्म-कल्याण होता है। अन्यथा जिनको जैसे गुरु मिल गये और जो उन्होंने बता दिया है, लोग श्रद्धा के अनुकूल उसे करते हैं। नहीं कुछ से तो कुछ अवश्य ही करते हैं। लेकिन वास्तविक बात यह है कि प्रभु-प्राप्ति का जो मार्ग है, वह सत्य मार्ग क्या है, वह मिलना चाहिए, तभी सच्चा कल्याण हो सकता है। कोई पढ़ने के लिये विद्यालय में जाते हैं। बच्चे पढ़ने के लिये जब जाते हैं, तो उनके सामने आता है-‘अ’ से ‘अनार’, ‘आ’ से ‘आम’, ‘इ’ से ‘इनार’, ‘ई’ से ‘ईख’। इस तरह एक-एक अक्षर के साथ एक-एक रूप बना रहता है, एक-एक चित्र दिया रहता है। उसी चित्र के माध्यम से वह बच्चा वर्णमाला सीखता है। हालाँकि जहाँ हम ‘अ’ से ‘अनार’ पढ़ते हैं, वहाँ उसमें एक भी अनार का दाना नहीं है। जहाँ ‘आ’ से ‘आम’ पढ़ते हैं, तो वहाँ वह आम का रूप है; लेकिन न वह खट्टा है और न मीठा है। ‘इ’ से ‘इनार’ पढ़ते हैं, तो उसमें एक बूँद पानी नहीं है। ‘ई’ से ‘ईख’ पढ़ते हैं, तो उसमें भी एक बूँद रस नहीं है। इसी तरह जो कुछ भी हम पढ़ते हैं, मात्र एक-एक रूप के माध्यम से हम एक-एक अक्षर को सीखते हैं। इसीलिए सन्त कबीर साहब ने कहा-
“ झूठ मूठ खेलै सचमुच होई ।
सचमुच खेलै बिरला कोई ।।
जो कोई खेलै मन चित्त लाय ।
होइते होइते होइये जाय ।।”
बच्चे झूठ-मूठ पढ़ते हैं; लेकिन वही झूठ पढ़ते-पढ़ते एक दिन वह विद्वान हो जाता है। उसी तरह साधक जब साधनारम्भ करता है अर्थात् जप-ध्यान करना चाहता है, तो उसका मन नहीं लगता है, झूठ ही खेलता है; लेकिन निरन्तर अभ्यास करते रहने से एक दिन पूर्णता को प्राप्त करता है। जैसे अनार को दिखलाकर ‘अ’ का ज्ञान कराते हैं, उसी तरह से एक रूप का ध्यान कराके अरूप की ओर ले जाते हैं। अगर कोई बच्चा जीवन-भर ‘अ’ से ‘अनार’ ‘आ’ से ‘आम’ ही पढ़ता रह जाय और दूसरी किताब पढ़े ही नहीं, ऊपर के गुरुजी के पास जाय नहीं, तो क्या वह विद्वान हो सकता है? कभी वह विद्वान नहीं होगा। वर्णमाला सीखने की एक अवधि है। वर्णमाला सीख ली, अब आगे पढ़िये किताब। उसी तरह किसी एक नाम का जप और किसी एक रूप का ध्यान हम करते हैं; लेकिन उसी नाम का जप और उसी रूप का ध्यान करते-करते ही हमारा जीवन व्यतीत हो जाय, तो हमारी आध्यात्मिकता में आगे प्रगति नहीं हो सकती। इसलिए स्थूल नाम-रूप के बाद फिर सूक्ष्म नाम-रूप का अवलम्ब लेना चाहिए। अगर हम सूक्ष्मता की ओर नहीं बढ़ते हैं, स्थूलता में ही रह जाते हैं, तो जो हमारा परम कल्याण होना चाहिए, उससे हम वंचित रहेंगे। समझने की बात यह है कि स्थूल सगुण साकार भगवान श्रीराम थे। उनके दर्शन बहुतों को हुए। स्थूल सगुण साकार भगवान श्रीकृष्ण थे। उनके भी दर्शन बहुतों को हुए। लेकिन केवल स्थूल सगुण साकार के दर्शन मात्र से ही परम कल्याण नहीं होगा। इसलिए भगवान श्रीराम ने अपने भक्तों को ध्यान करने की क्रिया बतलायी। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों को ध्यान करने की क्रिया बतलायी। और वह ध्यान है सूक्ष्म-ध्यान। यों तो उन्होंने पहले स्थूल ध्यान भी बतलाया है। जैसे जबतक कोई मोटे-मोटे अक्षरों को नहीं लिख लेता, महीन अक्षर लिखने की योग्यता नहीं होती है, उसी तरह जबतक कोई मोटी-मोटी उपासना नहीं कर लें, तबतक सूक्ष्म उपासना की योग्यता उनमें नहीं होती है। लेकिन जीवन-भर हम मोटी उपासना में ही बिता दें, महीन उपासना का ज्ञान हम नहीं लें, उस ओर अग्रसर हम नहीं हों, तो फिर जो सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम ध्यान है; सगुण के बाद निर्गुण है, उसका ज्ञान कैसे हो सकता है और जबतक उसका ज्ञान नहीं होगा, परिपूर्णता नहीं आयेगी; भगवद् दर्शन नहीं होंगे, आत्म-दर्शन नहीं होंगे। इसलिए भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को उपदेश देते हुए कहा था-
“ दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः ।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम् ।।”
अर्थात् हे हनुमानजी! जो दृश्य और अदृश्य को त्याग देता है, वह कैवल्यस्वरूप हो जाता है। वह ब्रह्मविद् ही नहीं, ब्रह्मवत् ही नहीं, बल्कि वह ब्रह्म ही हो जाता है। इसलिए आवश्यकता है, हम दर्शन और अदर्शन; इन दोनों को पार करके आगे बढ़ें। दर्शन है रूप और अदर्शन है अरूप। दर्शन है-पहले स्थूल सगुण साकार रूप, पीछे सूक्ष्म सगुण साकार रूप। और उसी सूक्ष्म सगुण साकार में जो नाद की अनुभूति होती है, वह अदर्शन है। नाद को कोई देखता नहीं है।
“ जो कोई चाहै नाम सो नाम अनाम है ।
लिखन पढ़न में नाहिं निअच्छर नाम है ।।
रूप कहौं अनरूप पवन अनरेखते ।
अरे हाँ पलटू गैब दृष्टि से संत नाम वह देखते ।।”
नाम के भेद के संबंध में गोस्वामीजी कहते हैं-
“ भेद जाहि विधि नाम महँ, बिन गुरु जान न कोइ ।
तुलसी कहहिँ विनीत वर, जौं विरंचि सिव होइ ।।”
नाम में जो भेद है, वह भेद बिना गुरु के कोई नहीं जान सकता। भेद वर्णात्मक का और ध्वन्यात्मक का होता है।
“ चौदह चारो अष्टदस, रस समझव भरपूर ।
नाम भेद जाने बिना, सकल समझ महँ धूर ।।”
अठारहो पुराण पढ़ लें, छहो शास्त्र पढ़ लें, चारो वेद पढ़ लें, आठो व्याकरण पढ़ लें, बहुत बड़े विद्वान क्यों न बन जायेँ; लेकिन अगर नाम के भेद को नहीं जानते हैं, तो आध्यात्मिकता की दृष्टि से हम धूल-ही- धूल फाँकते हैं। श्रीमद्भागवत में आया है-शब्द तीन तरह के होते हैं-
“ शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयं ।
अनन्त पारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ।।”
इन्द्रियमय शब्द होता है, मनोमय शब्द होता है और प्राणमय शब्द होता है। इन्द्रियों के द्वारा जो शब्द ग्रहण होता है, वह इन्द्रियमय शब्द है। मन के द्वारा जो शब्द ग्रहण होता है, वह मनोमय शब्द है और प्राण के द्वारा जो शब्द ग्रहण होता है, वह प्राणमय शब्द है। प्राणमय शब्द आदिशब्द है, रामनाम है, ओम् है, उद्गीथ है, प्रणव आदि जो कहिये, वह है। इसलिए सन्त कबीर साहब ने कहा था-
“ भक्ति प्राण तें होत है, मन दे कीजै भाव ।
परमारथ परतीत में, यह तन जाव तो जाव ।।”
उस परमार्थ को हम जानें। उस नाम को हम जानें। कितने लोग कहते हैं-
“ उलटा नाम जपत जग जाना ।
बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।।”
इस संदर्भ में वे कहते हैं कि वाल्मीकिजी का पहला नाम रत्नाकर था। वे बहुत बड़े हत्यारे व डाकू थे। बहुतों की उन्होंने हत्या की थी। मार-काट में वे दिन-रात लगे रहते थे। इस कारण वे ‘राम-राम’ नहीं कह सकते थे। मार-काट करने के कारण ‘राम-राम’ की जगह ‘मरा-मरा’ ही वे जपने लग गये। ‘मरा-मरा जपते-जपते ही ‘राम-राम’ हो गया और वे सिद्ध हो गये। तो बात समझने की यह है कि वाल्मीकिजी राम का नाम नहीं लेकर ‘मरा-मरा’ कहते-कहते ‘राम-राम’ कहने लग गये। आज भी बड़े-बड़े डाकू लोग हैं, हत्यारे हैं, आज भी कम नहीं हैं; लेकिन कोई भी ऐसा नहीं होगा, जो वर्णमाला का ‘म’ उच्चारण करे और ‘रा’ उच्चारण कर ‘मरा’ शब्द का उच्चारण कर सके और ‘राम’ का उच्चारण नहीं कर सके। आज के जो बुद्धिजीवी लोग हैं, वे यह मानने को तैयार ही नहीं है। माननेयोग्य बात है भी नहीं। जो ‘मरा’ कह सकता है वह ‘राम’ भी कह सकता है। लेकिन यह उलटा नाम नहीं है, वह उलटा अक्षर हुआ। उलटा नाम तो वह है कि वर्णात्मक का उलटा ध्वन्यात्मक होता है। वाल्मीकिजी ने वर्णात्मक नाम का जप और ध्वन्यात्मक नाम का ध्यान किया था, तब वे सिद्ध हुए थे। आत्म-दर्शन उनको हो गये थे। पवित्र हो गये। उलटा कहने का तात्पर्य यह है कि एक शब्द वह है, जो नाभि से उत्पन्न होकर हृदय और कण्ठ में ठोकर लगकर मुँह से निकलता है अर्थात् नीचे से ऊपर की ओर जाता है। दूसरा शब्द वह है, जो निःशब्द से शब्द में, शब्द से प्रकाश में और प्रकाश से इस पिण्ड में-अन्धकार में आया हुआ है। नीचे से ऊपर की ओर आया हुआ शब्द वर्णात्मक है। उसका उलटा ध्वन्यात्मक है, वह ऊपर से नीचे की ओर आता है। वर्णात्मक शब्द पिण्ड के अन्दर से निकलकर पिण्ड में ही रह जाता है और दूसरा ब्रह्माण्ड के ऊपर से आकर पिण्ड तक आ जाता है। इस प्रकार एक दूसरे का उल्टा है। एक हम अंधकार में रहकर नाम का जप करते हैं और दूसरा हम प्रकाश में जाकर नाम का ध्यान करते हैं। तो अन्धकार का उलटा होता है प्रकाश, पिण्ड का उलटा होता है ब्रह्मांड। तो ब्रह्मांड में जाकर वाल्मीकि मुनि ने साधना की थी। इसी के लिए गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनन्त ।।”
तीन अवस्थाओं को छोड़कर चौथी अवस्था में जाकर भगवान का भजन करो। उसी चौथी अवस्था में जो कोई जाते हैं, अपने अन्तर के अनहद नाद को पकड़ते हैं। अनहद नाद की साधना के बाद वे अनाहत नाद की साधना करते हं और अनाहत नाद की साधना करके वे ब्रह्म-परमात्मा तक पहुँचते हैं। यह अपने अन्तर का जो नाद है, उस नाद को कहाँ पकड़ो और कैसे पकड़ो? इसकी क्रमबद्ध साधना-पद्धति इस प्रकार है-पहले वर्णात्मक नाम का जप होता है, जिसको मानस जप कहते हैं। फिर तदनुरूप रूप का ध्यान होता है, जिसको हम मानस ध्यान कहते हैं। उसके बाद दृष्टि-साधना की क्रिया होती है, जिससे चित्तवृत्ति का निरोध होता है और यही असली योग होता है।
‘चित्तवृत्तिनिरोधः इति योगः।’
हमारी जो बिखरी हुई धारें हैं, चेतन धारें हैं, उनका जहाँ सिमटाव होता है, वह स्थान है सुखमना। उसी सुखमना को आज्ञाचक्र भी कहते हैं। योगशिखोपनिषद् में आया है-
‘केचिद्वदन्ति चाधारं सुषुम्ना च सरस्वती ।’
अर्थात् ‘कोई-कोई अज्ञाचक्र को सुषुम्ना और सरस्वती भी कहते हैं।’ वही दसवाँ द्वार है। हम जबतक नौ द्वारों में रहते हैं, हमारी वृत्ति मलिन रहती है। जब हम दसवें द्वार में प्रवेश करते हैं, तो वहाँ वृत्ति जाकर पवित्र हो जाती है। उसी दसवें द्वार में यानी सुषुम्ना में जाकर शब्द को पकड़ने की सन्तों की आज्ञा है। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मंडल लिव लाइ ।
अकथ कथा बीचारीअै मनसा मनहि समाइ ।।”
सुषुम्ना में अपने को ले जाओ और वहाँ जाकर राग सुनो। नाद सुनो, अनहद नाद सुनो। जबतक सुषुम्ना में हम नहीं जायँगे, तबतक उस अनहद नाद को नहीं सुन सकेंगे। जबतक नौ दरवाजों में रहेंगे, तबतक पिण्ड में रहेंगे, पिण्ड का ज्ञान हमें होगा और जब नौ दरवाजों से सिमटकर दसवें द्वार में-आज्ञाचक्र में जायँगे, जब पिण्ड से ब्रह्माण्ड में जायँगे। तब ब्रह्माण्ड में नाद का अनुभव होगा। इसी सुखमना के लिए मीराबाई ने कहा है-
“ ऊँची अँटरिया लाल किबड़िया निरगुण सेज बिछी ।।
पचरंगी झालर सुभ सोहै, फूलन फूल कली ।
बाजूबन्द कडूला सोहै, माँग सिन्दूर भरी ।।
सुमिरन थाल हाथ में लीन्हा, सोभा अधिक भली ।
सेज सुखमणाँ ‘मीरा’ सोवै सुभ है आज घड़ी ।।”
मीराबाई भी सुखमना में ध्यान करती थी। सुखमना में प्रवेश करके वह ऊँची अटारी पर अर्थात् अन्धकार से प्रकाश में गयी हुई थी तथा शब्द की साधना करके वह ‘निःशब्द परमं पदम्’ तक पहुँची हुई थी। उसी सुषुम्ना के लिए सन्त बुल्ला साहब कहते हैं-
“ सुखमनि सुरति डोरि बनाव ।
मिटिहैं सब कर्म जिव के, बहुरि इतहि न आव ।।”
सुषुम्ना में सुरत की डोरी बनाते हैं। डोरी को क्या करते हैं? बाँटते हैं, मिलाकर एक करते हैं उसमें कई रेशे होते हैं, सब रेशों को मिलाकर एक करते हैं, वह डोरी होती है। सुतली में कई रेशे होते हैं, सबको मिलाकर बाँटते हैं, तब उसकी डोरी बनती है। मूँज भी कई भागों में बँटी हुई रहती है। उनको जब बाँटते हैं, तब मिलाकर एक रस्सी होती है। उसी तरह जो हमारी बिखरी हुई वृत्तियाँ हैं, ये मूँज के समान हैं, सुतली के समान हैं। इनको समेटिये, डोरी बनाइये, एक कीजिए। इसी के विषय में संत कबीर साहब ने कहा है-
‘कहै कबीर चरण चित राखो, ज्यों सूई बीच डोरा रे ।’
जिस तरह कोई सूई में धागा पिरोते हैं, तो पहले क्या करते हैं? धागे के मुँह को चुटकी से मिलाकर एक करते हैं। धागे के मुँह को पतला बनाते हैं। यों ही धागे को सूई के छेद में नहीं घूसा देते हैं उसके मुँह को पहले समेटते हैं, तब सूई के छिद्र में घुसाते हैं। उसी तरह दसवें द्वार में अपनी वृत्ति को प्रवेश कराने के लिए पहले उसको समेटो। कैसे? पहले मानस जप के द्वारा समेटो। फिर अधिक सिमटाव मानस ध्यान के द्वारा होता है। फिर उससे अधिक सिमटाव यानी पूर्ण सिमटाव दृष्टि-साधन की क्रिया से होगा। इस तरह सुषुम्ना में प्रवेश होगा। संत गुलाल साहब ने कहा है-
“ उलटि देखो घट में जोति पसार ।
बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवै, विगसि कमल कचनार ।।”
वे कहते हैं, उलटो। बहिर्मुख से अन्तर्मुख होओ। जब बहिर्मुख से अन्तर्मुख होओगे, तो क्या मिलेगा-‘घट में जोति पसार।’ तुमको अपने अन्दर में ज्योति मिलेगी, प्रकाश मिलेगा। झिलमिल-झिलमिल ज्योति जगेगी, तुम्हारे अन्दर वह अनुभव होगा। बिना बाजे के ही वहाँ पर बाजे बजते हैं। बाहरी बाजा कोई नहीं है वहाँ पर; लेकिन सभी प्रकार के बाजे वहाँ पर बज रहे हैं। ढोल है, मृदंग है, झाँझ है, मजीरा आदि सभी प्रकार के बाजों की ध्वनियाँ सुनने को मिलेंगी। वह होता कैसे है? इसके लिए क्या यत्न है, तो संत गुलाल साहब ये यत्न बतलाते हैं-
‘पैठि पताल सूर ससि बाँधौ, साधौ त्रिकुटी द्वार।’
पैठो-अपने भीतर बैठो और सूर-शशि को बाँधो अर्थात् दायीं धार जो है वह सूर्य धार है और बायीं धार चन्द्रधार है। इन दोनों धारों को एक करो। सूर-शशि को बाँधो, कहाँ पर? साधो त्रिकुटी द्वार-अपने को त्रिकुटी के द्वार पर ले जाओ। यहाँ क्या होगा? तो कहा-
‘गंग जमुन के वार पार बिच, भरतु है अमिय करार।’
कहते हैं-ये गंगा-यमुना की जो दोनों धाराएँ हैं, इड़ा-पिंगला की जो दोनों धाराएँ हैं, इन दोनों को वहाँ पर मिलाओगे, तब वहाँ पर क्या मिलेगा? निश्चित रूप से वहाँ पर अमृत मिलेगा। बाहर दुनिया में लोग अमृत खोजते हैं; परन्तु बाहर दुनिया में अमृत नहीं है। वह अमृत अपने अन्दर में है और वह अमृत दसवें द्वार में मिलेगा।
‘दसवै द्वारे चोवै भाठी, तीरथ परसै त्रैसै साठी ।’
जो कोई वहाँ पर स्नान करते हैं, तो तीन सौ साठ तीर्थ जो बाहर में करते हैं, उसी स्नान में हो जाता है। उनको बाहर के तीर्थों में स्नान करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती है। ज्ञानसंकलिनी तंत्र में लिखा है-
“ इडा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी ।
इडा पिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ।।
त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्व्वपापैः प्रमुच्यते ।।”
जो इस सुषुम्ना में स्नान करते हैं, त्रिकुटी घाट में स्नान करते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। इसी इड़ा-पिंगला को चन्द्र सूर्य कहा गया है। इसी की ओर इंगित करते हुए गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ दिन महि रैणि रैणि महि दीनी ,
अरु उसन सीति विधि सोई ।
ताकी गति मति अवरु न जाणै ,
गुर बिन समझ न होई ।।”
शीत में उष्ण करो, उष्ण में शीत करो। दिन में रात करो और रात में दिन करो। लेकिन इसका जो भेद है, वह ‘गुर बिन समझ न होई।’ अर्थात् जबतक सच्चे सद्गुरु से भेंट न हो, तबतक इसका भेद मालूम नहीं होगा। किताबों में सारी बातें लिखीं हुई हैं; लेकिन जबतक इनके मार्ग-दर्शन देनेवाले गुरु नहीं मिलेंगे, गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-‘गुर बिन समझ न होई।’ बिना गुरु के समझ नहीं हो सकती। इसी सुषुम्ना के लिए सभी सन्तों ने एक स्वर से कहा है। धर्मदासजी महाराज कहते हैं-
“ सुखमनि सेज बिछाओं गगन में, नित उठि करौं निहोर ।
धरमदास बिनवैं कर जोरी, साहब कबीर बन्दी छोर ।।”
‘सुखमनि सेज बिछाओं गगन में-आकाश में जाकर ये सुखमना की सेज बिछाते हैं। बिछातें क्या हैं? बिछी हुई तो है ही। जो वहाँ जाते हैं, उसपर आराम करते हैं। उस स्थान का नाम है सुखमना। जो कोई वहाँ जाते हैं सुख पाते हैं। योगशिखोपनिषद् में आया है-
“ एकोत्तरं नाडिशतं तासां मध्ये परा स्मृता ।
सुषुम्ना तु परे लीना विरजा ब्रह्मरूपिणी ।।”
हमलोगों के शरीर में बहत्तर करोड़ नाड़ियाँ हैं। उन बहत्तर करोड़ नाड़ियों में एक सौ एक नाड़ियाँ प्रमुख हैं। उन एक सौ एक नाड़ियों में नौ नाड़ियाँ मुख्य हैं। उन नौ नाड़ियों में तीन नाड़ियाँ मुख्य हैं और उन तीन नाड़ियों से सुषुम्ना नाड़ी सर्वश्रेष्ठ है। जो कोई सुषुम्ना मे में प्रवेश करते हैं, तो चन्द्र-सूर्य लय होते हैं।
‘सुषुम्नायां प्रवेशेन चन्द्रसूर्यो लयं गतौ।’
जो सुषुम्ना में प्रवेश करते हैं, तो क्या-क्या लाभ होते हैं, योगशिाखोपनिषद् में लिखा है-
“ सुषुम्नायां यदा योगी क्षणैकमपि तिष्ठति ।
सुषुम्नायां यदा योगी क्षणार्धमपि तिष्ठति ।।
सुषुम्नायां यदा योगी सुलग्नो लवणाम्बुवत् ।
सुषुम्नायां यदा योगी लीयते क्षीरनीरवत् ।।
भिद्यते च तदा ग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते परमाकाशे ते यान्ति परमां गतिम् ।।”
योगी जब एक क्षण भी सुषमना में ठहर सकता है; अगर आधा क्षण भी ठहरता है; सुषुम्ना में जब योगी पानी और नमक के समान मिल जाता है और सुषुम्ना में जब योगी दूध और पानी के समान मिल जाता है, तब उसके सभी संशय क्षीण हो जाते हैं। उनके हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है। तो जो कोई इस विन्दु का ध्यान करते हैं, वे ही भवसिन्धु को पार कर सकते हैं। जबतक कोई विन्दु का ध्यान नहीं करेंगे, तबतक वे भवसिधु को पार नहीं करेंगे। इस ध्यान की महिमा बतलाते हुए योगशिखोपनिषद् में बतलाया गया है-
“ अश्वमेध सहस्त्राणि वाजपेय शतानि च ।
सुषुम्ना ध्यानयोगश्च कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।”
बाहर में लोग बड़े-बड़े यज्ञों को करते हैं; अश्वमेध यज्ञ करते हैं, वाजपेय यज्ञ करते हैं, और भी कितने प्रकार के यज्ञों को करते हैं। शास्त्र कहता है-‘अश्वमेध सहस्त्राणि’। एक अश्वमेध को कौन कहे, हजारों अश्वमेध यज्ञ कोई करे और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ कोई करे, इनका जो फल होगा, इसको तराजू के एक पलड़े में रख दीजिए और सुषुम्ना-ध्यान के लेशमात्र का फल तराजू के दूसरे पलड़े में रखिये, तो हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ का फल सुषुम्ना-ध्यान के फल के सोलहवें भाग के भी बराबर नहीं होगा। यह सुषुम्ना का ध्यान सर्वोपरि ध्यान है। इस ध्यान से बढ़कर और कोई दूसरा ध्यान नहीं है। यही ध्यान है, यही प्रवेश-द्वार है, जो परम प्रभु परमात्मा के पास पहुँचाता है। जबतक कोई इस द्वार में प्रवेश नहीं करेगा, परमात्मा के पास नहीं जा सकेगा। इसलिए हमारा वेद कहता है-
“ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।।”
अंधकार के पार में जो सूर्य के समान प्रकाशमान है, जो कोई उसको पार कर सकता है, वही परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। ब्रह्म प्राप्त करने का यही एक रास्ता है। अंधकार से प्रकाश, प्रकाश से शब्द और शब्द से ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में जाना होता है। ‘नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय’ हमारा वेद कहता है कि और कोई रास्ता नहीं है। यही एक रास्ता है परम प्रभु परमात्मा को पाने का। इसलिए जबतक ज्ञान देनेवाले सच्चे सद्गुरु नहीं मिलते हैं, तबतक यह रास्ता नहीं मिलता। कबीर साहब के वचन में है-
“ बिन सतगुरु नर रहत भुलाना,
खोजत फिरत राह नहिं जाना ।”
तथा,
“ खोजते-फिरते बहुत-से इस जगत में जा-ब-जा ।
अंतर के अंतिम तह के रह बिन कोइ उसे पाता नहीं ।।”
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
जबतक कोई सुखमना-द्वार होकर प्रवेश नहीं करेगा, वह परमात्मा तक नहीं पहुँच सकता। सुषुम्ना का दूसरा नाम है आज्ञाचक्र। जो कोई उस चक्र में ठहरते हैं, उनको प्रभु की ओर से आज्ञा मिल जाती है आने के लिए और वे प्रभु के पास चले जाते हैं। जबतक कोई सुषुम्ना में नहीं पहुँचते हैं, आज्ञाचक्र में नहीं पहुँचते हैं, तबतक उनको आने के लिए आज्ञा नहीं मिलती। इसी विषय को एक बंगाली महात्मा ने अपनी बंग भाषा मे बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ मूलाधाराबधि पंचचक्र भेदि
आज्ञाचक्रे यदि थाक निरवधि ।
देखिबे से निधि जावे भव
व्याधि भासिवे आनन्द सागरे ।।”
दुनिया की कितनी भी चीजें मिल जाएँ, कितना भी बल मिल जाए, कितनी भी प्रतिष्ठा मिल जाए, अन्य कुछ भी मिल जाए; लेकिन सुख नहीं मिल सकता, शांति नहीं मिल सकती, कल्याण नहीं हो सकता। जब कोई दसवें द्वार में प्रवेश कर सुखमना में जाते हैं, तो वही से सुख का आरंभ होता है। इसका नाम ही सुखमना है। जबतक वहाँ नहीं गये, तबतक दुखमना। इसलिए उस सुखमना में कैसे प्रवेश करेंगे, इसका यत्न सद्गुरु से जानें। इस सुखमना द्वार में प्रवेश करने का उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था-
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
-श्रीमद्भगवद्गीता, अ0 6/13
शरीर, गर्दन और मस्तक को सीधा करके बैठो, अचल और स्थिर करके बैठो और नासाग्र में ध्यान करो। यही नासिकाग्र का ध्यान सुषुम्ना-ध्यान है। नासिकाग्र-ध्यान में कितने लोग भूल करते हैं। कितने लोग कहते हैं- भ्रुवोर्मध्ये’ है। कोई नाक के नीचेवाले भाग को बतलाते हैं, तो कोई ऊपर के भाग को बतलाते हैं; लेकिन वास्तव में नासाग्र न तो ऊपर है और न नीचे है। ‘भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रंथ से। है असंभव समझ लो किसी संत से।।’ विवेक कहता है-अगर हम नीचे करते हैं, तो एक दिशा हो गयी और ऊपर करते हैं, तो दूसरी दिशा हो गयी। भगवान के वचन में है कि ‘दिशश्चानवलोकयन्’-किसी दिशा को न देखते हुए नासिकाग्र में देखो। दिशाएँ दस हैं-उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम, चारो कोने, ऊपर और नीचे। अगर हम नाक के नीचे के भाग में करते हैं, तो एक दिशा हो जाती है। अगर हम भ्रुवोमध्ये करते हैं, तो वह ऊपर का भाग हो जाता है। एक-न-एक दिशा तो हो ही गयी। भगवान के वचन में है कि किसी दिशा को नहीं देखते हुए ध्यान करो। तब क्या होगा? संतों के पास, सद्गुरु के पास जाकर इसी यत्न को जानना है। जबतक हम संतों की शरण में नहीं जायेंगे, सद्गुरु की शरण में नहीं जायेंगे, तबतक इस दसवें द्वार का पता नहीं चलेगा, सुखमना का पता नहीं चलेगा। हमारे परम पूज्य गुरुदेव के वचन में इसका कितना सुन्दर स्पष्टीकरण है-
“ सुषमनियाँ में मोरी नजर लागी ।
अगल बगल कहुँ दृष्टि न डोलै ,
सन्मुख विन्दु पकड़ लागी ।।”
वे अपनी अनुभूति की बात कहते हैं कि जब उनकी दृष्टि सुषुम्ना में टिक गयी, तो उनको क्या अनुभव हुआ? ‘सुषमनियाँ में मोरी नजर लागी’। किस तरह? ‘अगल बगल कहुँ दृष्टि न डोलै’। अगल-बगल कहीं दृष्टि डुलाने की जरूरत नहीं है। ‘सन्मुख विन्दु पकड़ लागी’। जो ठीक-ठीक दृष्टि- साधना की क्रिया करते हैं, उनको विन्दु का दर्शन होता है। पूर्ण सिमटाव होने से एकविन्दुता की प्राप्ति होती है। दोनों रेखाओं का मिलन एकविन्दु पर होता है। जो अपने को एक विन्दु पर ठहराकर रख सकते हैं, उनको विन्दु मिलता है। कैसा विन्दु मिलता है? पहले काला विन्दु मिलता है, पीछे उजला विन्दु मिलता है। जिसको काला तिल और उजला तिल भी कहते हैं, जिसको श्याम और श्वेत कहते हैं। साधक को अपने अंदर में अनुभूति होती है। फिर क्या होता है? ‘सन्मुख विन्दु पकड़ लागी’ तथा ‘ब्रह्मजोति खुलि गयी अंतर में, निसि अंधियारी हदस भागी।’ अर्थात् ब्रह्मज्योति खुल जाती है; अंधकार का नाश हो जाता है। ‘दिव्य जोति को सूर प्रकट भा, सुरत सार शबद लागी।’ अपने अंदर में विविध प्रकार के तारों के दर्शन होते हैं। अपने अंदर चन्द्र के दर्शन होते हैं; सूर्य के दर्शन होते हैं और वह सूर्य भी कैसा सूर्य है? जैसा बाहर का सूर्य है? नहीं, नहीं! हमलोग नित्य आरती में पाठ करते हैं-
“ कोट भान छवि तेज उजाली,
अलख पार लखि लाग लगीजै ।।”
बाहरी सूर्य का जो प्रकाश है, इससे करोड़ों गुणा तेज प्रकाश उस सूर्य का है। इसी का वर्णन गो0 तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में इस प्रकार किया है-
“ जब ते राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका ।
बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ।।”
जो अपने अंदर के सूर्य के दर्शन करते हैं, वे बैठे-ही-बैठे तीनों लोकों को देख लेते हैं। बैठे रहते हैं कहीं, देखते हैं कहीं। वे जहाँ कहीं देखना चाहेंगे, देख सकते हैं। उनकी दृष्टि इतनी तीक्ष्ण हो जाती है कि वे सुदूर की वस्तु को बैठे देख लेते हैं। इसलिए गुरु महाराज के वचन में आया है-
‘एकबिन्दुता दुर्बीन हो दुर्बीन क्या करे ।’
जिन्होंने एकविन्दुता की साधना करके सिद्धि प्राप्त कर ली है, उनको दुर्बीन की कोई जरूरत नहीं है। उसी विन्दु के माध्यम से वे जहाँ कहीं देखना चाहते हैं, देख सकते हैं। इसी को योगशिखोपनिषद् में कहा है-
‘विन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात् ।’
जो कोई विन्दु पर अपने को प्रतिष्ठित कर पाते हैं, वे जितनी दूर देखना चाहेंगे, देख सकेंगे। तो ‘दिव्य जोति को सूर प्रगट भा’-अपने अंदर का जो सूर्य है, उस सूर्य का तेज कितना है, इसके लिए हमारे गुरु महाराज कहते हैं-
“ जा सम्मुख या सूर्य अमित अंधार है । ऐसो सूर्य चन्द हद पार है ।।”
कहते हैं कि अंदर के सूर्य के सामने बाहर का सूर्य अंधकारवत् है अर्थात् कुछ भी नहीं है। इतना ज्यादा प्रकाश अपने अंदर के सूर्य का है और वह चन्द्रमंडल के पार है; वह सहस्त्रदल कमल के पार में है। त्रिकुटी में उस सूर्य के दर्शन होते हैं, फिर वहाँ शब्द की अनुभूति होती है। वहाँ पर अनहद बाजे बजते हैं। उन अनहद बाजों में से-अनहद नादों में से किसको किस प्रकार पकड़ा जाय, गुरु से इसकी युक्ति ली जाती है- भेद लिया जाता है। अनहद नादों की साधना के पश्चात् एक सारशब्द को पकड़ा जाता है। उसी के सहारे चलकर वह परम प्रभु परमात्मा तक पहुँचता है। यही एक रास्ता ईश्वर के पास जाने का है और कोई रास्ता नहीं है। इसलिए चाहिए कि जो गुरु इस शब्द के भेद को जानते हों नाद की साधना जानते हों, विन्दुध्यान को जानते हों यानी अंतर की ज्योति और अंतर्नाद की साधना को जानते हों, करते हों, उसमें निष्णात हों, ऐसे क्रियावान शुद्धाचारी गुरु के पास जाकर शिक्षा-दीक्षा लेनी चाहिए और साधना करके अपने मानव-जीवन को सफल बनाना चाहिए, अन्यथा बाहर में हम भटकते रहेंगे। जन्म-जन्मान्तर भटकन में ही व्यतीत हो जाएँगे और परमात्मा का जो दर्शन है, वह दर्शन दूर ही रहेगा। असली दर्शन अपने अंदर में होगा। जब अपने अंदर में एक बार दर्शन हो जाएगा, फिर बाहर में दर्शन-ही-दर्शन है। इसलिए अपने अंदर चलो। बाहर का जाना छोड़कर, बाहर का भटकना छोड़कर अपने भीतर चलो। यही संतों की आज्ञा है।
आज्ञाचक्र से चलकर सहस्त्रदल कमल में जाओ, त्रिकुटी में जाओ, शून्य में जाओ, महाशून्य में जाओ, भँवर गुफा में जाओ, सतलोक में जाओ, प्रभु को पाओ और और अपना मानव-जीवन सफल बनाओ। आवागमन के चक्र से अपने को छुड़ा लो। इसके लिए आवश्यकता है-जीवन पवित्र होना चाहिए। पवित्र जीवन के लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से अपने को बचाकर रखें। खान-पान का संयम रखें। मांस, मछली, अंडा आदि तामसी भोजन नहीं करें। किसी भी नशीली चीज का का सेवन नहीं करें। पवित्र भोजन करें। एक ईश्वर पर विश्वास करें। ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर में होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखें। सत्संग करें, ध्यान करें और गुरु की सेवा करें। अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करें। इस तरह करते हुए अगर हमारा काम पूरा नहीं होगा यानी भक्ति पूरी नहीं होगी, तो भगवान श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया है कि जो कोई इस योग का आरंभ करेगा और किसी कारणवश जीवनकाल में पूरा नहीं कर सकेगा, तो शरीर छूटने पर विशाल स्वर्ग-सुख भोगेगा, फिर किसी पवित्र श्रीमान् के घर अथवा योगी-कुल में जन्म लेगा और पूर्व जनम के संस्कार से प्रेरित होकर उसको करने लगेगा और करते-करते कई जन्मों में जो मुझमें विराजनेवाली शांति है, उसको प्राप्त कर लेगा; मुझको प्राप्त कर लेगा। इसलिए अगर हम शांति चाहते हैं; कल्याण चाहते हैं; सुख चाहते हैं, तो हमें अपने अंतर-पथ का पथिक बनना होगा। बिना अंतर-पथ का पथिक बने कोई शांति व कल्याण नहीं पा सकता।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महाराष्ट्र में दिनांक 29-06-1994 ई0 को श्रीगजानन तुलस्यान के नवनिर्मित मकान के उद्घाटन के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, नवम्बर 1997 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
सन्तों का ज्ञान महान् है। जो उसका आचरण करते हैं, उनका कल्याण होता है। सन्तों का ज्ञान केवल मौखिक या बौद्धिक नहीं, उनका अनुभव ज्ञान होता है। अपने को तपाकर, बहुत प्रकार के कष्टों को सहकर, साधना की पराकाष्ठा पर पहुँचकर उन्होंने जो उपलब्ध किया, वही अपने अनुभव की बात संसार के सामने रखी है। सन्त कोई वेश-विशेष के कारण नहीं होते। सन्तों की पहचान भी बहुत कठिन होती है। संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ जो कोई कहै साधु को चीन्हा ।
तुलसी हाथ कान पर दीन्हा ।।”
जिस समय सन्त लोग होते हैं, उस समय उनकी पहचान कोई बिरले ही कर पाते हैं। अधिक तो उनके विरोधी ही होते हैं। उनकी निन्दा, उनकी शिकायत सामान्य लोगों के लिये एक मामूली-सी बात होती है। वे निन्दा-शिकायत ही नहीं करते, उनकी जान लेने तक को उतारू होते हैं। इतना ही नहीं, कितने संतों महात्माओं के प्राण लेने से भी वे बाज नहीं आये। सत्य तो यह है कि संतों ने हँसते-हँसते अपने प्राण दिये; किन्तु विश्व-कल्याण के लिये आत्मज्ञान देना उन्होंने नहीं छोड़ा। सन्तों ने अपने प्राण-प्रयाण की परवाह नहीं करके सत्य ज्ञान का प्रचार करते हुए अपनी कुर्बानी की; किन्तु कभी धर्म को नहीं छोड़ा। प्रभु ईसा मसीह जिस समय हुए थे, बहुत कम लोगों का विश्वास उनपर था; बल्कि प्रभु ईसा मसीह के शिष्य ने ही उनको पकड़वाया और क्रॉस पर लटकवाया। दूसरे की तो बात जाने दीजिये, शिष्य का गुरु के साथ यह कैसा व्यवहार है! महान आश्चर्य है! कि उन सन्त का हृदय कितना महान था। उनका आत्मबल कितना बढ़ा-चढ़ा था, उनका हृदय कितना विशाल था! क्रॉस पर लटकते हुए उन्होंने कहा था- “ हे प्रभु! जो मेरे साथ इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, उनको क्षमा करना; क्योंकि वे नहीं जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। वे अज्ञानी हैं।” आज उसी प्रभु ईसा मसीह के नाम पर ईसाई धर्म फैला हुआ है, और विश्व में ईसाइयों की संख्या ही संभवतः सभी धर्मों के लोगों से अधिक है। उस समय उनको किसने पहचाना? अगर वे अधिक दिनों तक रहे होते, तो उनसे जो हम लाभ लिये होते, उनके अभाव में क्या ले सकते हैं? आज क्या मिल सकता है? केवल उनकी वाणी मिल सकती है। क्या वाणी से ही हम तत्त्वज्ञान की समझ सकते हैं। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन-इन दो वाष्पों को मिलाने से पानी बनता है। किताब में लिखा हुआ है कि ऑक्सीजन की इतनी मात्र लीजिये और हाइड्रोजन की इतनी मात्र लीजिये; मिलाइये, पानी हो जायेगा। पुस्तक में सारी बातें लिखी हुई हैं; किन्तु अरे भाई! ऑक्सीजन किसको कहते हैं और हाइड्रोजन किसे कहते हैं। उनकी पहचान करानेवाला कोई व्यक्ति विशेष तो होना चाहिये ही। प्रयोगशाला में जाना पड़ेगा। जिसने इन दोनों गैसों को मिलाकर पानी बनाकर देख लिया है, वह आपको पानी बनाकर दिखलायेगा। नहीं तो दूसरी चीज से दूसरी चीज मिलकर तीसरी चीज बन जायेगी और वह खतरनाक सिद्ध होगी। केवल किताबी ज्ञान से नहीं होता है। जो ज्ञानी अपने जीवन-काल में रहते हैं, उनका जो ज्ञान होता है, वह उनके अनुभव का ज्ञान होता है।
इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब थे। इनके साथ भी लोगों ने दुर्व्यवहार किया था। और की तो जाने दीजिये, इनके ही दो चाचा थे। उन चाचाओं ने इस्लाम धर्म को स्वीकार किया नहीं। एक चाचा ने तो कोई बाधा नहीं दी; लेकिन दूसरे ने बड़ी बाधा उत्पन्न कर दी थी। अपने जीवन-काल में इनको अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आज हजरत मुहम्मद साहब के नाम पर देखिये, इस्लाम धर्म फैला हुआ है। जिस समय वे थे, उस समय किसी ने उनको पहचाना?
स्वामी दयानन्द जी जिस समय थे, उनके सेवक ने ही उनके साथ धोखेबाजी करके उनकी जान ले ली। दूध पिलाने के बहाने संसार से रवाना कर दिया। सज्जनो! विचारणीय विषय है। जो साथ में रहता है, वह भी संत को नहीं पहचान सकता। उसको दृष्टि नहीं है, आँखें नहीं हैं, सूझेगा क्या? कितना भी सूर्य का प्रकाश क्यों न हो, उल्लू को कभी सूझता है दिन में? एक सूर्य के बदले हजार सूर्य उग जायें; लेकिन उल्लू को कभी आँख होने को नहीं, सूझने को नहीं। उसी तरह जो सन्त हैं, ज्ञानी हैं, उनको अज्ञानी जन क्या जाने!
भगवान् बुद्ध के मौसेरे भाई थे देवदत्त, जो भगवान् के शिष्य भी थे। भगवान् बुद्ध के साथ कितना दुर्व्यवहार और अत्याचार किया, क्या कहा जाय! भगवान् को अन्य विरोधियों ने भी कम नहीं सताया। एक कुलटा नारी को बहकाकर भगवान् बुद्ध के ऊपर चरित्रहीनता का दोषारोपण कर दिया। किन्तु जो सत्य था, सबके सामने प्रत्यक्ष हो गया और भगवान् बुद्ध दोपहर के मार्तण्ड को भाँति उद्भासित हो उठे। भगवान् बुद्ध को मरवा डालने के लिये देवदत्त ने कम कुचेष्टा नहीं की; किन्तु सबमें वह विफल रहा। परमात्मा ने जिसको जितने दिनों का जीवन दिया है, उनके अन्दर उसको कौन मार सकता है।
“ जाको राखै साइयाँ, मार सके ना कोय ।
बाल न बाँका करि सके, जो जग बैरी होय ।।”
मीराबाई भक्तिन हुईं। उनके परिवारवालों ने ही उनको कुलटा कहकर अपमानित किया। अपमानित ही नहीं किया, उन्होंने तो चाहा कि ऐसी कुलटा नारी मर ही जाय, तो अच्छा है। सोचा-जहर पिलवाकर मार दो इसको। जहर का प्याला दे दिया गया मीराबाई को पीने के लिये। मीराबाई भगवान् का चरणामृत कहकर उसको पान कर जाती है। विष का पान करनेवाली मीरा अमर हो जाती है, और जिसने विष का प्याला पिलवाया, वह मर-सड़-गलकर कहाँ चला गया, जिसका कोई ठिकाना नहीं। जबतक इस पृथ्वीतल पर अध्यात्मज्ञान का प्रकाश रहेगा, तबतक मीरा अमर रहेगी।
कबीर साहब की बहत्तर कसनी प्रसिद्ध है। बहत्तर तरहों से कबीर साहब को लोगों ने कष्ट दिया। खालसा इतिहास पढ़िये। नानक साहब के पंथ के गुरुओं के साथ क्या-क्या हुआ। कितने-कितने कष्ट झेलने पड़े है उन गुरुओं को। लेकिन फिर भी उन गुरुओं ने अपने धर्म को छोड़ा नहीं, अपना सिर देकर आत्मज्ञान का प्रचार और प्रसार किया। नौवें गुरु तेगबहादुर जी महाराज ने तो स्पष्ट कहा-
“ धरम हेतु साका जिन कीया ।
सीस दिया पर सार न दीया ।।”
अयोध्या में हुए सन्त पलटूदास जी महाराज। दुष्टों ने उनको पकड़कर जलती हुई आग में फेंक दिया। संत को कौन पहचानता है? जिन्होंने पहचाना, उसका कल्याण हुआ। शम्स तबरेज ने अपनी खाल खिंचवाई और मंसूर ने अपने को शूली पर लटकवाया; लेकिन सत्य धर्म का त्याग नहीं किया।
एक गुरुभक्तिन थी सहजोबाई। उसका विवाह हो चुका था। उसकी ससुराल जाने की तैयारी हो रही थी। कोई महिला उसको वस्त्रलंकार से सुसज्जित कर रही थी और कोई उसके बाल को सँवार रही थी। उसी समय संयोगवश उसके गुरु संत चरणदास जी महाराज का पदार्पण होता है। सहजोबाई की साज-सँवार को देखकर सन्त चरणदास जी महाराज के श्रीमुख से यह वाणी निःसृत होती है-
“ चलना है रहना नहीं, चलना विस्वावीस ।
सहजो तनिक सुहाग पे, कहा गुहावै सीस ।।”
जैसे सूखी दियासलाई पर काठी घिसने से वह भक् करके जल उठती है, उसी तरह गुरुवाक्यरूपी काठी के घर्षण से सहजोबाई के पूर्व जन्म के शुभसंस्कार जग गये। वह सुसराल जाना छोड़कर गुरु के साथ-साथ चल देती है। गाँव-समाज में गुरु और शिष्य-दोनों की कड़ी आलोचना और काफी निन्दा हुई; किन्तु आगे चलकर जैसे बादल से निकलकर सूर्य चमकता है, वैसे ही दोनों यानी चरणदास जी महाराज और परम गुरुभक्तिन सहजोबाई का यशप्रकाश संसार में फैल गया। उनका ज्ञानसूर्य चमक उठा।
हमारे गुरु महाराज (प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्रीविभूषित महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) के साथ दुष्टों ने क्या कम अत्याचार किया है! आरम्भ में गुरु महाराज सिकलीगढ़ धरहरा में रहते थे। एक महिला को किसी ने सिखला दिया भूत खेलने के लिये। वह भूत खेलती थी। ओझा आता और उसको पूछता कि तुमको किसने भूत लगाया है, तो वह गुरु महाराज का नाम लेकर कहती कि उसी ने मुझको भूत लगाया है। उस गाँव में एक कबीरपंथी थे। उनका नाम था-श्री बाबू लाली साह जी। उस समय वे गुरु महाराज से दीक्षित तो नहीं थे; लेकिन गुरु महाराज के पास आते-जाते थे। गुरु महाराज के ज्ञान से वे सज्जन प्रभावित थे। उनको मालूम हुआ कि महर्षिजी पर यह महिला झूठ-मूठ आरोप लगा रही है। एक दिन वे जाते हैं उसके पास, जब वह भूत खेल रही थी और गुरु महाराज का नाम बतला रही थी। वे उस गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में थे। उन्होंने उस महिला को डाँटकर कहा- “ तुम्हारा सारा भूत हम निकाल देंगे खड़ाऊँ की मार मारते-मारते। हम जानते हैं कि वे कितने बड़े महात्मा है और कितनी ऊँची साधना करते हैं। क्या वे भूत लगानेवाले महात्मा हैं? अगर आज के बाद कभी भूत आया, तो खड़ाऊँ से तुम्हारा भूत उतरेगा। उस दिन से भूत भागा, तो भागा ही रह गया। (श्रोताओं की ओर से ‘बोलिये श्री सद्गुरु महाराज की जय’ का नारा।)
दूसरी घटना यह है कि एक बार गुरु महाराज को आदर के साथ सत्संगी सज्जनों ने एक गाँव में सत्संग कराने के लिये बुलाकर लाया। निश्चित समय पर गुरुदेव वहाँ पधारे। आम के बगीचे में फूस की एक चौबारी थी। उसी में उनको वासा दिया गया। गुरु महाराज उसमें ठहरे। सत्संग सुनने के लिये काफी लोग उपस्थित हुए। सत्संगीगण में अद्भुत प्रेम और उल्लास था। कार्यक्रम के अनुसार दिन का सत्संग हुआ। रात का भी सत्संग हुआ। खा-पीकर सब कोई सो गये; लेकिन जिसको परम पूज्य गुरुदेव से द्वेष था, उसने क्या किया? जब सब कोई सो गये, तो उसने उस घर में आग लगा दी, जिसमें गुरुदेव सोये हुए थे। घर से निकलने का जो रास्ता था, वहीं आग लगा दी, जिससे वे निकल न पावें। लेकिन जो संसार को जगाने के लिये आये हैं, वे क्या सोयेंगे! उनको कौन जगावेगा? वे जगे हुए थे ही। उनके सेवक बरामदे पर सोये हुए थे। उनको उन्होंने जगाया। बिस्तर समेटकर बाहर निकल गये। भला जो जगत् के रक्षक हैं, उनका भक्षण कौन कर सकता है।
गुरुदेव की बढ़ती ख्याति और मान-सम्मान को देखकर राग-द्वेष में जलनेवाले उनके कुछ गुरु भाइयों ने उनकी निन्दा-शिकायत लिखकर पत्र द्वारा सत्संगियों में प्रचार किया। इससे भी जब संतोष नहीं हुआ, तो गुरुदेव के विरोध में उनकी विविध आलोचनाओं की पुस्तक तैयार कर भागलपुर के एक प्रेस में छपने के लिये दी गयी। प्रेस में आग लग जाने के कारण वह पाण्डुलिपि उसी में जलकर भस्म हो गयी। पुस्तक प्रकाशित नहीं हो सकी। इस तरह की बहुत-सी घटनाएँ हैं, कितना गिनाया जाय।
सृष्टिकर्ता ने सृष्टि-रचना में गुण-दोष और जड़-चेतन का मिश्रण किया है। यही हेतु है कि सृष्टि के आदिकाल से संसार में संत-असंत और शिष्ट-अशिष्ट, दोनों प्रकार के लोग होते चले आ रहे हैं। आज भी यह संसार संत-असंत से शून्य नहीं है, दोनों ही धन्य है; क्योंकि दोनों ही अपने-अपने कर्त्तव्य-पालन में किञ्चित् भी कसर नहीं रखते। जैसे क्षीर और नीर-मिश्रित रूप से हंस क्षीर को ग्रहण कर नीर को छोड़ देता है, उसी प्रकार विवेकी जन सत्य को, सार को और सद्गुण को ग्रहण कर असत्य का, असार का और अवगुण का परित्याग करते हैं।
“ जड़ चेतन गुन दोषमय, बिस्व कीन्ह करतार ।
संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि वारि विकार ।।”
सन्तों की पहचान बहुत कठिन है। अपनी जान पर खेलकर सन्तों ने इस ज्ञान का प्रचार किया। वह ज्ञान बाहरी ज्ञान नहीं है, आन्तरिक ज्ञान है। उसके साथ कोई बाहरी आडम्बर नहीं होता, आन्तरिक ज्ञान होता है वह ज्ञान, जिसको ब्रह्मज्ञान कहते हैं, आत्मज्ञान है, जिससे आत्मकल्याण होता है; प्रभु की प्राप्ति होती है; आवागमन का चक्र छूटता है।
“ सन्त पंथ अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
कहहिं संत कवि कोविद, स्त्रुति पुरान सद्ग्रन्थ ।।”
सन्तों का जो रास्ता है, वह अपवर्ग का है अर्थात् अपवर्गपर परमपद का है। अन्धकार, प्रकाश और शब्द के परे का है; अर्थ, धर्म, काम-इन तीनों के परे मोक्ष धर्म का है। उस धर्म पर चलने के लिये रास्ता बाहर संसार में नहीं है। वह रास्ता अपने अन्दर है। एक फकीर ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ बेहाशिये इन्सान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मुहम्मद, वातिन में खुदा है ।।”
अगर खुदा को हासिल करना चाहते हो, परमात्मा को पाना चाहते हो, तो वातिन में खुदा है यानी अन्दर में परम प्रभु है। अन्दर में उसकी प्राप्ति होगी। इसलिये-
“ अद्भुत अन्तर की डगरिया, जा पर चलकर प्रभु मिलते ।।
दाता सतगुरु धन्य धन्य जो, राह लखा देते ।
चलत पंथ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते ।।
अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते ।
सुनत लखत सुख लहत अद्भुती, ‘मेँहीँ’ प्रभु मिलते ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
वह अंदर का डगर है। बाहर की डगरिया नहीं है, बाहर का रास्ता नहीं है। आंतरिक रास्ता है। अंतर-अंतर चलना है। जिज्ञासा होती है-अंतर-अंतर कैसे चलें? इसका भेद कौन बतावेगा? तो उत्तर मिलता है-‘दाता सतगुरु धन्य धन्य जो, राह लखा देते ।’ संत सद्गुरु के बिना और कोई इसको बता नहीं सकता। किताब पढ़कर थककर मर जायेंगे; लेकिन वह राह नहीं मिलेगी। स्वामी विवेकानंदजी ने कहा-‘हम बहुत अध्ययन करते हैं। बहुत अध्ययन करने से हमारी बुद्धि का विकास होता है; लेकिन आत्म-विकास नहीं होता। एक पाण्डित्य का घमण्ड हमारे दिमाग में आ जाता है कि हमने इतना अध्ययन किया है, हम बहुत जानते हैं।’ संतों का मार्ग आंतरिक मार्ग-सूक्ष्म मार्ग है, जागतिक स्थूल मार्ग नहीं है।
‘चलत पंथ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते ।’
उस रास्ते से चलने में कठिनाई नहीं, बल्कि सुख मिलता है। आप विचार की दृष्टि से देखिये। जब आप जाग्रत अवस्था में बहिर्मुख होते हैं और जब आप स्वप्नावस्था में अंतर्मुख होते हैं, दोनों की तुलना करके देखिये। जिस समय आप जगे हुए होते हैं, आपके मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार की चिन्ताएँ रहती हैं। उस दिन एक सज्जन कह रहे थे कि ऐसा कोई घर नहीं, जिस घर में कोई चिन्ता नहीं। मैंने उनसे कहा-ऐसा कोई सर नहीं, जिस सर में कोई चिन्ता नहीं। वस्तुतः किसी न-किसी प्रकार की चिन्ता हर सर में है। एक ही चिंता नहीं, अनेक चिन्ताएँ हैं। लोग दुःखी हैं, पीड़ित हैं, आकुल हैं, व्याकुल हैं, छटपटा रहे हैं, चिंता के कारण नींद नहीं आ रही है, लड़की की शादी करनी है, लड़के को पढ़ाना है, व्यापार में घाटा है, अपने रुग्न हैं, पत्नी अनुकूल नहीं है, किसी को लड़का नहीं है, उसकी चिंता है। किसी को कई लड़के हैं, वे आपस में लड़ते-झगड़ते हैं। किसी को अमुक के साथ मुकदमा लगा हुआ है, किसी को नौकरी नहीं मिल रही है, तो किसी की नौकरी छूट गयी है आदि। कितनी बातें दिमाग में है, जिसका ठिकाना नहीं। इन सब चिंताओं से हम तबतक ग्रसित रहते हैं, जबतक हम जगे हुए होते हैं। जैसे ही हम धीरे-धीरे जाग्रत से स्वप्न की ओर जाते हैं, उस समय क्या होता है? जाग्रत-स्वप्न के बीच में एक अवस्था होती है, जिसको तन्द्रा कहते हैं। उस तन्द्रा अवस्था में यह मालूम पड़ता है कि हमारी शक्तियाँ भीतर की ओर खिंच रही हैं। बाहर की चीजों को हम भूल रहे हैं। हमारी शक्तियाँ सिमट रही हैं। बल्कि हम अखबार लेकर पढ़ते रहते हैं, किताब लेकर पढ़ते रहते हैं, तो हाथ से अखबार छूट जाता है, किताब नीचे गिर जाती है। हम कहाँ चले गये, पता नहीं। हाथ में किताब थी, कैसे गिर गयी। हाथ तो है, अंगुलियाँ तो हैं ही, उनमें जो शक्ति थी, वह सिमटी है। बाहर से भीतर की ओर हो गयी। इसलिए हाथ कमजोर पड़ गया। बेचारी आँखें कुछ देख नहीं पातीं। स्वप्नावस्था में आँखें तो बंद रहती हैं; लेकिन दोनों कानें खुली ही रहती हैं। फिर भी कान कुछ काम करते नहीं हैं। हमारे नजदीक में ही बैठकर कोई हमारी या किसी को निन्दा अथवा प्रशंसा करते हैं, तो न तो हम निन्दा सुन सकते हैं और न प्रशंसा ही। हमारे निकट में ही कोई इत्र बेचनेवाला आ जाय या हमारा नन्हा-मुन्ना बच्चा पाखाना कर दे, उस समय हमको न तो दुर्गंधि लगती है और न सुगंधि ही। नासिका भी तो खुली ही रहती है, क्या हो गया? बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो रहे हैं। देहाती भाषा में तन्द्रा को अधनिनियाँ कहते हैं। उस समय अगर कोई जगा देता है, तो बहुत दुःख होता है। हम सो रहे थे, नींद की ओर हम जा रहे थे, हमको जगा दिया, क्यों जगा दिया? आप भीतर की ओर जा रहे थे। दुःखों को भूलते जा रहे थे। आपके ऊपर दुःख का पहाड़ पड़ा हुआ हो; लेकिन जब आप नींद की ओर जा रहे होते हैं, तो वह पहाड़ हट जाता है। आप तन्द्रा से चले गये सुषुप्ति में यानी गहरी नींद में। वहाँ कोई दुःख नहीं। आपके शरीर में पीड़ा है, कष्ट है, रोग नहीं, पीड़ा नहीं, छटपटाहट नहीं, किसी प्रकार की कोई चिन्ता नहीं। परमात्मा की ओर से यह प्रतिदिन की प्राकृतिक देन है। इस नमूने से जाना जाता है कि जो कोई भीतर की ओर जाते हैं यानी अन्तर्मुख होते हैं, वे दुःखों से छूटते हैं। लेकिन यह तो थोड़ी देर के लिये, मात्र कुछ घंटों के लिये होता है, जितनी देर हम गहरी नींद में रहते हैं। उसमें भी कुछ घंटे भी सभी लोगों को गहरी नींद नहीं आती है। बहुत कम समय लोग गहरी नींद में रह पाते हैं। नहीं तो स्वप्न में ही घूमते-घूमते सवेरा हो जाता है। अगर गहरी नींद में अधिक देर तक रहा जाय, तो बहुत प्रकार के रोगों का निवारण हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अन्तर्मुख जाने से सुख की ओर जाते हैं। लेकिन यह एक साधारण-सा नमूना है। जब हम स्वप्नावस्था में जाते हैं, तो आँख में नीचे की ओर उतरते हैं। लेकिन जो साधक हैं, साधना करते हैं, तो साधना में जो एकाग्रता होती है, उस एकाग्रता के कारण जो पूर्ण सिमटाव होता है, उस पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आवरण-भेदन होता है और वह अन्धकार से प्रकाश में चला जाता है। उसके सुख और आनन्द का क्या कहना! वहाँ उसको दिव्यानन्द की अनुभूति होती है। कल्पना कीजिये, रात का समय है। आप अँधेरे कमरे में बैठे हुए हैं। उस समय आप कैसा दुःख का अनुभव करते हैं! एकाएक बिजली आ गयी। तब आप कितना सुख का अनुभव करने लग जाते हैं। उसी तरह हम जन्म-जन्मान्तर से अँधेरी कोठरी में बैठे हुए दुःखों का अनुभव कर रहे हैं। साधना के द्वारा जब अन्तःप्रकाश मिलता है, तो अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है। वह प्रकाश अद्भुत है, आनन्द अद्भुत है; क्योंकि वह आन्तरिक डगर भी तो अद्भुत ही है। वहाँ उसको अद्भुत दृश्यों के दर्शन होते हैं। सतत आनन्द-ही-आनन्द है। क्षण-प्रतिक्षण आनन्द की वृद्धि होती रहती है। एक बंगाली महात्मा योगी श्री पंचानन भट्टाचार्य ने कितना ही अच्छा कहा है-
“ आनन्दे आनन्द बढ़े प्रति क्षण ।
दशेन्द्रिय थाके शून्य ते बन्धन ।।
रिपुचय पराजय सकलि आनन्दमय ।
अनुभव मात्र रय आर सब पाय लय ।।
जे मन जीवने जीवन थाके ना ।।”
सन्त कबीर साहब ने कहा है-
“ भजन में होत आनन्द आनन्द ।
बरसत विसद अमी के बादर, भींजत है कोइ सन्त ।”
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की वाणी में ही पाते हैं-
‘चलत पंथ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते ।’
वहाँ ज्योति झरती है। जहाँ महर्षि मेँहीँ जी की वाणी में हम ‘अझर’ शब्द का प्रयोग पाते हैं, वहाँ गुरु नानकदेव जी महाराज ‘नीझर’ शब्द का व्यवहार करते हैं-
“ निझरु झरै सहज धुनि लागै, घर ही परचा पाईअै ।
अंजन माहिं निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।”
नीझर = निर्झर = झरना। झरना झर रहा है, विविध प्रकार के प्रकाश हो रहे हैं अपने अन्दर में विविध प्रकार के शब्द अपने अन्दर हो रहे हैं। जो उस ज्योति में स्नान करते हैं, डुबकी लगाते हैं, उसको अपने अन्दर का शब्द मिलता है। ‘सहज धुनि लागै।’ सहज ध्वनि यानी स्वाभाविक ध्वनि मिलती है। स्वाभाविक ध्वनि आदिनाद है। जिसको आदिनाद मिलता है, सारशब्द मिलता है, उसको प्रभु की पहचान हो जाती है। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-‘घर ही परचा पाईअै’ अर्थात् अपने घर में परम प्रभु का परिचय मिल जाता है। इसी से मिलती-जुलती बात सन्त कबीर साहब कहते हैं। उनका कहना है कि अनहद शब्द की झनकार होती है और अझर झरता है, तब ब्रह्मज्ञान होता है। ध्यान की अवस्था में सर्वव्यापी परमात्मा की प्रत्यक्षता भी अपने अन्दर होती है, कहीं बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं।
“ अनहद बाजै नीझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान ।
आवगति अन्तरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान ।।”
गुरु नानकदेव जी महाराज कहते हैं-‘अंजन माहिं निरंजनि रहीअै।’ अंजन = माया। निरंजन = निर्माया। मायिक संसार में रहिये; लेकिन निर्मायिक होकर रहिये।
“ अनासक्त जग में रहो भाई ।
दमन करो इन्द्रिन दुखदाई ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
संसार में अनासक्त होकर रहो, यह संसार में रहने की कला है। श्रीरामकृष्णदेव परमहंसजी महाराज ने कहा- “ पानी में नाव रहे, कोई हानि नहीं; लेकिन नाव में पानी नहीं आना चाहिये। नहीं तो उसको वह डुबा देगा। उसी तरह भक्त संसार में रहे, कोई हानि की बात नहीं है; किन्तु भक्त में सांसारिकता नहीं आनी चाहिये, नहीं तो उसको वह डुबा देगी।” हमारे गुरुदेवजी कहते हैं-अपने अन्दर चलो। “ अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़ भागी सुनते।” अपने अन्दर स्थूल-सूक्ष्मादि भेद से पाँच नौबत है। पाँचों के पाँच केन्द्र हैं, जहाँ से ध्वनि होती है। जो भाग्यवान् है, उसी को वह ध्वनि मिलती है-
“ भाग्यहीन को ना मिले, भली वस्तु का भोग ।
दाख पके मुख काग को, होत पाक को रोग ।।”
जो भाग्यहीन है, उसको भली चीज का भोग नहीं मिलता है। हमारे गुरु महाराज कहा करते थे- “ लोग दुःख को तो सह लेते हैं; परन्तु सुख बर्दाश्त नहीं कर सकते।” ऐंठ जाते हैं, उसमें अकड़ आ जाती है। उसके भाग्य में भली वस्तु का भोग लिखा ही नहीं है, भोगेगा क्या? जिस समय अंगूर फलता है और वह पकने लग जाता है, उस समय कौए के मुँह में घाव हो जाता है। पका अंगूर वह खा नहीं सकता। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है कि भगवान् श्री राम ने कहा था- “ बड़े भाग मानुष तनु पावा।” वह बड़भागी है, जिसको मनुष्य-शरीर मिला है। और भी विशेष बड़भागी हम तब होते हैं, जब हमको सत्संग मिल जाता है। “ बड़े भाग पाइये सत्संगा।” उससे भी अधिक बड़भागी हम तब हो जाते हैं जब हमको सच्चे गुरु के दर्शन हो जाते हैं। उनसे सद् शिक्षा-दीक्षा मिल जाती है। और जब अन्तस्साधना करके परम प्रभु परमात्मा का अनुभव कर सन्त बन जाते हैं, तब तो भाग्य के लिये कहना ही क्या!
संत पलटूदासजी महाराज ने कहा है-ऐसे महान पुरुष की जन्मदात्री माताजी भी धन्य हो जाती हैं-
‘धनि जननी जिन जाया है, सुत सन्त सखी री ।’
वह कुल धन्य हो जाता है, जिस कुल में सन्त का अवतार होता है। गोस्वामीजी कहते हैं-भगवान् शंकर ने पार्वतीजी से कहा था-
‘सो कुल धन्य उमा सुनु, जगत पूज्य सुपुनीत ।’
(रामचरितमानस)
‘अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते ।’
अमृत-जिसको प्राप्त करके अमरता मिलती है। वह क्या है? वह दो रूपों में है-(1) ज्योति-रूप में और (2) शब्दरूप में। जबतक हमारे शरीर में ज्योति और शब्द है, तबतक यह शरीर अमर है। इस शरीर से ज्योति और शब्द दोनों निकल जायँ, तो यह शरीर मर जाएगा। जबतक शरीर में गर्मी है, तबतक यह शरीर जीवित है। जबतक हृदय में गति है, नाड़ी में गति है, तबतक यह जीवित है। किसी शरीर से जब गर्मी निकलती है, तो शरीर ठंडा पड़ने लग जाता है और नाड़ी की गति धीमी पड़ने लग जाती है। धीरे- धीरे श्वास की गति बन्द हो जाती है, तब क्या कहते हैं? मर गया, रामनाम सत्त हो गया। हमलोगों के शरीर में ज्योति और शब्द है। आन्तरिक ज्योति और आन्तरिक शब्द की साधना द्वारा ही परम प्रभु परमात्मा से मिला जाता है। ज्योति रूप- ब्रह्माण्ड तक रहती है। उसके आगे शब्द की गति होती है, जो अरूप-ब्रह्माण्ड कहलाता है; वहाँ केवल नाद-ही-नाद है, उस नाद के सहारे चलते हैं। जैसे नदी का जल समुद्र में जाकर मिल जाता है, वैसे ही नाद से नादों में चलते हुए अन्त में प्रणव ध्वनि मिलती है। प्रणव ध्वनि को ही ओऽम्, स्फोट, उद्गीथ आदि शब्दों से अभिहित करते हैं। उस शब्द-धार को पकड़कर सर्वाधार तक पहुँचा जाता है। प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्रीविभूषित महर्षि मे ँहीँ परमहंस जी महाराज की वाणी में हम पाते हैं-
नाद सों नादों में चलि धरु, प्रणव सतध्वनि सार रे ।
एक ओऽम् सतनाम ध्वनि धरि,‘मेँहीँ हो भव पार रे ।।
इस तरह जो अन्तस्साधना करते हैं, अपने अन्तर चलते हैं। अन्धकार से प्रकाश में, प्रकाश से शब्द में और शब्द से निशब्द परमं पदम्’ में पहुँचकर प्रभु से मिल एक हो जाते हैं। जीवात्मा और परमात्मा दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। जैसे नदी का जल समुद्र में मिल जाने पर उसकी संज्ञा समुद्र की हो जाती है, उसी तरह जो जीव जाकर परम प्रभु परमात्मा से मिल जाता है, उसकी संज्ञा भी परमात्मा हो जाती है, जीव की संज्ञा मिट जाती है। तब ‘वह तुम्हीं तुम वही ‘मेँहीँ’, प्रश्न पुनि रहते नहीं’ चरितार्थ हो जाता है। फिर वहाँ द्वेत भाव नहीं रहता है। जीव-पीव मिलकर एक हो जाते हैं। आवागमन का चक्र छूट जाता है। अंधकार से प्रकाश में, प्रकाश से शब्द में और शब्द से निःशब्द में। परम प्रभु परमात्मा के पास जाने का यही श्रेष्ठ रास्ता है और दूसरा, तीसरा, चौथा, अन्य कोई रास्ता नहीं है। यही अन्तर का रास्ता है। सरल रास्ता है, सहज रास्ता है, सुगम रास्ता है। जो कोई चलते हैं, प्रभु की ओर से उनको मदद भी मिलती है प्रभु-कृपा मिलती है। प्रभु की कृपा के सहारे कर प्रभु से मिलकर एकमेक हो जाते हैं। यह सहज साधना, सरल साधना सबको जानकर कहना चाहिये और अपने मानव-जीवन को कल्याण बनाना चाहिये।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत भागलपुर नगर के परम पावन सुरसरि तट पर अवस्थित महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में दिनांक 24-07-1994 ई0 को साप्ताहिक
सत्संग के शुभ अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर+अक्टूबर 1994 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
विद्वज्जन का कथन है कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। आवश्यकता आविष्कार की जननी कहलाती है। आज हमलोग इस समय यहाँ यत्र-तत्र से जो एकत्र हुए हैं, इसका भी कोई कारण होगा। अकारण ही हमलोग यहाँ समवेत नहीं हुए हैं। इसका कारण है-हमलोग गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की जयन्ती मनाने के लिये यहाँ उपस्थित हुए हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सन्त थे, कवि थे। गोस्वामीजी महाराज के ही शब्दों में हम कह सकते हैं-
“ सन्त उदय सन्तत सुखकारी ।
बिस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ।।”
जिस तरह चन्द्र और सूर्य का उदय जगन्मंगल के लिये हुआ करता है, उसी तरह सन्तों का अवतरण विश्व-कल्याण के लिये हुआ करता है। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने ‘विनय-पत्रिका में लिखा है-
“ विस्व उपकार हित व्यग्र चित सर्वदा,
त्यक्त मद मन्यु कृत पुण्य रासी ।
जत्र तिष्ठन्ति तत्रैव अज सर्व हरि,
सहित गच्छन्ति छीराब्धि वासी ।।”
विश्व-कल्याण के लिये जिनका अवतरण होता है, विश्व-कल्याण के लिये जो व्यग्र रहते हैं, जो मद-मन्यु का परित्याग किये हुए होते हैं, ब्रह्म में जिनकी वृत्ति प्रतिष्ठित रहती है, ऐसे सन्तजन जहाँ रहते हैं, वहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के सहित सभी देवता उपस्थित रहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सन्त तो थे ही, बहुत बड़े विद्वान् भी थे। उन्होंने बहुत-सी पुस्तकों की रचना की। उन रचनाओं में रामचरितमानस का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। यह उत्तम ग्रन्थ मात्र स्वदेश में ही नहीं, विदेश में भी प्रवेश कर चुका है। यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय हुआ है कि ऐसा कौन भारतवासी होगा, जिसको रामचरितमानस की एक भी चौपाई या दोहा याद नहीं हो। कितने जन तो सम्पूर्ण रामचरितमानस को कण्ठस्थ कर लिये हैं।
रामचरितामानस इसकी संज्ञा इसलिये पड़ी कि भगवान शंकर ने भगवान श्रीराम के चरित्र की रचना करके अपने मानस पटल पर अटल करके रखा था। समय पाकर उन्होंने शिवा से कहा-
“ रचि महेस निज मानस राखा ।
पाइ सुसमय सिवा सन भाखा ।।”
रामचरितमानस एक अद्भुत ग्रन्थ है। इसमें सभी प्रकार के ज्ञानों का समावेश है। गो0 तुलसीदासजी महराज रामचरितमानस के सन्दर्भ में लिखते हैं-
“ रामचरित मानस यहि नामा ।
सुनत स्त्रवन पाइय विश्रामा ।।
यहि मानस मानस चक्षु चाही ।
भइ कवि बुद्धि विमल अवगाही ।।”
इस रामचरितमानस को हम सामान्य दृष्टि से नहीं देख सकते। “ यही मानस मानस चक्षु चाही।” मानस चक्षु अर्थात् सूक्ष्म दृष्टि चाहिये। लगे हाथ किसी ने गोस्वामीजी से जिज्ञासा की कि यह मानस चक्षु वा दिव्य दृष्टि कैसे मिलती है, जिसके बिना हम रामचरितमानस का अवलोकन सही रूप से नहीं कर सकते। गोस्वामी जी इस जिज्ञासा का समाधान इस भाँति करते हैं-
“ श्री गुर पद नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ।।
दलन मोह तम सो सुप्रकासू ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ।।
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के ।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ।।
सूझहिं रामचरित मनि मानिक ।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।।”
“ जथा सु अंजन आंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखत सैल बन, भूतल भूरि निधान ।।”
आज हमलोग गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की जयन्ती मनाने के लिये उपस्थित हुए हैं, बड़ी प्रसन्नता की बात है; किन्तु जयन्ती सही रूप में हम तभी मना सकते हैं, जब हम गोस्वामीजी के कथन के अनुकूल अपना आचरण बना सकेंगे। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज के विचार में ईश्वर-भक्ति में जीव का कल्याण है। इसलिए वे नवधा भक्ति का वर्णन करते हैं। उसका प्रसंग इस प्रकार है-मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम जब शबरीजी के आश्रम में पधारते हैं, तो वे उनसे नौ प्रकार की भक्तियाँ बतलाते हैं। उन नवो प्रकार की भक्तियों में पहली भक्ति उन्होंने सन्तों की संगति बतलायी-‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा ।’
नवधा भक्ति का क्रम-क्रम से वर्णन करते हुए सातवीं भक्ति में भगवान कहते हैं-
“ सातवँ सम मोहि मय जग देखा ।
मोतें अधिक सन्त करि लेखा ।।”
भगवन्त ने सन्त की मर्यादा अपने से अधिक दी; अपने से विशेष सन्त को बतलाया। सन्तों में ऐसी कौन-सी विशेषता होती है। आइये, इसपर विचार करें। भगवन्त के अवतरण से साधु-सन्तों का संरक्षण और दुष्टों का संहार नहीं होता; अपितु वे दुष्टों को सत्संग का आधार देकर उनका सुधार करते हैं और अन्तस्साधना के द्वारा उनका उद्धार करते हैं।
सन्तों की संगति मात्र गोस्वामीजी ने ही बतलायी है, ऐसी बात नहीं है; अन्य संतों की वाणी में भी हम सन्त-संग-सत्संग का बहुत ऊँचा स्थान पाते हैं संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर संगति साध की, ज्यों गंधी का बास ।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तौभी बास सुवास ।।”
हम गन्धी की दुकान पर जायँ, वहाँ हम इत्र मोल नहीं लें, मात्र खड़े रहें। इत्र बेचनेवाला भी हमको इत्र नहीं दे, फिर भी स्वाभाविक ही उसकी दुकान से सुगन्धि आती है। वह सुगन्धि हमें लगती है। उसी तरह से संतों के सन्निकट जाकर हम बैठें, संत कुछ नहीं भी बोलें, बिल्कुल मौन ही क्यों न रहें, फिर भी उनकी जो नैसर्गिक आभा है, वह हममें प्रवेश करेगी और हममें परिवर्त्तन लायेगी।
पाश्चात्य देश की कथा है कि एक बहुत बड़े विद्वान थे, जिनका नाम था-अरस्तू। उन्हीं के समय में एक महात्मा हुए थे, जिनका नाम था-सुकरात । अरस्तू के मन में बहुत सारी जिज्ञासाएँ थीं। वे सुकरात के पास जाकर अपनी जिज्ञासा का समधान कराना चाहते थे। किन्तु मानवों में कुछ मानसिक कमजोरियाँ भी हुआ करती हैं। आजकल-आजकल कहकर वे सोच रहे थे-जायँगे-जायँगे। बहुत दिन बीत गये। जा नहीं पाये। कुछ संयोग ऐसा हुआ कि सुकरात पर मिथ्या दोषारोपण करके उनको कारागार में बन्द कर लिया गया। उनको अवधि दी गयी कि अगर चालीस दिनों के अन्दर आप अपने विचार में परिवर्त्तन ला सकें, तो आप कारागार से मुक्त हो सकते हैं, अन्यथा आपको प्राणदण्ड दिया जायेगा। सुकरात-जैसे महात्मा अपने विचार में परिवर्तन क्योंकर लाते। यह बात अरस्तू को ज्ञात हुई। अरस्तू ने सोचा, महात्मा सुकरात- जैसे महान व्यक्ति अपने विचार में परिवर्त्तन नहीं ला सकते। वे अपने विचार में दृढ़ रहेंगे। भले ही प्राणदण्ड स्वीकार कर लें। यही अवसर है कि हम अपनी जिज्ञासाओं का समाधान उनसे करावें। अरस्तू चलते हैं सुकरात से मिलने के लिये, जहाँ वे कारागार में बन्द थे। जैसे-जैसे वे सुकरात की ओर आगे बढ़ते हैं और जाते-जाते उनकी समीपता प्राप्त करते हैं, तो उनकी सारी जिज्ञासाओं का समाधान हो जाता है। सुकरात से उनकी भेंट होती है। सुकरात पूछते हैं- “ कहिये, आपके आने का क्या कारण है?” अरस्तू कहते हैं- “ मेरे मन में बहुत सारी जिज्ञासाएँ थीं। उन्हीं जिज्ञासाओं के समाधानार्थ आज मैं आपके पास आया था; किन्तु जैसे-जैसे मैं आपके पास आता गया, हमारी जिज्ञासाओं का समाधान होता गया। अब मात्र एक जिज्ञासा बच गयी है, और वह यह कि ऐसा हुआ तो कैसे? सुकरात ने उत्तर दिया- “ प्रत्येक व्यक्ति के शरीर से नैसर्गिक आभा निःसृत होती रहती है। उस आभा का एक क्षेत्र होता है। उस क्षेत्र से जब आप बाहर थे, तो आपके अन्दर बहुत सारी जिज्ञासाएँ थीं और जैसे-जैसे आप उस आभा में प्रवेश करते गये, आपकी जिज्ञासा का समाधान होता गया। और यहाँ आते-आते सारी जिज्ञासाओं का समाधान हो गया।”
हमारे गुरुदेव थे। उनकी भी तपस्या बहुत ऊँची थी। साधना के शिखर तक पहुँचकर उन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया था। एक बार का प्रसंग है-मुंगेर कॉलेज में एक प्रोफेसर थे। अब तो वे रिटायर्ड (अवकाश-प्राप्त) हो चुके होंगे। उनका नाम है शिवचन्द्र बाबू। ये अपने कॉलेज के कार्य-विशेष से भागलपुर यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) आये हुए थे। जिस कार्य के लिए आये हुए थे, वह पूरा हो गया, तो उनकी इच्छा हुई कि नजदीक में ही महर्षि मेँहीँपरमहंस जी महाराज विराजते हैं। क्यों न वहाँ जाकर उनके दर्शन किये जायँ। उन्होंने अपनी जेब में हाथ डालकर देखा, तो उतने पैसे उनके पास नहीं थे, जिससे कुप्पाघाट जाकर पुनः मुंगेर लौट सकें। उनके मन में हुआ कि इच्छा थी महर्षिजी के दर्शन करने की, किन्तु लाचारी है। देखिये, होता क्या है? उस समय यहाँ भागलपुर यूनिवर्सिटी में भी0सी0 (उपकुलपति) थे-राष्ट्र कवि श्री दिनकरजी। दिनकर जी के मन में प्रेरणा होती है। दिनकरजी कहते हैं- “ शिवचन्द्र बाबू! सुनने में आया है कि कुप्पाघाट में एक महात्माजी रहते हैं। उनके दर्शन के लिये चला जाय।” इनके मन में तो प्रबल इच्छा थी ही। कहते हैं- “ हाँ-हाँ, चला जाय, बहुत अच्छे संत हैं। श्रीदिनकरजी श्रीशिवचन्द्र बाबू से पूछते हैं- “ अच्छा एक बात बतलाइये कि हमलोग वहाँ जायेंगे, उनसे मैं कुछ पूछना चाहूँगा, तो उसका वे उत्तर देंगे न?” शिवचन्द्र बाबू बोले- “ हाँ, क्यों नहीं, वे बहुत बड़े पहुँचे हुए महात्मा हैं, अवश्य उत्तर देंगे।” श्री दिनकरजी ने कागज पर क्रम से सात प्रश्न लिखे। सातो प्रश्नों को लिखकर उन्होंने अपनी जेब में उस कागज के टुकड़े को रख लिया। श्री दिनकरजी और शिवचन्द्र बाबू दोनों ही गाड़ी पर बैठकर कुप्पाघाट पहुँचे। गुरु महाराज बैठे हुए थे। दोनों ने उनके श्रीचरणों में प्रणाम निवेदन करते हुए एक-दूसरे का परिचय दिया। गुरुदेव का संकेत पाकर दोनों सज्जन बैठ गये। कुशल-समाचार के क्रम में ही दिनकरजी के प्रश्नों के उत्तर क्रमानुसार गुरुदेव देने लग गये। जैसे ही पहले प्रश्न का उत्तर गुरुदेव देते हैं, वैसे ही दिनकरजी शिवचन्द्र बाबू की जाँघ को थपथपाते हुए संकेत करते हैं। प्रश्न तो जेब में है और महर्षिजी के मुखारविन्द से उत्तर मिल रहा है। क्रम-क्रम से सातो प्रश्नों के उत्तर गुरुदेव ने दिये। दिनकरजी आश्चर्य-चकित हो अवाक् हो गये। सन्तों की अन्तर्यामिता के सम्बन्ध में श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव जी महाराज ने कहा है- सर्वसाधारण का हृदय सन्तों की दृष्टि में काँच की आलमारी की तरह होता है। काँच की आलमारी में आप कुछ भी रखिये, वह बाहर से दीखती है। उसी तरह सन्तों की दृष्टि इतनी पैनी होती है कि भीतर का भेदन कर आन्तरिक रहस्यों को जान लेती है। सन्तों के शरीर की आभा सतत निःसृत होती रहती है। संतों का संग करनेवाले में वह नैसर्गिक आभा प्रवेश कर उसको पवित्र करती है। इसलिये शबरी को उपदेश देते हुए भगवान् श्रीराम ने “ प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा।” कहा।
हमारी जो तामसी वृत्ति है, सन्तों की संगति करते-करते वह तामसी वृत्ति राजसी और राजसी से सात्त्विकी वृत्ति में परिवर्तित हो जाती है। सन्त कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर संगति साध की, ज्यों गंधी का बास ।
जो कुछ गन्धी दे नहीं, तौ भी बास सुबास ।।”
इंगलैण्ड के रहनेवाले एक विद्वान् सज्जन, जिनका नाम पाल ब्रण्टन था, भारत में संतों की खोज करने के लिये आये हुए थे। बहुत घूमने-फिरने के बाद जब उनको संत-दर्शन नहीं हुए, तो वे यह सोचकर कि भारत संत से विहीन है, शून्य है, निराश होकर स्वदेश लौट रहे थे। जहाज में वे बैठ चुके थे। एकाएक उनको अन्तःप्रेरणा मिलती है और वे जहाज से उतरकर महर्षि रमण के आश्रम में जाते हैं और उनके दर्शन करते हैं। महर्षि रमण भी अद्भुत संत थे। उन्होंने उनकी ओर देखा भी नहीं, वे आँखें बन्द करके बैठे हुए थे। पाल ब्रण्टन कई दिनों तक उनके निकट रहे; लेकिन कुछ प्रश्नोत्तर नहीं हुआ। लगातार कई महीने तक उनके आश्रम में निवास करके महर्षिजी से जो वे प्रभावित और लाभान्वित हुए, उनकी चर्चा उन्होंने ‘गुप्त भारत की खोज’ नाम की पुस्तक में की। इस प्रकार हम देखते हैं कि संत कबीर साहब की यह वाणी- “ जो कुछ गन्धी दे नहीं, तौभी बास सुबास” अक्षरशः सत्य है। इस विषय की एक घटना मुझे स्मरण हो आयी।
एक सन्त चरणदासजी महाराज थे। उनकी शिष्या थीं सहजोबाई। बड़े ऊँचे दर्जे की साधिका थीं। बड़ी गुरु-भक्तिन थीं। साधना में भी अच्छी ऊँची गति थी। मीराबाई का नाम आपलोगों ने सुना होगा। उन्हीं की तरह की वे भी थीं। एक बार का प्रसंग है-सहजोबाई अपने गुरु के निकट गयीं और उनके श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित करके बैठ गयीं। सहजोबाई को देखते ही एकाएक संत चरणदासजी महाराज अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं। हमलोग अगर अपने गुरु महाराज के पास जायँ, उनको प्रणाम करके बैठें और वे आँखें बन्द कर लें, तो हमलोग यही समझेंगे कि हमारे गुरुदेव हमसे रुष्ट हैं, हमारी और देखना तक नहीं चाहते। बोलना तो दूर रहा, कुछ कहने की बात तो और दूर रही। लेकिन सहजोबाई क्या समझती है, अपनी भावना व्यक्त करती है-
“ सहजो गुरु परसन्न ह्वै, मूँद लियो दोउ नैन ।
फिर मोसूँ ऐसो कही, समझि लेहु यह सैन ।।”
आँखें बन्द करने का अर्थ बहिर्मुख से अन्तर्मुख होने का संकेत है। इसीलिये कहा- “ समझि लेहु यह सैन।” हाँ, तो मैं सन्तों की संगति के विषय में कह रहा था। सन्तों की संगति की विशेषता के सम्बन्ध मे सन्त सुन्दरदास जी महाराज की वाणी में सुनिये-
“ तात मिलै पुनि मात मिलै,
सुत भ्रात मिलै युवती सुखदाई ।।
राज मिलै गज बाज मिलै,
सब साज मिलै मन वांछित पाई ।।
लोक मिलै सुर लोक मिलै,
विधि लोक मिलै बैकुंठ ही जाई ।।
‘सुन्दर’ और मिलै सब ही सुख,
संत समागम दुर्लभ भाई ।।”
सुन्दरदासजी महाराज के संबंध की एक अत्यन्त रुचिकर-मनोहर कथा है। ये अपने पूर्व जन्म में भी संत दादू दयालजी महाराज के शिष्य थे। संत दादू दयालजी महाराज बड़े उच्चकोटि के फकीर थे। उनके शिष्य थे जग्गाजी, गुरु के अनन्य भक्त। मधुकरी वृत्ति से गुरु-शिष्य जीवन-यापन करते थे। उन दिनों घर-घर चरखा चलता था, सूत माँगकर बुनकर को देते थे। वह बुनकर कपड़ा बनाकर देता था। इसी क्रम में एक दिन जग्गा जी चले सूत माँगने के लिए। वे घर-घर घूमते हुए कहते, ‘दे माई सूत, दे माई सूत।’ थोड़ा-थोड़ा सूत माताएँ देती जाती और ये झोले में रखते जाते। एक माई ने कुछ अधिक सूत देकर कहा, ‘लो बाबा सूत।’ इनके मुँह से निकल गया, ‘लो माई पूत।’ एक संत के मुँह से ‘लो माई पूत’ सुनकर उसका हृदय गद्गद हो गया, उसने और अधिक सूत लाकर झोले में डाल दिया। जग्गाजी सूत लेकर पहुँचे दादू दयालजी महाराज के पास। संत दादू दयालजी महाराज अंतर्यामी और दूरदर्शी थे। संतों की दृष्टि बड़ी पैनी होती है। योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
‘विन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात् ।’
जो साधना-द्वारा विन्दु को प्राप्त कर लेते हैं, उसमें प्रतिष्ठित हो जाते हैं, वे जहाँ कहीं भी देखना चाहें, एक स्थान पर बैठकर देख सकते हैं। उनकी दृष्टि दूरबीन का काम करती है।
हमारे परम पूज्य गुरुदेव के वचन में भी आया है-
“ एकविन्दुता दूर्बीन हो, दुर्बीन क्या करे ।
पिण्ड में ब्रह्माण्ड दरस हो, बाहर में क्या फिरे ।।”
संत दादू दयालजी महाराज जहाँ बैठे थे, वहीं से सब कुछ देख रहे थे। उनकी दृष्टि से कुछ भी ओझल नहीं था। फिर भी लोक-व्यवहार-निर्वहण हेतु उन्होंने पूछा, ‘इतनी थोड़ी ही देर में इतने अधिक सूत तुम कहाँ से ले आये?’ जग्गा जी ने उत्तर में निवेदित किया, “ गुरुदेव! सूत माँगने के लिए मैं कई घरों में गया। उन स्थानों से थोड़ा-थोड़ा सूत मिला। इसी क्रम में जब मैं एक अन्य गृह में गया, तो उस गृह से एक कन्या मेरे सामने आयी। मैंने कहा, ‘दो माई सूत।’ उसने कुछ अधिक सूत मेरे झोले में डालकर कहा, ‘लो बाबा सूत।’ एकाएक मेरे मुँह से निकल गया, ‘लो माई पूत।’ तो उसने और अधिक सूत लाकर मुझे दे दिया।” संत दादू दयालजी महाराज ने कहा, “ अरे! वह तो बन्ध्या है। उसको तुमने कैसे कह दिया, ‘लो माई पुत!” जग्गाजी बोले, ‘गुरुदेव! मुझसे भूल हो गयी। क्षमा करें।’ संत दादू दयालजी ने कहा, ‘वत्स! साधु का वचन मिथ्या नहीं होता। तुमको ही उसके गर्भ में जाना होगा।’ जग्गाजी ने प्रार्थना की, ‘गुरुदेव! इस जीवन की भाँति अगले जन्म में भी आप ही मेरे गुरुदेव हों, ऐसा आशीर्वचन देने का अनुग्रह करें।’ दादूदयालजी महाराज ने कहा, ‘एवमस्तु! (ऐसा ही होगा)। मैं तेरा गुरु होऊँगा। अच्छा, तुम एक काम करो। उस लड़की के माता-पिता से कह दो कि उसका जहाँ विवाह हो, उनके पति से कह दें कि जो पुत्र होगा, ग्यारह वर्ष की अवस्था में वैराग्य धारण कर लेगा।’ जग्गाजी ने आदेश का पालन किया।
कुछ दिनों के बाद उस कन्या का विवाह होता है। वह ससुराल जाती है। समय पाकर जग्गाजी का शरीर छूटता है और वह माई गर्भवती होती है। उसके गर्भ से बालक का जन्म होता है। वह देखने में बड़ा सुन्दर था। जब उसकी उम्र छह वर्ष की हुई, संत दादूदयालजी महाराज घूमते-घूमते वहाँ गये, जहाँ कन्या का विवाह हुआ था। पिता ने उस बालक को उनके श्रीचरणों में समर्पित कर दिया। दादू दयालजी उस बालक के सिर पर हाथ रखते हुए बोले, ‘यह बालक बड़ा सुन्दर है।’ कहते हैं कि तबसे उनका नाम ‘सुन्दरदास’ पड़ गया। वे बढ़े और पढ़-लिखकर बहुत बड़े विद्वान संत हुए। उनकी बहुत अच्छी-अच्छी रचनाएँ हैं। इन्हीं सुंदरदासजी महाराज की वाणी आपलोगों ने सुनी। संसार में कुछ मिल जाय, सुलभ है; लेकिन संतों का संग बड़ा दुर्लभ है, ‘संत समागम दुर्लभ भाई।’ भगवान शंकर पार्वतीजी से कहते हैं-
“ गिरिजा संत समागम, सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होइ सो, गावहिं वेद पुरान ।।”
‘हे पार्वती! संतों के समागम के समान दूसरा कोई लाभ नहीं है।’ यह लाभ कैसे मिलता है? तो कहते हैं, ‘बिनु हरि कृपा न होइ सो।’ जबतक प्रभु की कृपा नहीं होती, संतों का समागम नहीं होता। गो0 तुलसीदासजी महाराज का वचन है-
“ जब द्रवहिं दीनदयाल राघव, साधु संगति पाइये ।
जेहि दरस परस समागमादिक, पाप रासि नसाइये ।।”
(विनय-पत्रिका)
गोस्वामीजी महाराज रामचरितमानस में लिखते हैं-
“ सरदातप निसि ससि अपहरई ।
सन्त दरस जिमि पातक टरई ।।”
आश्विन और कार्तिक महीनों को शरद् ऋतु कहते हैं। शरद् ऋतु में दिन के समय गर्मी पड़ती है और रात में ठंढ हो जाती है। गोस्वामीजी महाराज कहते हैं कि शरद् काल में दिन की गर्मी को रात में चन्द्रमा अपनी शीतलता प्रदान कर दूर कर देता है। उसी तरह संतों के दर्शन से पातक टल जाते हैं। गोस्वामीजी के कहने की कला कितनी अच्छी है! दिन की गर्मी रात में नहीं रहती, लेकिन दिन होने पर तो फिर गर्मी आयेगी ही। इसी प्रकार संतों के दर्शन से पातक टल जाते हैं। सड़ जाते हैं, गल जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं, ऐसा वे नहीं कहते। उनका कथन है, ‘संत दरस जिमि पातक टरई।’ अर्थात् पातक टल गया, समाप्त नहीं हुआ। जैसे मान लीजिए, एक सरोवर है। उसमें जल लबालब भरा हुआ है। उस जल के ऊपर सेंवार छायी है। जब हमें जल की आवश्यकता पड़ती है, तो हम सेंवार को हाथ से हटा देते हैं, जल ले लेते हैं। लेकिन कुछ क्षण के बाद फिर वह सेंवार उसी स्थान पर आ जाती है। इस भाँति संतों के दर्शन से पातक तो टल जाता है; किन्तु संत-दर्शन से जब हम दूर हो जायेंगे, तो पातक फिर आ जाएगा। वह पातक पुनः नहीं आए, इसके लिए क्या उपाय है? उसी का यत्न गोस्वामी जी बतलाते हैं-
“ जब द्रवहिं दीनदयाल राघव, साधु संगति पाइये ।
जेहि दरस परस समागमादिक, पाप रासि नसाइये ।।”
अर्थात् जब परम प्रभु की अनुकम्पा होती है, तब साधु-संतों की संगति मिलती है। जिनके दर्शन, स्पर्शन और समागम आदि से पाप-राशि नष्ट होती है। गोस्वामी जी ने ‘समागम’ शब्द के आगे ‘आदिक’ शब्द जोड़कर एक मार्मिक दिशा की ओर इंगित किया है। वह क्या है, इसको भी समझ लेना आवश्यक है। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि संतों के दर्शन, स्पर्शन, समागम मात्र से समस्त पापों का विनाश नहीं होता। समस्त पापों को विनष्ट करने के लिए वे कुछ साधना-जप-ध्यानादि करने के लिए बतलायेंगे। वह करना होगा। सामवेद में लिखा है-
“ यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।”
अर्थ-यदि पहाड़ के समान कई योजन तक फैला हुआ पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है; इसके समान पापों का नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है। वेद कहता है, ‘न अन्यो भेदः।’और कोई दूसरा उपाय नहीं है, यही एक उपाय है।
संत जन ध्यान करने के लिए बतलाते हैं, वह ध्यान करो। ध्यान में भी सगुण और निर्गुण का भेद है। योगतत्त्वोपनिषद् में आया है-
“ सगुण ध्यानमेततस्याादणिमादि गुणप्रदम् ।
निर्गुणध्यानयुक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत् ।।”
सगुण ध्यान में भी स्थूल-सूक्ष्मादिक भेद है। सगुण ध्यान से अणिमा आदि सिद्धियों की प्राप्ति होती है और निर्गुण ध्यान से युक्त को समाधि मिलती है। ज्ञातव्य है कि समाधि योग का आठवाँ अंग है; यथा-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। रामचरितमानस में आया है-
“ तब सिब सहज स्वरूप सँभारा ।
लागि समाधि अखण्ड अपारा ।।”
जो समाधि को प्राप्त करते हैं, वे कर्ममंडल को पार कर जाते हैं। कर्ममंडल को पार कर जाने के कारण वे पाप-पुण्य-दोनों से ऊपर उठ जाते हैं। फिर उनको पाप का फल नहीं लगता और न पुण्य का ही फल लगता है। पाप से नरक होता है और पुण्य से स्वर्ग होता है। समाधि-प्राप्त जन नरक-स्वर्ग-दोनों से परे मोक्षदशा को प्राप्त कर लेते हैं। यही रास्ता संत जन बतलाते हैं। गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
“ सन्त पंथ अपबर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
कहहिं सन्त कवि कोविद, स्त्रुति पुरान सद्ग्रंथ ।।”
सन्त का जो रास्ता होता है, वह अपवर्ग का होता है अर्थात् त्रयवर्ग पर का होता है यानी अन्धकार, प्रकाश और शब्द-इन तीनों के परे है-निःशब्द। यह सन्तों का परम ध्येय है- “ निःशब्दं परमं पदम्।’ ध्यानविन्दूपनिषद् में लिखा है-
“ बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे झीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।”
त्रयवर्ग के परे चौथा पद मोक्ष कहलाता है। अर्थ धर्म, काम; इन तीनों के परे मोक्ष है। जिसको मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, वह आवागमन के चक्र से छूट जाता है। दैहिक, दैविक और भौतिक-इन त्रय तापों से मानव-सन्तप्त होते रहता है, उससे वह सदा के लिये मुक्त हो जाता है। सन्तों का रास्ता मोक्ष का है। सभी सन्तों ने यही राह बतलायी है। ‘जैसा संग वैसा रंग’ यह कहावत् अक्षरशः सत्य है। सन्त वचन है-
“ कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुण तीन ।
जैसी संगति बैठिये, तैसोई फल दीन्ह ।।”
स्वाति की बूँद होती है। वह स्वाति-बूँद जब केले के वृक्ष पर पड़ती है, तो कपूर में परिणत हो जाती है। बाँस पर गिरती है, तो वंशलोचन कहलाती है। सीपी में गिरने से उसका रूप मोती का हो जाता है। हाथी पर गिरने से गजमुक्ता हो जाती है। साँप के मुँह में गिरने से वह मणि हो जाती है। स्वाति-बूँद एक है; लेकिन स्थान-भेद से रूप और गुण में भेद हो जाता है। मकरध्वज एक दवाई होता है। तुलसी के रस में लेने से जो गुण होता है। शहद के साथ लेने से वह गुण नहीं, उसका दूसरा गुण हो जाता है। मिसरी के साथ लेने से तीसरा गुण और घृत के साथ लेने से चौथा गुण होता है। दवाई मकरध्वज एक ही है; लेकिन अनुपान-भेद से गुण-भेद हो जाता है। उसी तरह हमलोगों का मन एक है। जैसा संग करते हैं, वैसा रंग चढ़ जाता है। इसीलिये परम भक्तिन मीराबाई ने कहा था-
“ मनुवाँ रामनाम रस पीजै ।
तजि कुसंग सत्संग बैठ नित, हरि चरचा सुनि लीजै ।।”
सन्तों का संग करेंगे, तो क्या होगा? हरि-चर्चा सुनने को मिलेगी। कुसंग करेंगे, तो वहाँ कुचर्चा होगी और मन पर कुरंग चढ़ेगा। सत्संग करेंगे, तो मन पर सत्संग का सुरंग चढ़ेगा, जिससे प्रभु के पास जाने की सुरंग मिलेगी। इसीलिये ‘तजि कुसंग सत्संग बैठ नित’-परम भक्तिन मीराबाई ने कहा। हमलोगों का मन जल के समान तरल है। इसको नीचे ढरक जाने में देर नहीं लगती। समुद्र से वाष्प उठता है, पहाड़ की चोटी पर जाकर बरस जाता है; लेकिन वह जल वहाँ टिकता नहीं, नीचे की ओर आता है; पहाड़ से नीचे गिर जाता है। वह पानी नाले का संग करके छोटी नदी में चला जाता है। उसके संग से वह बड़ी नदी गंगाजी का संग करता है। गंगा भी उसको समुद्र से जाकर मिला देती है। वर्षा तो हुई पहाड़ की चोटी पर; लेकिन वह पानी वहाँ टिकता नहीं, बहुत जल्दी नीचे भाग आता है। अब जो पानी नीचे पाताल में है, उसको अगर पहाड़ पर चढ़ाना चाहें, तब बिजली चाहिये, नल चाहिये। बिना नल और बिजली के हम उस हम उस पानी को पहाड़ पर चढ़ा नहीं सकते। पहाड़ पर से पानी गिरने में कोई देर नहीं लगती; लेकिन पहाड़ पर पानी चढ़ाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसी तरह मन को नीचे गिर जाने में देर नहीं लगती; लेकिन उसको ऊँचे चढ़ाने में कठिनाई होती है। चाहिये इंजीनियर, नल और विद्युत शक्ति; तभी ऊपर चढ़ेगा। इसी तरह पतित मन के ऊर्ध्वगमन-हेतु चाहिये सत्संग, सन्त सद्गुरु का संग और उनकी सद्युक्ति। सन्त जन ही पतित को पावन करनेवाले हैं। इसीलिये सन्त तुलसी साहब ने कहा-
“ सन्त शरण जो पड़ा, ताहि का लगा ठिकाना ।
और कहीं नहिं कुशल, सकल वैराट चबाना ।।”
इसीलिये सन्तों का संग सबसे पहली भक्ति भगवान श्री राम ने बताया-‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। रामचरितमानस का एक प्रसंग सुनाऊँ। सीताजी का हरण हो चुका था। पता चला कि लंका की अशोक वाटिका में सीताजी हैं। हनुमानजी के आग्रह करने पर भी रावण ने सीता को वापस नहीं किया। संग्राम होना अवश्यम्भावी हो गया था। लंका में रावण से युद्ध करने के लिये सेना उस पार कैसे जायेगी? इसलिये पुल बन रहा था। बन्दर, भालू सब बड़े-बड़े पहाड़, वृक्ष आदि ला-लाकर देते थे। नल-नील मुख्य कारीगर थे। वे रखते जाते थे पानी पर। वे पहाड़ वृक्ष आदि सभी जैसे-के-तैसे पानी पर स्थिर रह जाते थे, डूबते नहीं थे। यह दृश्य देखकर बन्दर, भालुओं के मन में बड़ा कौतूहल हुआ। वे दौड़े चले गये भगवान श्रीराम के पास और उनसे कहा- “ भगवन्! बड़ा आश्चर्य है। हमलोग बड़े-बड़े पहाड़ों और वृक्षों को नल-नील के हाथों में ला-लाकर देते हैं। ये दोनों उन वृक्षों और पहाड़ों को जैसे ही पानी पर रखते हैं, वे सभी वैसी ही टिके रह जाते हैं, पानी में डूबते नहीं।” भगवान तो नर-शरीर में लीला करने के लिये आये ही थे। उन्होंने अपनी लीला और बढ़ा दी। पूछा- “ क्या यह बात सत्य है?” बन्दरों और भालुओं ने कहा- “ भगवन्! हमने अपनी आँखों देखी बात कही है। आप भी चलकर देखिये।” भगवान राम वहाँ से चलकर समुद्र तट पर आते हैं। देखते हैं-ठीक ही नल-नील के द्वारा जो पहाड़-वृक्षादि जैसे रखे जाते हैं, वैसे-के-वैसे वे पानी पर स्थिर रहते जाते हैं। भगवान श्रीराम ने नल-नील से पूछा- “ क्या बात है कि इतने बड़े-बड़े पहाड़ और वृक्षादि को तुम पानी पर रखते हो और वे सब-के-सब पानी के ऊपर ही रह जाते हैं। एक भी डुबता नहीं।” नल-नील ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भगवान यह सब आपकी महिमा है।’ भगवान श्रीराम ने कहा, ‘यह हमारी महिमा है?’ नल-नील ने उत्तर दिया- “ भगवन्! हाथ कंगन को आरसी क्या? एक पत्थर पानी पर रखा जाय।” एक बन्दर ने पत्थर का एक छोटा-सा टुकड़ा भगवान के हाथ में दिया। भगवान उस पत्थर को लेकर जैसे ही पानी पर रखते हैं, वह गड़ागड़ाकर नीचे चला गया। भगवान श्रीराम कहते हैं- “ नल-नील! तुमलोग कहते थे कि मेरी महिमा से ये सभी पत्थर-वृक्षादि पानी पर तैर रहे हैं, तो मेरे हाथ का रखा हुआ छोटा-सा पत्थर का टुकड़ा पाताल कैसे चला गया?” श्लेष भाषा में नल-नील ने उत्तर दिया- “ भगवन्! यह तो जड़ पत्थर है। आपके हाथ से चेतन ब्रह्मा भी छूट जाय, तो न मालूम किस पाताल में चला जाय।” गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं-
“ देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग ।
भव भंग कारण शरण शोकहारी ।।”
हे श्रीरंग! यह जो आपका निज अंग है सत्संग, जो इसकी शरण में आता है, उसका भव-भंग हो जाता है। यह सत्संग भगवान का निज अंग है। जो सत्संग को छोड़ दे, वह किस रसातल को जायेगा, कोई ठिकाना नहीं! इसलिये सभी सन्तों और भगवन्तों ने सत्संग करने की आज्ञा दी। भगवान बुद्ध ने कहा-
“ अभिवादनसीलिस्स निच्चं बद्धापचायिनो ।
चतारो धम्मा बड्ढन्ति आयु वण्णो सुखं बलम् ।।”
अर्थात् जो बड़े को नमस्कार करते हैं, प्रणाम करते हैं, उनकी चार चीजें बढ़ती हैं-आयु, वर्ण, सुख और बल। अब प्रश्न होता है कि बड़े कौन? हमारे गुरुदेव कहा करते थे कि वृद्ध चार तरह के होते हैं। एक दूसरे होते हैं सम्बन्ध वृद्ध। सम्बन्ध में हमारे चाचा लगते हैं, लेकिन उम्र में हमसे वे छोटे हैं। उम्र में छोटे होने पर भी सम्बन्ध में बड़े हैं। इसलिये हम उनको प्रणाम करेंगे। तीसरे होते हैं-पदवृद्ध। हमारी उम्र पचास साल की है, हमारे हाकिम बाबू की उम्र तीस साल की है, फिर भी वे हमको प्रणाम नहीं करेंगे, हम उनको प्रणाम करेंगे। चौथे होते हैं ज्ञानवृद्ध। ज्ञान में वे विशेष होत हैं, चाहे उम्र में वे कम ही हैं। संत ज्ञानेश्वर की उम्र चौदह साल की थी। उन्हीं के समय में एक बहुत बड़े हठयोगी थे। उनका नाम था चाँगदेव जी। उनकी उम्र थी चौदह सौ साल की। वे यात्र करते थे, तो उनकी सवारी होती थी सिंह की। सिंह की सवारी पर जिस रास्ते से वे चलते थे, झूण्ड-के-झूण्ड लोग देखने के लिये आ जाते थे। चाँगदेव जी को मालूम हुआ कि सन्त ज्ञानेश्वर नाम के एक बहुत बड़े पहुँचे हुए महात्मा हैं। उनसे भेंट करने की इच्छा हुई। इन्होंने एक पत्र लिखा संत ज्ञानेश्वरजी को। पत्र-लिखने का ढंग उनका निराला था। हमलोग अपने से बड़े को प्रणाम लिखते हैं और छोटे रहते हैं, तो आशीर्वाद लिखते हैं। लेकिन उन्होंने जो पत्र लिखा, उसमें उन्होंने न तो प्रणाम लिखा और न आशीर्वाद ही। केवल कार्यक्रम लिखा कि हम फलॉने समय आपसे भेंट करने के लिये आ रहे हैं। यह इसलिए कि उनके मन में हुआ कि हम तो चौदह सौ साल के हैं और वे चौदह साल के हैं, तो हम प्रणाम कैसे लिखें। और फिर यह भी उन्होंने सुन रखा था कि वे बहुत बड़े ज्ञानी हैं, आशीर्वाद भी कैसे लिखें। एक सज्जन पत्र लेकर आये और सन्त श्री ज्ञानेश्वरजी को दिया। एक मकान बन रहा था, जिसकी दीवाल अभी थोड़ी-सी ऊपर उठी थी। उसी पर सन्त ज्ञानेश्वरजी बैठे हुए थे। उनकी बहन मुक्ताबाई भी बगल में बैठी हुई थी। पत्र वाहक द्वारा पत्र पाकर संत ज्ञानेश्वरजी महाराज ने स्वयं पढ़ा और उस पत्र को उन्होंने बढ़ा दिया मुक्ताबाई की तरफ। पत्र पढ़कर मुक्ताबाई कहती है- “ भैया! जिस तरह का पत्र आया है, इसका उत्तर भी उसी तरह का होना चाहिये।” सन्त ज्ञानेश्वरजी ने कहा- “ ठीक है।” जिस दीवाल पर ये बैठे हुए थे, उस दीवाल से कहा-‘चलो, महात्मा चाँगदेव जी से मिलने के लिए।” दीवाल चल पड़ी। इधर से दीवाल की सवारी पर ये जा हैं, उधर से वे सिंह पर आ रहे हैं। सन्त ज्ञानेश्वरजी बेजान दीवाल पर सवार थे और महात्मा चाँगदेव जानदार सिंह पर। एक तरफ से दीवाल जा रही है, दूसरी तरफ से सिंह-सवारी आ रही है। रास्ते में एक-दूसरे से भेंट हुई। सन्त ज्ञानेश्वरजी को दीवाल की सवारी पर देखकर महात्मा चाँगदेव अपनी सिंह की सवारी से नीचे उत्तर गये और उनके श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित कर उनको गुरु धारण करते हैं। चौदह वर्ष की उम्रवाले। को गुरु धारण करते हैं, चौदह सौ वर्ष की उम्रवाले। (श्रोताओं की ओर से ‘सद्गुरु महाराज की जय, का नारा) ये ज्ञानवृद्ध होते हैं। ज्ञानवृद्ध सबसे विशेष होते हैं।
महर्षि व्यासपुत्र श्री शुकदेवजी कम उम्र के थे, लेकिन जिस सभा में वे जाते थे, उस सभा के लोग उनके स्वागत में खड़े हो जाते थे। सन्त की महिमा गाते हुए सन्त पलटूदासजी ने लिखा-
“ सबसे बड़े हैं संत दूसरा नाम है ।
तीजै दस अवतार तिन्हें परनाम है ।।
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल अवतार हैं ।
अरे हाँ रे पलटू सबके ऊपर
संत मुकुट सरदार हैं ।।”
और भी स्पष्ट करते हुए पुनः उन्होंने कहा-
“ बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।
संतन किया बिचार, ज्ञान का दीपक लीन्हा ।
देवता तेंतीस कोट, नजर में सबको चीन्हा ।।
सबका खंडन किया, खोजि के तीनि निकारा ।
तीनों में दुइ सही, मुत्तिफ़ का एकै द्वारा ।।
हरि को लिया निकारि, बहुरि तिन मंत्र बिचारा ।
हरि हैं गुण के बीच, संत हैं गुण से न्यारा ।।
पलटू प्रथमै संत जन, दूजे हैं करतार ।
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।”
इसीलिए भी शबरी जी को नवधा भक्ति का उपदेश करते हुए भगवान श्रीराम ने कहा था-
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोते संत अधिक करि लेखा ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज उसी तरह उच्च कोटि के पहुँचे हुए सन्त थे। उनकी जयन्ती मनाने के लिये हमलोग यहाँ एकत्र हुए हैं। उनका जो ज्ञान है, उनके महान ज्ञान को हम धारण करें, जिससे जीवन कल्याणमय होगा। उन्होंने अमुक जगह जन्म लिया, अमुक उनके पिता थे, अमुक उनकी माता थी। लालन-पालन इस तरह हुआ। यह तो एक साधारण जीवनी है। असली जीवनी तो उनकी यह है कि उन्होंने क्या किया?
जिस समय यह देश परतंत्रता की बेड़ी में बेतरह जकड़ा था और आपस में फुट के कारण विदेशी यहाँ के धन-जनादि को लूट रहे थे। यहाँ तक कि सही धार्मिक भावना भी लुप्तप्राय होती जा रही थी। आत्मज्ञान छोड़कर लोग बहुदेव-उपासना में लगे थे। शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर, गाणपत्य आदि-ये सब अपने-अपने इष्ट को बड़ा और दूसरे के इष्ट को छोटा बताकर आपस में लड़-झगड़ रहे थे, उसी समय समन्वयवादी संत गोस्वामी तुलसीदासजी का अवतरण इस अवनितल पर हुआ था। उन्होंने रामचरितमानस में कथानक के माध्यम से सिद्ध करके दिखलाया कि जो गाणपत्य श्रीगणेशजी को बड़ा बताकर अन्यों को छोटा बताते हैं, उनको जानना चाहिए कि गणेशजी से बड़े शिवजी हैं; क्योंकि शिवजी गणेश के पिता हैं। जो शैव शिवजी को बड़ा बताकर गणेशजी को छोटा बताते थे, उनके लिए उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि शिवजी के विवाह के पूर्व से ही गणेशजी की पूजा चली आ रही है। भवानी और शंकर दोनों ने उनकी पूजा की है; यथा-
“ मुनि अनुसासन गनपतिहि, पूजे सम्भु भवानी ।
सुनि आचरज करहि जनि, सुर अनादि जिय जानि ।।”
जो वैष्णव विष्णु को बड़ा मानकर शिवजी को घृणा की दृष्टि से देखते थे, उनके लिए उन्होंने बताया कि देखो, भगवान श्रीराम विष्णु के अवतार थे। लंका पर चढ़ाई करने के लिए समुद्र पर जो सेतु निर्मित हुआ था, वहाँ श्रीशंकरजी की आराधना-पूजा करने के पश्चात् ही श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करके लंकापति रावण पर विजय प्राप्त की थी। जो कोई शैव शिवजी को बड़ा मानकर भगवान विष्णु का तिरस्कार करते थे, उनके लिए उन्होंने बताया-देखो, श्री शिवजी श्रीराम को अपना इष्ट मानते थे और श्री सीताजी को मातृवत्। यही हेतु है कि जब सती ने श्रीसीताजी का रूप धारण कर श्रीराम की परीक्षा ली थी कि सही में ये भगवान हैं या नहीं और जब शिव जी ध्यानस्थ होकर सतीजी के इस कार्य- कलाप से अभिज्ञ हुए, तो उन्होंने सती-जैसी पत्नी का भी परित्याग कर दिया।
इसी प्रकार इष्टों में किसी को छोटा और किसी को बड़ा बताने के भेद-भाव को मिटाकर गोस्वामीजी ने सामंजस्य स्थापित किया। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि जाति विशेष होने से ही कोई विशेष नहीं होता, जिसमें भगवद्भक्ति विराजती है, वह विशेष होता है। जाति-पाँति, धन-बल, जन-बल, ऐश्वर्यादि को निस्सार बताते हुए उन्होंने ईश्वर-भक्ति को सार बताया; यथा-
“ जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
धन बल परिजन गुन चतुराई ।।
भक्ति हीन नर सोहइ कैसा ।
बिनु जल वारिद देखिय जैसा ।।”
परमात्म-भक्ति के वेशधारी बनावटी साधु, जिसको जगत् से विराग नहीं, प्रभु-पद में अनुराग नहीं, की भर्त्सना करते हुए गोस्वामीजी ने कहा-
“ बहु दाम सँवारहिं धाम जती ।
विषया हरि लीन्ह न रहि विरती ।।”
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामजी को भगवान का अवतार बताकर गोस्वामीजी ने लोक-व्यवहार में उन्हें एक आदर्श पुरुष के रूप में रखा। पिता के साथ पुत्र का संबंध कैसा होना चाहिए? जैसे राजा दशरथ जी के साथ श्रीराम का। भाई-भाई का संबंध कैसा होना चाहिए? जैसे भरत और श्रीराम का। पति-पत्नी का संबंध कैसा होना चाहिए? जैसे श्रीसीताजी के साथ श्रीराम का। प्रजा के साथ राजा का संबंध कैसा होना चाहिए? जैसे श्रीराम का। प्रजा की सारी लौकिक सुख-सुविधाओं के साथ पारलौकिक कल्याण की शिक्षा-दीक्षा भगवान श्रीराम ने उनको दी, आदि।
हमलोगों को भी उसी तरह ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए, जिस तरह भक्ति गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने की। भगवान श्रीराम के वे अनन्य भक्त थे। भगवान श्रीराम की भक्ति करके उन्होंने मुक्ति पायी। उसी तरह हमलोगों को भी चाहिए कि ईश्वर की भक्ति करके इस मानव-जीवन को कल्याणमय बनावें। गोस्वामीजी संत कवि थे। उन्होंने जागतिक जन को लौकिक और पारलौकिक-उभय प्रकार की शिक्षा दी।
मैं आपलोगों की श्रद्धा-भक्ति की प्रशंसा करता हूँ और आपलोगों की शुभ उन्नति के लिए शुभकामना करता हूँ। इस जयन्ती के माध्यम से आपलोग मुझे बुला लेते हैं। आपलोगों के दर्शन से मुझे प्रसन्नता होती है। धन्यवाद!
महर्षि सन्तसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन भागलपुर नगर के राम-जानकी मन्दिर में दिनांक
14-09-1994 ई0 को गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज की जयन्ती के अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, नवम्बर 1994 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों की ओर से मुझ अकिंचन का अभिनन्दन किया गया है। मैं आप सभी लोगों का अभिवन्दन करता हूँ। मैं इस योग्य नहीं कि मेरा अभिनंदन हो, फिर भी आपलोगों का उदार हृदय दूसरे को भी उदारता की दृष्टि से देखता है। भला ऐसा क्यों न हो, रामराज्य के निवासी के लिये परोपकारी और उदार होना स्वाभाविक है। रामराज्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी जी ने लिखा है-
‘सब उदार सब पर उपकारी।’
प्राचीन समय की बात है। श्रीव्यासदेवजी ने
युधिष्ठिर और दुर्योधन को बुलाकर कहा-‘युधिष्ठिर! तुम दिनभर में एक दुर्जन को खोजकर लाओ’ और दुर्योधन से कहा-‘तुम दिनभर में एक सज्जन को खोजकर लाओ’ व्यासदेव के आज्ञापालनार्थ दोनों निकल पड़े, संध्याकाल दोनों-के-दोनों खाली हाथ व्यासदेवजी के पास लौटकर आये। श्रीयुधिष्ठिर महाराज को कहीं दुर्जन से भेंट नहीं हुई और न दुर्योधन को किसी सज्जन से। वास्तविक बात यह है कि जो जिस प्रकृति के लोग होते हैं, दूसरों को वे उसी दृष्टि से देखा करते हैं। उसी तरह आपलोगों ने जिन शब्दों से मेरा अभिनन्दन किया है, वे सब सद्गुण आपलोगों में है, न कि मुझमें।
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ सन्तमत का सत्संग होगा। संतमत कोई नया मत, नया धर्म, नया मजहब, नया सम्प्रदाय या नया रिलीजन (त्मसपहपवद) नहीं है। यह तो परम पुरातन, परम सनातन वैदिक मत है। वैदिक मत होते हुए भी संतमत किसी अवैदिक मत से राग-द्वेष अथवा घृणा नहीं करता। संतमत किसी भी धर्म का खण्डन नहीं करता, बल्कि अपना आदर्श सबके सामने रखता है।
एक समय की बात है। बादशाह अकबर ने बीरबल से पूछा-‘बीरबल! तुमसे जो कोई कुछ पूछते हैं, तो तुम उसका सटीक उत्तर दे देते हो, बतलाओ तुम कितने पढ़े-लिखे हो? बीरबल ने कहा-‘जहाँपनाह थोड़ा बहुत, बादशाह ने कहा एक बात बोलो, थोड़ा अथवा बहुत। बीरबल ने कहा-जहाँ मुझसे अधिक पढ़े-लिखे लोग होते हैं, वहाँ मैं थोड़ा हो जाता हूँ, और जहाँ मुझसे कम पढ़े-लिखे लोग होते हैं वहाँ मैं अधिक हो जाता हूँ। इसलिए मैंने कहा थोड़ा-बहुत। बादशाह ने कहा-तुम बात तो बहुत बनाना जानते हो अच्छा, मैं एक रेखा खींचता हूँ, तुम इस रेखा का स्पर्श नहीं करो-‘इसको मेटो नहीं, किन्तु छोटी बना दो’। बीरबल ने उस रेखा के निकट ही उससे बड़ी समान्तर रेखा खींच दी और कहा, “ जहाँपनाह! देखिये आपकी रेखा का मैंने स्पर्श नहीं किया। मेटा नहीं, किन्तु फिर भी वह छोटी हो गयी।’ इसी प्रकार संतमत किसी भी धर्म को मेटता नहीं, समान रूप से सबका सम्मान करता है, अपना आदर्श सबके सामने रखता है। संतमत क्या है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ सन्त संग अपबर्ग कर, कामी भव कर पन्थ ।
कहहिं सन्त कबि कोबिद, श्रुति पुरान सदग्रन्थ ।।”
अपवर्ग कहते हैं मोक्ष को-छुटकारा को। जैसे कोई रोग-ग्रसित व्यक्ति रोग-मुक्त हो जाए; कोई कारागार-बद्ध प्राणी कारागार से मुक्त हो जाए आदि, इसी प्रकार दैहिक, दैविक और भौतिक त्रितापों से संतप्त प्राणी इनसे छुटकारा पा जाए, यह मुक्ति है। यह संतों का ज्ञान है। आज आधिभौतिक विज्ञान में विलास की बहुत सारी चीजें उपलब्ध हैं। एक जमाना था जबकि कुएँ से पानी खींचकर निकाला जाता था। अब वह बात नहीं है। बटन दबाने मात्र से पानी आ जाता है, पंखा चलने लगता है। यहाँ बैठे हम अमेरिका के लोगों से बात कर लेते हैं, थोड़ी देर में हजारों मील की दूरी तय कर लेते हैं आदि। किन्तु सारी सुविधाओं के होते हुए भी हम दुःखी हैं, पीड़ित हैं। एक दिन एक सज्जन मुझसे कह रहे थे, ‘बाबा! ऐसा कोई घर नहीं, जिस घर में कोई समस्या नहीं। मैंने कहा, महाशय! आप तो हर घर की बात कहते हैं। मैं कहता हूँ, संसार में ऐसा कोई सर नहीं, जिस सर में कोई समस्या नहीं। आज हर घर की ही समस्या नहीं रही, बल्कि हर सर की समस्या हो गयी है। दुःख, क्लेश, वैमनस्य इसके मूल में छिपा हुआ है। संतों का अकाट्य कथन है-आध्यात्मिकता से ही शांति आएगी, परम कल्याण होगा; शाश्वत सुख मिलेगा। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
“ राकापति षोड़स उअहिं, तारागण समुदाय ।
सकलन्ह गिरिन्ह दब लाइये, बिनु रवि राति न जाय ।।”
“ ऐसे बिनु हरिभजन खगेसा ।
मिटहिं न जीवन केर कलेसा ।।”
सोलहो कलाओं से युक्त सोलह चन्द्रमा आकाश में उदित हों, आकाश-स्थित सारे तारे उग आवें, पृथ्वी पर सारे पहाड़ों और जंगलों में आग लगा दी जाए, कल्पना कीजिए, कितना अधिक प्रकाश होगा! फिर भी बिना सूर्योदय के रात्रि का नाश नहीं होगा। कागभुशुण्डिजी गरुड़जी से कहते हैं, हे गरुड़जी! इसी तरह से जबतक कोई परमात्मा का भजन नहीं करेगा, प्रभु की भक्ति नहीं करेगा, प्रभु का साक्षात्कार नहीं कर लेगा। तबतक दुःख दूर नहीं होगा; क्लेश निःशेष नहीं होगा। किसी सुभाषितकार ने बड़ा अच्छा कहा है- “ असन के लिए नाना प्रकार के अन्न, फल, मेवा, मिष्टान्न, दुग्ध, दही, मक्खन, घृत आदि से भरा भंडार हो; वसन के लिए जाड़े, गर्मी, वर्षा आदि ऋतुओं के अनुकूल ऊनी, सूती, रेशमी, मलमल, मखमल आदि अच्छे-से-अच्छे कपड़ों का आगार हो; निवास के लिए गगनचुम्बी अट्टालिका खिड़कीदार और हवादार हो; मन बहलाव सवारी के लिए वातानुकूलित अत्याधुनिक कार हो; दरबार के सामने रंग-बिरंगे खिले- अधखिले फूलों की कतारें हजारों-हजार हों; परिवार में परस्पर दम्पति का प्यार हो; कामिनी के कंचन किंकिणी, नुपूर एवं पायल की झनकार हो; प्रांगण में नन्हें-मुन्ने की किलकार हो; सोने, चाँदी, हीरा, मोती, जवाहिरात आदि की टंकार हो; पद-प्रतिष्ठा और पैसे के कारण संसार में जय-जयकार हो; लेकिन यदि पालन सदाचार न हो तो सारा जीवन हाहाकार हो।”
इसलिए ईश्वर-भक्ति कीजिए। ईश्वर की भक्ति में सांसारिक सुख स्वतः आ जाता है। इसके लिये अलग से कोई परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। जैसे जब हम किसी दुकान पर कपड़ा खरीदने के लिए जाते हैं, तो दुकानदार को हम कपड़े की कीमत चुकाते हैं; किन्तु दुकानदार कपड़े को एक थैले में रखकर देता है। इसी तरह ईश्वर की भक्ति करनेवाले को सांसारिक सुख आप-ही-आप आ जाता है। आप कहेंगे कि बनिया बड़ा चालाक होता है। वह तो कपड़े ही में थैले का मूल्य चुका लेता है। मैं कहूँगा कि हमारा प्रभु भी उससे कम कुशल बनिया नहीं है। वह तो भक्ति में ही सब कुछ चुका लेता है। वह ईश्वर स्वरूपतः है क्या? यह समझना अत्यावश्यक है। संतों ने एक स्वर से कहा है-वह ईश्वर मन-वचन से अगोचर है। कठोपनिषद् में आया है-
“ वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।”
अर्थात्-जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
विचारणीय विषय है-एक लंबे बैलून में जब हम हवा भरते हैं, तो वहाँ वह बैलून की आकार की लंबी हो जाती है, साइकिल के चक्के में हवा भरते हैं, तो वह चक्राकार हो जाती है। एक फुटबॉल में हवा भरते हैं, तो वह गोलाकार हो जाती है। वास्तव में हवा न लंबाकार है, न चक्राकार है, न गोलाकार है। हवा का क्या रूप है? सबमें रहकर सभी रूपों के समान होते हुए सबसे पृथक् है, उसी प्रकार परमात्मा सब रूपों में सर्वरूपी होते हुए सबसे भिन्न है। वस्तुतः वह कैसा है? वर्णनातीत है। हवा का रूप नहीं, वह अरूपी है। इसी प्रकार सर्वेश्वर के लिए समझना चाहिए। ‘प्रभु हैं सर्वदेशी और अदेशी, व्यापकपनहु परे।’ (महर्षि मेँहीँ-पदावली) तथा ‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत इति वासना धूप दीजै।’ (गो0 तुलसीदास कृत विनयपत्रिका) दूर की बात को तो जाने दीजिए, अपने शरीर को ही लीजिए। यह शरीर पाँच तत्त्वों के मिश्रण से बना है।
“ क्षिति जल पावक गगन समीरा ।
पंच रचित यह अधम शरीरा ।।”
(रामचरितमानस)
इन पाँच तत्त्वों में से मिट्टी, जल और अग्नि; इन तीन तत्त्वों को हम देख पाते हैं, हवा और आकाश को नहीं। बात ऐसी है कि जो पहले का तत्त्व हेाता है, वह अपनी सूक्ष्मता के कारण अपने बाद के तत्त्वों में व्यापक होकर अपना मंडल ऊपर रखता है। आकाश इन पाँचो तत्त्वों में सबसे पहले का है। इसलिए यह अपने पश्चात् के सभी तत्त्वों में व्याप्त होकर उनसे अपना मंडल ऊपर रखता है। गगन के पश्चात् पवन तत्त्व बना है। हवा को हम देखते नहीं हैं; किन्तु उसका हमें स्पर्श होता है। परन्तु आकाश को तो हम स्पर्श भी नहीं करते और न देख ही सकते हैं; क्योंकि पवन से पूर्व का गगन तत्त्व है, फिर जो सबसे पूर्व का परमात्मा है, वह इन्द्रिय-अगोचर तत्त्व लोचन-गोचर कैसे हो सकता है? मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम वनवास काल में जब श्रीवाल्मीकि मुनि के आश्रम में पहुँचते हैं, तो उनसे वे पूछते हैं कि मैं कहाँ रहूँ? इसपर मुनिजी कहते हैं-
“ पूँछेहू मोहि कि रटऊँ कहँ, मैं पूछत सकुचाउँ ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि, तुम्हहि दिखावऊँ ठाउँ ।।”
फिर उनसे उनके स्वरूप की चर्चा करते हुए कहते हैं-
“ राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति-नेति नित निगम कह ।।”
एक होता है रूप, दूसरा होता है सरूप और तीसरा होता है स्वरूप। रूप को कहते हैं, जो नेत्रेन्द्रिय से ग्रहण हो। सरूप=रूप सहित। स्वरूप=निजरूप। निजरूप के विषय में गोस्वामी जी ने विनयपत्रिका में लिखा है-
“ अनुराग सो निजरूप जो, जग तें विलच्छन देखिये ।
सन्तोष सम सीतल सदा दम, देहवन्त न लेखिये ।।
निर्मल निरामय एकरस, तेहि हरष सोक न व्यापई ।
त्रयलोक पावन सो सदा, जाकी दसा ऐसी भई ।।”
प्रभु का निज रूप, वह संसार से विलक्षण है। उसको हम इन आँखों से नहीं देख सकते। किसी सुभाषितकार ने कहा है-
“ इस नजर से हवा भी न दिखलायेगी ।
इससे परमात्मा दीखे हँसी आयेगी ।।”
गुरु नानक साहब ने ईश्वर-स्वरूप के संबंध में कहा है-
“ अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर विटहु कुरबाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ, साचे सबदि नीसाणु।।”
परम प्रभु परमात्मा इन्द्रियगोचर क्यों नहीं है, इस विषय को हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं। एक दीवाल-घड़ी होती है और दूसरी हाथ-घड़ी। दीवाल-घड़ी में जितने कल-पुर्जे होते हैं, हाथ-घड़ी में भी उतने ही होते हैं। इसी प्रकार दीवाल-घड़ी के कल-पुर्जों को खोलने और लगाने के लिये जिन-जिन औजारों की आवश्यकता पड़ती है, हाथ-घड़ी को खोलने और बंद करने के लिए भी उतने ही औजारों की आवश्यकता पड़ती है। किंतु दीवाल-घड़ी के औजारों से हाथ की घड़ी के कल-पुर्जों को खोल और लगा नहीं सकते; क्योंकि दीवाल-घड़ी के औजार बड़े और मोटे होंगे, जबकि हाथ-घड़ी के औजार छोटे और सूक्ष्म। स्थूल यंत्र के द्वारा सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता। हमारी इन्द्रियाँ मोटी-मोटी हैं और परमात्मा सूक्ष्मतम। इसलिए इन्द्रियों के द्वारा परमात्मा की पकड़ या पहचान नहीं हो सकती। एक और भी उपमा हम लें। दूध में घृत होता है; किन्तु दूध से हम पूड़ियाँ नहीं छान सकते। उसी दूध को मथकर जब हम घृत को पृथक् कर लेते हैं, तब उसे पूड़ियाँ छानते हैं। इसी प्रकार जबतक हम जड़ और चेतन दोनों मिश्रित हैं, परमात्मा को प्राप्त कर लेंगे, तभी परमात्मा की प्राप्ति होगी। ब्रह्मानंद स्वामी ने कहा है-
“ जिमि दूध के मथन है, निकसत है घी जतन से ।
तिमि ध्यान की लगन से, पर ब्रह्म ले निहारा ।।”
किसी फकीर का कथन है-
“ इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ।
इबादत है किसी बरबाद को फिर आबाद कर देना ।।
यही सीखा है सागर हमने मुर्शद के कदम छूकर ।
खुदा से हो अगर मिलना पता खुद का लगा लेना ।।”
जबतक हमें खुद का पता नहीं लगेगा, तबतक खुदा का पता नहीं लगेगा। सहजोबाई ने भी कहा है-
‘आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही ।।’
अपनी खोज कब होगी? किस अवस्था में होगी, इसका पता गोस्वामीजी ने बतायी है-
“ तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।”
हम तीन अवस्थाओं में प्रतिदिन जाते-आते रहते हैं। जबतक हम इन तीन अवस्थाओं में आते-जाते रहेंगे, प्रभु नहीं मिलेंगे। गोस्वामीजी इन तीन अवस्थाओं से चौथी अवस्था में जाने की प्रेरणा देते हैं। ये तीन अवस्थाएँ-जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। जाग्रत में हम चौदह इन्द्रियों के साथ रहते हैं। पाँच कमेन्द्रियों-हाथ, पाँव, मुँह, लिंग और गुदा; पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-नाक, कान, आँख, त्वचा और जीभ तथा अंतर की चार इन्द्रियाँ-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। जब हम स्वप्न में जाते हैं, तो बाहर की दस इन्द्रियाँ छूट जाती हैं; किन्तु अंतर की चार इन्द्रियाँ अपना कार्य करती रहती हैं। सुषुप्ति में अंतर की तीन इन्द्रियाँ छूट जाती हैं, केवल चित्त रहता है। इन अवस्थाओं के ऊपर एक चौथी अवस्था है, जिसको तुरीय कहते हैं। इसी में रहने की सलाह गोस्वामीजी देते हैं। जबतक इन तीन अवस्थाओं में रहते हैं, इन्द्रियों के साथ स्थूल माया में रहते हैं। इन्द्रियों को जो कुछ भी प्रत्यक्ष होता है, वह माया है। भगवान श्रीराम ने श्रीलक्ष्मणजी से कहा था-
“ गो गोचर जहँ लगि मन जाई ।
सो सब माया जानहु भाई ।।”
चौथी अवस्था में अपने को कैसे ले जाएँगे? इसके लिए प्रथम मानस जप और मानस ध्यान करने के लिए संतों ने बताया है। इनके द्वारा कुछ सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव के लिए दृष्टियोग की क्रिया करनी पड़ती है। दृष्टियोग से एकविन्दुता की प्राप्ति होती है। एकविन्दुता में पूर्णसिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आवरण-भेदन होता है-तीन अवस्थाओं से छूटकर चौथी अवस्था में जाते हैं, तब अंधकार से प्रकाश में जाना होता है। पश्चात् प्रकाश से शब्द और शब्द से निःशब्द में जाया जाता है। यहाँ प्रभु मिल गये, काम समाप्त हुआ। इसी दृष्टि को अपनाकर सभी संतों ने एक स्वर से शब्द-साधना करने की सलाह दी है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रकट भये सब, सोइ शब्द गहि लीजै ।।
गुरु नानक साहब के वचन में आया है-
शब्द तत्तु बीर्ज संसार ।
शब्दु निरालमु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा ।
नानक भेदु न शब्द अलेखा ।।
शब्दै सुरति भया प्रगासा ।
सभ को करै शब्द की आसा ।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता ।
नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलु ।
बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी स्त्रिष्टि शब्द कै पाछै ।
नानक शब्द घटै घटि आछै ।।”
संत दादूदयालजी महाराज ने कहा है-
“ एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोय ।
आगैं पीछैं तौ करे, जे बलहीना होय ।।”
इसी को कुरान शरीफ में लिखा है, ‘खुदा ने कहा-हो ओर सृष्टि हो गई।’ बाइबिल में लिखा है-‘आरंभ में शब्द था। शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था।’ ‘In the beginning was the word, the word was with God and the word was God’
अंतस्साधना कर साधक स्थूल मंडल से सूक्ष्म मंडल में प्रवेश करता है। वहाँ वह केन्द्रीय शब्द को पकड़ता है। सूक्ष्म मंडल का केन्द्रीय शब्द कारण मंडल के केन्द्रीय शब्द से मिलाता है। कारण मंडल का केन्द्रीय शब्द महाकारण के केन्द्रीय शब्द से मिलाता है। महाकारण मंडल का केन्द्रीय शब्द कैवल्य मंडल के केन्द्रीय शब्द से मिलता है। इस प्रकार वह ‘अति दुर्लभ कैवल्य परम पद’ को प्राप्त करता है। वहाँ की प्रणव ध्वनि प्रभु से मिला देती है। इस पावन कार्य के सम्पादन के लिए हमारा चरित्र परम पवित्र होना चाहिए। यानी झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार का परित्याग करना आवश्यक है। एक ईश्वर-परमात्मा पर अटल विश्वास, पूर्ण भरोसा, उसकी प्राप्ति अपने अंदर होगी, इसका दृढ़ निश्चय; सत्संग तथा सद्गुरु की निष्कपट सेवा; इन पंच कर्मों के पालन के साथ-साथ अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करनी चाहिए। संतमत के उपदेशों को सार रूप में आपके समक्ष रखा। धन्यवाद!
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 23-09-1994 को भगवान श्रीराम की पुण्य स्थली अयोध्या नगरी के समीप डॉ श्रीराम मनोहर लोहिया के जन्म स्थान अकबरपुर, फैजाबाद (उत्तरप्रदेश)
में रात्रिकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी 1995 ई0)
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आदरणीय साधकवृन्द, सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोग मास-ध्यान-साधना-शिविर में साधना करने के लिए यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं। यह बड़ा अनमोल समय है। जो कोई अनमोल समय का मोल जानते हैं, वे अनमोल हो जाते हैं। और जो अनमोल समय का मोल नहीं जानते, वे अन-मोल होते हैं। लोग समय की प्रतीक्षा करते हैं; किन्तु समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। अतएव आपलोग समय का सदुपयोग करें। जिस उद्देश्य से यहाँ सब लोग समवेत हुए हैं, उस समय को इधर-उधर की बातचीत में न बितावें। ध्यान के समय ध्यान करें, सत्संग के समय सत्संग करें और जितने जो कार्य नियत किये गये हैं, उस कार्यक्रम के अनुकूल आपलोग भाग लें। दत्तचित्त होकर भजन में लगें। अनावश्यक बातों में अपने समय को बर्बाद नहीं करें। संतमत आस्तिक मत है, इसमें एक ईश्वर पर दृढ़ आस्था की बात बतलायी जाती है। उसका अस्तित्व बतलाया जाता है। हमलोग नित्यप्रति पाठ करते हैं, ‘शांति स्थिरता और निश्चलता को कहते हैं। शांति को जो प्राप्त कर लेते हैं, संत कहलाते हैं।’ वह शांतिस्वरूप क्या है-
“ शान्तिरूप सर्वेश्वर जानो ।
शब्दातीत कहि सन्त बखानो ।।
क्षर अक्षर के पार हैं येही ।
सगुण अगुण पर सकल सनेही ।।
अलख अगम अरु नाम अनामा ।
अनिर्वाच्य सब पर सुखधामा ।।
ये सब मन पर गुण इनके ही ।
पड़े महादुख संशय जेही ।।
यहि तुम्हरा निज प्रभु रे भाई ।
जहाँ तहाँ तव सदा सहाई ।।
इन्ह की भक्ति करो मन लाई ।
भक्ति भेद सतगुरु से पाई ।।”
स्थिर तत्त्व क्या है? हम देखते हैं कि एक वृक्ष है, वह स्थिर है। एक पहाड़ है, वह भी स्थिर है, चलता नहीं है, अचल है। लेकिन वास्तव में वह स्थिर नहीं है, शांत नहीं है, अस्थिर और सांत है। जो शांत पदार्थ होता है, वह सांत नहीं होता। देखने में वृक्ष यद्यपि अचल है; लेकिन वह हिलता-डोलता तो है ही; क्योंकि उसमें अवकाश है। उसके चारो तरफ अवकाश-ही-अवकाश है। ऐसा कौन-सा तत्त्व है, जिसके किसी ओर भी अवकाश नहीं हो। जो स्वरूपतः अनंत होगा, वह सर्वत्र होगा, उसके किसी ओर अवकाश नहीं होगा। ऐसा तत्त्व यदि है, तो वह ईश्वर-परमात्मा है। ईश्वर स्वरूप के लिए कठोपनिषद् में आया है-
“ वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।”
जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है। उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा सब रूपों में व्यापक होकर सब रूपों-सा दीखता हुआ भी सबसे पृथक है। जैसे फुटबॉल में हवा का रूप गोलाकार मालूम पड़ता है। मोटर के चक्के में हवा का रूप चक्राकार मालूम पड़ता है और लंबे बैलून में हवा का रूप बैलून के आकार-जैसा लंबा मालूम पड़ता है; किन्तु हवा का वह सही रूप नहीं है। पात्रभेद होने के कारण हवा के रूप में भिन्नता का भान होता है। हवा सबमें रहकर सबसे पृथक् है। उपमा का एक ही अंग लिया जाता है। इसीलिए हवा की उपमा दी गयी है। दूसरी उपमा दी गयी है अग्नि की।
“ अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।”
अग्नि की उपमा दी गयी है कि वह सर्वत्र व्यापक होकर सबसे बाहर भी है। लेकिन अग्नि की भी उपमा सब तरह से सटीक मालूम नहीं पड़ती है। इन उपमाओं की अपेक्षा आकाश की उपमा अधिक अच्छी मालूम पड़ती है। अनल और अनिल दोनों चलनात्मक हैं; किन्तु गगन अचल है। इसलिए-
“ गगनंयथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।”
जिस तरह एक ही आकाश सर्वत्र है। उसका कहीं से आना और कहीं जाना नहीं होता, उसी तरह वह परम प्रभु परमात्मा एक-ही- एक है। उसका कहीं से आना और कहीं जाना नहीं होता। आना-जाना उसका होता है, जिसमें अवकाश रहता है।
अभी आपलोगों ने पाठ में सुना, जड़ और चेतन के जो मंडल हैं, वे सब सांत हैं, अस्थिर हैं। जो सांत हैं, आदि-अंत-सहित हैं, उसका आना और जाना स्वाभाविक है। आना-जाना जिसमें लगा रहता है, वह माया है। परम प्रभु परमात्मा नहीं। कबीर साहब ने कहा-
“ आवै जाय सो माया साधो, आवै जाय सो माया ।
है प्रतिपाल काल नहिं वाको, ना कहूँ गया न आया ।।”
वह परमात्मा न कहीं जाता है और न कहीं से आता है। जड़ और चेतन; ये दोनों प्रकृत्तियाँ परम प्रभु की मौज से हुई हैं-
“ ये प्रकृति द्वय उत्पत्ति-लय, होवैं प्रभू की मौज से ।
ये अजा अनाद्या स्वयं हैं, हरगिज न कहना चाहिए ।।”
अभी आपलोगों ने वेदमंत्र में सुना, ‘जगत् प्रसवकर्ता ईश्वर का तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम बुद्धियोग अर्थात् सत्संग करें। पश्चात् मानस योग-मानस जप और मानस ध्यान करें। तत्पश्चात् अग्नि की ज्योतियों का योग अर्थात् दृष्टियोग और अंत में नादानुसंधान करें। इन साधनों के द्वारा जो जगत्-प्रसवकर्ता है, स्त्रष्टा है, जिसने सृष्टि की है, उसका अपरोक्ष ज्ञान हो जाएगा।
यह सृष्टि सान्त है, अनन्त नहीं है। संसार की जितनी भी चीजें हैं, सारी सांत-ही-सांत हैं। यदि कोई कहे कि सारे सांतों को एकत्र करने से वह अनन्त हो जाएगा, तो ऐसा नहीं हो सकता! वह सांत का बहुत बड़ा मंडल हो जाएगा; लेकिन अनंत नहीं होगा। अनंत एक-ही- एक होता है, एक से दूसरा हो ही नहीं सकता। अगर दूसरा अनंत कहा जाए, तो दोनों सांत हो जायेंगे। या यों समझिये कि वह व्यक्ति ‘अनंत’ शब्द का अर्थ ही नहीं जानता है। सारे सांतों के पार में अनंत है और वह अनंत एक-ही-एक है। उसी अनंत तत्त्व को, जो स्वरूपतः शांत है, जो कोई प्राप्त कर लेते हैं, संत कहलाते हैं। ऐसे ही संत का जो मत है, वह संतमत कहलाता है।
जड़ प्रकृति के स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण; ये चार मंडल हैं। चेतन प्रकृति का मंडल बहुत बड़ा होने पर भी सांत है। इसलिए जड़ और चेतन; दोनों प्रकृतियाँ सांत हैं। इन जड़ और चेतन प्रकृतियों के परे जो है, वह परम प्रभु परमात्मा है।
जड़ क्षर है और चेतन अक्षर है। जड़ असत् है और चेतन सत् है। जड़ सगुण है और चेतन निर्गुण है। इस प्रकार क्षर-अक्षर के परे, सत्-असत् के परे और सगुण-निर्गुण के परे जो तत्त्व है, वही परमात्म-तत्त्व है। इस विषय की परिपुष्टि श्रीमद्भगवद्गीता (अ0 15) दृढ़ता के साथ करती है-
“ द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।”
इस लोक में क्षर अर्थात् नाशवान और अक्षर अर्थात् अविनाशी, दो पुरुष हैं। भूतमात्र क्षर हैं और उसमें जो स्थिर रहनेवाला अंतर्यामी है, वह अक्षर कहलाता है।
“ उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
या लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः ।।”
इसके सिवा उत्तम पुरुष और है। वह परमात्मा कहलाता है। यह अव्यय ईश्वर तीनों लोकों में प्रवेश करके उनका पोषण करता है।
“ यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेद च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।”
क्योंकि मैं क्षर से और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिए वेदों और लोकों में पुरुषोत्तम नाम से प्रख्यात हूँ। वही पुरुषोत्तम सब तरह से अनादि और अनंत है। यों प्रकृति को अनाद्या कहा गया है; क्योंकि प्रकृति बनने से ही देश-काल बनते हैं। उस परम प्रभु परमात्मा के लिए गोस्वामी जी ने कहा है-
“ प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी ।
ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी ।।”
इसलिए वह अनादि-अनंत तत्त्व एक-ही-एक है और वही परम प्रभु परमात्मा है। यही परमात्मा का स्वरूप है। इसके अतिरिक्त जितने जो कुछ भी हैं, सब-के-सब सांत हैं। संत कबीर साहब ने कहा-
“ अखण्ड साहब का नाम और सब खण्ड है ।
खण्डित मेरु सुमेरु खण्ड ब्रह्मण्ड है ।।”
सृष्टि में जितने जो कुछ जहाँ भी हैं, सब-के-सब परम प्रभु परमात्मा के अंदर हैं। इसीलिए जो किसी के अंदर है, तो जिसके अंदर वह है, वही उसका ईश्वर है और जिसके अंदर है, वह उसके अधीन है, उसके शासन में है। जीव में, जब प्रकृति में और चेतन प्रकृति में व्यापक होकर सबके परे तथा सबका मालिक होने के कारण वह सर्वेश्वर है। सबका आधार होने के कारण वह सर्वाधार है। उसी एक ईश्वर की भक्ति करने के लिए संतमत बतलाता है। गुरुदेव ने हमलोगों को जो उपदेश और आदेश देने की कृपा है, पालन करें। भविष्य कल्याणमय होगा।
पूज्यपाद महर्षि श्रीसन्तसेवी जी महाराज का यह प्रवचन मास-ध्यान, महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 6-11-1994 ई0 के प्रातःकाल में हुआ था (शान्ति-सन्देश, फरवरी 1995 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना है-
“ बन्दउँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।”
‘गुरु’ हरि रूप यानी हरि रूप ‘गुरु’ हैं। पूज्यपाद गुरुदेव के वचन हैं-
‘गुरु हरि चरण में प्रीति हो युग काल क्या करे ।’
हम शास्त्रें में, सद्ग्रंथों में और संतों की वाणियों में पाते हैं, ‘हरि से गुरु बढ़कर हैं।’ कहीं हम पाते हैं, गुरु ब्रह्मा है, विष्णु हैं, महेश हैं। यथा ‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुदेवो महेश्वरः’ वास्तव में गुरु शरीर को नहीं, ज्ञान को कहते हैं। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।”
‘गुरु’ ज्ञान को कहते हैं। ‘गुरु’ ज्ञानदाता को कहते हैं। जिस शरीर से ज्ञान होता है, वह ‘गुरु’ का शरीर कहलाता है। जिस शरीर में ज्ञान नहीं, वह ‘गुरु’ नहीं। ज्ञान बहुत तरह के होते हैं। विद्याएँ बहुत तरह की होती हैं। जिस विद्या के जो जानकार होते हैं, वे उस विद्या के ‘गुरु’ होते हैं। वहाँ अध्यात्म-चर्चा चल रही है। इसलिए अध्यात्म-ज्ञान के जो ज्ञाता होते हैं, वे आध्यात्मिक ‘गुरु’ होते हैंं। उनसे बढ़कर और दूसरा ‘गुरु’ नहीं होता। जागतिक गुरु जागतिक ज्ञान जानते हैं। इसलिए उस ज्ञान को जानने-जनानेवाले जगत् में ही रह जाते हैं। किन्तु जो आध्यात्मिक गुरु होते हैं, वे आध्यात्मिक ज्ञान जानते हैं। वे आत्मज्ञान देकर आत्म-कल्याण कराते हैं। आत्मा का परमात्मा से संबंध जुड़ाते हैं। जीवात्मा का परमात्मा का साक्षात्कार कराते हैं और जीवन को धन्य बनाते हैं। ‘बंदऊँ गुरुपद कंज’ कहकर ‘गुरु’ के चरण कमल की वंदना की जाती है। गुरु कैसे हैं? कृपा के सिन्धु हैं। नर रूप में हरि हैं। उनके वचन सूर्य की किरण के समान हैं, जो अंधकार का शमन करते हैं, नाश करते हैं। एक तो अज्ञानता का अंधकार है। दूसरा प्रत्यक्ष अंधकार हमारे अंदर है। जब हम ‘गुरु’ के स्थूल रूप का ध्यान करते हैं और जब हम गुरु के सूक्ष्म रूप का ध्यान करते हैं, तो दोनों में अंतर होता है। यों तो आरंभ स्थूल से ही है। आगे चलकर सूक्ष्म रूप है। परम पूज्य गुरुदेव के वचन में आया है-‘प्रत्येक इष्ट के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य और शुद्ध आत्मस्वरूप हैं। जबतक शिष्य अपने इष्ट के आत्मस्वरूप का लाभ नहीं कर लेता, तबतक उसका परम कल्याण नहीं होता।’ इसलिए हम पहले मानस जप करते हैं। जप आवाहन है। जिस नाम का हम जप करते हैं, उसका रूप हमारे सामने आना चाहिए। अगर हम खीरे का नाम लेते हैं, तो तरबूज का रूप हमारे सामने नहीं आएगा। अगर हम आम का नाम लेते हैं, तो कटहल का रूप सामने नहीं आएगा। जिसका नाम हम लेते हैं, उसका रूप हमारे सामने आना चाहिए। यह स्वाभाविक है। अगर हम राम-नाम का जप करते हैं, तो राम-रूप आना चाहिए। शिव-नाम का जप करते हैं, तो शिव-रूप हमारे सामने आना चािए। या जिस इष्ट का नाम लेकर हम जप करते हैं, उस इष्ट का रूप हमारे सामने आना चाहिए। अगर हम गुरु इष्ट मंत्र का जप करते हैं, तो हमारे सामने गुरु-रूप आना चाहिए। लेकिन वह रूप तबतक नहीं आता, जबतक हमारे अंदर की सफाई नहीं हो जाती, हमारे मन में स्थिरता नहीं आ जाती। जो जल की धारा बहती रहती है अथवा जो गँदला है, उसमें परिछाईं नहीं मालूम पड़ती। जल स्वच्छ हो और स्थिर हो, तभी उसमें अपनी परिछाईं मालूम पड़ती है, अपना चेहरा मालूम पड़ता है। उसी तरह हमारा मन निश्चल हो और निश्छल हो। हम अपने मन को स्थिर करके जप करें। जप करते-करते कुछ क्षण हमारा मन एकाग्र होता है। थोड़ी-सी स्थिरता भी आती है। अब जैसे-जैसे हमारा मन साफ होता जाएगा, वैसे-वैसे इष्ट का रूप सामने आने लगेगा। अगर हमारा मन बिल्कुल साफ हो जाए, तो बिल्कुल साफ मालूम होता है। इसलिए साधनाकाल के आरंभ में ही इष्ट का स्पष्ट रूप देखने में नहीं आता है। जिस क्रम से हमारे मन की सफाई होती है, उसी क्रम से उस इष्ट का पूरा रूप सामने आता है। सोचने की बात है-जिससे हमारा जितना अधिक स्नेह होता है, उसका रूप हमारे सामने उतना ही शीघ्र आता है। दूसरी बात यह है कि जो रूप जितना अधिक पवित्र होता है, उस रूप को लाने के लिए हमारा हृदय वैसा ही पवित्र भी होना चाहिए। कोलियरी हम जाते हैं, जहाँ कोयले की खान है। मजदूर वहाँ खान से कोयला निकालता है, ट्रक पर लादता है। बोरे में भरता है। उसको अगर आप कहिये कि कोयला-चट्टान पर बैठ जाओ, वह प्रेम से उसपर बैठ जाएगा। बोरे पर कहिये बैठने के लिए, तो वह बैठ जाएगा। कोयले से ट्रक भरी हुई है, उसपर कहिये बैठने के लिए, बैठ जाएगा। क्यों? इसलिए कि उसका कपड़ा गंदा है। इसलिए गंदे स्थान में बैठने में उसको हिचकिचाहट नहीं होगी। लेकिन उसी कोलियरी में जो बाबू ऑफिस में रहते हैं, जिसके कपड़े साफ रहते हैं, उसको उस कोयले के बोरे पर, कोयले की चट्टान पर अथवा कोयले की उस ट्रक पर बैठने के लिए कहिये, वे नहीं बैठेंगे। क्यों? इसलिए कि उनका कपड़ा साफ है। उनके लिए साफ स्थान चाहिए। उसी तरह इष्ट का जो रूप होता है, वह परम पवित्र होता है। जबतक हमारा हृदय पवित्र नहीं होगा, उस रूप की झाँकी हम कैसे देखेंगे? गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ सूचै भाड़ै साचु समावै, बिरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ, नानक सरणि तुमारी ।।”
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। इसलिए साधनाकाल में सर्वप्रथम एकाग्रतापूर्वक मानस जप हो। तत्पश्चात् तदनुकूल गुरुरूप का मानस ध्यान हो। अब गुरु के सूक्ष्म रूप का भी ध्यान होना चाहिए। वही सूक्ष्म रूप ‘श्री गुरु पद नख मणि गण जोति।’ है। हमलोग नित्य पाठ करते हैं-
“ तुम्हरे जोत-स्वरूप अरु, तुम्हरे धुन-रूपा ।
परखत रहूँ निशि-दिन गुरु, करु दया अनूपा ।।”
ज्योति रूप भी उन्हीं का है और शब्द रूप भी उन्हीं का। लेकिन ज्योति रूप देखने के लिए ‘श्री गुरु पद नख मणि गण ज्योति।’ की साधना अपेक्षित है। गुरु का पद-नख कहाँ है? गुरु का पद-नख आज्ञाचक्र है। आज्ञाचक्र में अपनी दृष्टि धारों को मिलाकर जब हम एक कर सकेंगे, तब ‘मणिगण ज्योति’ की प्रत्यक्षता होगी। एक मणि नहीं, अनेक मणियों की ज्योति दिखाई पड़ेगी। तब ‘सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती’ दिव्य दृष्टि खुल जाएगी। उस अंतर्ज्योति को हम साधारण दृष्टि से नहीं देख सकेंगे। उसके लिए दिव्यदृष्टि चाहिए। दिव्य वस्तु को देखने के लिए दिव्यदृष्टि की आवश्यकता है। फिर भी उस दिव्यदृष्टि से आत्म-दर्शन नहीं होगा। आत्म-दर्शन के लिए आत्मदृष्टि चाहिए। इसलिए और आगे बढ़ना है। यहाँ पर ‘विन्दु ध्यान विधि’ के बाद ‘नाद ध्यान विधि’ की आवश्यकता होती है। जब हम अपनी दृष्टिधारों को मिला करके एक करते हैं, तो वहाँ विन्दु उत्पन्न होता है। दो रेखाओ का मिलन एक विन्दु पर होता है। हमारी दोनों दृष्टि की धारें दो रेखाएँ हैं। इन दोनों रेखाओं का जहाँ मिलन होगा, वहाँ विन्दु उत्पन्न होगा। वह विन्दु कैसा होगा? तो कलम में जिस रंग की स्याही होती है, उसी रंग का विन्दु उत्पन्न होता है। फाउंटेनपेन में काली स्याही है, तो काला चिह्न उत्पन्न होगा। लाल स्याही है, तो लाल चिह्न उत्पन्न होगा। हमारी दृष्टि की धारें प्रकाशमयी हैं। जब प्रकाशमयी धारायें गुरु-निर्देशित स्थान पर जाकर मिलेंगी, वहाँ जो विन्दु उत्पन्न होगा, वह प्रकाशमय विन्दु होगा। इस तरह की सूक्ष्म साधना करते-करते अपने अंदर की पहुँच होती है। इसलिए जब दृष्टि साधना की क्रिया कोई करते हैं, तो वे स्थूल जगत् को पार कर सूक्ष्म जगत् में प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ वे अपने इष्ट के सूक्ष्म रूप के दर्शन करते हैं। उस समय के सूक्ष्म जगत् में जहाँ भी देखना चाहेंगे, देख सकेंगे। जो सूक्ष्म जगत् को देख सकते हैं, उनके लिए स्थूल जगत् का दृश्यावलोकन साधारण मामूली-सी बात हो जाती है। जैसे कोई ऊँचे महल पर बैठा हुआ आदमी नीचे आने-जानेवालों को देखता है, उसी तरह जो अपने अंदर ऊँचे महल पर चढ़ जाते हैं, तो अंधकार से प्रकाश में चले जाते हैं, उनको स्थूल और सूक्ष्म दोनों जगत् का ज्ञान होता है। जिस तरह हमलोग स्थूल शरीर से स्थूल संसार में विचरण करते हैं, उसी तरह वे सूक्ष्म शरीर से सूक्ष्म जगत् में विचरण करते हैं और यहाँ के दृश्यों का अवलोकन करते हैं। उनकी दृष्टि बड़ी पैनी हो जाती है, जैसा कि गोसाईंजी ने कहा है-
“ यथा सुअंजन आंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखहिं सैल बन, भूतल भूरि निधान ।।”
योगशिखोपनिषद में आया है-
‘विन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात्।’
जो अपने को विन्दु पर प्रतिष्ठित कर पाते हैं, वे जहाँ भी देखना चाहें, दूर तक देख सकते हैं। हमारे गुरुदेव के वचन में भी आया है-
“ एकविन्दुता दुर्बीन हो दुर्बीन क्या करे ।
पिंड में ब्रह्मांड दरस हो बाहर में क्या फिरै ।।”
विन्दु पर प्रतिष्ठित रहनेवाले साधक का स्थूल जगत् से पूर्ण सिमटाव हो जाता है। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आवरण भेदन होता। आवरण-भेदन के कारण वृत्ति अंधकार से प्रकाश में प्रतिष्ठित हो जाती है, जहाँ दिव्य प्रकाश है। ‘ध्वनेरर्न्तगतं ज्योतिः ज्योतिन्तर्गतं मनः।’ उस प्रकाश में ध्वनि की अनुभूति होती है। वहाँ उस ध्वनि का ध्यान किया जाता है। वह इष्ट के कारण और महाकारण रूपों का ध्यान है। और, जब हम अनहद शब्दों को पार करके अनाहत शब्द का ध्यान करते हैं, बहुत शब्दों को छोड़कर जब एकमात्र सार शब्द में वृत्ति लग जाती है, तो वह इष्ट के कैवल्य रूप का ध्यान है। और जब, वृत्ति इससे भी ऊपर उठ जाती है, तब परम प्रभु परमात्मा में जा मिल करके एकमेक हो जाती है। आत्मा-परमात्मा का मेल हो जाता है। जबतक चेतन मंडल में सुरत रहती है, तबतक द्वैत रहता है। प्रभु के दर्शन होते हैं; किन्तु मिलाप नहीं होता है। जब वृत्ति शब्द को पार करके ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में पहुँच जाती है, वहाँ भिन्नता नहीं, एकता हो जाती है। आत्म-साक्षात्कार से जीव का परम कल्याण हो जाता है। जीव का जीवत्व मिट जाता है।
“ यों जिव आतम जानि जो अनहद लीन हो ।
सो परमातम होय जीवता जाय खो ।।”
हमलोगों को चाहिए कि इन वाणियों का केवल पाठ या श्रवण-मनन ही न करें, निदिध्यासन भी करें। सत्संग का सहारा तो लेना ही चाहिए। जिस काम के लिए घर-बार, कार-बार को छोड़कर आप लोग यहाँ एकत्र हुए हैं, उस काम में मनोयोगपूर्वक लग जाना चाहिए। स्वामी विवेकानंदजी ने कहा, ‘जबतक लक्ष्य की प्राप्ति न हो, उद्योग में शिथिलता मत आने दो।’ हमलोगों को भी अपने कामों में शिथिलता नहीं आने देनी चाहिए। उद्योगपूर्वक, प्रयत्नपूर्वक, परिश्रमपूर्वक सफलता प्राप्त करने के लिए उस ओर आगे बढ़ना चाहिए। बस, इतना कह कर अब अपनी वाणी को विश्राम देता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन मास-ध्यान-साधना-शिविर के अवसर पर महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 06-11-1994 के अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश मार्च, 1995 ई0)
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आदरणीय साधकगण, सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
साधक जब साधना करने के लिए बैठता है, तो उस समय वह अपने मन की चंचलता को प्रत्यक्ष पाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जब ध्यानयोग की क्रिया बतलायी, तब भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन ने यह प्रार्थना की थी-
“ चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।”
(गीता, अ0 6/34)
हे भगवन! मन को वश में करना बड़ा कठिन है। जैसे वायु की गति होती है, उसी तरह मन की गति है। वायु को वश में करना तो आसान है; लेकिन मन को वश में करना बड़ा कठिन है। भगवान श्रीकृष्ण इसके उत्तर में कहा था-
“ असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।”
(गीता, अ0 6/35)
हे अर्जुन! मैंने जो क्रिया बतलायी है, उस क्रिया का निरंतर अभ्यास करो और जगत् की ओर से मन में वैराग्य भी रखो। अभ्यास करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने जो क्रिया बतलायी थी, वह इस प्रकार है-
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
(गीता, अ0 6/13)
शरीर, गर्दन और मस्तक को सीधा, सम तथा स्थिर करके बैठने और किसी दिशा को नहीं देखते हुए नासाग्र में ध्यान करने के लिए बतलाया।
यही समस्या जब हनुमानजी के सामने आयी कि ध्यान करने में मन बहुत चंचल होता है; इस चंचल मन को वश में कैसे किया जाए, तो भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को उपदेश दिया था-
“ द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने ।
एकसि्ंमश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः ।।”
(मुक्तिकोपनिषद्, अ0 2/27)
चित्त-रूप वृक्ष के दो बीज हैं-प्राणस्पन्दन और वासना। इन दोनों में से एक के क्षीण हो जाने से दोनों ही नाश को प्राप्त होते हैं।
जैसे हमलोग खेत में चना बोते हैं। समूचा चना बोते हैं, तो उससे अंकुर निकलता है, पौधा होता है। अगर हम उस चने को दो भागों में विभक्त कर दें अर्थात् चना को तोड़कर उसकी दोनों दालों को दो तरफ कर बोयें, तो उससे अंकुर नहीं निकलेगा, पौधा नहीं होगा। उसी तरह चित्तरूप वृक्ष के दो बीज हैं। एक प्राणस्पंदन और दूसरा वासना। भगवान कहते हैं-इन दोनों में से किसी एक को क्षीण करो, तो दोनों नष्ट हो जायेंगे।
कुछ लोग प्राणायाम के द्वारा प्राण स्पंदन निरोध करते हैं। इसमें पूरक, कुम्भक और रेचक आदि क्रिया की आवश्यकता पड़ती है। इसको हठयोग कहते हैं। दूसरे प्रकार के लोग वासना-परित्याग के लिए राजयोग की क्रिया करते हैं। इसको दृष्टियोग कहते हैं। हठयोगियों का कथन है-जिस तरह जबतक पंखा चलता रहता है, तबतक हवा चलती रहती है। पंखा के बंद हो जाने पर हवा भी बंद हो जाती है। पंखा स्थूल है और हवा सूक्ष्म है। स्थूल पंखा के चलने से सूक्ष्म हवा चलती है। स्थूल पंखा के बंद होने पर सूक्ष्म हवा बंद हो जाती है। इसी तरह मन सूक्ष्म है और प्राणवायु स्थूल है। स्थूल प्राणवायु के अवरुद्ध होने से मन भी अवरुद्ध हो जाएगा। जबतक प्राण स्पन्दन है, तबतक मन चंचल है। इसलिए मन निरोध के लिए आवश्यकता है वायु निरोध की। यह कथन हठयोगियों का है। राजयोगियों का कथन है कि मनोनिरोध के लिए वायु-निरोध की आवश्यकता नहीं है। उनका कथन है-‘जब दृष्टि चंचल रहती है, तब मन भी चंचल रहता है। दृष्टि की चंचलता मिट जाती है यानी दृष्टि का काम जब बंद हो जाता है, तो मन का भी काम बंद हो जाता है।’ दृष्टि के चार भेद बतलाये गये हैं। जाग्रत की दृष्टि, स्वप्न की दृष्टि, मानस दृष्टि और दिव्य दृष्टि। प्रथम तीन दृष्टियों के निरोध से दिव्यदृष्टि खुलती है। इसके लिए हमारे गुरुदेव ने उपमाण प्रमाण के द्वारा हमलोगों को समझाने की कृपा की कि देखो-‘जब हमलोग जाग्रतावस्था में रहते हैं, तो हमारी दृष्टि काम करती है और मन भी काम करता है। जैसे अभी हमलोग जाग्रतावस्था में बैठे हुए हैं। अभी हमारी दृष्टि जहाँ-जहाँ जाएगी, मन उसके साथ-साथ जाएगा। इसका अर्थ यह हुआ कि दृष्टि काम करती है, तो मन भी काम करता है। अभी यहाँ जितने लोग बैठे हैं, जहाँ-जहाँ हमारी नजर जाएगी, जिन-जिन लोगों पर दृष्टि जाएगी, तो दृष्टि के साथ-साथ मन भी जाएगा। जाग्रत अवस्था से जब हम स्वप्नावस्था में जाते हैं, तो वहाँ वह स्थूल दृष्टि काम नहीं करती। वहाँ एक मानस दृष्टि ही कहिये वा काल्पनिक दृष्टि कहिये, रहती है। हम अपने बिछावन पर सोये रहते हैं और देखते हैं कि कलकत्ते में हम घूम रहे हैं। शरीर हमारा बिछावन पर है। आँखें हमारी बंद हैं; लेकिन वहाँ एक मनोमय शरीर है। मनोमय जगत है और काल्पनिक दृश्य है। जबतक वहाँ हमारी दृष्टि काम करती रहती है, तबतक वहाँ हमारा मन भी काम करता रहता है। जाग्रत, स्वप्न के बाद जब हम सुषुप्ति अवस्था में जाते हैं, तो उस समय वहाँ दृष्टि काम नहीं करती है, तो उस समय वहाँ मन भी काम नहीं करता है। लेकिन श्वास की गति चलती ही रहती है। गहरी नींद में हम हैं, निट्ठाह नींद में हम पड़े हुए हैं, दृष्टि का काम बंद है, तो मन का भी काम बंद है। लेकिन प्राण स्पन्दन होता रहता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि मनोनिरोध के लिए वायु निरोध की कोई आवश्यकता नहीं, दृष्टिनिरोध की आवश्यकता है। इसीलिए भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को दृष्टियोग की साधना बतलायी-
“ एकतत्त्वदृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ।।
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः ।
पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः ।।”
(मुक्तिकोपनिषद्, अ0 2)
अर्थात् हे हनुमान! जबतक मन वश में नहीं हो, तबतक एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करना। वह एक तत्त्व क्या है? जब हम जप करते हैं, तो वह एक तत्त्व नहीं है। क्योंकि जब हम किसी शब्द का उच्चारण करते हैं, तो उसमें कई अक्षर होते हैं। एक-एक अक्षर पर उसका खंड हो जाता है। इसलिए वह एक तत्त्व नहीं है। जब हम किसी रूप का ध्यान करते हैं, तो उसके भिन्न-भिन्न अवयव होते हैं। इसलिए वह भी एक तत्त्व नहीं है। एक तत्त्व वह है, जिसका खंड नहीं होता। वह है विन्दु। यही हेतु है कि भगवान श्रीराम ने दृष्टियोग की साधना द्वारा विन्दु प्राप्त करने के लिए हनुमानजी को उपदेश दिय। इस प्रकार दृष्टि स्थिर हो जाएगी, चित्तवृत्ति का निरोध हो जाएगा। और, जिस तरह हेमन्त ऋतु में कमल गल जाता है, उसी तरह भोग-वासना का क्षय हो जाएगा। जाग्रत की दृष्टि, स्वप्न की दृष्टि, मानस दृष्टि और दिव्य दृष्टि; ये चारो दृष्टियाँ जब बंद हो जाती हैं अर्थात् इन चारो दृष्टियों का काम जब बंद हो जाता है, तब आत्मदृष्टि खुलती है, जिसको पाँचवीं दृष्टि कहते हैं। दृष्टियोग की क्रिया से अंधकार मंडल में मन का पूर्ण सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आवरण-भेदन होता है और सुरत अंधकार से प्रकाश में पहुँच जाती है। वहाँ वह शब्द धार को पकड़ती है और शब्द धार के सहारे ही आगे बढ़ते-बढ़ते जड़ात्मक और चेतनात्मक, दोनों मंडलों को पार करके परम प्रभु परमात्मा तक पहुँचती है।
दृष्टियोग की क्रिया जबतक हम सही रूप में नहीं कर पायेंगे, तबतक सही में हमें अंतर्नाद की अनुभूति नहीं हो सकेगी। भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से यह भी कहा-
“ दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः ।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम् ।।”
(मुक्तिकोपनिषद्, अ0 2)
हे हनुमानजी ! दर्शन और अदर्शन को परित्याग कर कैवल्य-स्वरूप हो जाता है। वह केवल ब्रह्मज्ञानी नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्म ही है।
जबतक हम दृष्टि साधन की क्रिया करते रहते हैं, दृश्य जगत् में रहते हैं, और जब नादानु- संधान की क्रिया करते हैं, तब अदृश्य जगत् में रहते हैं। दृष्टियोग की पूर्णता और नाद योग की पूर्णता में दृश्य और अदृश्य दोनों को पार करके ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में पहुँचते हैं। वह परम प्रभु परमात्मा के धाम को पाकर जीव कृतकृत्य हो जाता है। प्रभु से मिल जाता है।
इसलिए दृष्टियोग की क्रिया हमलोग मनोयोग पूर्वक करें, जिससे मनोनिरोध होगा। यों तो मन की चंचलता बहुत है। भगवान बुद्ध ने भी कहा था कि ‘दूरंगमं एकोचरं अशरीरं गुहाशयम्’ यह अकेला ही सुदूर विचरण करनेवाला शरीर नहीं रखता है; लेकिन शरीर रूप गुहा में छिपा रहता है। इस चंचल मन को शांत करने के लिए दृष्टियोग की क्रिया है। दृष्टियेाग की क्रिया में प्राण स्पंदन अवरुद्ध स्वयं हो जाता है-
“ दृष्टि युगल कर अंगुल द्वादश पर दृढ़ थिर धरु ठहराई ।
प्राणस्पन्द बन्द होइ जाई, मनहु तजइ चंचलाई ।।”
हमारे गुरु महाराज के वचन में आया है। जब युगल दृष्टि की धारें बारह अंगुल पर स्थिर हो जाती हैं, तो श्वास की क्रिया बंद हो जाती है। संत कबीर साहब की वाणी में है-
“ सुरति मकड़िया गाड़ो हे सजनी, की आहे सजनी ।
दोनों रे नयनवा जोतिया लावहु रे की ।।”
जब दोनों दृष्टि-धारें मिल जाती हैं, तब ज्योति जगती है। दृष्टि की धारों को जो कोई बारह अंगुल पर स्थिर करते हैं, तो उस स्थिरता में प्राणस्पन्दन अवरुद्ध हो जाता है और मन की चंचलता मिट जाती है। वायु निरोध करने के लिए खास करके प्राणायाम की क्रिया करने की आवश्यकता नहीं रहती। ध्यानाभ्यास करते-करते प्राणस्पन्दन स्वतः रुद्ध हो जाता है। इसके लिए अलग से क्रिया नहीं करनी पड़ती। पातंजल योग में योग के ये आठ अंग बतलाये गये हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। राजयोगी को यम-नियम और आसन के बाद प्राणायाम करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जब वह ध्यानाभ्यास करता है, तो प्राण-स्पन्दन निरुद्ध आप ही हो जाता है। शांडिल्य उपनिषद् में कहा गया है-
“ द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे ।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।”
अर्थात् जब दृष्टि (सुरत, चेतन-वृत्ति) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो, तो प्राण का स्पन्दन निरुद्ध हो जाता है।
जो कोई खास करके प्राण स्पन्दन निरुद्ध करना चाहते हैं और हठयोग के द्वारा करना चाहते हैं। उनके लिए उसी शांडिल्योपनिषद् में लिखा है-
“ यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः ।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।।”
अर्थात्-जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे- धीरे काबू में आते हैं, किन्तु प्रकारान्तर होने से वह हानि भी पहुँचाता है। उसी तरह जब ठीक-ठीक यम-नियम का पालन करता है, तो आसन सिद्ध होता है और तब ठीक-ठीक प्राणायाम की क्रिया चलती रहती है। इन किसी में व्यवधान होने से वह अभ्यासी को भी मार डालती है। भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को यह भी बतलाया-अध्यात्म विद्या की शिक्षा, साधु संग और वासना परित्याग; इनका अभ्यास करो। इनका अभ्यास करने से प्राण स्पन्दन निरुद्ध होगा और मन की चंचलता मिटेगी। जो कोई इन सरल साधनाओं को अभ्यास नहीं करके हठयोग के द्वारा मन को वश में करना चाहते हैं, वे मदमस्त गजराज को मृणाल तन्तु में बाँधना चाहते हैं। यह मदमस्त मन साधारणतः वश में नहीं होता। इसलिए दृष्टियोग की क्रिया अत्यन्त अपेक्षित हैै। यह दृष्टियोग की क्रिया सरल और निरापद है। हठयोग की क्रिया सापद और कठिन साध्य है। इसलिए सबके करने योग्य नहीं है। राजयोग की क्रिया सबके लिए सुलभ है। हमारे गुरुदेव ने बड़े ही उदरतापूर्वक कहा है-
“ जितने मनुष तन धारि हैं, प्रभु-भक्ति कर सकते सभी ।
अन्तर व बाहर भक्ति कर, घट-पट हटाना चाहिए ।।”
इसके लिए सभी अधिकारी हैं। क्या नर, क्या नारी, क्या विद्वान, क्या अविद्वान, क्या धनी, क्या निर्धन, क्या इस देश के, क्या उस देश के, सभी कोई इसको कर सकते हैं। इसलिए दृष्टियोग की जो सही साधना है, वह जानकर हम नित्यप्रति अभ्यास करें और संसार की ओर से कुछ उपरामता भी रखें। यदि संसार की ओर से हमारी उपरामता नहीं है और हम केवल ध्यान-साधना करने के लिए बैठते हैं, तो मन में उन्हीं जागतिक बातों की उत्पत्ति होती रहती है। उस ओर मन का आकर्षण होने से ध्यान की ओर से विकर्षण हो जाएगा, ध्यान बनेगा कैसे? वास्तविक बात तो यह है कि जब जागतिक ओर से विकर्षण होगा, तब ध्यान में आकर्षण होगा। इसलिए हमलोग जागतिक चाहना की ओर से मन को मोड़कर अंतस्साधना में जोड़ दें। इसी में हमारा कल्याण है। गुरु महाराज के उपदेशों का सार थोड़े से शब्दों में मैंने कहा।
महर्षि सन्तसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक
23-11-1994 ई0 के मास-ध्यान-साधना के अवसर पर हुआ था (शान्ति-सन्देश, मई 1995 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोगों ने दो मिनट का प्रवचन सुना। ये प्रवचनकर्ता हैं-अमेरिका के रहनेवाले मिस्टर डॉन होवार्ड। ये अंग्रेजी भाषा के अच्छे विद्वान हैं। इनका जीवन बड़ा पवित्र है। यों तो अमेरिका बड़ा धनी देश है; आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न देश है; भोग-विलासों से भरा देश है। लेकिन आध्यात्मिकता का वहाँ अभाव है। ये अपने देश अमेरिका से यहाँ (भारत) उसी अध्यात्म-ज्ञान की खोज में आये थे। जिज्ञासोपरान्त आपने मुझसे दीक्षा ली है। ये साधना भी करते हैं। इनकी बड़ी निष्ठा है साधना में। इनका जीवन इतना पवित्र है कि अमेरिका के रहनेवाले होते हुए भी बाहर बाजार की बनायी हुई चीज नहीं खाते। होटलों में जो शाकाहारी भोजन बनता है, वे भी ये नहीं खाते। मैं जब दिल्ली जाता हूँ और ये मुझसे भेंट करने के लिए आते हैं, तो हमलोग जो भात-रोटी खाते हैं, इनको खिला देते हैं। ये प्रेम से खा लते हैं। दिल्ली के एक होटल में मात्र पाँच-सात घंटे रात में ठहरने एवं सोने के लिए जाते हैं। उसका शुल्क प्रति रात्रि पाँच हजार रुपये ये देते हैं। फल वगैरह बाजार में ले लेते हैं, सो खाते हैं। ये स्वयं कभी-कभी कहा करते हैं-‘मेरा शरीर तो अमेरिका है; लेकिन मेरी आत्मा भारत की है।’ (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय का नारा) इनकी जो धर्मपत्नी है, उनका नाम है-वीणा। ये मुरादाबाद के बाबू श्रीलेखराज गगनेजा की सुपुत्री है। मेरे पास ये बचपन से आती है। मैं इनको बेटी के समान प्यार करता हूँ। ये भी बड़ी धर्मशीला हैं और इनका भी जीवन इतना पवित्र है कि ये भी बाहर की बनी बनायी चीज नहीं खातीं। कुछ वर्ष पूर्व जापान में कोई सम्मेलन था, जिसमें इनकी बुलाहट हुई थी। उसमें ये गयी थीं। वहाँ सब अतिथियों के लिए सामिष भोजन बना था यानी मांस, मछली आदि की व्यवस्था की गयी थी। इन्होंने अपने को शाकाहारी बताया। इनके लिए थाली में सेब लाया गया; लेकिन सेब के ऊपर कुछ अंडे रखे हुए थे। वहाँ के लोग अंडे को शाकाहारी की श्रेणी में लेते हैं। इनके सामने जैसे ही वह थाली आयी, इन्होंने कहा, ‘मैं नहीं खाऊँगी। अंडा इसके ऊपर है।’ वहाँ के लोगों ने कहा, ‘अंडा हटा देते हैं, खाओ।’ इन्होंने कहा, ‘अंडा इसपर रखा गया है, इसलिए नहीं खाऊँगी।’ बेचारी दिनभर भूखी रहीं। ये मेरी बेटी की तरह हैं न! इसलिए मुझसे मन की बातें बतलाती हैं। जब समूचा दिन बीत गया, सन्ध्या हुई और रात होने चली, तो भूख से इनका भीतर व्याकुल होने लगा। अपनी मनःपीड़ा बेचारी कहे तो किससे? अब गुरु महाराज की देखिये क्या दया होती है! कोई साधु आते हैं और वे इनको दो सेब देते हैं खाने के लिए। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय का नारा)
ये उन दोनों सेबों को खाकर समय बिताती हैं। सम्मेलन-समापन के पश्चात् ये जापान से अमेरिका गयीं। अमेरिका में इनके भाई और उनके परिवार हैं। वे वहीं पर बस गये हैं। वीणाजी ने वहाँ से ही पी-एच0डी0 की उपाधि प्राप्त की है। मि0 डॉन और वीणा दोनों का दाम्पत्य जीवन बड़ा पवित्र है। अमेरिका में रहते हुए भी वीणाजी अपनी भारतीय संस्कृति भूली नहीं है। इनको अब एक पुत्री हुई है। उस पुत्री का नाम इन्होंने रखा है-मीरा। रहती हैं अमेरिका में; लेकिन पुत्री का अमेरिकन नाम नहीं रखकर, भारतीय नाम रखे हुई है-मीरा। हमलोगों के यहाँ भारत में आज अपने बच्चों को माता-पिता की जगह मम्मी और पापा सिखाकर अभिभावक लोग गौरव का अनुभव करते हैं। लेकिन वीणाजी सिखाती हैं अपनी बच्ची को मम्मी और पापा की जगह माताजी और पिताजी। वीणाजी विदुषी हैं। एम0ए0 द्वय हैं। पी-एच0डी0 किये हुई हैं। मिस्टर डॉन होवार्ड और वीणाजी; दोनों का बहुत अच्छा संयोग है। दोनों प्रेम से रहते हैं और अपने-अपने दैनन्दिन कार्यों की सँभाल के साथ-साथ सत्संग-ध्यान भी किया करते हैं। मैंने तो वीणाजी को आदेश भी दे दिया है कि ये अमेरिका में संतमत का प्रचार करें। ये जाती हैं सभाओं में और प्रवचन करती हैं। इनके प्रवचन से लोग बड़े प्रभावित होते हैं। कितने लोग इनके पास आते हैं समझने के लिए, बूझने के लिए कि संतमत क्या है? ध्यान क्या है? वहाँ के लोगों को इसका पता नहीं है। साधारणतः लोग आध्यात्मिक पिपासा लेकर उन बाबाजी लोगों के पास जाते हैं, जो इधर से वहाँ जाते हैं। कहावत है कि जहाँ पर कोई घना वृक्ष नहीं है, वहाँ अरण्ड का पेड़ ही बहुत मूल्यवान समझा जाता है। उसी तरह इधर-उधर से जो कोई साधु वहाँ जाते हैं, उधर के लोग तो भूखे होते हैं अध्यात्म-ज्ञान के; जो कुछ बता देते हैं, वे करने लग जाते हैं। लेकिन जब वीणाजी का प्रवचन होता है और लोग सुनते हैं, तो बड़े प्रभावित होते हैं। इनसे दीक्षा की याचना करते हैं। कितने ही दिनों तक तो इन्होंने मात्र शिक्षा दी। अब मेरी आज्ञा से कुछ लोगों को इन्होंने दीक्षा भी दी है। हजारों मील की दूरी तय करके ये दोनों (मिस्टर होवार्ड और वीणाजी) मेरे पास आये हुए हैं। दोनों में आध्यात्मिक की अच्छी अभिरुचि है। दोनों में संतमत और गुरुदेव के प्रति भी अच्छी श्रद्धा-भक्ति है। मैं इन दोनों को बहुत-बहुत आशीर्वाद देता हूँ, प्यार करता हूँ और धन्यवाद भी देता हूँ। (श्रोताओं की ओर से ‘श्रीसद्गुरु महाराज की जय’ का नारा।)
दोनों का हृदय का बड़ा विशाल है, उदार है, खुला हुआ है। मैंने कहा है कि ‘काम तो कम कीजिए और ध्यान बेशी कीजिए।’ इन्होंने कहा, ‘कोशिश करूँगा।’ इनको किसी तरह की कमी नहीं है। अपना हवाई जहाज इनको है। बड़े ही सरल स्वभाव के हैं। ऐश्वर्यवान होते हुए भी इनमें तनिक भी अभिमान नहीं है। ध्यान के संस्कार अपने-अपने जन्मों के होते हैं। उस संस्कार से भी ये संस्कृत हैं। कितने जन्मों के संस्कार इनमें आये हुए हैं, जिससे इस ओर इतनी उन्मुखता है। दोनों ही नित्य नियमित रूप से ध्यानाभ्यास किया करते हैं। वास्तव में कोई कितना ही जागतिक वैभव प्राप्त कर ले, उससे संतुष्टि नहीं होती; शांति नहीं मिलती; कल्याण नहीं होता और न परम सुख की प्राप्ति होती है। किसी सुभाषितकार ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ असन के लिए नाना प्रकार के अन्न, फल, मेवा, मिष्टान्न, दुग्ध-घृत आदि से भरा भंडार हो; वसन के लिए जाड़ा, गर्मी, वर्षा आदि ऋतुओं के अनुकूल ऊनी, सूती, रेशमी, मलमल, मखमल सभी आदि सभी प्रकार के कपड़ों का आगार हो, शयन के लिए गगनचुम्बी अट्टालिका खिड़कीदार और हवादार हो; मन बहार के लिए वातानुकूलित अत्या- धुनिक कार हो; परिसर के प्रांगण में खिले-अधखिले रंग-बिरंगे खिले-अधखिले फूलों की कतारें हजारों-हजार हों; परिवार में परस्पर दम्पति का प्यार हो; कामिनी के कंचन किंकिणी, नुपूर एवं पायल की झनकार हो, प्रांगण में नन्हें-मुन्ने की किलकार हो; सोने, चाँदी, हीरा, मोती, जवाहिरात आदि की टंकार हो, पद-प्रतिष्ठा और पैसे के कारण संसार में जय-जयकार हो; लेकिन यदि पालन सदाचार न हो तो सारा जीवन हाहाकार हो।” (श्रोताओं की ओर से ‘श्रीसद्गुरु महाराज की जय’ का नारा।)
हम अंधकार से प्रकाश में कैसे जाएँ, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कैसे हो, हम दुःख से निकलकर सुख में कैसे जाएँ; आदि का ज्ञान संतमत देता है।
अभी आपलोगों ने जो रामचरितमानस का पाठ सुना है, उसमें क्या सुना? कागभुशुण्डिजी गरुड़जी से कहते हैं-
“ निज अनुभव अब कहउँ खगेसा ।
बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा ।।”
जागतिक ऐश्वर्य चाहे कितना भी क्यों न हो, लेकिन जबतक ईश्वर का भजन नहीं करेंगे, तबतक दुःख दूर नहीं होगा। जैसे जबतक सूर्य का उदय नहीं होता, रात का अंत नहीं होता। सूर्य उदय हुआ कि रात का अंत हुआ। उसी तरह ईश्वर की भक्ति करके जो कोई ईश्वर को प्राप्त कर लेते हैं, तो उनके सारे दुःख दूर हो जाते हैं। इसलिए संतमत बतलाता है कि ईश्वर का भजन करो।
कागभुशुण्डिजी निज अनुभव की बात कहते हैं। ‘अनुभव’ किसको कहते हैं? ‘अनु’ शब्द का अर्थ ‘पीछे’ और ‘भव’ शब्द का अर्थ ‘उत्पन्न’ होता है। जो ज्ञान सबसे पीछे उत्पन्न हो, उसको अनुभव ज्ञान कहते हैं। अनुभव ज्ञान के बाद और कोई ज्ञान नहीं होता। पहले होता है श्रवण ज्ञान, उसके बाद होता है मनन ज्ञान, तत्पश्चात् होता है निदिध्यासन ज्ञान और अंत में होता है अनुभव ज्ञान। श्रवण ज्ञान के लिए बतलाया गया है कि वह साधारण अग्नि के समान है, जो साधारण जल से बुझ जाती है। हमलोगों का जो अध्ययन वा श्रवण ज्ञान है, वह सामन्य अग्नि के समान है, उसके बुझने में देर नहीं, मिटने में देर नहीं मान लीजिए रामायण की कोई एक चौपाई है। हम जो उसका अर्थ समझ रहे हैं, उसी को यदि कोई दूसरी तरह से हमको समझा देता है, तो हम समझ जाते हैं कि यही ठीक कह रहा है। श्रवण ज्ञान यहीं पर समाप्त हो जाता है। मनन ज्ञान वह है कि जैसा हम सुनते हैं, उसपर विचार करते हैं, सोचते हैं, कुछ गहराई में पैठने की चेष्टा करते हैं। यह मनन ज्ञान बिजली के समान है। यानी आकाश में बिजली चमकती है, साधारण जल से उसे बुझा नहीं सकता। लेकिन वह अधिक टिकाऊ नहीं होती, स्थिर नहीं रहती। चमकी और चली गयी। उसी तरह मनन ज्ञान है; विचार में तो आया है; लेकिन यदि हमसे कहीं कोई अधिक विचारवान है, तो उनके विचार से प्रभावित होकर हम अपने विचार को बदल सकते हैं।
एक बहुत-बड़ी सभा लगी थी, जिसमें अद्वैतवाद, द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत, शुद्धद्वैत, द्वैताद्वैती, त्रैत आदि कई ‘वाद’ के विद्वान एकत्रित थे। सबने अपने-अपने प्रवचन किये। उन प्रवचनों में दो विद्वानों-एक अद्वैतवादी और दूसरे द्वैतवादी के प्रवचन बड़े प्रभावशाली हुए। अद्वैतवादी के प्रवचन को सुनकर द्वैतवादी के मन में ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने समझा- वास्तव में अद्वैतवाद ही ठीक है। मेरा द्वैतवाद ठीक नहीं हैं तो जो द्वैतवादी थे, उन्होंने अद्वैतवाद को स्वीकार कर लिया। और द्वैतवादी ने जो अपना तर्क अद्वैतवाद के खंडन में दिया था, इससे प्रभावित होकर अद्वैतवादी ने समझ लिया कि द्वैतवाद ही सही है, हमारा अद्वैतवाद गलत है। फलतः जो अद्वैतवादी थे, वे द्वैतवादी बन गये। तो श्रवण और मनन ज्ञान की मर्यादा इतनी ही है, बुझ जाने में देर नहीं है। श्रवण अथवा अध्ययन किये हुए पर मनन करने के पश्चात् उसकी प्राप्ति के लिए जब हम साधना भ्यास करते हैं, उससे निदिध्यासन ज्ञान होता है। श्रवण से और मनन से साधन-अभ्यास का ज्ञान विशेष होता है, जैसे समुद्र में बड़वानल होता है। बड़वानल समुद्र के जल को मर्यादित रखता है; लेकिन समस्त जल का शोषण नहीं कर सकता। उसी तरह साधक जबतक निदिध्यासन ज्ञान में रहता है, तो वह संसार में मर्यादित ढंग से रहता है; लेकिन उसकी संपूर्ण माया नष्ट हो गयी हो, सारी माया समाप्त हो गयी हो, ऐसा नहीं होता; क्योंकि सारी माया को नष्ट करने के लिए निदिध्यासन ज्ञान पर्याप्त नहीं है। निदिध्यासन करते-करते जब अनुभव ज्ञान होता है, जब साधक प्रभु का साक्षात्कार कर लेता है, तब समस्त माया समाप्त हो जाता है। अर्थात् ईश्वर के संबंध में जैसा हमने सुना, उसपर विचार किया, तदनुसार ईश्वर को प्राप्त करने की साधना की और साधना करते-करते परिपूर्णता आ गयी, ईश्वर का साक्षात्कार हो गया; यह अनुभव ज्ञान कहलाता है। यह अनुभव ज्ञान महाप्रलय की अग्नि के समान है, जो द्वैत-प्रपंच को जलाकर भस्मीभूत कर देता है।
कागभुशुण्डिजी ने श्रवण, मनन और निदिध्यासन करके अनुभवज्ञान प्राप्त कर लिया था। उसी अनुभव ज्ञान के आधार पर वे कहते हैं, ‘बिना हरि भजन के दुःख का नाश नहीं होगा, क्लेश निःशेष नहीं होगा। इसलिए भगवद्भजन करो। जिज्ञासा होती है-स्वयं कागभुशुण्डिजी ने कौन-सा भजन किया था, जिससे उनको अनुभव ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसका समाधान भगवान शंकर इस भाँति करते हैं-
“ पीपर तरु तर ध्यान सो धरई ।
जाप यज्ञ पाकरि तर करई ।।
आम छाँह कर मानस पूजा ।
तजि हरि भजन काज नहिं दूजा ।।
बट तर कह हरि कथा प्रसंगा ।
आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा ।।”
अर्थात् वे जप करते थे यानी मानस पूजा करते थे। ‘आम छाँह कर मानस पूजा।’ वे मानस ध्यान भी करते थे। ‘पीपर तरु तर ध्यान सो धरई’। और ध्यान भी करते थे। वह कौन-सा ध्यान? वह दृष्टियोग की क्रिया करते थे और नादानुसंधान भी करते थे। ‘विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान विधि सरल-सरल जग में परचारी।’ इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि कागभुशुण्डिजी आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार के सत्संग करते थे। कहने का तात्पर्य यह कि कागभुशुण्डिजी मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि साधन और नादानुसंधान; ये चारो क्रियाएँ करते थे। इन चारो क्रियाओं को करके उन्होंने अनुभव ज्ञान प्राप्त किया था, परमात्मा का प्रत्यक्षीकरण किया था।
हमलोगों के भी गुरुदेवजी महाराज ने हमलोगों को मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टिसाधन और नादानुसंधान की क्रिया बतलाने की कृपा की है। हमलोगों को निष्ठापूर्वक यह अंतस्साधना करनी चाहिए और बाहर में सत्संग भी करना चाहिए। इन दोनों का एक-दूसरे के साथ संबंध जुड़ा रहेगा, तो साधना में प्रगति होगी, आत्मोन्नति होगी। यत्र-तत्र से आकर आपलोगों ने घर-बार, कारबार, रोजगार सब छोड़कर यहाँ एक महीने तक रहकर साधना की। कितने साधक मेरे पास गये और उन्होंने अपनी साधनानुभूति की बातें कहीं। सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। इतने दिनों तक साधना करके उसमें जिन्होंने जहाँ तक सफलता प्राप्त की, उनकी उतनी दूर की राह तय हो गयी। और भी जो बाकी है, मनोयोगपूर्वक साधना करेंगे, तो आगे बढ़ जायेंगे। यहाँ साधना करने की आदत डाली गयी है। यह आदत एक महीने तक की रही। इस आदत को छोड़ें नहीं, लगाये रहें। अपने घर में जाकर करते रहें। मानलिया कि गृह-कार्य-सँभाल के कारण वहाँ पाँच समय नहीं कर सकेंगे, तो जितना ही बन सके, जो समय मिले, उस समय के अनुकूल कम-से-कम त्रिकाल संध्या निश्चित रूप से करें, साथ ही सत्संग भी करें।
परम पूज्य गुरुदेवजी महाराज के आदेश को हम भूलें नहीं, सतत याद रखें-
“ सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो ।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए ।।”
इन बातों के अतिरिक्त हमलोगों को संसार में जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करनी चाहिए। आपलोगों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ! इस तरह के कठोर जाड़े में आप यहाँ रहे, जबकि यहाँ आपलोगों के रहने की सुव्यवस्था नहीं, सोने की समुचित व्यवस्था नहीं, खाने-पीने के लिए भी जैसा-तैसा, रूखा-फीका। आपलोग अपने-अपने घर में मनोऽनुकूल भोजन करते और आराम से रहते होंगे; किन्तु यहाँ आकर आपलोगों ने तपस्या की है। तपस्या का बीज आपलोगों के भीतर पड़ गया है। समय पाकर वह बीज अंकुरित होगा, पल्लवित होगा, पुष्पित होगा और एक दिन इसके बाद फल लगेगा। (श्रोताओं की ओर से बोलिये ‘श्रीसद्गुरु महाराज की जय’ का नारा।)
आपलोगों के लिए मेरी शुभकामना है। जो मुझसे अधिक बूढ़े-बुजूर्ग लोग हैं, मेरे प्रणम्य हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ। जो मुझसे आशीर्वाद के योग्य हैं, उनको आशीर्वाद करता हूँ और बाकी लोगों को मैं धन्यवाद-ज्ञापन करता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महषि मेँहीँ कुप्पाघाट, भागलपुर में मास-ध्यान-साधना के
अवसर पर दिनांक 30-11-1994 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, नवम्बर 1995 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों ने वेदमंत्र के पाठ में सुना-उस परम प्रभु परमात्मा को बाहर वा अंतर की किसी भी इन्द्रिय से हम नहीं पा सकते। बाहर की इन्द्रियाँ दस हैं, जिनमें पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। भीतर की चार इन्द्रियाँ हैं। इन चौदहो में से किसी भी इन्द्रियों के द्वारा वह ईश्वर ग्रहण होनेयोग्य नहीं है; क्योंकि वह सूक्ष्मतम है। कर्मेन्द्रियों से ज्ञानेन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं और ज्ञानेन्द्रियों से भीतर की चार इन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं; किन्तु परमात्मा सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। इन इन्द्रियों से वह ग्रहण के योग्य नहीं है; क्योंकि सूक्ष्मतम तत्त्व का ग्रहण स्थूल यन्त्रें के द्वारा सम्भव नहीं। हमारे गुरुदेव कहा करते थे कि एक घड़ी, जिसको हम दीवाल-घड़ी कहते हैं और दूसरी घड़ी, जिसको हम हाथ की घड़ी कहते हैं, दोनों के कलपूर्जे समान होते हैं। दोनों को खोलने और बन्द करने के जो औजार होते हैं, वे सभी समान होते हैं। किन्तु दीवाल की घड़ी के खोलने और बन्द करने के औजारों से हाथ की घड़ी को हम खोल या बन्द नहीं कर सकते; क्योंकि दीवाल की घड़ी के कलपुर्जे मोटे-मोटे होते हैं और हाथ की घड़ी के कलपुर्जे महीन-महीन। उसी तरह परम प्रभु परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है और हमारी इन्द्रियाँ अत्यन्त मोटी हैं। इसलिये इन्द्रियों के द्वारा वह परमात्मा प्राप्त हानेयोग्य नहीं है। दूसरी बात यह है कि हमारी इन्द्रियों में अल्पाति अल्प शक्ति है। एक इन्द्रिय के द्वारा हम एक ही काम करते हैं अर्थात् एक इन्द्रिय के लिये एक ही विषय है और वह परम प्रभु परमात्मा निर्विषय है। जिन इन्द्रियों के द्वारा हम विषयों को ग्रहण करते हैं, उन इन्द्रियों के द्वारा निर्विषय तत्त्व का ग्रहण कैसे हो सकता है? ये दोनों एक-दूसरे के उलटे-उलटे हैं। जैसे हमारी आँखें हैं, तो इन आँखों के द्वारा हम रूप को ही ग्रहण कर सकते हैं। रूप के अतिरिक्त अन्य किसी विषय का ग्रहण हम नेत्र इन्द्रिय से नहीं कर सकते। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द-ये पंच विषय हैं। इन पंच विषयों का भी हमारी सभी इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर सकतीं। यद्यपि इन्द्रियों का काम ही विषयों का ग्रहण करना है, फिर भी एक-एक इन्द्रिय के लिये एक-एक विषय निुयक्त है। एक इन्द्रिय से दूसरी इन्द्रिय का विषय ग्रहण नहीं हो सकता। आँख से हम रूप का ग्रहण कर सकते हैं। कान से शब्द का ग्रहण कर सकते हैं। नासिका से गन्ध का ग्रहण कर सकते हैं। जिभ्या से स्वाद ले सकते हैं और त्वचा से स्पर्श का ज्ञान कर सकते हैं। अब इनमें भी विविधताएँ हैं। जिसको हम रूप कहते हैं, वह रूप भी एक तरह का नहीं है; अनेक तरह के रूप हैं। उन अनेक तरह के रूपों को भी हम आँखों के अतिरिक्त और किसी इन्द्रियों से नहीं ग्रहण कर सकते। रस है। रस में भी विभिन्न प्रकार के रस हैं। उन सभी प्रकार के रसों का आस्वादन जिभ्या ही कर सकती है। गन्ध है। गन्ध में भी विभिन्नताएँ हैं। एक ही प्रकार की गंध नहीं है। जितने भी प्रकार की गन्ध हैं, उन सभी गन्धों को हम नासिका से ही ग्रहण कर सकते हैं। जितने प्रकार के स्पर्श हैं, उनका ज्ञान हम त्वचा से ही कर सकते हैं। शब्द भी अनेक प्रकार के होते हैं। उन शब्दों को हम कान से ही ग्रहण कर सकते हैं। कान का काम नाक या नाक का काम आँख या आँख का काम त्वचा नहीं कर सकती। तात्पर्य यह कि एक इन्द्रिय का काम दूसरी इन्द्रिय नहीं कर सकती, भले ही दो छिद्र कान में भी हैं और दो छिद्र नासिका में भी हैं। लेकिन नासिका का काम जो गन्ध ग्रहण करने का है, वह कर्णेन्द्रिय नहीं कर सकती या कर्णेन्द्रिय का जो विषय शब्द है, उसको नासिका ग्रहण नहीं कर सकती। उसी तरह हमारी पाँच जो कर्मेन्द्रियाँ हैं, उन पाँचो कमेन्द्रियों के लिये एक-एक विषय नियुक्त है। उसी तरह हमारे भीतर में जो हमारी चार इन्द्रियाँ हैं, इनके लिये भी एक-एक काम नियुक्त है। जैसे मन है। “ संकल्प-विकल्पात्मको मनः” यह मात्र संकल्प-विक्ल्प करेगा। बुद्धि इस पर विचार करती है। जो प्रस्ताव मन पेश करता है, उसको बुद्धि विचारती है। बुद्धि में भी जब हमारी तमोगुणी वृत्ति रहती है, तो उस समय उचित निर्णय वह नहीं कर सकती; क्योंकि तमोगुणी वृत्ति मूढ़ता उत्पन्न करती है। इसलिये उसी तरह की बात वह सोचेगी। जब रजोगुणी वृत्ति रहती है, तो बुद्धि में चंचलता रहती है और जब हमारी सात्त्विकी बुद्धि रहती है, तभी हम सत्य तत्त्व को ग्रहण कर सकते हैं; यथार्थता का बोध हो पाता है। मन के प्रस्ताव पर विचार करना बुद्धि का काम है, चाहे वह जिस वृत्ति की रहती हो। चित्त का काम स्पन्दित करना है। जैसे दीवाल-घड़ी दीवाल पर टँगी हुई है; लेकिन जबतक पेण्डुलम नहीं हिलता, सूई काम नहीं करती। पेण्डुलम हिलने के बाद सूई चलने लग जाती है। उसी तरह इन्द्रियों को संचालित करने के लिये चित्त है। यह सबको हिलाता है। जब यह हिलता है, तब इन्द्रियाँ अपने-अपने कामों को करने लग जाती हैं। चित्त-स्पन्दन होने पर ही अहं का बोध होता है; ‘मैं हूँ’ का बोध होता है। अगर चेतन-चित्त शान्त है, स्पन्दित नहीं है, तो कोई भी इन्द्रिय काम नहीं करेगी। तात्पर्य यह कि चित्त का काम है स्पन्दित करने का। अहं का काम है, ‘मैंपन’ का बोध करना। इन चारो इन्द्रियों के चारो काम भिन्न-भिन्न हैं। उस परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त करने के लिये मात्र चेतन आत्मा ही है। हम ईश्वर के अंश हैं। हम ही उसको प्राप्त कर सकते हैं और कोई दूसरा उसको प्राप्त नहीं कर सकता। दोनों सजातीय हैं; दोनों ही सूक्ष्म हैं। अभी आपलोगों ने सुना-
“ जीवात्म प्रभु का अंश है, जस अंश नभ को देखिये ।
घट मठ प्रपंचन्ह जब मिटैं, नहिं अंश कहना चाहिये ।।”
जैसे महदाकाश का ही अटूट अंश मठाकाश, घटाकाश और पटाकाश है। भिन्नता आवरण के कारण है। अगर आवरण नहीं हो, तो एक-ही-एक महदाकाश है। उसी तरह जीव के ऊपर अन्धकार, प्रकाश और शब्द के तीन आवरण हैं। ये तीनों आवरण नहीं रहें, तो जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से पूछा था- “ हनुमन्त! बतलाओ, मैं कौन हूँ और तू कौन है? मेरा और तेरा क्या सम्बन्ध है? तब हनुमानजी ने कहा था-
“ देहबुद्ध्या तु दोसोऽस्मि जीवबुद्धया त्ववंशकः ।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहमिति में निश्चितः मतिः ।।”
शरीर की दृष्टि से प्रभु! मैं आपका दास हूँ। जीव की दृष्टि से आपका अंश हूँ। आत्मा के बोध से मैं आपमें समा गया हूँ-आत्मा-परमात्मा एक है-यह मेरा निश्चित मत है।
हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
‘तुम हम दुई मिटाकर इक एक ही बना दो ।’
‘तुम’ और ‘हम’ का जो भेद है, वह आवरण के कारण ही है। एक घर बना हुआ है। घर की जो छत है, उस छत के ही कारण उसकी संज्ञा मठाकाश हुई है। छत नहीं रहे, तो मठाकाश और महदाकाश में कोई भेद नहीं। उसी तरह शामियाना लगा हुआ है। शामियाने के कारण पटाकाश हो गया है; पट का आवरण हो गया है। शामियाना हटा दीजिये, देखिएगा पटाकाश और महदाकाश एक-ही-एक है। जैसे एक घट है। घट के अन्दर का जो आकाश है, उसको हम घटाकाश कहते हैं। यदि घट फूट जाय, तो फिर उसकी संज्ञा घटाकाश नहीं रह जाएगी, एक ही महदाकाश रह जायगा। उसी तरह जीवात्मा के ऊपर स्थूल-सूक्ष्मादि-भेद से जितने मायिक आवरण है, सब आवरण हट जायँ, तो जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं, एक-ही-एक है, जो अभी आपलोगों ने सुना-ब्रह्म, ईश्वर, जीव; सब परमात्मा के अटूट अंश हैं। यह जीवात्मा ही परमात्मा के अटूट अंश है। यह जीवात्मा ही परमात्मा को प्राप्त करने में सक्षम है और कोई इन्द्रिय नहीं। इसलिये मायिक आवरणों का हटना जबतक नहीं हो सकता, तबतक परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती।
परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में है-
“ घट तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे ।
कर दृष्टि अरु ध्वनि-योग-साधन, ये हटाना चाहिये ।।
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता ।
फिर द्वैतता नहिं कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिये ।।”
अन्धकार, प्रकाश और शब्द-ये त्रय आवरण हैं। इन त्रय आवरणों को हटाने के लिये दृष्टियोग और नादानुसन्धान की साधना करनी चाहिये। जब दृष्टियोग की क्रिया से हम स्थूल जगत् से सूक्ष्म जगत् में प्रवेश करते हैं; अन्धकार से प्रकाश में प्रवेश करते हैं। वहाँ नादानुभूति होती है। उस नाद के सहारे आगे बढ़ते हैं चलते-चलते रूप-ब्रह्माण्ड को पार करके अरूप-ब्रह्माण्ड में चले जाते हैं, जहाँ शब्द-ही-शब्द है। हमारे गुरुदेव की यह अनुभूत वाणी है-
“ आगे शून्य समाधि, नाद ही नाद की ।
लहै सन्त का दास, जाहि सुधि आदि की ।।
मीठी मुरली सुन सुरत के कान से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ बड़ा कौतुहल होइ ,
ध्वनिन के ध्यान से ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
सन्त तुलसी साहब ने कहा है-
“ मुरली नाद साध मन सोवा ।
विष रस वादि विधी सब खोवा ।।”
जो अपने अन्दर के इस नाद को सुनता है, उसका मन शून्यगत हो जाता है अर्थात् विषयाभिमुख मन निर्विषय तत्त्व की ओर मुड़ जाता है। उसकी संज्ञा ‘सुरत’ हो जाती है। आगे सुरत की गति होती है। सन्त तुलसी साहब के वचन में आया है-
“ सहस कँवल दल पार में, मन बुद्धि हिराना हो ।
प्राण पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो ।।”
सुरत अनहद ध्वनियों के ध्यान से आगे बढ़कर अनाहत ध्वनि को प्राप्त करती है और परमात्मा से जा मिलती है।
अन्तःप्रकाश भी आवरण है। उपनिषद् में आया है-
“ हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्नापावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।।15।।”
-ईशावास्योपनिषद्
आदित्य-मण्डलस्य ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषण! मुझ सत्यधर्म को उसकी उपलब्धि कराने के लिये तू उसे उघाड़ दे।
नादानुसंधान की साधना से प्रकाश का आवरण हट जाता है, तब शब्द रह जाता है। वह शब्द भी आवरण है। सुरतशब्दयोग की क्रिया से वह भी हट जाता है, तब शब्दातीत पद में परम प्रभु परमात्मा से जीवात्मा मिलकर एकमेक हो जाता है।
ज्ञात हो कि अंतःप्रकाश और अंतर्नाद भी परम प्रभु परमात्मा के मायिक रूप ही है। भले ही सूक्ष्मतम माया नहीं कहकर इनको सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम माया कह सकेंगे। इन त्रयावरणों से अनावृत होने पर प्रभु-मिलन होता है; जीवात्मा और परमात्मा की एकता हो जाती है।
इन्हीं साधनाओं की सफलता पाने के लिए हम लोग यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं। हमलोग मनोयोग पूर्वक साधना करें। मन बिखरता है, उसको समेट-समेट कर अपने लक्ष्य पर लगाएँ। लक्ष्य पर लगाते-लगाते लगने लग जाता है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे-
“ झूठ मूठ खेलै सचमुच होय,
सचमुच खेलै बिरला कोय ।
जो कोइ खेलै मन चित लाय,
हायेते होयते होइये जाय ।।”
निराश होने की बात नहीं, आस रखिये। गुरु महाराज की कृपा होगी। एक-न-एक दिन निश्चित रूपेण ‘होयते होयते होइये जाय’ हो जाएगा।
(श्रोताओं की ओर से ‘श्रीसद्गुरु महाराज की जय’ की नारा)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 7-12-1994 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में मास-ध्यान-साधना के अवसर पर प्रातःकालीन सत्संग के शुभ अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अप्रैल 1997 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संसार के सभी प्राणी सुख चाहते हैं। प्राणियों में से मानव श्रेष्ठ है। यह भी सुख चाहता है। अपने दुःख के निवारणार्थ विविध प्रकार की चेष्टाएँ भी करता है; किन्तु परिणाम सबके सामने है। प्रश्नोदय होता है-इस दुःख का उपाय क्या है? मुक्तिकोपनिषद् में लिखा है-भगवान श्रीराम हनुमानजी से कहते हैं-
‘पुरुषस्य कर्तृत्वभोक्तृत्वसुखदुःखादिलक्षणश्चित्त
धर्मः क्लेशरूपत्वान्द्बधो भवति ।’
मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, यह चित्त का धर्म है। यही बंधन का कारण है और बंधन में रहकर कोई कैसे सुखी हो सकता है? उसका दुःख होना स्वाभाविक है। यही दुःख का कारण है। यदि चित्त से हम ऊपर उठ जाएँ, तो जागतिक सुख-दुःख से परे होकर परमानन्द का लाभ कर सकेंगे।
जिस तरह समुद्र में लहरें उठा करती हैं, ज्वार-भाटा हुआ करता है, उसी तरह हमलोगों के चित्त में कभी रजोगुणी, कभी तमोगुणी और कभी सतोगुणी विचार उत्पन्न होते रहते हैं। हम अपने को कर्ता मानते हैं। जब अपने को कर्ता मानेंगे, तो भोक्ता भी तो अपने को मानना ही पड़ेगा। कर्म करते हैं, फल मिलता है। अपने ही किये कर्मों का फल हमको मिलता है। कभी हम सुख का अनुभव करते हैं, तो कभी दुःख का। भगवान श्रीराम कहते हैं-मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ, मैं दुःखी हूँ और मैं सुखी हूँ-ये सब चित्त के धर्म हैं। जबतक ये चारो होते रहेंगे, तबतक हम जड़ देह के बंधन में बँधे में रहेंगे।
संसार और शरीर का घनिष्ठ संबंध है। जब हम शरीर में रहेंगे, तो संसार में भी रहेंगे। जब हम शरीर में नहीं रहेंगे, तो संसार में भी नहीं रहेंगे। जिज्ञासा होती है-एक-न-एक दिन शरीर छूटेगा ही और तब हम शरीर में नहीं रहेंगे, तो संसार में भी नहीं रहेंगे। क्या तब हम भव-बंधन से छूट जायेंगे?
उत्तर में निवेदन है-सृष्टि की ओर दृष्टि करने से इस विषय की परिपुष्टि हो जाती है कि रचना सूक्ष्मता से स्थूलता की ओर हुई है। जबतक सूक्ष्म की रचना नहीं हो, स्थूल की रचना नहीं हो सकती। हम देखते हैं कि एक वृक्ष हमारे सामने है। वह वृक्ष का स्थूल रूप है। स्थूल वृक्ष तबतक नहीं बन सकता, जबतक इसका पूर्व रूप सूक्ष्म नहीं हो। बिना अंकुर के वृक्ष नहीं होता। इसलिए अंकुर वृक्ष का सूक्ष्म रूप है और इससे भी सूक्ष्म रूप वृक्ष का बीज होता है। पहले बीज होता है, फिर अंकुर होता है और तब वृक्ष होता है।
स्थूल रूप वृक्ष है, सूक्ष्म रूप अंकुर है और कारण रूप बीज है। जबतक कारण यानी बीज रहेगा, उससे सूक्ष्म यानी अंकुर और उससे स्थूल वृक्ष होता ही रहेगा। अगर बीज को नष्ट कर दिया जाए, तो न अंकुर होगा और न ही वृक्ष ही। उसी प्रकार हमारा जो यह स्थूल शरीर है, स्थूल शरीर रहने के लिए इसके अनुरूप स्थूल संसार है। जब हमारा यह स्थूल शरीर छूट जाता है, तो स्थूल संसार भी छूट जाता है; किन्तु सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर; ये दोनों शरीर रहते हैं। स्थूल शरीर से छूट जाने का मतलब है कि स्थूल संसार से छूट जाना; लेकिन सूक्ष्म शरीर रहता है और यह सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म लोक में रहता है। सूक्ष्म शरीर का बीज है कारण शरीर। यदि बीज को ही नाश कर दिया जाए, तो सूक्ष्म शरीर नहीं होगा और सूक्ष्म शरीर ही नहीं होगा, तब स्थूल शरीर भी नहीं होगा। इसलिए आवश्यकता है बीज को नष्ट कर देने की। भगवान श्रीराम श्रीहनुमानजी से कहते हैं-
“ द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने ।
एकसि्ंमश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः ।।”
चित्त-रूपी वृक्ष के दो बीज हैं-प्राणस्पन्दन और वासना। इन दोनों में से एक के क्षीण हो जाने से दोनों ही नाश को प्राप्त होते हैं।
हम खेत में चना बोते हैं। समूचा चना बोते हैं। यदि उस चने को तोड़कर देखा जाएगा, तो उसमें दो दालें दीखेंगी। यदि दोनों दालों को अलग-अलग कर दें और उनमें से एक दाल को बोयें, तो अंकुर नहीं होगा, पौधा नहीं होगा। उसी तरह चित्तरूपी वृक्ष की दो दालें हैं-एक प्राणस्पन्दन और दूसरी वासना। हम चाहे प्राण- स्पन्दन रुद्ध कर लें अथवा वासना को समाप्त कर दें। किसी एक के नाश होने पर दोनों ही नाश हो जाते हैं। इस विषय को समझाने के लिए दो अलग-अलग मतों के दो अलग-अलग विचार हैं और लक्ष्य प्राप्त्यर्थ दोनों ने दो तरह की क्रियाएँ बतलायी हैं। दोनों मतों में एक का नाम है-हठयोग और दूसरे का राजयोग।
हठयोग में पूरक, कुंभक और रेचक की क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। मतलब यह है कि श्वास को खींचकर फेफड़े को भरते हैं-पूरा करते हैं। इसलिए इसको पूरक क्रिया कहते हैं। पश्चात् उस वायु को वहाँ रोककर रखते हैं, इसको कुंभक क्रिया कहते हैं। तत्पश्चात् उस वायु को धीरे-धीरे बाहर निकालते हैं, इसको रेचक क्रिया कहते हैं।
श्वास को खींचने, रोकने और छोड़ने की विधि-विशेष भी है। जैसे यदि श्वास खींचने में एक सेकेण्ड का समय लगता है, तो उसको चार सेकेण्ड तक रोककर रखा जाता है और फिर दो सेकेण्ड में निकाला जाता है। इस क्रम में खींचने, रोकने और छोड़ने में यदि संयोगवश कुछ व्यवधान पड़ जाए, तो तत्क्षण विघ्न उत्पन्न हो जाएगा। इसलिए इसकी पूर्ववर्ती साधना-यम, नियम और आसन-सिद्धि का परिपालन अपरिहार्य है।
हठयोगी का कथन है कि जैसे स्थूल पंखे के चलने से सूक्ष्म हवा चलती है और स्थूल पंखे के बंद होने से सूक्ष्म हवा बंद हो जाती है, वैसे ही स्थूल प्राण-वायु के निरोध करने से सूक्ष्म चित्त (मन) का निरोध हो जाएगा। दूसरी ओर राजयोगी का कथन है कि चित्तनिरोध के लिए वायु-निरोध की आवश्यकता नहीं है।
इसके लिए दृष्टिनिरोध की आवश्यकता है। इस विषय की परिपुष्टि वे इस भाँति करते हैं। अब हमारी दृष्टि काम करती है, तब हमारा मन भी काम करता है और जब हमारी दृष्टि काम नहीं करती, तब हमारा मन काम नहीं करता। उदाहरणार्थ-जाग्रत् अवस्था में हमारी दृष्टि चंचल रहती है, तो हमारा मन भी चंचल रहता है, जाग्रत अवस्था से जब हम स्वप्नावस्था में जाते हैं, तो उस समय हमारी मानसिक दृष्टि काम करती है, तो मन भी काम करता है। शरीर तो बिछावन पर रहता है; किन्तु हमारा मन कभी इंग्लैंड में तो कभी अमेरिका में, कभी दिल्ली में तो कभी कलकत्ता में होता है अथवा जहाँ-तहाँ घूमता रहता है और हम वहाँ के दृश्यों का अवलोकन करते हैं। जहाँ-जहाँ के दृश्यों को हम देखते हैं, वहाँ-वहाँ के संबंध में मन कुछ-न-कुछ विचार अवश्य करता है। सुषुप्ति में हमारी दृष्टि बिल्कुल काम नहीं करती है, तो हमारा मन भी काम नहीं करता है। इसलिए राजयोगी का कथन है कि मनोनिरोध के लिए दृष्टि-निरोध करो। सुषुप्ति की अवस्था में हमारी दृष्टि काम नहीं करती है, तो मन भी काम नहीं करता है; किन्तु प्राण-स्पन्दन तो होता ही रहता है।
इससे यह सिद्धांत निकलता है कि प्राण-स्पंदन होते रहने पर भी दृष्टि-निरोध से मनोनिरोध होता है। इसलिए आवश्यकता राजयोग की है, हठयोग की नहीं। दूसरी बात यह है कि हठयोग सापद है और राजयोग निरापद। शांडिल्योपनिषद् में आया है-
“ यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः ।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।।23।।”
अर्थात्-जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे-धीरे काबू में आते हैं, इसी तरह प्राणायाम (अर्थात् वायु का अभ्यास कर वश में करना) भी किया जाता है, प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है। उपर्युक्त सिद्धांत के अनुसार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सर्व साधारण के करने योग्य राजयोग है, न कि हठयोग।
महर्षि पतंजलि के अनुसार योग के आठ अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि। जब यम-नियम का पालन नहीं होगा, आसन सिद्ध नहीं होगा। जब आसन की सिद्धि नहीं होगी, प्राणायाम में सफलता नहीं मिलेगी। सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी नहीं करनी), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह; ये पाँच यम हैं तथा शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय (अध्यात्म-शास्त्रें का चिंतन करना) और ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर में चित्त लगाना); ये पाँच नियम हैं। आसन सिद्ध होने का मतलब है-हम जितनी देर तक बैठना चाहें, उतनी देर तक एक आसन से स्थिर होकर बैठा जा सके। राजयोग की क्रिया निरापद है। इसमें प्राणायाम की क्रिया के कष्टों को किये बिना ही प्राणस्पन्दन रुद्ध हो जाता है। शांडिल्योपनिषद् में लिखा है-
“ द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे ।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।। 32।।”
अर्थ-जब ज्ञानदृष्टि (सुरत, चेतन-वृत्ति) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो, तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है।
इस उपनिषद् वाक्य से परमपूज्य गुरुदेव की वाणी में कितना साम्य है, मिलाकर देखिये-
“ दृष्टि युगल कर अंगुल द्वादश पर दृढ़ थिर धरु ठहराई ।
प्राणस्पन्द बन्द होइ जाई, मनहु तजइ चंचलाई ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
जब दृष्टि की दोनों धारें मिलकर एक हो जाती हैं, तो प्राणस्पंदन निरुद्ध हो जाता है। इसलिए बतलाया गया है कि चित्त-निरोध के लिए अथवा मनोनिरोध के लिए चाहे प्राण को निरुद्ध करो अथवा वासना का परित्याग करो।
विचारणीय विषय है कि मन में ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आदि विकार उत्पन्न होंगे कहाँ से? संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-
ध्यानी को मन थीर होय-------------
आप अनाहद होय वासना----------
भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से कहा था-
“ एकतत्त्वदृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ।।40।।
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः ।
पप्रिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः ।।41।।”
अर्थ-जबतक मन नहीं जीता गया हो, तबतक एकतत्त्व के दृढ़ अभ्यास से चित्त एवं अहंकार को पूर्ण रूप से नष्ट करके इन्द्रिय-शत्रु को निग्रह करना। ऐसा होने से हेमन्तकाल के कमलसदृश भोग-वासना का नाश हो जाएगा।
योगी श्यामाचरण लाहिड़ी के शिष्य पं0 श्री पंचानन भट्टाचार्यजी ने कहा है-
“ प्राण स्थिर होले स्थिर हवे मन ।
आत्माते आत्मा करिबे रमन ।”
तथा-
“ आनन्दे आनन्द बाढ़े प्रतिक्षण ।
दशेन्द्रिय थाके शून्य ते बन्धन ।।
रिपुचय पराजय सकलि आनन्दमय ।
अनुभव मात्र रय आर सब पाय लय ।।
जेमन जीवने जीवन थाके ना ।।”
जो कोई दृष्टि-साधन की क्रिया करते हैं, एकविन्दुता प्राप्त करने पर उनके मन का संकल्प- विकल्प छूट जाता है; उनको अंतर्नाद की अनुभूति होती है। नाद-साधना में प्रथम अनहद नाद की साधना होती है, पश्चात् अनाहत नाद की साधना की जाती है। इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण-ये जड़ के सारे आवरण झड़ जाते हैं और साधक कैवल्य पर में प्रतिष्ठित हो जाता है। यहाँ द्वैत रहता है; किन्तु सारशब्द की साधना करते-करते अंत में वह शब्द-मंडल से निःशब्द में चला जाता है। काम समाप्त हो जाता है। जीव-पीव मिलकर एक हो जाते हैं। उसका आवागमन का चक्र छूट जाता है। दैहिक, दैविक और भौतिक, जिन त्रितापों से मानव सतत संतप्त होता रहता है, उनसे वह सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन सलेमपुर (कहलगाँव) में राजकिशोर बाबू के निवास
पर दिनांक 7-12-1994 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग के शुभ अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 1996 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
महाभारत में एक आख्यान आया है कि व्यासदेवजी ने राजा युधिष्ठिर और दुर्योधन दोनों को बुलाया। युधिष्ठिर से उन्होंने कहा कि तुम दिनभर में खोज करके एक दुर्जन को ले आओ और दुर्योधन से कहा कि तुम दिनभर में खोज करके एक सज्जन को ले आओ। दोनों निकल पड़े। दिनभर खोजते-ढूँढते संध्याकाल दोनों-के-दोनों रीते हाथ वापस आये। युधिष्ठिर से पूछा गया कि दिनभर तुम घूमते रहे, क्या तुमको किसी दुर्जन से भेंट नहीं हुई? युधिष्ठिर महाराज ने कहा कि जिन लोगों से मेरी भेंट हुई, बातचीत की, तो देखा कुछ-न-कुछ उनके पास सद्गुण विद्यमान थे। फिर उनको दुर्जन कहकर मैं कैसे लाता? दुर्योधन से पूछने पर कि दिनभर में तुमको किन्हीं सज्जन से भेंट नहीं हुई, तो उन्होंने उत्तर दिया कि जिन लोगों से मेरी भेंट हुई, बातचीत हुई, तो मैंने देखा कि उनमें दुर्गुण भरे पड़े हैं, तो उनको सज्जन कहकर मैं कैसे लाता? व्यासदेवजी ने कहा, जो जिस प्रकृति के लोग होते हैं, दूसरों को वे उसी दृष्टि से देखते हैं। युधिष्ठिर सज्जन हैं, धर्मात्मा हैं; इसीलिए जिन लोगों से इन्होंने भेंट की, बातचीत की, उनलोगों में इन्होंने सज्जनता पाई और दुर्योधन वास्तव में दुर्जन है, इसलिए जिन लोगों से इसने भेंट की, बातचीत की, तो इसको वे दुर्जन मालूम पड़े। वस्तुतः जो जिस प्रकृति के लोग होते हैं, दूसरों को वे उसी दृष्टि से देखते हैं।
अभी आपलोगों ने मेरा स्वागत और अभिनंदन किया है, वास्तव में वे गुण तो मुझमें हैं नहीं; वे गुण तो आपलोगों में है। इसलिए आप दूसरों में भी वे गुण देखते हैं। वास्तव में मैं तो अवगुण का भरा आगार हूँ, अकिंचन हूँ, फिर भी मुझ अज्ञ अकिंचन का जो आप विज्ञ सज्जनों ने अभिनंदन किया है, आपकी इस उदारता के लिए आप सब लोगों का अभिवंदन करता हूँ। (श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)।
किसी सुभाषितकार ने कहा है कि यदि अस्पतालों में रोगियों की अधिक भीड़ आप देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का शारीरिक स्वास्थ्य-पतन हो चुका है। यदि आप कचहरियों में मुकदमेबाजों की अधिक भीड़ देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का नैतिक पतन हो चुका है। सिनेमाघरों में उमड़ती हुई भीड़ आप देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का चारित्रिक पतन हो चुका है। लेकिन सत्संग के नाम पर इस तरह की उमड़ती भीड़ आप देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों की आध्यात्मिक उन्नति हो रही है। अतः आपलोगों की आध्यात्मिक उन्नति को देखकर मैं बहुत प्रसन्न होता हूँ और आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ (श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
हमारे गुरुदेव के वचन है, आध्यात्मिकता को सबसे ऊपर रखो। उसके नीचे सदाचारिता रखो, उसके नीचे सामाजिक नीति रखो और उसके नीचे राजनीति रखो। जहाँ के लोग आध्यात्मिक होंगे, वहीं के लोग सदाचारी होंगे, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी और जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति बुरी हो नहीं सकती। जहाँ पर, जिस गाँव में बाबा देवी साहब का आध्यात्मिक बीज बोया हुआ है, वहाँ पर वह अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित नहीं होगा, तो कहाँ होगा? संतमत के प्रति आपलोगों के इस तरह के हर्षोल्लास और उदारभाव को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ और हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम शबरीजी के आश्रम पधारे हुए हैं। रामचरितमानस एक अद्भुत ग्रंथ है, विलक्षण ग्रंथ है। इसमें लौकिक और पारलौकिक; उभय ज्ञान की प्रायः सभी बातें भरी हुई हैं; लेकिन लोग भिन्न-भिन्न दृष्टियों से रामचरितमानस को देखते हैं। ठीक उसी तरह जैसे एक देवमंदिर में स्वर्ण की देव-प्रतिमा प्रतिष्ठित हो, श्रद्धालु भक्त उस मूर्ति को देखकर, देवता जानकर उनको प्रणाम कर अपनी श्रद्धा निवेदित करते हैं और चले जाते हैं। दूसरे आदमी जाते हैं, वे देखते हैं कि मूर्ति तो बड़ी अच्छी और वास्तव में खरे सोने की बनी हुई है। वे द्रव्य की दृष्टि से देखते हैं। तीसरे व्यक्ति जाते हैं, वे कलात्मक दृष्टि से देखते हैं और कहते हैं-कलाकार ने इसमें कितनी अच्छी कला उड़ेली है; मालूम पड़ता है, अभी-अभी यह मूर्ति बोलने ही वाली है। चौथे जाते हैं और उस मूर्ति को देखकर सोचते हैं कि कितनी अच्छी मूर्ति है, मूर्ति सोने की है, कलात्मक ढंग से भी बिल्कुल सही और दुरुस्त है। अगर कोई यहाँ नहीं रहे, तो मैं मूर्ति को लेकर नौ-दो ग्यारह हो जाऊँ। मूर्ति एक है; लेकिन लोगों की दृष्टि भिन्न-भिन्न है। उसी तरह रामचरितमानस ग्रंथ तो एक है; लेकिन लोग भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखा करते हैं। कोई कहते हैं, रामचरितमानस एक पारिवारिक ग्रंथ है। एक संभ्रान्त परिवार के लोग परिवार में परस्पर किस प्रकार रहते हैं, उसी का चित्र-चित्रण किया गया है। कोई कहते हैं कि रामचरितमानस एक काव्यग्रंथ है। रामचरितमानस के अंदर जितने दोहे, चौपाइयाँ, सोरठे, छन्द आदि हैं, जितनी-जितनी मात्रएँ जिसमें होनी चाहिए, उतनी-उतनी मात्रओं में वे सब बँधे हुए हैं। इसमें काव्य के नौ रस भरे हैं। उपमा-उपमेय के लिए तो कहना ही क्या! डग-डग पर भरे पड़े हैं। अनुप्रास और अलंकार की झनकार की तो भरमार है, इसलिए यह एक काव्यग्रंथ है।
तीसरे कहते हैं-यह रामचरितमानस राजनैतिक ग्रंथ है। राजा को किस तरह राज्य-संचालन करना चाहिए, उसमें यह बात है। चौथे कहते हैं कि रामचरितमानस सिर्फ राजनैतिक ग्रंथ ही नहीं है, बल्कि उसमें तो कूटनीति भी भरी पड़ी है। देखिये न, कहाँ तो श्रीराम को युवराजपद पर प्रतिष्ठित किया जा रहा था और कहाँ ऐसी कूटनीति बरती गयी कि उनको जंगल भेज दिया गया। इसीलिए कूटनीति का ग्रंथ है। कोई कहते हैं नहीं भाई! भगवान श्रीरामजी स्थूल सगुण साकार रूप धारण किये थे; रामचरित- मानस में उन्हीं के चरित्र का चित्रण किया गया है। भगवान किस तरह संसार में आये, क्यों आये, किसलिए आये, क्या-क्या किये-आदि का वर्णन है। कोई कहते हैं कि भाई! केवल स्थूल सगुण साकार की ही उसमें चर्चा नहीं है; निर्गुण निराकार का भी ज्ञान उसमें भरा पड़ा हुआ है। इस तरह लोग विभिन्न दृष्टियों से देखते हैं। महाराज दशरथजी का राम के साथ संबंध दिखलाया गया है कि पिता-पुत्र का संबंध कैसा होता है। पिता पुत्र को राजगद्दी पर बैठाना चाहते हैं; लेकिन कारणवश राजगद्दी पर नहीं बिठाकर उन्हें जंगल भेज दिया जाता है। फिर भी पुत्र के मन में तनिक भी क्लेश नहीं है कि कहाँ तो मैं अवध का राज्य-सुख भोगता और कहाँ मैं कानन का राज्य भोगने चला। चेहरे पर तनिक भी मलिनता नहीं। क्यों? इसलिए कि पिताजी की आज्ञा है। पुत्र को पिता का आज्ञाकारी होना चाहिए। यह रामचरितमानस में दिखलाया गया है। पिता-पुत्र का क्या अद्भुत स्नेहिल संबंध होता है। देखिये, भगवान राम उधर जंगल जाते हैं और इधर उनके वियोग में राजा दशरथजी प्राण का परित्याग करते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम ।
तनु परिहरि रघुवर विरह, राउ गयउ सुरधाम ।।”
पिता-पुत्र में एक-दूसरे से कैसा संबंध है! वे एक-दूसरे का वियोग सहन नहीं कर सकते हैं। रामचरितमानस में बतलाया गया है कि पति-पत्नी का क्या संबंध है। भगवान श्रीराम को कानन जाने की आज्ञा मिली थी, सीताजी को नहीं; लेकिन सीताजी रामजी से कह रही हैं कि आप जंगल जा रहे हैं, मैं भी आपके साथ चलूँगी। भगवान श्रीराम उनको समझाते हैं कि तुम राजकुमारी हो, जनकदुलारी हो, मेरी प्राणप्यारी हो, जंगल मत जाओ। वहाँ पर रहने-सहने, खाने-पीने की कोई व्यवस्था नहीं है। राजमहल में रहनेवाली तुम कंटकाकीर्ण मार्ग में, पथरीली भूमि में कैसे चलोगी? जंगल में कहीं-कहीं ऐसा खराब पानी मिलता है कि पानी भी लग जाता है, लोग बीमार हो जाते हैं। जंगल में कंद, मूल, फल खाना होगा। वह भी कभी मिलेगा, कभी नहीं भी मिलेगा। देवि!
“ लागइ अति पहाड़ कै पानी ।
विपिन विपति नहिं जाइ बखानी ।।”
इसलिए हे सयानी! तुम राजधानी में रहो। जबतक तुम्हारा मन लगे, तुम अयोध्या में रहना; नहीं मन लगे, तो जनकपुर चली जाना। कुछ दिन मन बहलाकर फिर अयोध्या लौट आ जाना। इस तरह आते-जाते रहने में चौदह वर्ष बीत जाएँगे। तुमको कोई कष्ट नहीं होगा। सीताजी विनम्र भाव से कहती हैं-हे देव! आप तो मुझे राजकुमारी बतला रहे हैं, आप भी राजकुमार हैं। आपके चरण तो कमल से भी अतिकोमल है। आप कैसे उस कंटकाकीर्ण मार्ग में जाएँगे, पथरीली भूमि पर चलेंगे? आप वहाँ कैसे खाएँगे, पिएँगे, सोएँगे, रहेंगे? जैसे आप रहेंगे, वैसे मैं भी रहूँगी। नारी के लिए पति देव होते हैं। नारी का सारा संसार पति में समाहित होता है।
“ बिना पति सूना सब संसार।
पति ही पत है पति ही गत है, पति बिन विपति हजार ।।”
बँगला में लिखा है-
“ पाताले ना पानी स्वामी कि कोरिबे कूप ।
जा नारी रे पुरुष नाहीं कि कोरिबे रूप ।।
आकाशे ना चन्द्र स्वामी कि कोरिबे तारा ।
जा नारी रे पुरुष नाहीं दिने अंधियारा ।।”
मैं तो आपके साथ चलूँगी। भगवान श्रीराम श्रीसीताजी की निश्छलता और निश्चलता को देखकर सोचते हैं कि यह मानेगी नहीं, इसलिए साथ चलने की आज्ञा दे देते हैं। जब लक्ष्मणजी को यह बात ज्ञात हुई, तो वे उपनीत हो जाते हैं श्रीराम के चरणों में और कहते हैं-मैं आपकी सेवा में आपके साथ जंगल चलूँगा।’ मर्यादा पुरुषोत्तम मर्यादा रखने के लिए कहते हैं-‘लक्ष्मण! तुम्हारा मेरे साथ जाना उचित नहीं होगा; क्योंकि भरत और शत्रुघ्न ननिहाल में है। मैं जंगल जा रहा हूँ और सीता मेरे साथ जा रही है। तुम्हारे सिवा पिता के लिए यहाँ पर अन्य कोई अवलंब नहीं है। अतएव तुम पिता का अवलंब बनकर यहाँ रहो।’ पाणिबद्ध प्रणिपात हो लक्ष्मणजी कहते हैं-भ्रातृवर! मैं आपकी सेवा में जाऊँगा। आप मुझे अयोध्या में नहीं छोड़ें, मैं अनाथ हो जाऊँगा।’ भगवान श्रीराम लक्ष्मणजी की निष्कपट भाव को देखकर कहते हैं-‘जाओ, तुम अपनी माताजी से आज्ञा प्राप्त करो, वे क्या कहती हैं?’ लक्ष्मणजी जाते हैं अपनी माता सुमित्रजी के पास और हाथ जोड़कर कहते हैं-‘माताजी! श्रीराम-सीता जंगल जाते हैं, मुझे आज्ञा दीजिए उनके साथ चलने के लिए।’ अगर सौतिया डाह होता, तो सुमित्रजी कहतीं-‘जाने दो उसे जंगल। तुम मंगल करने के लिए अयोध्या में रहो, राज्य-सुख भोगो। लेकिन सुमित्रजी ऐसी बात नहीं कहती हैं। वे कहती हैं, ‘बेटा! श्रीराम-सीता की सेवा में अवश्य जाओ। मैं तुम्हारी माँ मात्र इस जन्म की हूँ, इसके पहले मैं तुम्हारी माँ नहीं थी और इसके बाद जो तुम्हारा जन्म होगा, तब भी मैं तुम्हारी माँ नहीं रहूँगी। लेकिन ये सीता-राम तुम्हारे पूर्व के माता-पिता हैं, अबके माता-पिता हैं और भविष्य के भी माता-पिता रहेंगे। इसलिए इनकी सेवा में अवश्य जाओ। देखना बेटा! जो संतान अपने माता-पिता के साथ रहते हैं, उनको कोई कष्ट नहीं होता। संतान का धर्म होता है, पुनीत कर्तव्य होता है कि वह माता-पिता को कोई कष्ट नहीं होने दे। श्रीराम-सीता के रहते तुम्हें तो जंगल में कोई कष्ट होगा नहीं; इसलिए तुम्हारा पावन कर्तव्य है कि तुम भी वन में श्रीराम-सीता को कोई कष्ट नहीं होने देना। बेटा! स्मरण रखना, उन्हें स्वप्न में भी किसी बात का कोई कष्ट नहीं हो, यह ध्यान रखना।’ लक्ष्मणजी कहते हैं-‘माताजी! जबतक मैं जाग्रतावस्था में रहूँगा, उन्हें कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। लेकिन आप कहती हैं कि स्वप्न में भी उन्हें कोई कष्ट नहीं होने देना, तो मैं आपकी शपथ खाकर कहता हूँ-‘आज से मैंने सोना छोड़ दिया, जबतक श्रीराम के साथ जंगल में रहूँगा, नहीं सोऊँगा। (श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)।
भगवान श्रीराम जगज्जननी जानकीजी के साथ जबतक जंगल में रहे, लक्ष्मणजी सोये नहीं। श्रीराम-सीता सोते थे और ये जगकर पहरा देते थे। इस तरह कोई बतलाते हैं कि पति-पत्नी का भाव कैसा होता है, भाई-भाई का भाव कैसा होता है, यह भाव रामचरितमानस में दिखलाया गया है।
वैचारिक दृष्टि से अवलोकन करने पर हम रामचरितमानस को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। इसका एक भाग बहिरंग है और दूसरा अंतरंग। बहिरंग दृष्टि से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का राजा दशरथजी के यहाँ अवतरण, शिशुपन और बालपन में राजोचित लालन-पालन, किशोरपन में विश्वामित्र मुनि जी के साथ तपोवन गमन, वहाँ उनसे अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा-ग्रहण, वहाँ से जनकपुर गमन, मार्ग में अहल्या-उद्धारकरण, जनकपुर में धनुष भंगकरण, सीताजी के साथ पाणिग्रहण, सीताजी को साथ लेकर अयोध्या आगमन, वहाँ श्रीरामजी को युवराजपद पर प्रतिष्ठित करने के लिए राजा दशरथजी का मन, किन्तु कैकेयी और मन्थरा की कुमंत्रणा के कारण भगवान का श्रीसीता और लक्ष्मणजी के संग वनगमन, कानन में सीता-हरण, अयोध्या में दशरथ-मरण, सीताजी का अन्वेषण, हनुमान का लंका-गमन, वहाँ अशोक-वाटिका में सीताजी से मिलन, अशोक-वाटिका का विध्वंसकरण, अक्षयकुमार का मरण, रावण का मान-मर्दन, लंका-दहन, श्रीसीताजी से पुनर्मिलन, पश्चात् हनुमानजी का श्रीरामजी के पास आगमन, उनके समक्ष लंका की सारी घटनाओं का वर्णन, श्रीराम का सुग्रीव के साथ मैत्रीवरण, बाली का हनन, सैन्य संगठन, सेतु बंधन, लंका पर आक्रमण, रावण-कुंभकरण आदि के साथ युद्ध कर उनका हनन, श्रीसीताजी का उद्धारकरण, विभीषण को राजसिंहासन, सीताजी के साथ भगवान श्रीराम का अयोध्या आगमन, ग्यारह हजार वर्ष तक राज संचालन और अंत में साकेत-गमन। यह रामचरितमानस का बहिरंग है।
अब रामचरितमानस के अंतरंग पर आइये। भगवान श्रीराम जानते थे कि इस बात को कि दुनिया में कोई भी रहने के लिए नहीं आया है-
“ आये हैं सो जायँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधे जात जंजीर ।।”
इसलिए जब जीव इस संसार को छोड़कर जाएगा, तो जहाँ जाएगा, वहाँ भी उसका जीवन कल्याणमय बीते, इस बात की भगवान को चिंता थी। इसलिए वे शबरी के आश्रम पहुँचते हैं। शबरीजी को माध्यम बनाते हैं और नौ प्रकार की भक्तियों की सीख देते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि शबरी भक्ति नहीं जानती थी। शबरी नवो प्रकार की भक्तियों में पारंगत थी। भगवान श्रीराम ने स्पष्ट कह दिया-‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ अर्थात् नौ प्रकार की भक्तियों का जो मैंने वर्णन किया है, उन नवो प्रकार की भक्तियों में तुम दृढ़ हो।
इस भक्ति से संसार मे लोगों को दैहिक, दैविक और भौतिक; इन त्रयतापों से मुक्ति मिलेगी। इसलिए भक्तिन शबरीजी को माध्यम बनाकर भगवान कह रहे हैं। भगवान श्रीराम शबरी के आश्रम में जाते हैं, तो बेचारी शबरी अस्त-व्यस्त हो जाती है। सोचने लगती है, इतने बड़े मेहमान भगवान हमारे यहाँ पधारे हैं, आगत-स्वागत करूँ तो कैसे, किस प्रकार? विह्वल हो जाती है। कंद, मूल, फल आदि लाकर देती है। भगवान प्रेम से भोग लगाते हैं। पश्चात् हाथ जोड़कर शबरी कहती है-
“ केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी ।
अधम जाति मैं जड़मति भारी ।।
अधम तें अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारी ।।”
अर्थात् हे पाप के शत्रु! मैं आपकी स्तुति किस तरह करूँ? मैं अधम जाति की हूँ; छोटी जाति की हूँ, कोल-भील जाति की नीच मैं हूँ।
‘अधम से अधम अधम अति नारी’। इसपर एक बार विवाद खड़ा हुआ। प्रसंग इस प्रकार है-कॉलेज की कुछ छात्रएँ रामचरितमानस लेकर प्रिंसिपल के पास पहुँचती है और कहती है, देखिये! गो0 तुलसीदासजी ने नारी जाति पर कितना बड़ा कुठाराघात किया है। ‘अधम से अधम अधम अति नारी’। -क्या नारी अधम से अधम होती है? प्रिंसपिल ने समझाने की बहुत चेष्टा की; लेकिन उन लड़कियों ने उनकी एक न सुनी। छात्रओं में से एक छात्र ने रामचरितमानस के उस पन्ने को फाड़ते हुए कहा-‘रामचरितमानस में यह पन्ना रहनेयोग्य नहीं है।’ प्रिंसिपल ने कहा-‘गो0 तुलसीदासजी ने और नारियों के लिए नहीं, तुम्हारी जैसी नारी के लिए कहा है। (श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
वास्तविक बात यह है कि जिनमें सद्गुण आते हैं, उनमें विनम्रता आती है। ‘विद्या ददाति विनयम्’ विद्या विनय देती है। ‘सा विद्या या विमुक्तये’। भौतिक और आध्यात्मिक जितनी प्रकार की विद्याएँ हैं, उन सभी विद्याओं में आध्यात्मिक विद्या श्रेष्ठ है। इस आध्यात्मिक विद्या में शबरीजी निपुण थीं, निष्णात थीं, कुशल थीं, पारंगत थीं। तो फिर उनमें नम्रता नहीं आएगी, तो और किनमें नम्रता आएगी? आप देखते हैं, वृक्ष की जिस डाल में फल लगते हैं, वह नीचे झुक जाती है और जिस डाल में फल नहीं लगते हैं, वह डाल ऊँची रहती है। उसी तरह जिनमें सद्गुण आते हैं, वे विनम्र हो जाते हैं और जिनमें दुर्गुण भरे रहते हैं, वे अपने को ऊपर दिखलाते हैं। शबरीजी में सभी प्रकार के सद्गुण भरे थे। जहाँ शबरी कह रही हैं कि मैं नीच जाति की हूँ, यहाँ भगवान श्रीराम उसका उत्तर देते हैं-
“ जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
धन बल परिजन गुन चतुराई ।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा ।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ।।”
संतमत में जाति-पाँति की कोई बात नहीं होती, पक्षपात की कोई बात नहीं होती। संत पलटू साहब ने कहा है-
“ साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।
केवल भत्तिफ़ पियार, गुरु भत्तफ़ी में राजी ।
तजा सकल पकवान, खाया दासीसुत भाजी ।।
जप तप नेम अचार, करे बहुतेरा कोई ।
खाये सबरी के बेर, मुए सब ऋषि मुनि रोई ।।
राजा युधिष्ठिर यज्ञ बटोरा, जोड़ा सकल समाजा ।
मरदा सबका मान, श्वपच बिन घंट न बाजा ।।
पलटू ऊँची जाति का, मत कर कोइ हंकार ।
साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।”
ईश्वर के दरबार में जाति-पाँति की कोई बात नहीं होती, वहाँ भक्ति प्यारी होती है। इसलिए भगवान श्रीराम श्रीशबरजी से कहते हैं-‘मानउँ एक भगति कर नाता’। और संत पलटू साहब कहते हैं-
“ केवल भत्तिफ़ पियार, गुरु भत्तफ़ी में राजी ।
तजा सकल पकवान, खाया दासीसुत भाजी ।।”
महाभारत में एक कथा आयी है कि भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन को समझाने के लिए गये थे कि आपस में युद्ध मत करो। जो राज्य का अंश पांडवों को मिलना चाहिए, उन्हें दे दो। दुर्योधन देने के लिए तैयार नहीं होता है, बल्कि कहता है-
‘सूची अग्र न दातव्यं विना युद्धेन केशवः ।’
हे केशव! बिना युद्ध किये सूई की नोक के बराबर भी नहीं दूँगा। भगवान समझाते हैं-‘दुर्योधन! जरा सोचो, कर्तव्याकर्तव्य और धर्माधर्म पर विचार करो।’ दुर्योधन उत्तर देता है-
“ जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः
जानामिऽधर्मं न च मे निवृत्तिः।
केनाऽपि देवान् हृत्स्थितेन यथा
नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।”
अर्थात् में धर्म को जानता हूँ; लेकिन मेरी प्रवृत्ति उस ओर नहीं है। मैं अधर्म की बात भी जानता है; लेकिन मेरी निवृत्ति उस ओर से नहीं है। कोई देवता मेरे अंदर बैठा हुआ है, वह जहाँ मुझे नियुक्त कर देता है, मैं वही करने लग जाता हूँ।
विवेकी जन विचार सकते हैं, उसके हृदय में देवता बैठा या राक्षस? दुर्योधन को भगवान विविध भाँति से समझाते हैं; लेकिन दुर्योधन मानने के लिए तैयार नहीं होता है। भगवान के भोजन हेतु दुर्योधन ने बहुत प्रकार की चीजें बनवायी थीं; किन्तु भगवान ने कुछ भी स्वीकार नहीं किया। भगवान जाते हैं विदुरजी के यहाँ। विदुरानीजी के यहाँ क्या खाते हैं? संत पलटू साहब कहते हैं-‘खाया दासी सुत भाजी।’ कैसी विचित्र बात? भगवान जब विदुरजी के यहाँ जाते हैं, तो संयोग से विदुरजी थे नहीं, विदुरानी थी। भगवान को देखकर वे इतनी विह्वल हो गयी कि उनको होश ही नहीं रहा कि क्या खिलाऊँ? घर में पके केले थे। वे केला छील-छीलकर गूदा फेंकती जाती थी और छिलका भगवान को देती जाती थी। भगवान भी छिलका खाते जा रहे हैं प्रेम से। इतने में आ जाते हैं विदुरजी। वे अपनी पत्नी से कहते हैं-‘पगली! क्या कर रही है! गूदा फेंकती जा रही है और छिलका भगवान को दे रही है!’ अपने अटपटे व्यवहार से लज्जा हो जाती है बेचारी को, संकोच हो जाता है। अब बेचारी जब छिलका छीलकर भगवान को गूदा देती है, तो खाते हुए भगवान कहते हैं-‘जो स्वाद छिलके में था, वह गूदे में नहीं है। इसी प्रकार एक का दूसरा प्रसंग है। संत पलटू साहब कहते हैं-
“ राजा युधिष्ठिर यज्ञ बटोरा, जोड़ा सकल समाजा ।
मरदा सबका मान, श्वपच बिन घंट न बाजा ।।”
महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया था। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था-‘जब यज्ञ पूरा होगा, तो तीन बार घण्टा बजेगा। परन्तु यज्ञ समापन होने पर घंटा एक बार भी नहीं बजा। युधिष्ठिर ने भगवान से पूछा-‘भगवान! आपने कहा था कि यज्ञ पूरा होने पर घंटा तीन बार बजेगा, यहाँ तो एक बार भी नहीं बजा?’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, ‘यज्ञ में भोजन तो आपने बहुत लोगों को कराया; लेकिन भक्त का भोजन नहीं हुआ।’ वे बोले, ‘भक्त कहाँ है? बतलाइये, उनको भोजन करायेंगे।’ भगवान ने कहा, ‘वे काशीजी में रहते हैं। श्वपच भक्त के नाम से लोग उनको जानते हैं, उनको बुलाकर ले आइये।’ युधिष्ठिरजी ने भीम को उनको पास भेजा। भीम राजमद में मस्त थे, तनमद में मस्त थे, जवानी के मद में मस्त थे, दस हजार हाथी का बल उनकी भुजाओं में था। मन में सोचने लगे, यदि बाबाजी नहीं आना चाहेंगे, तो उनको उठाकर रथ पर बिठाकर चल दूँगा। संत तो बड़े पारखी होते हैं, पहले ही परख गये कि यह तो घमंड में चूर होकर मेरे पास आ रहा है। भीम वहाँ गये। श्वपच भक्त ने पूछा, ‘कहाँ आये हो?’ भीम ने कहा, ‘आपके पास आया हूँ, आपको हस्तिनापुर ले जाने के लिए, वहाँ आपको भोजन कराया जाएगा। महाराज युधिष्ठिर ने मुझे आपके पास भेजा है।’ श्वपच जी ने कहा, ‘अच्छा, बात तो पीछे होगी। मैं पूजा में बैठ गया हूँ, मेरी सिमरनी ऊपर टँगी है; जरा दे दो। पूजा से उठकर बात करूँगा। सिमरनी दीवार पर लटकी हुई थी, भीम के मन में हुआ कि डोम की सिमरनी छूऊँ तो कैसे? यदि नहीं छूता हूँ, तो भी मुश्किल है। वे कहेंगे कि मेरी बात तुमने सुनी नहीं, तो जाओ तुम्हारी बात मैं भी नहीं सुनूँगा। लाचारी उसने सिमरनी पर एक अंगुल लगायी। सिमरनी टस-से-मस नहीं हुई। क्रम-क्रम से उसने दूसरी, तीसरी और चौथी अंगुल लगाई, फिर भी सिमरनी टस-से-मस नहीं हुई। भीम की भुजा में दस हजार हाथी का बल था। उन्होंने सारा बल लगा दिया, फिर भी सिमरनी ज्यों-की-त्यों रही; टस-से-मस नहीं हुई। जो अहंकार उनके मन में था, वहीं गलकर खत्म हो गया। भक्तराजजी जब पूजा से उठते हैं, तब भीम से पूछते हैं-‘कहो, क्या बात है?’ भीमसेन ने अपनी बात बतायी। कहा, ‘रथ लाया हूँ, आपको लेने के लिए, चलिये रथ पर।’ श्वपच भगतजी कहते हैं-‘देखो जी! मैं तुम्हारे यहाँ नहीं जाऊँगा। राजाओं के यहाँ बहुत प्रकार के कुअन्न आते हैं। मैं उस अपवित्र अन्न को खाने के लिए नहीं जाऊँगा।’ भगतजी की बात सुनकर भीम तो मन-ही-मन जल-भुनकर राख हो गये। मन में सोचने लगे-‘डोम तो किसका-किसका छुआ, कैसा-कैसा अन्न खाता है और यह कहता है कि राजाओं का अन्न मैं नहीं खाता हूँ।’ भीम लौटकर चले आये और युधिष्ठिरजी से कहा-‘आप मुझे जैसे-तैसे आदमी के पास भेज देते हैं! वह नहीं आया।’ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-‘युधिष्ठिर! आपके जितने भी भाई हैं, सभी राजमद में माते रहते हैं। आप स्वयं जाइये और उन्हें सादर ले आइये।’ युधिष्ठिर महाराज स्वयं जाते हैं रथ लेकर। श्वपच भगतजी से अनुनय-विनय करते हैं, चलने के लिए प्रार्थना करते हैं। श्वपचजी कहते हैं-‘मैं राजा का अन्न नहीं खाता, वह अपवित्र होता है।’ युधिष्ठिर महाराज ने विनीत भाव से कहा-‘महात्मन्! राजा का अन्न तो अवश्य ही अपवित्र होता है; लेकिन आप जैसे महान संत भोजन नहीं करेंगे, तो वह पवित्र कैसे होगा? अन्न पवित्र करने के लिए ही ते आपको ले जाने आया हूँ। कृपापूर्वक चलकर पवित्र कीजिए।’ प्रसन्न हो गये संत, बैठ गये रथ पर और चले। द्रौपदी के मन में हुआ कि इतने बड़े संत महात्मा हमारे यहाँ आ रहे हैं कि किसी के आने से घंटा नहीं बजा, इनके ही आने और भोजन करने से घंटा बजेगा। इसलिए उन्होंने श्रद्धा-भक्तिपूर्वक बहुत चीजें बनायीं और बनवायीं। मन में सोचा, यह खिलाऊँगी, वह खिलाऊँगी, इसका स्वाद ऐसा होगा, उसका स्वाद वैसा होगा, आदि-आदि। राजा के घर में कमी किस बात की थी, बहुत-सी चीजें बनीं। गये वहाँ श्वपचजी, बैठे भोजन करने के लिए। द्रौपदी भोजन कराने के लिए बैठी। सोने की थाली व कटोरे में सारी चीजें अलग-अलग परोसकर रखी हुई थीं। श्वपचजी ने क्या किया, सारी चीजें मिला दीं एक ही में। जैसे ही उन्होंने एक कौर भोजन लिया, वैसे ही एक बार घंटा बज गया। महाराज युधिष्ठिर के सहित सबके मन में प्रसन्नता छा गयी। इधर द्रौपदी के मन में हुआ कि इतनी मेहनत से मैंने इतनी चीजें बनायी थीं कि संतजी अलग-अलग स्वाद लेकर खाएँगे। लेकिन ये क्या एक-एक चीज का स्वाद लेकर खाएँगे! आखिर जाति के तो डोम ही ठहरे, सबको मिला-जुलाकर एक कर दिया। द्रौपदी के मन की बात अंतर्यामी संत समझ गये। भोजन करने से उनका हाथ रुक गया। युधिष्ठिर महाराज हाथ जोड़ते हैं, निवेदन करते हैं-‘महाराज! भोजन कीजिए।’ श्वपचजी कहते हैं-‘राजन्! जो साधु का भोजन होना चाहिए था, वह हो गया। अब जो भोजन होगा, वह डोम का होगा।’ युधिष्ठिर ने कहा-‘महाराज! आप ऐसी बात क्यों कह रहे हैं?’ उन्होंने कहा-‘पूछो द्रौपदी से।’ अब बेचारी द्रौपदी हो गयी काठ। अनुनय- विनय करने लगी-‘क्षमा कीजिए, मुझसे भूल हो गयी।’ श्वपच महाराज बोले-‘ठीक है, भोजन तो होगा, लेकिन अब घंटा नहीं बजेगा।’ इसी संदर्भ में संत कबीर साहब ने कहा है-
‘मोहे भावेला भक्ति भिलिनियाँ के।’
शबरी भीलनी थी। वन में रहती थी। वहाँ और भी ऋषि-मुनि थे; लेकिन भगवान श्रीराम और किसी के यहाँ नहीं जाकर शबरी के यहाँ ही जाकर कंद, मूल, फल खाते हैं। कबीर साहब ने कहा है-‘मोहे भावेला भक्ति भिलिनियाँ के। जोगीजी आये मुनि जी आये, घंटा बजौलन डोमिनियाँ के। मोहे भावेला भक्ति भिलिनियाँ के।’ पद्य लम्बा है। अंत में कहते-कहते उन्होंने कह दिया-‘कहे कबीर सुनो भाई साधो, हमहुँ तो हईं जोलहनियाँ के।’ इसीलिए भगवान राम कहते हैं-‘मैं जाति-पाँति की बात नहीं मानता, कुल-धर्म की बात नहीं मानता, जागतिक पद-प्रतिष्ठा आदि कितना भी वैभव हो जाए; लेकिन यदि किसी के अंदर भक्ति नहीं है, तो वह बिना जल के बादल के समान है।
सुनो, मैं तुमसे नौ प्रकार की भक्ति कहता हूँ। अब वे बतलाते हैं-‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा।’ पहली भक्ति संतों का संग करने बतलाते हैं। क्यों? भगवान के दर्शन हो गये, और क्या चाहिए! इसलिए कि भगवान के दर्शन सब समय सर्वत्र सुलभ नहीं हो सकते; किन्तु संतों के दर्शन ‘सबहिं सुलभ सब दिन सब देशा’ होते हैं। शिक्षा-दीक्षा देकर वे भक्तजन को अनंतस्वरूपी सर्वेश्वर से मिलाते हैं। श्रीशबरीजी को संत मतंग के दर्शन हुए थे। उनसे शिक्षा-दीक्षा लेकर वे साधना करती थीं। अपने महाप्रयाण के समय मतंग ऋषि ने शबरीजी से कहा था-‘तुम यहीं रहो। भगवान श्रीराम यहाँ आएँगे।’ शबरीजी साधना में लगी रही और संत सद्गुरु के प्रसाद से उन्होंने उसमें पूर्णता भी प्राप्त की। उनको स्थूल सगुण साकार भगवान के भी दर्शन हुए और निर्गुण निराकार के भी। स्वयं भगवान श्रीराम ने नौ प्रकार की भक्ति का वर्णन करते हुए सातवीं भक्ति में ‘मो तें अधिक संत करि लेखा’ अर्थात् ‘मुझसे बढ़कर संत को मानो’ कहा है। संत की विशिष्टता बतलाते हुए संत पलटू साहब कहते हैं-
“ सबसे बड़े हैं संत दूसरा नाम है ,
तीजे दस अवतार तिन्हें प्रणाम है ।
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल संसार है ,
अरे हाँ रे पलटू सबके ऊपर संत मुकुट सरदार है ।।”
संत से बढ़कर और कोई नहीं हो सकते। संत सर्वोपरि होते हैं। आपने श्रीसीतारामजी का चित्र बना हुआ देखा होगा, वह ॐ से घिरा हुआ रहता है। श्रीराधाकृष्ण का चित्र भी ॐ से घिरा रहता है। श्रीशिव-पार्वती का चित्र भी ॐ से घिरा हुआ रहता है। ॐ से चित्र घिरे रहने का तात्पर्य है कि ये जो देव-अवतार हैं, वे त्रिगुणात्मिका प्रकृति के अंदर रहनेवाले हैं; त्रिगुणात्मिका प्रकृति के ऊपर आनेवाले नहीं हैं। लेकिन जो संत होते हैं, वे कहाँ के वासी होते हैं? गो0 तुलसीदासजी महाराज के शब्दों में सुनिये-
“ शांत निरपेक्ष निर्मम निरामय अगुण,
शब्दब्रह्मैक परब्रह्मज्ञानी ।
यत्र तिष्ठन्ति तत्रैव अज शर्व हरि
सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी ।।”
त्रिगुण के परे निर्गुण की साधना करनेवाले, निर्गुण के परे आनेवाले संत जहाँ कहीं भी रहते हैं, वे वहाँ ब्रह्मा, विष्ण महेश के सहित सभी देवता रहते हैं। इसलिए संतों से बढ़कर और कोई दूसरे नहीं होते। संतों की जो नैसर्गिक आभा होती है, वह निकट बैठनेवाले में प्रवेश करती है, उसकी रजोगुणी और तमोगुणी प्रकृति को परिवर्तित करके सतोगुणी कर देती है। यों तो प्रत्येक व्यक्ति के शरीर से आभा निकलती है; लेकिन जो तमोगुणी व्यक्ति होते हैं, उनके शरीर से तमोगुणी आभा निकलती है और जो रजोगुणी व्यक्ति होते हैं, उनके शरीर से रजोगुण आभा निकलती है और जो सतोगुणी व्यक्ति होते हैं, उनके शरीर से सतोगुणी आभा निकलती है। इस संदर्भ में एक प्रसंग है कि पाश्चात्य देश में सुकरात नाम के एक महात्मा हुए। उन्हीं के समय में अरस्तू नाम के एक बहुत बड़े विद्वान थे। अरस्तू के मन में हुआ कि उन महात्मा के पास जाकर अपनी जिज्ञासा का समाधान कराऊँ। लेकिन प्रायः लोगों में कुछ मानसिक दुर्बलता होती है। वे सोचते हैं-आज नहीं, कल; अच्छा, इस महीने नहीं, अगले महीने अथवा यह साल अब बीत गया, तो अगले साल जाकर समाधान कराएँगे। इस तरह मानसिक दुर्बलता के कारण सामान्य लोग कर नहीं पाते। लेकिन इतने बड़े विद्वान होते हुए भी अरस्तू की भी वही हालत थी। खैर, जब सुकरात के लिए यह घोषणा की गयी कि अगर चालीस दिनों के अंदर वे अपने विचार में परिवर्तन लाएँगे, तो उनको कारागार से मुक्त कर दिया जाएगा, अन्यथा उनको जहर का प्याला पीना होगा। सुकरात अपने विचार में परिवर्तन करनेवाले नहीं थे। जब नजदीक समय आया, तब अरस्तू अपने घर से चलते हैं। आते-आते जहाँ कारागार में सुकरात नजरबंद थे, राजाज्ञा लेकर वे उनसे भेंट करने वहाँ गये। सुकरात ने पूछा, ‘किस हेतु आपका आना हुआ?’ अरस्तू ने उत्तर दिया, ‘मेरे मन में बहुत सारी जिज्ञासाएँ थीं, उनके समाधानार्थ आपके पास आया हूँ।’ सुकरात ने पूछा, ‘क्या जिज्ञासा है?’ उन्होंने कहा, ‘जिस समय मैं अपने घर में था, मेरे मन में बहुत तरह की जिज्ञासाएँ थीं; लेकिन जैसे-जैसे आपकी ओर आता गया, तो आते-आते धीरे-धीरे जिज्ञासाओं का समाधान होता गया और आपके पास आकर सारी शंकाओं का समाधान हो गया। अब मात्र एक जिज्ञासा रह गयी है, वह यह कि ऐसा कैसे हुआ?’ सुकरात ने कहा, ‘हर एक व्यक्ति के शरीर से आभा निकलती है, उसका एक क्षेत्र होता है। उस क्षेत्र से जब आप बाहर थे, तब आपके मन में अनेक जिज्ञासाएँ थीं उस क्षेत्र में जैसे-जैसे आप आते गये, आपकी जिज्ञासाओं का समाधान होता गया और समीपता प्राप्त कर सारी जिज्ञासाएँ समाप्त हो गयीं।’ यह तो पाश्चात्य देश की बात मैंने कही। अब मैं अपने गुरुदेव की बात कह रहा हूँ। मुंगेर कॉलेज के प्रोफेसर थे शिवचन्द्र बाबू। मुंगेर में सत्संग का आयोजन था। वहाँ मुझे बुलाया गया था। उस सत्संग में शिवचन्द्र बाबू भी आये थे। उनसे मैंने कहा, ‘आप भी कुछ कहिये।’ तो उस कुछ बोलने के क्रम में उन्होंने अपनी घटना सुनायी। उन्होंने कहा, ‘कॉलेज के किसी कार्यविशेष से मैं भागलपुर यूनिवर्सिटी गया हुआ था। उस समय वहाँ दिनकर जी भी0सी0 (उपकुलपति) थे। जिस कार्य से मैं वहाँ गया था, वह हो गया, तो मेरे मन में हुआ कि नजदीक में ही कुप्पाघाट है, क्यों नहीं वहाँ जाकर महर्षिजी के दर्शन करूँ। लेकिन जैसे ही मैंने जेब में हाथ डाला, तो देखा कि उतने पैसे नहीं हैं कि कुप्पाघाट जाकर फिर वहाँ से लौटकर मुंगेर पहुँच सकूँ। मन में क्षोभ हुआ कि इतने नजदीक आकर भी महर्षिजी का दर्शन नहीं कर सका। अब देखिये, गुरु महाराज की प्रेरणा क्या होती है! दिनकरजी कहते हैं-‘शिवचन्द्र बाबू! सुनने में आया है कि यहाँ से निकट ही कुप्पाघाट में एक बहुत बड़े संत रहते हैं। चला जाय उनके दर्शन के लिए।’ इनके मन में तो था ही। कहा, ‘हाँ-हाँ! चला जाए।’ मैंने कई बार उनके दर्शन किये हैं। बड़े अच्छे संत हैं। इस बार भी मेरे मन में है कि उनके दर्शन किये जाएँ।’ दिनकरजी की गाड़ी पर शिवचन्द्र बाबू भी बैठ गये। दिनकरजी पूछते हैं-‘अच्छा, शिवचन्द्र बाबू! एक बात बतलाइये कि मैं यदि उनसे कुछ पूछूँगा, ‘तो क्या वे उसका उत्तर देंगे?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘हाँ। वे बहुत बड़े महात्मा हैं, जो आप पूछेंगे, उसका उत्तर जरूर देंगे।’ तो दिनकरजी ने कागज में क्रम-क्रम से सात प्रश्न लिखकर कहा, ‘इन सातो प्रश्नों के उत्तर उनसे लेने हैं।’ वहाँ से गाड़ी चली, दोनों सज्जन आश्रम में उतरे। गुरु महाराज के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित कर दोनों ने एक-दूसरे का परिचय दिया। करुणा-वरुणालय गुरुदेव ने उनलोगों को संकेत किया बैठने के लिए। वे लोग बैठ गये। कुशल समाचार के उपरान्त उनकी जेब में लिखित प्रथम प्रश्न का उत्तर बिना पूछे ही गुरुदेव दे देने की कृपा करते हैं। जैसे ही प्रथम प्रश्न का उत्तर उनको मिला, वैसे ही वे आश्चर्यचकित होकर शिवचन्द्र बाबू की ओर देखने लगे। जब क्रम-क्रम से उनके सातो प्रश्नों के उत्तर बातचीत के क्रम में मिल गये, तब तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वे कहने लगे कि वस्तुतः वे हृदय की बात जानते हैं।
इसलिए भगवान श्रीरामकहते हैं-‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा।’ संत की नैसर्गिक आभा तुममें प्रवेश करेगी और तुममें परिवर्तन लाएगी। वे जो कुछ कहें, उसको मन लगाकर सुनो। यह दूसरी भक्ति है। ‘दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।’ ऐसा नहीं है कि तन तो रहे सत्संग में और मन रहे बाजार में, कारोबार में। जहाँ तन रहे, वहाँ मन रहना चाहिए। यदि तन के साथ मन नहीं रहे, तो लाभ क्या होगा? संत तुलसी साहब ने कहा, ‘ जब रंग संग अपंग लाली री, अंग सत मत मन करे।’ जब सत्संग का रंग मन पर चढ़ जाएगा, तो मन के जो कुत्सित विचार है, वे विनष्ट हो जाएँगे। मन की जो चंचलता है, वह शांत हो जाएगी। इसलिए संतों का संग करो। फिर ‘दूसरि रति मम कथा प्रसंगा’ कहा। जब कथा-प्रसंग में प्रभु की महिमा सुनोगे, तो मन में होगा कि मैं भी ईश्वर की भक्ति करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो। तो कल्याण के लिए किसके पास जाओगे?
जब बच्चे मैट्रिक पास करते हैं, तो उनके पास एक प्रश्न-चिह्न आता है-कॉमर्स पढ़ोगे, आर्ट्स पढ़ोगे या साइन्स पढ़ोगे? अगर वह साइन्स पढ़ना चाहे; किन्तु कॉमर्स-प्रोफेसर के पास जाए, तो क्या पढ़ेगा? जिनको कॉमर्स सीखना है; किन्तु वह आर्ट्स के प्रोफेसर के पास जाए, तो वहाँ वह क्या सीखेगा? इसी प्रकार आर्ट्स सीखना है; लेकिन साइन्स प्रोफेसर के पास जाए, तो क्या सीखेगा? आर्ट्स सीखना है, तो आर्ट्स प्रोफेसर के पास जाओ। कॉमर्स के लिए कॉमर्स के प्रोफेसर के पास जाओ और साइन्स सीखना है, तो साइन्स प्रोफेसर के पास जाओ। ठीक इसी भाँति यदि अध्यात्म ज्ञान सीखना है, तो जो अध्यात्म के गुरु हैं, उनके पास जाओ। इसीलिए भगवान श्रीराम कहते हैं-
‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।’
गुरु की शरण जाओ। अहंकार-रहित होकर उनकी सेवा करो। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
अर्थात् तत्त्वदर्शी के पास जाओ, अनुनय-विनय करो, वे तुम्हारी जिज्ञासा तृप्त करेंगे। संत कबीर साहब ने भी यही बात कही है। संभवतः उनकी बात सुनने में आपलोगों को कुछ उलटी-पलटी लगे; परन्तु है बात सुलटी। कबीर साहब कहते हैं-
“ पाप करे बिनु गति नहीं, पाप करै तब चैन ।
कहै कबीर विचारि के, पाप करो दिन रैन ।।”
कैसी उलटी-सी बात मालूम पड़ती है; लेकिन है सुलटी। ‘पाप करे’ शब्दों में चार अक्षर है, उनमे से एक अक्षर ‘पा’ को एक ओर कर दीजिए, तो इधर तीन अक्षर बच जाते हैं-‘पकरे’। अर्थात् ‘पा पकरे बिनु गति नहीं।’ ‘पाप करे तो चैन’-इस पंक्ति में भी पा को अलग कर लीजिए, तब हो जाएगा-‘पा पकरै तब चैन।’ ‘कहै कबीर विचारि के, पाप करो दिन रैन।’ इसमें भी पहले की भाँति ‘पा’ को पृथक् कर लीजिए, तब हो जाएगा-पकरो। कहने का तात्पर्य यह है कि संतों के ‘पा’ यानी पैर-चरण पकड़े बिना गति नहीं है। उनकी चरण-शरण ग्रहण करने पर ही चैन मिल सकता है। इसलिए दिन-रात संत-चरण में रहो। उन्हीं संतों में से कोई हमारे गुरु होते हैं। उन संत सद्गुरु की शरण में जाओ, उनसे शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करो। वे क्या बतलाएँगे? निष्कपट होकर ईश्वर की स्तुति करने के लिए बतलाएँगे। यह चौथी भक्ति होगी।
‘चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।’
इसके पश्चात् ‘मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा’। दृढ़ विश्वास के साथ मंत्र का जप करो। जप क्या है? ‘जपात् सिद्धिः’। अगर ठीक-ठिकाने से कोई जप करता है यानी एकाग्रतापूर्वक जप करता है, तो उसे सिद्धि मिल जाती है। कुन्ती देवी ने जप करके सिद्धि प्राप्त की थी। वह जिस देवता को आवाहन करती थी, वह देवता आ जाते थे। हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
“ गुरु गुरु गुरु कल्प विटप, गुरु गुरु गुरु मेँहीँ जप ।
गुरु जाप जपन साँचो तप, सकल काज सारनं ।।”
जप क्या है? कल्पवृक्ष के समान है। कल्पवृक्ष के नीचे जाइये, जो कामना कीजिए, पूरी होगी। जप एकाग्रतापूर्वक होना चाहिए। जो जप ठीक से कर लेता है, वह बहुत बड़ा तप कर लेता है। ‘गुरु जाप जपन साँचो तप।’ उसका परिणाम क्या होगा? तो कहा-‘सकल काज सारनं।’ फिर तो वह होना ही होना है। जिसके नाम का हम जप करते हैं, उसे इष्ट का रूप हमारे सामने आना चाहिए। उस इष्ट के रूप का ध्यान कीजिए। इस प्रकार मानस जप और मानस ध्यान हो जाएगा। यह पाँचवीं भक्ति हो जाएगी। छठी भक्ति में ‘छठ दम सील बिरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।’ छठी भक्ति कहती है-दमशील बनो अर्थात् इन्द्रियनिग्रह के स्वभाववाले बनो। हमारी इन्द्रियाँ विषयों में तब जाती हैं, जब प्रेरणा मन की होती है। मन की प्रेरणा से ही इन्द्रियाँ विषयों में जाती हैं। दम की साधना में मन और इन्द्रियों की संग-संग क्रिया होती है। प्राथमिकता इन्द्रियों की रहती है। इसलिए पहले इन्द्रियनिग्रह करो, जिससे वह विषयों में नहीं जाए। इसके लिए क्या करना होगा? हमारे गुरुदेव कहा करते थे-एक कमरे में तुम सोये हुए हों एकाएक पाँच आदमी आकर तुम्हारे पाँच अंगों को पाँच ओर खींचें यानी दो आदमी तुम्हारी दोनों टाँगों को खींचें, दो आदमी तुम्हारे दोनों हाथों को खींचे और एक आदमी तुम्हारे सिर को खींचे। पाँचो अंगों को यदि पाँचो आदमी अपनी-अपनी ओर खींचें, तो तुम्हारे शरीर में क्या बल रह जाएगा? कुछ भी नहीं? लेकिन यदि पाँचो छोड़ दें और तुम उठकर बैठो और जकड़कर किसी को दोनों हाथों से पकड़ लो, तो क्या होगा? सम्पूर्ण शरीर का बल दोनों हाथों पर आ जाएगा। उसी तरह हमारी जो पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ पाँ विषयों में दौड़ रही हैं; हमारी चेतन धाराएँ पाँचो ओर भाग रही हैं, इसलिए कोई ताकत मालूम नहीं पड़ रही है, आत्मबल नहीं मालूम पड़ रहा है। उन्हें छोड़ दो। गोस्वामीजी कहते हैं-
“ पाँचइ पाँच परस रस, गंध शब्द अरु रूप ।
इन्हकर कहा न कीजिए, बहुरि परब भव कूप ।।”
इनसे अपने को समेटो। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ मन पाँचो के वश पड़ा, मन के बस नहिं पाँच ।
अपने अपने स्वाद में, सभी नचावै नाच ।।”
उन विषयों में पड़कर हम नाच रहे हैं। उन पंच विषयों से छूटकारा कैसे मिलेगा? इसके लिए क्रिया करनी पड़ेगी। वह क्रिया है दृष्टियोग। जहाँ दृष्टि की दोनों धाराएँ मिलकर एक होगी, सम्पूर्ण शरीर में जो चेतन धाराएँ बिखरी हुई हैं, एकत्रित हो जाएँगी। तब क्या होगा? जैसे दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है, उसी तरह दृष्टि की दोनों धाराएँ जहाँ पर मिलेंगी, वहाँ पर विन्दु होगा। हमलोग पढ़ते हैं कि कल्पना किया कि ‘अ ब स’ एक त्रिभुज है। हमारे सामने त्रिभुज बना हुआ है, फिर भी हम कहते हैं कि कल्पना किया कि ‘अ ब स’ एक त्रिभुज है। ऐसा क्यों कहते हैं? इसलिए कहते हैं कि त्रिभुज बनता है रखाओं से और रेखाएँ बनती हैं विन्दुओं से। हम कलम की नोंक जहाँ रखते हैं, उसको कहते हैं विन्दु। उसी को लम्बा खींचकर कह देते हैं-रेखा। एक पड़ी रेखा के दोनों सिरों से दो तिरछी रेखाओं को ऊपर ले जाकर मिलाते हैं, उसी को कहते हैं त्रिभुज। हम विन्दु की परिभाषा पढ़ते हैं-विन्दु उसको कहते हैं जिसका स्थान है, परिमाण नहीं अर्थात् लंबाई, चौड़ाई, मोटाई कुछ नहीं। रेखा उसको कहते हैं जिसमें लंबाई होती है, चौड़ाई नहीं।
आजतक बाह्य जगत् में किसी ने भी इस प्रकार का विन्दु देखा या ऐसी रेखा देखी, जिस रेखा में लंबाई हो, चौड़ाई नहीं? कलम की नोंक जहाँ पड़ी, वहाँ जो छोटा-सा चिह्न उत्पन्न हुआ, लोग उसी को विन्दु कहते हैं। वह यथार्थ विन्दु नहीं है, कल्पित विन्दु है। इसलिए कल्पित विन्दु से जो रेखा बनी, वह कल्पित रेखा है और उस रेखा से जो त्रिभुज बना, वह कल्पित नहीं है, तो सही कहाँ से होगा? इसलिए कहते हैं कि कल्पना किया कि ‘अ ब स’ एक त्रिभुज है। विचारणीय विषय यह है कि कोई भी चीज पहले असली होती है, फिर उसकी नकल होती है। उसी तरह वास्तव में असली विन्दु अंदर है, जिसकी नकल बाहर में है। इसी प्रकार असली रेखा अंदर है, जिसका बाहर में नकल है। रेखागणित बताता है कि दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है। हमारी जो दृष्टि की धारें हैं, उनमें लंबाई है, चौड़ाई नहीं। चौड़ाई उसको कहते हैं, जो लंबाई के अतिरिक्त उसके पार्श्व स्थान को ढँकती है। हमारी दृष्टि की धारें यहाँ से सूर्य तक चली जाती हैं। उनमें लंबाई है, पार्श्व स्थान को ढकती नहीं है। अतएव उनमें चौड़ाई नहीं है। ये दोनों रेखाएँ जहाँ जाकर मिलेंगी, वहाँ पर यथार्थ विन्दु उत्पन्न होगा; क्योंकि सही रेखाओं में मिलन से सही विन्दु होना स्वाभाविक है। हमारे फाउण्टेन पेन में जिस रंग की स्याही होती है, जहाँ हम लेखनी की नोंक रखते हैं, वहाँ उसी रंग का एक छोटा चिह्न होता है, उसको विन्दु कहते हैं। काली स्याही है, तो काला चिह्न उत्पन्न होता है। लाल स्याही है, तो लाल चिह्न उत्पन्न होता है। उसी तरह हमारी जो दृष्टि की धाराएँ हैं, वे कैसी हैं? हमारी दृष्टि की धाराएँ प्रकाशमयी हैं। प्रकाशमयी धाराएँ जहाँ जाकर मिलेंगी, वहाँ पर जो विन्दु उत्पन्न होगा, वह प्रकाशमय विन्दु होगा। उस प्रकाशमय विन्दु पर जब हम प्रतिष्ठित हो जाएँगे, अपनी सारी बाह्य इन्द्रियों से छूटकर हम उसपर आरूढ़ हो जाएँगे। इस प्रकार इन्द्रियनिग्रह हो जाएगा, तब इन्द्रियाँ हमारा कुछ नहीं कर सकतीं; क्योंकि हम भीतर चले गये। जबतक हम पिंड में थे, इन्द्रियाँ सताती थीं। अब हम पिंड में नहीं हैं, ब्रह्मांड में चले गये। जबतक हम अंधकार में थे; अंधकार का रूप काला होता है, काले क्षेत्र में रहने के कारण काला काम करते थे, हमारे काले कारनामे थे। अब हम काले में नहीं रहे, उजाले में चले आए। इसलिए अब जो हमारा कर्म होगा, वह प्रकाशमय कर्म होगा। अब अंधकार का अज्ञानमय कर्म नहीं होगा। संत राधा स्वामी साहब के वचन में आया है-
‘इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।’
जबतक हम अंधकार में रहेंगे, हमसे भूल होती रहेगी। भूल कर्म करके भले ही हम पीछे पश्चात्ताप कर लें कि यह काम हमको नहीं करना चाहिए था; लेकिन हमने कर लिया। पश्चात्ताप करेंगे; लेकिन कुछ काल के पश्चात् मौका पाकर पुनः कर लेंगे। लेकिन जो कोई अंधकार से प्रकाश में चले जाते हैं, उनसे वह अंधकार का अज्ञानमय काम नहीं होता है। वे ज्ञान में प्रतिष्ठित रहते हैं। इसलिए प्रकाशपूर्ण उनका काम होता है। उनका काम उज्ज्वल होता है। उनका जीवन उज्ज्वल होता है। मेरे कहने का तात्पर्य यह कि छठी भक्ति इन्द्रिय-निग्रह है, जो दृष्टि- साधन की क्रिया से साधित होती है। सातवीं भक्ति के लिए भगवान क्या कहते हैं-
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा
मोतें अधिक संत करि लेखा ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरित-
मानस में ‘श’ और ‘स’ में कोई अंतर नहीं रखा है। अगर हम ‘सम’ कहते हैं, तो ‘सम’ का अर्थ है-समता। सातवीं भक्ति समता प्राप्त करनी है। वह कैसे होगी? जबतक कोई शम की साधना नहीं करेगा, तबतक समता नहीं आएगी। शम की साधना क्या है? वह है मनोनिग्रह। मनोनिग्रह कैसे होता है? कबीर साहब ने कहा है-
“ सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि ।
सत्तसब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।”
यानी शब्द-साधना से-नादानुसंधान से मन वश में होता है। नादविन्दूपनिषद् में नादानुसंधान की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी हैै।
“ सर्वचिन्तां समुत्सृज्य सर्वचेष्टा विवर्जितः ।
नादमेवानुसंदध्यान्नादे चित्तं विलीयते ।।41।।”
अर्थात् सब चिन्ताओं और सब चेष्टाओं को त्यागकर योगी नाद का ही ध्यान करता हुआ नाद में चित्त को लय करे।
“ मकरन्दं पिबन्भृंगो गन्धान्नापेक्षते यथा ।
नादासक्तं सदा चित्तं विषयं न हि कांक्षति ।
बद्धः सुनादगन्धेन सद्यः संत्यक्तचापलः ।।42।।”
अर्थात् जिस प्रकार भौंरा फूल के केसर वा रस का पान करता हुआ उसकी सुगन्ध की चिन्ता नहीं करता है, उसी प्रकार चित्त जो नाद में सर्वदा लीन रहता है, विषय-चाहना नहीं करता है; क्योंकि वह नाद की मिठास में वशीभूत है तथा अपनी चंचल प्रकृति को त्याग चुका है।।42।।
“ नादग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः ।
विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्न हि धावति ।।43।।”
अर्थात् नागरूप चित्त नाद का अभ्यास करते-करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर नाद में अपने को एकाग्र करता है।।
“ नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
अन्तरंगसमुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।45।।”
अर्थात् मृग-रूपी चित्त को बाँधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र-तरंग-रूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है।।
“ मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।।44।।”
जिस तरह हाथी कदलीवन में जाकर उत्पात मचाता है, तोड़ता है, फोड़ता है, घूमता है, विचरण करता है और जब महावत आता है, अंकुश मारता है, तो हाथी पीछे लौटता है, उसी तरह हमारा मनरूपी गजराज विषय की वाटिका में भ्रमण करता है। जब शब्द का अंकुश उसको लगता है, तो उधर से पीछे की ओर होता है अर्थात् विषय से निर्विषय की ओर होता है। यह निर्विषय तत्त्व परमात्मा है।
इस प्रकार नादानुसंधान के द्वारा परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। जिनको प्रभु की प्राप्ति हो जाती है, उनको आठवीं और नवमी भक्ति करने के लिए कुछ साधना करनी नहीं पड़ती; क्योंकि आठवीं और नवमी भक्ति तो उनका स्वभाव हो जाती है। आठवीं भक्ति में कहा गया है-यथालाभ में संतोष करना और परदोष-दर्शन नहीं करना।
जिनको परम प्रभु परमात्मा प्राप्त हो जाएँ, उनको अप्राप्य क्या रह जाएगा? उनको तो जीवन-यापन के लिए जो कुछ मिल जाएगा, उसी में वे संतुष्ट होकर रहेंगे। जो जग को ‘सियाराममय’ देखेंगे, सब में ब्रह्मदर्शन करेंगे, उन आत्मदृष्टि प्राप्त संत को द्वैत दृष्टि या दोष दृष्टि क्योंकर आएगी! उनमें ऋजुता और छलहीनता नहीं आएगी, तो और किसमें आएगी? जो ब्रह्म को प्राप्त कर ब्रह्मस्वरूप हो जाएँगे, वे संसार की आशा क्योंकर करेंगे? वे शोक, मोह, भय, हर्ष, विषाद-सबसे परे हो जाएँगे। उस स्थिति कें संबंध में गो0 तुलसीदासजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ शोक मोह भय हरष दिवस
निशि देश काल तहँ नाहीं।”
और भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
“ न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।”
(गीता, 15/6)
परम भक्तिन शबरी ने नवो प्रकार की भक्ति में निपुणता प्राप्त कर उस स्थिति को प्राप्त कर लिया था। इसलिए योगान्ति में शरीर का परित्याग कर प्रभु उस पद में जाकर लीन हो गयी, जहाँ से कोई लौटता नहीं है। गोस्वामीजी कहते हैं-
“ जातिहीन अघ जनम महिं, मुकुत कीन्ह अस नारि ।
महामन्द मन सुख चहसि, ऐसे प्रभुहिं बिसारि ।।”
यदि हम अपना कल्याण चाहते हैं, तो हमको ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए। यह कठिन योग नहीं है; सरल योग है, सहज योग है, सबके करनेयोग्य है। धनी-निर्धन, विद्वान-अविद्वान, नर-नारी-सभी ईश्वर-भक्ति के समान अधिकारी हैं। हमारे पूज्य गुरुदेव की घोषणा है-
“ जितने मनुष तन धारि हैं,
प्रभु भक्ति कर सकते सभी ।”
यहाँ जाति-पाँति की कोई बात नहीं है-
“ जात पात पूछै न कोई ।
हरि को भजै सो हरि को होई ।।”
इतना कहकर मैं अपनी वाणी में विराम देता हूँ और जिन सज्जनों ने इस सत्संग का आयोजन किया है, उनको हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। साथ ही, इस सत्संग-रूपी महानगरी में जिन सज्जनों ने तन से, मन से, धन से, वा वचन से-जिस किसी प्रकार से योगदान दिया है, वे सभी धन्यवाद के पात्र हैं। उन सबों को भी हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन गोड्डा जिले के कोरका ग्राम में दिनांक 30-1-1995 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी+परवरी 1998 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
बच्चा जब छोटा रहता है, तो उसके माता-पिता उसको दीवार के सहारे खड़ा कर देते हैं। बच्चा दीवार का सहारा लेकर दो-चार डेग चलता है, गिर जाता है। फिर वह दीवार का सहारा लेकर खड़ा होता है और चलने लगता है। इस तरह सहारा लेकर वह कुछ दिनों तक चलता है, पश्चात् वह दीवार छोड़कर खड़ा हो जाता है और एक-दो डेग करके चलने लगता है। धीरे-धीरे वह दीवार का सहारा छोड़कर चलने लगता है। और कुछ दिनों के बाद वह दौड़ने भी लग जाता है। जिस तरह दीवार का सहारा लेकर बच्चा खड़ा होता है या माँ-बाप अपनी अंगुली पकड़ाकर धीरे-धीरे उसको डेग-डेग चलाते हैं, पीछे वह बच्चा स्वयं चलने-फिरने व दौड़ने लग जाता है, उसी तरह मैं भी संतमत का एक छोटा बच्चा हूँ। स्वयं तो अपना कुछ ज्ञान है नहीं, इसलिए संतों की वाणी का सहारा लेता हूँ। उसी के सहारे चलता हूँ। जब कभी गुरु महाराज की कृपा हो जाएगी, तो स्वयं खड़ा हो जाऊँगा। (श्रोताओं की ओर से सद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि।)
भगवान बुद्ध ने कहा, ‘हमारी वर्तमान हालत हमारे विचारों का फल है। उसकी बुनियाद हमारे विचारों पर है। वह हमारे विचारों से बनी है। मनुष्य अगर बुरी कल्पना से बोलता या काम करता है, तो दुःख उसके पीछे-पीछे वैसे ही चलता है, जैसे बैलगाड़ी खींचनेवाले बैल के पीछे-पीछे गाड़ी का चक्का।’ फिर उन्होंने कहा कि ‘हमारी वर्तमान हालत हमारे विचारों का फल है। उसकी बुनियाद हमारे विचारों पर है। वह हमारे विचारों से बनी है। मनुष्य अगर अच्छी कल्पना से बोलता या काम करता है, तो सुख उसके पीछे-पीछे वैसे ही चलता है, जैसे उसके शरीर की छाया, जो उसे कभी नहीं छोड़ती।’
इसलिए किसी भी कार्य को करने से पहले सोच लेना चाहिए। काम करने से पहले जो सोच लेता है यानी जो सोचकर काम करता है, वह उसकी बुद्धिमत्ता कहलाती है। काम करते हुए सोचते जाना अथवा सोचते हुए काम करते जाना, यह सतर्कता कहलाती है। और उसके पीछे पश्चात्ताप करना, मूर्खता कहलाती है।
रामचरितमानस में एक प्रसंग आया है-जब मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मणजी के साथ वनवास कर रहे थे, उस समय भरतजी ननिहाल में थे। अयोध्या आने पर वहाँ का सारा समाचार उनको ज्ञात हुआ। तब वे गुरु वशिष्ठजी, मुनियों, अपनी माताओं और पुरवासियों-सहित ससैन्य भगवान श्रीराम को मनाने के लिए कानन गए थे। भगवान श्रीराम जहाँ वन में निवास कर रहे थे, उसके थोड़ी दूर पर जब चतुरंगिनी सेना पहुँची तो उन सबके पदाघात से धूल उड़कर आसमान में छाने लगी। पता चला कि भरतजी चतुरंगिनी सेना के साथ आ रहे हैं। लक्ष्मणजी शेषावतार थे। वे आवेश में आ गए, यह समझकर कि भरतजी राज्य पाकर राजमद में आ गये हैं। वे आक्रमण करके हमलोगों को मारकर निष्कंटक राज्य करना चाहते हैं। लक्ष्मणजी क्रोधित स्वर में बोले, ‘अच्छा आवें भरतजी, उसको मजा चखा दूँगा। समरक्षेत्र में उनको धराशायी करके दिखा दूँगा कि लक्ष्मण में क्या शक्ति है! भगवान राम लक्ष्मण को समझाते हैं कि भाई लक्ष्मण सुनो-
“ भरतहिं होइ न राजमद, विधि हरिहर पद पाइ ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि, छीर सिन्धु विनसाइ ।।”
लक्ष्मण! भरत को राजमद नहीं हो सकता। अयोध्या का राज्य क्या है? यह तो बहुत छोटा-सा है, अगर भरत को ‘विधि हरिहर का पद’ मिल जाए-ब्रह्मा, विष्णु, महेश का पद मिल जाए, तब भी भरत को राजमद नहीं हो सकता। अरे! क्षीरसमुद्र को क्या एक बूँद खटाई फाड़ सकती है। तुम शांत हो रहो, आवेश में मत आओ। आकाशवाणी होती है-
“ अनुचित उचित काजु कछु होऊ ।
समुझि करिय भल कह सब कोऊ ।।”
उचित-अनुचित को अच्छी तरह समझ करके जो कोई काम करते हैं, तो सब कोई उसको अच्छा कहते हैं। अन्यथा-
“ सहसा करि पाछे पछिताहीं ।
कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं ।।”
अर्थात् एकाएक जोश में आकर जो काम नहीं करना चाहिए कर बैठे और पीछे पश्चात्ताप करने लग जाए, तो वेद और विद्वान उसको बुद्धिमान नहीं कहते हैं। इसलिए किसी काम करने से पहले भली भाँति समझ-बूझ लेना चाहिए।
हम जो कुछ भी कार्य करते हैं, वे दो तरह के होते हैं, एक को शुभ कहते हैं और दूसरे को अशुभ। एक को पुण्य कहते हैं और दूसरे को पाप। अशुभ कार्य या पाप कर्म का फल बुरा होता है। शुभ कर्म या पुण्य कर्म फल उत्तम होता है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
“ तुलसी यह तन खेत है, मन बच करम किसान ।
पाप पुण्य दो बीज है, बुवै सो लुणै निदान ।।”
हमलोग खेत में बीज बोते हैं। वह अंकुरित होता है, पल्लवित होता है, पुष्पित होता है और फलित होता है। हमलोग जो बीज जिस खेत में बोते हैं, उसमें वही फल लगता है और कई गुणा होकर फल लगता है। उसी की उपमा देते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-यह शरीर खेत है और मन, वचन, कर्म; ये किसान हैं। पाप और पुण्य; ये दोनों बीज हैं। हम जैसा बोएँगे, वैसा ही फल पाएँगें हम आम की एक गुठली जमीन में लगाते हैं। उसी गुठली से अंकुर निकलता है, पेड़ होता है और पेड़ बड़ा हो जाता है। वह जब फल देने लगता है, तो कितना फल देता है? लगाया तो एक ही आम; लेकिन बदले में हजारों आम फलते हैं, मिलते हैं। खेत में एक मन गेहूँ बो देते हैं और जब काटने के लिए जाते हैं तो कई मन गेहूँ काटते हैं। उसी तरह यदि हम अच्छे कर्म करें या बुरे कर्म, थोड़ा भी करते हैं, तो उसका फल बहुत होकर मिलता है। इसलिए बुरे कर्म करना ही नहीं चाहिए; क्योंकि इसका परिणाम दुःखद होता है। शुभ कर्म करना चाहिए, ताकि अच्छा फल आवे और अधिक होकर आवे।
भगवान श्रीकृष्ण ने जब शिशुपाल का वध किया था, तो अपने ही हथियार से भगवान की अंगुली कट गयी। रक्त निकलने लग गया। भगवान द्रौपदी के पास आ गये। द्रौपदी ने देखा कि भगवान की अंगुली से रक्त श्रावित हो रहा है। उसने झट अपनी साड़ी का आँचल फाड़कर भगवान की अंगुली में लपेट दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, ‘द्रौपदी! तुमने अपनी साड़ी से मेरी रक्षा की है। मैं भी साड़ी से तेरी रक्षा करूँगा। साड़ी के बदले साड़ी दूँगा।’ द्रौपदी के मुँह से तो कुछ बोली नहीं; लेकिन मन-ही-मन सोचने लगी, मेरे पास तो कितनी दास-दासियाँ हैं, नौकर- नौकरानियाँ हैं, सबको मैं कितने कपड़े देती हूँ, इसका कोई ठिकाना नहीं! और ये हमको कपड़ा देंगे! भगवान कैसी बात कर रहे हैं? चार अंगुल कपड़ा द्रौपदी ने बीज रूप में बोया। अब देखिये, समय आने पर वह कितना फलित होता है।
जब महाराजा युधिष्ठिर जुआ में कौरवों के हाथ सब कुछ हार गये, यहाँ तक कि द्रौपदी को भी हार गये, तब दुर्योधन ने दुःशासन से कहा, ‘जाओ, द्रौपदी को ले आओ।’ द्रौपदी अब पांडवों की नहीं रही, वह मेरी हो गयी है।’ दुःशासन जाता है और द्रौपदी से कहता है, ‘सभा में चलो।’ द्रौपदी कहती है,‘मैं रजस्वला हूँ, एकवस्त्र हूँ, मुझे मत ले जाओ।’ लेकिन वह क्रूरकर्मी, क्या माननेवाला था? कहता है, ‘तुमको जाना ही होगा।’ द्रौपदी जाना नहीं चाहती है, तो वह घसीटकर ले जाता है और कहता है,‘तुम अब पांडवों की रही नहीं। अब तुम मेरी हो, मैं जहाँ ले जाना चाहूँगा, तुमको जाना होगा।’ कौरवों की सभा लगी हुई थी। द्रौपदी को वहाँ लाकर खड़ा कर दिया गया। दुर्योधन दुःशासन को आदेश देता है,‘इसकी साड़ी खींच लो।’ दुःशासन की भुजा में दस हजार हाथी का बल था। एक अबला नारी, क्या करती बेचारी? बड़े-बड़े विद्वान, पंडित, शूर-वीर; सब उस सभा में बैठे हुए थे। लेकिन किसी के मुँह से चूँ शब्द नहीं निकला कि एक नारी के साथ ऐसा अत्याचार क्यों कर रहे हो? द्रौपदी के पाँचो पति भी वहाँ बैठे हुए थे, कुछ बोल नहीं सकते थे। द्रौपदी इधर-उधर देखती है और सोचती है कि यहाँ कोई भी मेरी सहायता करनेवाला नहीं है। अब मेरी प्रतिष्ठा जाने ही को है। भगवान का स्मरण कर कहती है-
“ दुःख हरो द्वारिकानाथ शरण में तेरी ।
बिन काज आज महाराज लाज गयी मेरी ।।
दुःशासन वंश कुठार महा दुःखदाई ।
कर पकड़त मेरी चीर लाज नहीं आई ।।
पाँचो पति बैठे मौन कौन गति होई ।
ले नन्दनन्दन को नाम द्रौपदी रोई ।।
करि करि विलाप संताप सभा में टेरी ।
दुःख हरो द्वारिकानाथ शरण में तेरी ।।”
भगवान को दीनानाथ कहा गया है। जब कोई दीन होकर उनको पुकारता है, तो वे अवश्य सुनते हैं। भगवान ने उसकी पुकार सुन ली। भगवान की कृपा होती है, साड़ी बढ़ती है। बढ़ते-बढ़ते साड़ी इतनी बढ़ जाती है कि दुःशासन की भुजा का दस हजार हाथी का बल शेष हो जाता है; लेकिन साड़ी शेष नहीं होती है। द्रौपदी की प्रतिष्ठा बच जाती है।
समझने की बात यह है कि भगवान श्रीकृष्ण की अंगुली बाँधने में द्रौपदी का कितना कपड़ा लगा होगा? इस थोड़े-से कपड़े के बदले उन्हें कितने कपड़े मिले! खींचते-खींचते साड़ी का पहाड़ बन गया।
इसलिए यदि कोई थोड़ा-सा भी पुण्य करता है, शुभ कर्म करता है, तो वह बहुत बड़ा पुण्य लेकर आता है। उसी तरह अशुभ कर्म के लिए भी समझना चाहिए। अगर कोई थोड़ा-सा भी अशुभ कर्म करते हैं, तो बहुत बड़ा अशुभ फल लेकर आता है। इसलिए अशुभ कर्म तो करना ही नहीं चाहिए। जो कुछ करें, तो शुभ ही करें।
महाभारत युद्ध के बाद कौरवों की हार हुई और महाराजा युधिष्ठिर राजगद्दी पर बैठे। एक दिन पाँचो पाण्डव एक साथ बैठे हुए थे। द्रौपदी भी बैठी हुई थी। संयोग से भगवान श्रीकृष्ण आ गये। उनको आदर से आसन पर बैठाया गया। आपस में बातचीत होने लगी। बातचीत के क्रम में द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा, ‘कृष्ण! कौरवों की सभा में जब मेरी साड़ी खींची जा रही थी, उस समय मैं आपको पुकार रही थी; लेकिन आप तो सुन ही नहीं रहे थे। जब मेरी पूरी फजीहत हो गयी, तब आपने सुनी, ऐसा क्यों? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-द्रौपदी! यह मानवीय मानसिक दुर्बलता है कि लोग दूसरे का ही दोष देखते हैं, अपना दोष नहीं देखते। दूसरे का यदि थोड़ा-सा भी दोष है, तो उसको वे पहाड़ के समान समझते हैं और अपना यदि पहाड़ के समान दोष है, तो उसे वे ढककर रखते हैं कि लोग जानने न पाए।
“ देखि के परदोष रज सम, कहत गिरि सम सोय रे ।
दोष अपने मेरु मस हैं, तिन्हें राखत गोय रे ।।”
द्रौपदी कहती है, ‘मेरा क्या दोष है, बतलाइये?’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, ‘तुम मुझे क्या कहकर पुकार रही थी?’ तुम पुकार रही थी-‘दुःख हरो द्वारिकानाथ शरण में तेरी ।’ तुम मुझे द्वारिकानाथ कहकर पुकार रही थी। तो द्वारिका से दिल्ली आने में देर लगेगी या नहीं, तुम्हीं बतलाओ? पर बाद में जब तुमने कहा-‘हृदयेश! मेरी रक्षा करो’ तो जैसे ही तुमने ‘हृदयेश’ कहकर पुकारा, वैसे ही मैं तुम्हारी साड़ी में प्रवेश कर गया और दुःशासन का बल शेष हो गया, तुम्हारी साड़ी निःशेष रही।
वास्तविक बात तो यह है कि भक्त के पुकारने में देरी हो सकती है, भगवान के पधारने में देरी नहीं होती। पुकारने में भी भेद है। आचार्य बिनोवा भावे कहते थे, ‘हमलोग जो भगवान से प्रार्थना करते हैं, तो भगवान हमारी कुछ प्रार्थना सुनते हैं और कुछ नहीं सुनते हैं?’ कौन-सी प्रार्थना सुनते हैं और कौन-सी नहीं सुनते हैं? उन्होंने कहा, ‘देखो! एक गाड़ी कटिहार से दिल्ली जाती है और दूसरी गाड़ी कटिहार से कलकत्ता जाती है। जो गाड़ी कलकत्ता जाती है, उस गाड़ी पर बैठ जाओ और प्रार्थना करो कि हे प्रभु! हमको सकुशल कलकत्ता पहुँचा दो, तो यह प्रार्थना परमात्मा सुन लेंगे। पर जो गाड़ी कटिहार से दिल्ली जाती है, उसपर बैठकर कहो कि हे परमात्मा! हमको सकुशल कलकत्ता पहुँचा दो, तो यह प्रार्थना परमात्मा नहीं सुनेंगे।’ प्रार्थना तो हमलोग करते हैं; लेकिन प्रार्थना में भी भेद हो जाता है। और भगवान के सुनने में भी भेद हो जाता है। वे मुख की नहीं, हृदय की पुकार सुनते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण का वचन गीता में है- ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ हमें कर्म करने का अधिकार दिया गया है; लेकिन उसका फल लेने का अधिकार हमारे हाथ में नहीं दिया गया है। जो कर्म हम करना चाहें, कर सकते हैं; लेकिन फल भगवान स्वयं देते हैं। भगवान फल देंगे, तो क्या-क्या देंगे? हम जैसा कर्म करेंगे, उसी के अनुरूप वे फल देंगे। यदि कर्म करने की स्वतंत्रता के साथ फल लेने की स्वतंत्रता दे दी गयी होती, तो आदमी कर्म बुरे-बुरे करता और जब फल लेने का समय आता भंडार से चुन-चुनकर अच्छे-अच्छे फल ले लेता। व्यासदेवजी कहते हैं-
“ पुण्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छान्ति मानवाः ।
पाप फलं न इच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः ।।”
अर्थात् व्यक्ति पुण्य फल लेने की इच्छा करता है; लेकिन पुण्य करने की इच्छा नहीं करता है। उसी तरह पाप-फल लेने की इच्छा नहीं करता; किन्तु विभिन्न प्रकार से पापों को करता रहता है। कर्म का फल अमिट होता है। सच्छास्त्र वाक्य है-‘अवश्यमेव भुक्तव्यम् कर्मफलशुभाशुभम्।’ कर्मफल अवश्य ही भोगना पड़ता है। निष्कर्ष यह कि हमने जो शुभाशुभ कर्म किये हैं, उसका फल हमको भोगना ही पड़ेगा। इसलिए कहा गया है-
‘कर भला होवे भला, करके भलाई देख ले ।’
लोग कहते हैं कि किसी जमाने में ये बातें होती थीं। लेकिन ये आजकल के लिए सही नहीं हैं। आजकल तो लोग बुरे-बुरे कर्म करते हैं, फिर भी वे अच्छी स्थिति में देखे जाते हैं और जो अच्छे-अच्छे कर्म करते हैं, वे दुःखी देखे जाते हैं।
जमाना कोई भी हो, भगवान के विधान में व्यवधान नहीं होता। हमारे बिहार प्रांत के पड़ोसी बंगाल प्रान्त के कुछ लोग एक कहावत कहते हैं-
“ जेई कोरे पाप सेई सात छेलेर बाप ।
जेई कोरे पुन्न ताँर काये लागे घुन्न ।।”
लेकिन यह बात यथार्थ नहीं है। वास्तविक बात तो यह है कि जैसा करोगे, वैसा ही पाओगे। फिर प्रश्न उदित होता है कि अच्छे कर्म करनेवाले दुःखी और बुरे कर्म करनेवाले सुखी क्यों देखे जाते हैं? उत्तर में निवेदन है-एक घंटे में हम तीन पेड़ लगाते हैं-एक केला का, दूसरा आम का और तीसरा अखरोट का। लेकिन जब हम फल लेना चाहेंगे, तो केला का फल छह महीने से सालभर के अंदर मिलेगा। आम का फल लेना चाहेंगे, तो चार-पाँच साल प्रतीक्षा करनी पड़ेगी और अखरोट का फल लेना चाहेंगे, तो वह चालीस साल के पहले फलता नहीं है। अब मान लीजिए कि जिस समय हमारी उम्र चालीस साल की हुई, उस समय हमने अखरोट का पेड़ लगाया और जब हमारी उम्र साठ साल की हुई तो शरीर छूट गया। अखरोट का फल हम नहीं खा सके। अब जो हमारा दूसरा जन्म होगा, उसमें हम खाएँगे। उसी प्रकार हमने बुरे कर्म का अखरोट लगाया और हमारा शरीर छूट गया। अब जब हमारा दूसरा जन्म हुआ, तो इस नये जन्म में हमारी संगति अच्छी हो गयी। तो हम अच्छी संगति होने से अच्छे-अच्छे कर्म करने लग गए। लेकिन बुरे कर्म का जो अखरोट हमने लगाया था, वह कौन खाएगा?
इसी तरह आज हम अच्छे कर्म कर रहे हैं; लेकिन दुःख भोग रहे हैं। यह दुःख रूपी फल इस इस जन्म का नहीं है, वह पूर्व का फल है। उसी तरह से किसी ने पिछले जन्म में अच्छे-अच्छे कर्म किए थे। उसका शरीर छूट गया और दूसरा जन्म हो गया। संयोगवश इस जन्म में उसकी संगति बुरी हो गयी। बुरी संगति के कारण वह बुरे-बुरे कर्म करता है; लेकिन पूर्व जन्म का जो अच्छे कर्म का अखरोट फल लगाया हुआ है, वह कौन खाएगा? इसलिए बुरे-बुरे कर्म करते हुए भी लोग सुखी देखे जाते हैं और अच्छे-अच्छे कर्म करते हुए भी लोग दुखी देखे जाते हैं। यह कर्म का विधान है। कर्मफल भोगना ही पड़ता है। हमलोगों के जैसे साधारण जन की बात कौन कहे, भीष्म पितामह जब शर-शय्या पर पड़े हुए थे, तो उस समय कौरव-पाण्डव उनके दर्शन करने लिए जाया करते थे। एक बार भगवान श्रीकृष्ण भी गए। भीष्म पितामह ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा, ‘केशव! मैं अपने सौ जन्म पूर्व तक की बात जानता हूँ। मैंने आज से पूर्व के सौ जन्मों तक कोई पाप नहीं किया है, तो फिर किस पाप के कारण मुझे इस प्रकार शर-शय्या पर पड़े रहना पड़ रहा है?’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा,‘पितामह! सौ जन्मों के पूर्व की बात आप नहीं जानते। आपका एक सौ एक (101)वाँ जो पूर्व का जन्म था, उस जन्म में आप राजा थे। रथ पर सवार होकर आप जा रहे थे। राजभवन से कुछ दूर जाने पर एक साँप आपके सामने आया और रास्ते की एक ओर से दूसरी ओर चला गया। आपके मन में हुआ कि साँप ने रास्ता काट दिया, हमारी यात्र खराब हो गई। इसलिए आपने उस साँप को मरवाकर फेंकवा दिया। वह बबूल के पेड़ पर गिरा बबूल के पेड़ में काँटे-ही-काँटे होते हैं। उन काँटों से बिंधकर वह साँप वहीं छटपटाता हुआ मर गया। उसी पाप के कारण आप लोहे के काँटों पर पड़े हैं और उसी पर छटपटाते हुए आपके प्राण निकलेंगे।
यह पौराणिक कथा बतलाती है-एक-दो जन्म की बात कौन कहे, एक सौ एक (101)वाँ जन्म पूर्व के पाप का फल भी भोगना पड़ता है। यह तो द्वापरयुग की बात हुई। अब उसके भी पूर्व त्रेतायुग की बात सुनिये-
भगवान श्रीराम की सुग्रीव से मैत्री हुई। भगवान श्रीराम ने उनसे पूछा, ‘कहिये मित्र! आपको क्या कष्ट है?’ सुग्रीव ने कहा, ‘मैं आपसे अपनी व्यथाओं की बात क्या कहूँ! मेरा राजपाट, धन-दौलत, यहाँ तक की मेरी स्त्री को भी मेरे भाई बालि ने हरण कर लिया है। मुझे रहने का ठौर नहीं है। मैं इस पहाड़ पर इसलिए रह रहा हूँ कि इसपर मेरा भाई शाप के कारण नहीं आ सकता। जैसे ही वह इस पहाड़ पर आएगा, शाप के प्रभाव से मर जाएगा। फिर भी मैं भयभीत रहता हूँ।’ भगवान श्रीराम ने कहा,‘तुम मेरे मित्र हो। तुम्हारे दुःख से दुःखी और तुम्हारे सुख से सुखी होना मेरा कर्तव्य है। नीति कहती है-
“ जे न मित्र दुख होहिं दुखारी ।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ।।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना ।
मित्रक दुख रज मेरु समाना ।।
जिन्ह कें असि मति सहज न आई ।
ते सठ कत हठि करत मिताई ।।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा ।
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा ।।
देत लेत मन संक न धरई ।
बल अनुमान सदा हित करई ।।
बिपति काल कर सत गुन नेहा ।
श्रुति कह सन्त मित्र गुन एहा ।।”
अब बालि केवल तुम्हारा ही शत्रु नहीं है, बल्कि मेरा भी शत्रु है। अतएव-
“ सुनि सुग्रीव मारिहउँ, बालिहिं एकहिं बान ।
ब्रह्म रूद्र शरनागत, गये न उबरिहिं प्रान ।।”
मैं बालि का वध करूँगा। जाओ, तुम उससे युद्ध करो। मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। बालि-सुग्रीव का युद्ध हुआ। बालि ने सुग्रीव को इतनी मार मारी कि वह जान बचाकर भाग गया। उसने भगवान श्रीराम से जाकर कहा-‘आपने हमारी क्या सहायता की? यह तो अच्छा हुआ कि मैं भाग आया, अन्यथा मैं मारा जाता।’ भगवान श्रीराम ने कहा, ‘मित्र सुग्रीव! तुम दोनों भाइयों की आकृति, रंग-रूप एक ही जैसा है। तुम दोनों एक-जैसे दीखते हो, इसलिए मैं ठीक से पहचान नहीं सका। तुम गले में इस माला को डाल लो, तब युद्ध करो। गले में माला रहने से मैं तुमको पहचान जाऊँगा कि तुम सुग्रीव हो और जिसके गले में माला नहीं है, वह बालि है।’ फिर से दोनों का युद्ध प्रारंभ हुआ। बालि को वरदान था कि जो उसके सामने आकर युद्ध करेगा, उसका बल उसमें आ जाएगा। अगर भगवान राम भी बालि के सामने युद्ध करने जाते, तो उनका सारा बल बालि में समा जाता। साथ ही बालि ने जो तपस्या की थी, उसका बल तो उसे था ही। इस तरह भगवान का बल फीका पड़ जाता। इसलिए भगवान राम युद्ध करने सामने नहीं गए। वृक्ष की ओट से भगवान राम ने देखा कि दोनों भाई युद्ध कर रहे हैं। ओट से ही बालि का निशाना कर भगवान ने अपना वाण छोड़ दिया। वाण लगते ही बालि गिरकर धराशायी हो गया। भगवान राम उसके निकट गये। जिस रावण के साथ युद्ध करने में भगवान राम का पसीना छूट गया था, उस रावण को बालि ने अपनी काँख के नीचे छह महीना दबाकर रखा था। वह इतना बड़ा बलशाली था। बालि के प्राण अभी निकले नहीं थे, निर्भीक होकर उसने कहा-
“ धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं ।
मारेहु मोहि व्याध की नाईं ।।”
‘हे स्वामी्! आपका अवतार तो धर्म की रक्षा के लिए हुआ है; लेकिन आपने जो मेरे साथ व्यवहार किया है, वह साधु का व्यवहार नहीं है, व्याध का व्यवहार है।’ बालि के प्राण-पखेरू उड़ गये। राजपाट, धन-दौलत जितना था, सब भगवान राम ने सुग्रीव को दे दिया।
त्रेतायुग के भगवान राम द्वापरयुग में भगवान श्रीकृष्ण बनकर अपने कर्मफल का परिणाम भोगते हैं और अपनी लीला द्वारा हमें संदेश देते हैं-देखो, मैं भगवान कहलाता हूँ, फिर भी मैंने त्रेतायुग में जो कर्म किया था, उसका फल द्वापर युग में भोग रहा हूँ। मैंने व्याधा के रूप में बालि को मारा। वही बालि व्याधा बनकर मुझको मारा है। जब भगवान भी अपना कर्मफल भोगते हैं, तो फिर साधारण जन किस खेत की मूली हैं।
इसलिए हमारा कर्म इस प्रकार का हो, जो बंधनदायक नहीं हो। अभी हमलोगों ने जो ध्यानविन्दूपनिषद् का पाठ सुना, उसमें कहा गया कि यदि सौ योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान पाप हो, तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है। समझने की बात यहाँ यह है कि हमलोग जो कुछ भी कर्म करते हैं। जरूरी नहीं कि हमारे सब कर्म शुद्ध-ही-शुद्ध हों। कुछ-न-कुछ तो अशुद्ध कर्म हो ही जाते हैं। इसी प्रकार दो तरह के लोग होते हैं-एक तो कम पुण्य कर्म करते हैं और पाप कर्म अधिक करते हैं। दूसरे वे होते हैं, जो करते तो पुण्य कर्म ही हैं; लेकिन उनसे भी कुछ चूक होकर अशुभ कर्म हो जाते हैं। जैसे युधिष्ठिर धर्म के अवतार माने जाते थे, वे शुभ-ही-शुभ कर्म करते थे। लेकिन रणक्षेत्र में उनको कहना पड़ा, ‘अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो।’ अशुभ कर्म हो गया। इस पाप का फल उसको भोगना पड़ा। जिनके पाप कर्म अधिक हैं और पुण्य कर्म कम, उनको परमात्मा पहले पुण्य कर्म का फल स्वर्ग भोगाकर, फिर पाप का फल नरक भोगाते हैं। जिनके पुण्य कर्म अधिक हैं और पाप कर्म कम हैं, उनको पहले पाप कर्म का फल नरक भोगाकर, फिर पुण्य कर्म का फल स्वर्ग भोगाते हैं। संत लोग कहते हैं, यह स्वर्ग-नरक का जो भोग है, इसमें आवागमन का चक्र लगा रहता है।
‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् ।’
इसके ऊपर जाओ। इसके ऊपर जाने के लिए ध्यानयोग है। अगर ध्यानयोग करते हो, तो कर्म मंडल को पार कर जाओगे। जबतक कर्ममंडल में रहोगे, आवागमन के चक्र में पड़े रहोगे, दुःख-सुख को भोगते रहोगे। इसलिए अपने को कर्ममंडल से ऊपर उठाओ। यह होगा ध्यानयोग से। ध्यान में स्थूल ध्यान होता है, सूक्ष्म ध्यान होता है। साकार ध्यान होता है, निराकार ध्यान होता है। सगुण ध्यान होता है, निर्गुण ध्यान होता है। स्थूल ध्यान, सूक्ष्म ध्यान, सूक्ष्मतर ध्यान और सूक्ष्मतम ध्यान; इस तरह ध्यान में शृंखलाबद्ध क्रमबद्धता है। जैसे, जबतक कोई मोटे-मोटे अक्षरों को नहीं लिख लेता, महीन अक्षर लिखने की योग्यता नहीं होती। इसलिए अंतस्साधना में पहले मोटा ध्यान है, फिर महीन ध्यान है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 25-02-1995 को कटिहार जिलाधिवेशन, सिक्कट सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 2004 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 84वाँ वार्षिक अधिवेशन होगा। इस वार्षिक अधिवेशन के आयोजक श्रीपरमेश्वर बाबू, श्रीपरमानंद बाबू और श्रीकिसन बाबू तीनों भाई हैं। यह 84वाँ वार्षिक महाधिवेशन बतलाता है कि 84 से छूटना चाहते हैं, तो सत्संग कीजिए। सत्संग करने से परमेश्वर की प्राप्ति होगी तथा परमानन्द मिलेगा; यह श्रीकृष्ण की उक्ति है। सत्संग की बड़ी महिमा गायी गयी है-
“ बिनु सत्संग बिबेक न होई ।
राम कृपा बिना सुलभ न सोई ।।”
(गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज)
श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी महाराज ने कहा है-
“ सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम् ।
निर्मोहत्वे निश्चलितत्वं निश्चलितत्वे जीवन्मुक्तिः ।।”
“ सत्संगति से हो जाता नर विषयों से निस्संग ,
फिर व्यामोह-रहित हो जाता, हो सर्वत्र असंग ।
मोह-विगत होते ही होता मन निश्चलतायुक्त ,
निश्चलता आते ही वह हो जाता जीवन्मुक्त ।।”
सत्संग में दो शब्द है-सत् और संग। सत् क्या है? ‘सत सोई जो बिनसै नाहीं’। यानी अविनाशी तत्त्व। त्रय काल अबाधित तत्त्व को सत् कहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का महावाक्य है-
‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।’
अर्थात् जो सत् है, उसका कभी अभाव नहीं होता और जो असत् है, उसका अस्तित्व ही नहीं है। ऐसा कौन-सा तत्त्व है, जो अविनाशी है, एकरस रहनेवाला है; था, है और रहेगा? वह क्या है? वह परम प्रभु परमात्मा है। उस परम प्रभु परमात्मा का संग वास्तव में सत् का संग है। उस परम प्रभु परमात्मा का संग कौन करेगा? वह शरीर या कोई इन्द्रिय? न तो शरीर और न कोई इन्द्रिय ही। शरीर और इन्द्रिय से पृथक् हम स्वयं ही उसको प्राप्त कर सकेंगे; क्योंकि हम उस परम प्रभु परमात्मा के अभिन्न अंश हैं। यह अंश ही उस अंशी को प्राप्त करने में सक्षम है। यह जीवात्मा सत् है और वह परम प्रभु परमात्मा भी सत् है। इस सत् को उस सत् के साथ मिला देना वास्तविक सत्संग है, यह सर्वोत्कृष्ट सत्संग है। किन्तु एकाएक ही यह संग नहीं हो सकता। इसके लिए अनेक जन्मों के संस्कार की आवश्यकता है।
जिज्ञासा होती है कि सत्संग के नाम पर जो अभी यहाँ इतने लोग इकट्ठे हैं, क्या हम परमात्मा का संग कर रहे हैं? उत्तर में निवेदन है कि जो प्रथम श्रेणी का सत्संग है, वह तो अभी हम नहीं कर रहे हैं; लेकिन उससे निम्न श्रेणी का जो सत्संग कहलाता है, वह कर रहे हैं; क्योंकि संतों के संग और संतवाणी का संग को भी सत्संग कहते हैं। जिसने सत्यस्वरूप सर्वेश्वर का साक्षात्कार कर लिया है, ऐसे साक्षात्कार करनेवाले संत जन होते हैं। ऐसे संत जन, सज्जन का संग भी सहज में सुलभ नहीं होता, दुर्लभ है। अगर ऐसे संत कहीं हों भी, तो हम उनकी पहचान नहीं कर पाते हैं। संतप्रवर तुलसी साहब ने कहा है-
“ जो कोइ कहै साधु को चीन्हा ।
तुलसी हाथ कान पर दीन्हा ।।”
संत ही संत की पहचान कर सकते हैं। यों हम अपनी श्रद्धा किसी के भी प्रति निवेदित कर सकते हैं, यह एक दूसरी बात है। अगर सर्वसाधारण जन संतों की पहचान किये होते, तो क्या आज जिनको हम संत कहकर मानते हैं, जानते हैं, अपनी श्रद्धा निवेदित करते हैं, जिस समय वे संत जन हुए, उनके साथ उस समय जो-जो अत्याचार, अनाचार, दुर्व्यवहार आदि किये गये; क्यों? क्या यही संतों की पहचान है? प्रभु ईसा मसीह को क्रॉस पर लटका दिया गया। क्या उनकी पहचान उस समय की गयी? यदि पहचान की गयी होती, तो क्या उनको क्रॉस पर लटकाया गया होता? आज वे प्रभु ईसा मसीह नहीं हैं; किन्तु आप देखेंगे कि संसार में ईसा मसीह के नाम पर प्रचलित धर्म के जितने लोग हैं, शायद ही उतने लोग किसी दूसरे धर्म के हों। जिस समय संत होते हैं, उस समय उनकी पहचान नहीं होती। हजरत मुहम्मद साहब को इतना सताया गया कि उनको मक्का छोड़कर मदीना जाना पड़ा। आज देखें, उनके धर्म का कितना प्रचार है! क्या उनलोगों ने उस समय हजरत मुहम्मद साहब की पहचान की? संत कबीर साहब की बहत्तर कसनी प्रसिद्ध है। अर्थात् बहत्तर तरहों से उनको कष्ट दिया गया। क्या लोगों ने उनकी पहचान की? गुरु नानक पंथ में दस गुरु हुए। उन दस गुरुओं की गाथा आप पढ़ें, तो रोमांच हो जाएगा, हृदय दहल जाएगा। इनलोगों के साथ कितना क्रूर व्यवहार किया गया! क्या लोगों ने पहचाना? पलटू साहब को जलती आग में झोंक दिया गया। क्या पलटू साहब को पहचाना लोगों ने? मीराबाई को कुलटा कहकर घोषित किया गया। दूसरे कोई कहे तो कहे, उनके परिवार के लोगों ने कहा, ‘ऐसी कुलटा नारी को जीवित नहीं रहने देना चाहिए; जीवित रहेगी, तो अपयश फैलेगा।’ उसको जहर पिला दिया गया। वह प्रभु का चरणामृत जानकर पान कर गयी। जहर का प्याला पिलानेवाला तो मर-पचकर, सड़-गलकर कहाँ गया, कोई ठिकाना नहीं है। लेकिन जहर पीनेवाली परम भक्तिन मीरा आज भी अमर है और इस भूतल पर जबतक अध्यात्म-ज्ञान रहेगा, मीरा अमर रहेगी। उसी तरह का व्यवहार लोगों ने गुरु-भक्तिन सहजोबाई के साथ किया था। जन साधारण नहीं पहचान सकते कि संत कौन है? प्रभु ईसा मसीह को बहुत वर्ष बीत गये। कबीर साहब को और नानक साहब को भी पाँच-पाँच सौ वर्ष बीत गये। दूर की बात जाने दीजिए, क्या हमलोगों के गुरु महाराज की पहचान की? कितने लोगों ने पहचान की? एक जगह सत्संग-प्रेमियों ने सत्संग का आयोजन किया था। एक बगीचे में फूस का घर बनाकर उसी फूस की के घर में गुरु महाराज को रखा गया था। दिन का सत्संग हुआ। रात में उसी फूस के घर में गुरु महाराज सोये। जब सब कोई सो गये, तो दुष्टों ने उस घर में आग लगा दी। यह सोचकर कि बाबाजी उस घर में जलकर समाप्त हो जाएँ; लेकिन जो जगत् को जगाने के लिए आये हुए थे, वे कब सोएँगे। वे तो जगे हुए ही थे। उनके भक्त बरामदे पर सोये हुए थे। सिद्धू दासजी था नाम। गुरु महाराज ने कहा, ‘सिद्धू दास! देखते क्या हो, इस घर में आग लगी हुई है।’ पूज्य गुरुदेव और सिद्धू दासजी दोनों ही निकलकर बाहर चले आते हैं। मैं अपनी निस्बत कहता हूँ। मैं संत नहीं हूँ; किन्तु संत-संतान अवश्य हूँ। इस बार मेरे साथ भी कुछ ऐसी घटना घटी। सत्संग-प्रेमी सज्जनों ने सत्संग का आयोजन किया था। मैं वहाँ गया था। मेरे निवास के लिए फूस का घर बनाया था। जिनको सत्संग से स्नेह नहीं था, उन्होंने उसमें आग लगा दी।
संतों को उनके जीवन-काल में कौन पहचानता है? वस्तुतः संतों की पहचान दुर्लभ है। ऐसी अवस्था में तब क्या किया जाए? उत्तर में निवेदन है-जो संत पूर्वकाल में हो गये हैं, जिनपर हमारी दृढ़ निष्ठा है कि वे संत थे, तो उनकी जो वाणी है, उनकी सत् वाणी का हम संग करें। यह भी सत्संग है। अभी हम उन संतों की वाणियों का संग करने के लिए यत्र-तत्र से यहाँ एकत्रित हुए हैं। यह तीसरी श्रेणी का सत्संग है। बराबर हम तीसरी श्रेणी का सत्संग करते रहेंगे, तो करते-करते एक दिन ऐसा होगा कि दूसरी श्रेणी का सत्संग करने का भी अवसर मिलेगा और द्वितीय श्रेणी का सत्संग करते-करते ही एक दिन प्रथम श्रेणी का सत्संग करके हम अपने जीवन को कृतकृत्य बना लेंगे; आवागमन के चक्र से सदा के लिए हम छुटकारा पा जाएँगे। इस तीसरी श्रेणी के सत्संग की भी बड़ी महिमा है। गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-‘सत्संगति महिमा नहिं गोई।’
हानि कोई नहीं चाहता, सब-के-सब लाभ चाहते हैं। हानि कहाँ होती है और लाभ कहाँ होता है, इसका पता गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज बतलाते हैं-
“ हानि कुसंग सुसंगति लाहू ।
लोकहू वेद बिदित सब काहू ।।”
कुसंग से हानि और सुसंग से लाभ होता है। किसी ने लगे हाथ जिज्ञासा की कि इसका प्रमाण क्या है? गो0 तुलसीदासजी महाराज उत्तर देते हैं-
“ गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा ।
कीचहिं मिलइ नीच जल संगा ।।”
धूल जब पवन का संग करती है, तो गगनगामिनी बन जाती है और वही धूल जब पानी का संग करती है, तो पाताल चली जाती है। उसी तरह सज्जनों का संग होता है। संत जनों के संग से इतनी ऊर्ध्वगति उनकी होती है कि परम प्रभु परमात्मा से जाकर-मिलकर एकमेक हो जाते हैं। और जब कोई कुसंग करता है, तब वह किस रसातल में चला जाता है, कोई ठिकाना नहीं।
मुझे वह प्रसंग याद आता है-जापान में एक अच्छे कलाकार हुए हैं। उनके मन में हुआ कि कोई एक ऐसा चित्र बनाया जाए, जिसको देख आकर्षित हों और अधिक मात्र में बिके, जिससे अधिक पैसे मिलें। वह कलाकार घूमने लगा। घूमते-घूमते वह एक राजा के यहाँ पहुँचता है। राजा का एक लड़का था। वह देखने में बहुत सुन्दर था, बहुत ही सुकोमल चेहरा था उसका। सरलता उसके चेहरे से टपकती थी। कलाकार ने उसका फोटो लिया और कलात्मक ढंग से उसको सजाया। उसके इतने चित्र बिके कि वह मालामाल हो गया। कुछ दिनों के बाद उसके मन में आया कि एक ऐसा चित्र बनाया जाए, जिस चित्र को देखते ही मालूम पड़े कि वह बड़ा क्रूर है, निष्ठुर है, हत्यारा है। घूमते-घूमते वह कारागार में पहुँच गया; क्योंकि बदमाश लोग तो वहीं रहते हैं। वहाँ उसने कि एक ऐसा चेहरेवाले व्यक्ति है, जिसकी आँखों से क्रूरता टपकती थी। चेहरा डरावना लगता था। कलाकार ने कहा-भाई! तुम्हारा फोटो लेना चाहता हूँ। उस व्यक्ति ने कहा, मेरा फोटो लेकर क्या करोगे? उस कलाकार ने कहा कि एक बार मैंने एक चित्र बनाया था, जिसकी बिक्री से मुझे काफी पैसे मिले थे। अब मैं दूसरा चित्र बनाना चाहता हूँ। उसने पूछा कि पहला चित्र कहाँ है, जिससे कि तुमको बहुत पैसे मिले थे; तुझे दिखलाओ। वह चित्र उसके साथ था, उसने उसको दिखलाया। उस चित्र को देखकर वह फूट-फूटकर रोने लगा। कलाकार ने उसके रोने का कारण पूछा। उसने कहा, यह चित्र तो मेरा ही है। कुसंग के कारण आज मैं खूँखार बन गया हूँ, जो इस तरह मुझे आप देख रहे हैं।
मेरे कहने का तात्पर्य यह कि जो सुसंग करते हैं, उनको लाभ होता है और जो कुसंग करते हैं, उनको हानि होती है। धुआँ उठता है, उससे काजल बन जाता है। उसको कोई छूना नहीं चाहता कि काजल लग जाएगा; हाथ काला हो जाएगा। लेकिन वही धुआँ जब स्याही बन जाता है, तो किताब लिखते हैं। पुराण लिखते हैं, शास्त्र लिखते हैं। लोग उसका आदर करते हैं। एक सुग्गा है। वह एक सज्जन के यहाँ पलता है। सज्जन के यहाँ पलने से, उसके संसर्ग में रहने के कारण सुग्गा राम-राम, सीताराम, राधेश्याम, शिव-शिव, वाहगुरु आदि-आदि भगवान का नाम लेता है। दूसरा सुग्गा एक असज्जन के यहाँ पलता है। वहाँ लड़ाई- झगड़ा, मारपीट, गाली-गलौज आदि होता रहता है। वह सुग्गा वहाँ वही सुनता है और वही गाली-गलौज बकता है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा-
“ साधु असाधु सदन सुक सारी ।
सुमिरहिं राम देहि गनि गारी ।।
धूम कुसंगति कारिख होई ।
लिखिय पुरान मंजु मसि सोई ।।”
“ ग्रह भेषज जल पवन तट, पाइ कुजोग सुजोग ।
होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग, लखहिं सुलच्छन लोग ।।”
इस अवसर पर जैन धर्म की एक कथा स्मरण हो जाती है। जैन धर्म में मृगावती नाम कीएक सती हुई है। पहले तो वह राजरानी थी, पीछे श्रमणी बन गयी। उस मृगावती के पति का नाम था चंड प्रत्योदन। मृगावती देखने में अति सुन्दरी थी। उसके यहाँ एक कलाकार रहता था। संयोग से एक दिन मृगावती छत के ऊपर घूम रही थी। मृगावती को उस कलाकार ने देखा। उसका उसने चित्र बनाया। मृगावती देखने में अतीव सुन्दरी तो थी ही। उस कलाकार ने कलात्मक ढंग से बहुत सजा-धजाकर उसका चित्र बनाया और उस चित्र को राजा के सामने रखा। उस चित्र को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और कलाकार को पुरस्कृत करना चाहता ही था कि राजा की नजर पड़ गयी उस चित्र की जाँघ पर। मृगावती की जाँघ पर एक काला तिल का-सा दाग था। राजा के मन में कलाकार के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया। उसने सोचा-कोई भी कलाकार एक सुंदर-से-सुंदर चित्र बना सकता है; लेकिन जो अंग वस्त्र से आच्छादित हो, उसको बिना देखे चित्र में कैसे बना सकता है! हो-न-हो, कलाकार के साथ मृगावती का कुसंग हो। मंत्री ने समझाया, ऐसी बात नहीं हो सकती। मृगावती सती है और कलाकार भी पवित्र है। लेकिन राजा को मंत्री की बात पर विश्वास नहीं हुआ। मंत्री ने विश्वास दिलाने के लिए कहा कि यह कलाकार इतना कुशल है कि इसको किसी के शरीर का कोई भी एक छोटे-से-छोटा अंग दिखला दिया जाए, तो वह उसके संपूर्ण शरीर का ठीक-ठीक-हु-ब-हू चित्र सामने रख देगा। अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए मंत्री ने एक कुबड़ी नारी को परदे में रखा और मात्र उसका एक अंगूठा कलाकार को दिखलाया। मात्र अंगूठा देखकर कलाकार ने उसके पूरे शरीर का ठीक-ठीक चित्र बनाकर सबके सामने रख दिया, जिसमें उस नारी का कूबड़ भी उभरा हुआ था। मंत्री ने राजा से कहा, ‘देखिये, कुबड़ी को परदे में थी, फिर भी उसका सही चित्र कलाकार ने बना दिया है। लेकिन राजा को संतोष नहीं हुआ। उसने अपमानित करके कलाकार को निष्कासित कर दिया। इससे कलाकार को बहुत दुःख हुआ। उसने इसका बदला लेने की मन में ठान ली। मृगावती का चित्र लेकर कलाकार वहाँ चला जाता है, जहाँ चण्ड प्रत्योदन से बड़ा राजा था। चित्र देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। कलाकार ने कहा,‘राजन्! आप-जैसे सुयोग्य श्रेष्ठ राजा के योग्य ही यह देवांगना-सी नारी है, जो कि एक छोटे राजा के पास रह रही है।’ वह राजा कलाकार की बात में आ गया और उसने राजा प्रत्योदन के पास पत्र लिखा कि तुम अपनी पत्नी को मेरे पास भेज दो। भला अपनी पत्नी को कौन किसके पास भेजता है? नहीं भेजा। उस राजा ने सेना लेकर राजा प्रत्योदन पर चढ़ाई कर दी। राजा का किला चतुरंगिनी सेना से घिर गया। जब चंड प्रत्योदन को मालूम हुआ कि दुश्मन की फौज ने किला घेर लिया है, तो डर के मारे हार्ट अटैक हो गया और तत्क्षण उसका प्राणान्त हो गया।
आक्रामक राजा को मृगावती ने समझाया प्रेम करने का एक समय होता है। अभी मेरे ऊपर वज्र का पहाड़ा गिर गया है। मुझे शांति लेने दें। अभी आप वापस जाएँ, मैं पीछे बात करूँगी। मृगावती की बात सुनकर राजा लौट गया। बीच-बीच में परस्पर पत्रचार होता रहा। येन-केन प्रकारेण मृगावती टालती रही। इस प्रकार कई वर्ष बीत गये। राजा ने देखा, मृगावती टालमटोल कर रही है। उसने फिर फौज लेकर मृगावती पर चढ़ाई कर दी। फौज से किले के घिर जाने पर मंत्री ने मृगावती ने पूछा, ‘अब क्या किया जाए?’ संयोग ऐसा होता है कि उसी अवसर पर भगवान महावीर आते हैं और आम्रवन में जाकर ठहरते हैं। मृगावती को मालूम हुआ कि भगवान आम्रवन में आये हुए हैं। वह अपने किले का दरवाजा खुलवाती है और पुत्र के साथ भगवान के दर्शनार्थ वहाँ के लिए प्रस्थान करती है। मंत्री ने मना किया। कहा- ‘दुश्मन ने किले को घेर लिया है। जैसे ही फाटक खुलेगा, दुश्मन प्रवेश कर जाएँगे।’ मृगावती ने कहा, ‘भगवान हमारी रक्षा करेंगे। मुझे जाने दो।’ मृगावती आम्रवन में पहुँचकर भगवान महावीर के दर्शन करती है। संयोग ऐसा होता है कि उसी समय वह राजा भी, जिसने मृगावती के किले को घेर रखा था, भगवान के दर्शनार्थ वहीं आता है। भगवान महावीर के दर्शन मात्र से उस राजा का मन पवित्र हो जाता है। मृगावती को बहन कहकर संबोधित करता है और जिज्ञासा करता है, ‘कहो बहन! कुशल समाचार?’ मृगावती अपने पुत्र को आगे करते हुए कहती है,‘सब कुशल है। यह तुम्हारा भगना है, इसे सँभालो।’ संत के दर्शन से राजा का हृदय परिवर्तन हो चुका था। उसने उसको वहाँ का राजा बना दिया और स्वयं ससैन्य वापस लौट गया। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ सरदातप निसि ससि अपहरई ।
सन्त दरस जिमि पातक हरई ।।”
आश्विन-कार्तिक महीने को शरद ऋतु कहते हैं। इस ऋतु में दिन के समय गर्मी पड़ती है और रात्रि में सर्दी। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जैसे दिन की गर्मी को रात्रि का चन्द्रमा हरण कर लेता है, उसी तरह संतों के दर्शनमात्र से पाप टल जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहने की कला कितनी अच्छी है! दिन में गर्मी होती है और दिन बीत जाने पर रात में चन्द्रोदय हो जाने पर ठंढ होने लगती है। उसी तरह हमारे संकट और पातक संतों के दर्शन से टल जाते हैं। लेकिन रात के बाद तो फिर दिन होगा और फिर तो वही गर्मी आएगी। इसी भाँति जब हम संतों के दर्शन करते हैं, तो हमारे पातक टल जाते हैं; लेकिन जब हम संतों के दर्शन करके हट जाते हैं, तब तो फिर वे हमारे सामने आकर डट जाते हैं। तब क्या कोई ऐसा उपाय या यत्न नहीं है कि वह हमारे पास आवे ही नहीं? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने इसका उत्तर दिया है, हाँ उपाय है-
“ जब द्रवहिं दीनदयाल राघव, साधु संगति पाइये ।
जेहि दरस परस समागमादिक, पाप राशि नसाइये ।।”
गोस्वामीजी ने समागम के आगे ‘आदिक’ शब्द जोड़ दिया है। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि संतों के दर्शन, स्पर्शन और समागम तो करो ही; उसके बाद वे कुछ बतलाएँगे, वह भी करो। वे क्या बतलाएँगे? वे ध्यान करने के लिए बतलाएँगे। वह भी करो। ध्यान करने से क्या होगा? पाप-राशि का नाश होगा। सामवेद में लिखा है-
“ यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।”
अर्थ-कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान यदि पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है; इसके समान पापों का नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है।
सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो ।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए ।।
महर्षिजी ने सत्संग को दो भागों में विभक्त किया है-बाह्य और आंतरिक। यथा-
“ नित सत्संगति करो बनाई ।
अंतर बाहर द्वै विधि भाई ।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा ।
अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
दोनों तरहों से सत्संग की आवश्यकता है। संत सुंदरदासजी सत्संग की महिमा गाते अघाते नहीं; कहते हैं-
“ तात मिलै पुनि मात मिलै,
सुत भ्रात मिलै युवती सुखदाई ।
राज मिलै गज बाज मिलै,
सब साज मिलै मन वांछित पाई ।।
लोक मिलै सुर लोक मिलै,
विधि लोक मिलै वैकुंठहु जाई ।
सुन्दर और मिलै सब ही सुख,
संत समागम दुर्लभ भाई ।।”
योगिवर पंचानन भट्टाचार्य के वचन में है-
करऽ साधु समागम पवित्र हइबे मन,
घुचिबे मोह अंधकार रे ।।
यह सत्संग भगवान का निज अंग है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
“ देहिं सत्संग निज अंग श्रीरंग,
भव भंग कारण शरण शोकहारी ।।”
गोस्वामीजी भगवान से सत्संग की याचना करते हैं। कहते हैं-हे प्रभो! इस संसार में अपने कर्म के वशीभूत होकर जहाँ जिस योनि में मेरा जन्म हो, वहाँ आपकी भक्ति और सज्जनों का समागम मिले, यह वरदान दीजिए।
“ यत्र कुत्रपि मम जन्म निज कर्मवश,
भ्रमत जग जोनी संकट अनेकम् ।
तत्र त्वद्भक्ति सज्जन समागम सदा,
भवतु मे राम विश्राममेकम ।।”
आपलोगों ने एक कथा सुनी होगी। सीताहरण हो चुका था। पता चल गया था कि लंकास्थित अशोकवाटिका में श्रीसीताजी हैं। उनके उद्धार के भगवान श्रीराम को ससैन्य लंका जाना था; किन्तु भारत और लंका के बीच सौ योजन का समुद्र था। उसको पार करने के लिए उसपर पुल बनावाया जा रहा था। पुल बन रहा था। काम चालू था। जितने बंदर-भालू थे, वे बड़े-बड़े पहाड़ों और वृक्षों को लाते थे। सेतु बनानेवाले प्रमुख कारीगर थे नल और नील। वे पहाड़ों और वृक्षों को पानी पर सजाकर रखते जाते थे। किन्तु आश्चर्य का विषय था कि एक भी वृक्ष व पत्थर नीचे नहीं जाते, सभी पानी पर स्थिर रह जाते थे। इस दृश्य को देखकर बंदर-भालूओं के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। उनमें से कुछ बंदर-भालू भगवान श्रीराम के पास चले गये और कहा,‘भगवन्! बड़ा आश्चर्य है। हमलोग बड़े-बड़े पहाड़ों और वृक्षों को लाते हैं और नल-नील उनको पानी पर जैसे ही रखते हैं, वे वैसे ही रह जाते हैं, डूबते नहीं। भगवान तो नर-लीला करने के लिए ही आये थे पृथ्वीतल पर। वे उनके कौतूहल को बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘क्या जी, यह बात सही है? किसने कहा तुमको?’ बंदर-भालुओं ने उत्तर दिया,‘प्रभो! कहने-सुनने की क्या बात है, अपनी आँखों देखी बात है। हम देखकर आ रहे हैं। एक बार चलकर देखा जाए भगवन्!’ भगवान ने कहा, ‘चलो, चलकर देखता हूँ।’ भगवान श्रीराम सेतु के निकट आते हैं, देखते हैं और नल-नील से पूछते हैं-बताओ, यह वृक्ष और पत्थर पानी में डूबते क्यों नहीं हैं? क्या बात है?’ उन दोनों ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भगवन्! ये पत्थर और वृक्ष सभी आपकी महिमा से तैर रहे हैं।’ भगवान ने पूछा,‘यदि मेरी महिमा से ये तैर रहे हैं, तो मैं जो वृक्ष या पत्थर पानी पर रखूँगा, वे तैरेंगे न? नल-नील ने उत्तर दिया,‘भगवन! हाथ-कंगन को आरसी क्या? रखकर देखा जाए।’ एक बंदर ने भगवान के हाथ में छोटा-सा एक पत्थर दिया। जैसे ही भगवान श्रीराम उस पत्थर को पानी पर रखते हैं, वैसे ही वह पत्थर गड़गड़ाकर नीचे पाताल चला जाता है। भगवान श्रीराम ने कहा, ‘नल-नील! तुमलोग कहते थे कि मेरी महिमा से वृक्ष और पत्थर तैरते हैं, तो मेरा रखा हुआ पत्थर पाताल में क्यों चला गया?’ नल-नील ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भगवन! यह तो जड़ पत्थर है, आपके हाथ से यदि चेतन ब्रह्मा छूट जाए, तो वह किस रसातल को चला जाएगा, कोई ठिकाना है? फिर इस जड़ पत्थर की बात ही क्या है?’ यह सत्संग क्या है?
आंतरिक सत्संग से विषयों से छूटकर निर्विषय तत्त्व-परमात्मा की प्राप्ति होती है- मुक्ति मिलती और बाह्य सत्संग से ध्यान-भजन की प्रेरणा मिलती है। एक अच्छे विद्वान सत्संग-प्रेमी सज्जन हैं। वे बीच-बीच में परम पूज्य गुरुदेव के दर्शनार्थ कुप्पाघाट आया करते थे। उनके साथी उनसे कहते, ‘आप बार-बार कुप्पाघाट क्यों जाते हैं? महर्षिजी ने जो क्रिया बता दी है, अपने घर में बैठकर कीजिए। बारंबार कुप्पाघाट जाने से क्या लाभ?’ वे उत्तर देते हैं, ‘आप समझते नहीं हैं। सुनिये, कुप्पाघाट पावर-हाउस है। वहाँ बैट्री चार्ज कराने जाता हूँ। वहाँ से बैट्री चार्ज कराकर आता हूँ। और आपलोगों के बीच रहते-रहते जब बैट्री डिस्चार्ज हो जाती है, तो पुनः कुप्पाघाट जाकर चार्ज करा लेता हूँ।’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ सठ सुधरहिं सत्संगति पाई ।
पारस परसि कुधातु सुहाई ।।”
बिना सत्संग के हम अंतस्साधना में आगे नहीं बढ़ सकते।
एक बार का प्रसंग है। परम पूज्य गुरुदेव सत्संग-प्रचार करके लौटते समय बाराहाट रेलवे स्टेशन पहुँचे। वहाँ ट्रेन आने में देर थी। स्टेशन में ट्रेन की प्रतीक्षा में लोगों की भीड़ लगी हुई थी। परम पूज्य गुरुदेव को स्टेशन पर देखकर कुछ पढ़े-लिखे सज्जन उनके दर्शनार्थ उनके निकट आ गये। उनलोगों ने गुरुदेव से जिज्ञासा की, ‘महाराज! ज्ञात हुआ कि आप सत्संग-प्रचार करते हैं। बताने की कृपा करें कि सत्संग से क्या लाभ होता है?’ गुरुदेव ने पूछने की कृपा की, ‘आपलोग क्या चाहते हैं?’ उनलोगों ने कहा, ‘महाराजजी! हमलोग गृहस्थ हैं, हमलोगों की चाहनाओं का क्या कोई अंत है? नित्य नयी-नयी चाहनाएँ होती रहती हैं।’ गुरुदेव ने कहने की कृपा की, ‘आपलोग पढ़े-लिखे विद्वान हैं। अतएव समस्त चाहनाओं को समेटकर समास रूप में कहें।’ वे लोग चुप रहे। तब गुरुदेव ने कहने की कृपा, ‘आपलोग चुप हैं, कुछ नहीं बोलते हैं, तो मैं ही कहता हूँ, सुनिये। आपलोग क्या चाहते हैं-सुबुद्धि अथवा कुबुद्धि? सुयश अथवा अपयश? शुभगति या दुर्गति? आप संसार में ऐश्वर्यवान होकर रहना चाहते हैं अथवा कंगाल होकर?आप संसार में अपनी भलाई चाहते हैं अथवा बुराई?’ उनलोगों ने कहा, ‘हमलोग सुबुद्धि, सुयश, शुभ-गति, ऐश्वर्यवान होकर रहना और भलाई चाहते हैं।’ गुरुदेव ने कहने की कृपा की, ‘आपलोग जो चाहते हैं, वे सब सत्संग से मिलते हैं। गोस्वामी श्रीतुलसी दासजी महाराज ने रामचरितमानस में लिखा है-
“ मति कीरति गति भूति भलाई ।
जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ ।
लोकहु बेद न आन उपाऊ ।।”
जिनको सुबुद्धि होगी, वे सुकर्म करेंगे ही और जो सुकर्म करेगा, उनका सुयश बढ़ेगा। उनकी सुगति होनी निश्चित है, उनकी दुर्गति हो नहीं सकती। ध्यान करेंगे तो मोक्ष मिल जाएगा। ऐश्वर्यवान होकर रहेंगे। और ऐसे सज्जन को भलाई-ही-भलाई मिलेगी। उनकी बुराई कोई करेगा भी तो क्यों और कैसे? जब किसी को सुबुद्धि हो जाए, संसार में यश-ही-यश फैले, संसार में ऐश्वर्यवान होकर रहे, चारो तरफ भलाई ही मिले और इस संसार से जाने के बाद अंत में शुभगति (मोक्ष) को प्राप्त होवे, तो बताइये इसके बाद और क्या बाकी रह जाता है। सत्संग से ये पाँचों चीजें मिलती हैं। इसलिए सत्संग करना चाहिए।’ गुरुदेव के अमृतमय वचन सुनकर वे लोग बड़े संतुष्ट हुए।
अभी आपलोगों ने संत तुलसीसाहब की वाणी में सुनी-
“ सखी सीख सुनि गुनि गाँठि बाँधौ,
ठाट ठट सत्संग करै । जब रंग संग अपंग आली री,
अंग सत मत मन मरै ।।”
हम सत्संग करें। किस तरह सत्संग करें? ‘सुनि गुनि गाँठि बाँधौ’ गाँठ बाँधौ-मतलब याद रखो। याद रखने का मतलब-उसका आचरण करो। यदि हम आचरण नहीं करते, तो याद कहाँ। जब सत्संग करते रहेंगे, तो क्या होगा? संत तुलसी साहब ने कहा, ‘रंग संग अपंग आली री। अंग सत मत मन मरै।’ अर्थात् सत्संग का रंग मन पर चढ़ेगा। मन जो विषयों में दौड़ता रहता है, चंचल रहता है, वह शांत हो जाएगा, विषयों में नहीं जाएगा। एक बालटी में रंग घोला हुआ है और हम कपड़ा रंगना चाहते हैं। जब कपड़ा बालटी में डुबाएँगे, तब कपड़े पर रंग चढ़ेगा। अगर बालटी की बगल में यानी बालटी के बाहर कपड़े को रखेंगे, तो कपड़े में मिट्टी लगेगा, कपड़े पर रंग नहीं चढ़ेगा। उसी तरह सत्संग का जो माहौल है, सत्संग की चर्चा जहाँ होती है, मन को वहाँ लगाकर रखें। एकचित्त होकर सुनते हैं। संत सुंदरदासजी की वाणी में है-
“ जबही जिज्ञासा होइ चित्त एक ठौर आनि ,
मृग ज्यूँ सुनत नाद श्रवण सो कहिये ।”
एकाग्रचित्त होकर सत्संग-वचन सुनना, यह है श्रवणज्ञान। जब हम सत्संग सुनेंगे, तो क्या होगा? जिस तरह कपड़े पर रंग चढ़ जाता है, उसी तरह हमारे मन पर सत्संग का रंग चढ़ जाएगा। यह चंचल मन स्थिर हो जाएगा। परमहंस श्रीलक्ष्मीनाथ गोसाईंजी के वचन में आया है-
“ चंचल चित को थिर कर, चौथी में चित लाव ।
चन्द्र सुधा रस चाखि के, चिंतामणि पद पाव ।।”
जिस तरह हम मकान बनाने के लिए पहले नींव देते हैं, पश्चात् दीवार देते हैं और तत्पश्चात् छत देते हैं, तब हम जाड़े, गर्मी और बरसात के कष्टों से बच जाते हैं। इसी तरह यदि हम बाह्यान्तर दोनों प्रकार के सत्संगों को करते रहेंगे, तो एक-न-एक दिन परम प्रभु परमात्मा को पाकर दैहिक, दैविक और भौतिक- इन त्रितापों से मुक्त हो जाएँगे। परम कल्याण हो जाएगा। इसलिए सत्संग की बड़ी आवश्यकता है।
महर्षि सन्तसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 1-4-1995 ई0 को 84वाँ महाधिवेशन लोहनगरी बोकारो के प्रातःकालकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अगस्त 1995 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आप जिन सज्जनों ने मुझ अकिंचन का स्वागत और अभिनंदन किया है, उन सभी सज्जनों का मैं अभिवंदन करता हूँ। अभी आपलोग रामचरितमानस के उत्तरकांड का पाठ सुन रहे थे-
“ माया ईश न आप कहँ, जान कहिय सो जीव ।
बन्ध मोक्ष प्रद सर्वपर, माया प्रेरक सीव ।।”
इस दोहे में जगत् (माया), जीव और जगदीश; इन तीनों की चर्चा आयी है। जगत् जड़ है, जीव चेतन है और इन दोनों के परे जगदीश है।
जड़ या अज्ञानमय पदार्थ। चेतन यानी ज्ञानमय पदार्थ। जड़ होने के कारण जगत को न तो अपना ज्ञान है, न जीव का और न जगदीश का। जीव चेतन होने के कारण जड़ जगत् का ज्ञान रखता है; किन्तु न तो अपने स्वरूप का और न सर्वेश्वरस्वरूप का ही प्रत्यक्ष ज्ञान इसको है।
गोस्वामीजी का कथन है-जो न माया को, न स्वयं को और न ईश को जानता है, वह जीव है। अथवा जो अपने को मायापति नहीं मानता, बल्कि अपने को मायाधीन जानता-समझता है, वह जीव है और जो माया का प्रेरक, बंध-मोक्ष का प्रदाता और सर्वपर है, वह पीव है यानी सबका कल्याणकारी प्रभु है।
आज हम गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की भाषा में कहना चाहेंगे कि इस विषय में उनके विचार क्या हैं-
उनका कथन है-जो माया, ईश्वर और अपनी आत्मा को नहीं जानता है, उसे जीव कहते हैं। बंधन और मुक्ति के देनेवाले, सबके परे और माया के प्रेरक को ईश्वर कहते हैं।
गोस्वामीजी ने माया, जीव और ब्रह्म के प्रसंग में रामचरितमानस के उत्तरकांड में इस भाँति कहा है-
“ ज्ञान अखंड एक सीतावर ।
माया वस्य जीव चराचर ।।”
अर्थात् एक राम (ब्रह्म) ही पूर्ण ज्ञानी हैं और सब स्थावर-जंगम जीव मात्र माया के वश में है। तथा-
“ माया वस्य जीव अभिमानी ।
ईश वस्य माया गुण खानी ।।
पर वश जीव स्ववश भगवंता ।
जीव अनेक एक श्री कन्ता ।।”
अर्थात् अभिमानी जीव माया के वश में है और त्रयगुणों की खानि माया ईश्वर के वश में है। जीव पराधीन है और पीव स्वाधीन है। जीव अनेक हैं और पीव एक है। गोस्वामीजी ने माया को विद्या और अविद्या कहकर दो भागों में विभक्त किया है। उन्होंने कहा है-
“ गो गोचर जहँ लग मन जाई ।
सो सब माया जानहु भाई ।।
तेहि कर भेद सुनहु तुम सोऊ ।
विद्या अपर अविद्या दोऊ ।।
एक दुष्ट अतिशय दुख रूपा ।
जा वश जीव पड़ा भव कूपा ।।
एक रचइ जग गुण वश जाके ।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके ।।”
हे भाई! इन्द्रियों को जो कुछ प्रत्यक्ष है और जहाँ तक मन जाता है, वह सब माया ही जानो। उसके जो भेद हैं, उसे भी सुनो; एक विद्या माया और दूसरी अविद्या माया है। एक अविद्या माया अत्यन्त दुःखरूपा है कि जिसके वश में पड़कर जीव संसाररूपी कुएँ में पड़ा रहता है। दूसरी वह विद्या माया, जो संसार की रचना करती है। उसके वश में सब गुण हैं। उसको अपना बल नहीं है। वह सब कुछ प्रभु की प्रेरणा से करती है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, अविद्या माया अपरा प्रकृति और विद्या माया परा प्रकृति है। अपरा प्रकृति सगुण और पराप्रकृति निर्गुण है। इन दोनों के परे परम प्रभु परमात्मा हैंं।
यजुर्वेद, अध्याय 11 का प्रथम मंत्र ‘जगत्- प्रसवकर्ता’ शब्द का प्रयोग किया गया है। ‘जगत्- प्रसवकर्ता’ यह एक सामासिक शब्द है। ‘जगत्-प्रसव कर्ता’ में तीन शब्द है-कर्ता, प्रसव और जगत्। कर्ता ने प्रसव किया जगत् का। जगत् क्षर है। प्रसव-प्रकम्पन आदिशब्द, जीव-चेतन अक्षर है। क्षर और अक्षर के परे जो है, वह परमाक्षर परम प्रभु परमात्मा है। गुरुदेव के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ क्षेत्र क्षर अक्षर के पार में, परमालौकिक जेह रे ।
मेँहीँ अंतर वृत्ति करिके, भजहु निशिदिन तेह रे ।।”
जगत् सगुण है। प्रसव निर्गुण है और कर्ता सगुण-निर्गुण के परे है। जगत् प्रातिभासिक सत्ता है। जीव व्यावहारिक सत्ता है और परम प्रभु परमात्मा पारमार्थिक सत्ता है। जगत् भासमान है, यथार्थ में यह है नही। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहते हैं-
“ रजत सीप महँ भास जिमि, यथा भानुकर वारि ।
यद्यपि मृषा तिहुँ काल सो, भ्रम न सकइ कोउ टारि ।।”
“ यहि विधि जग हरि आश्रित रहई ।
जदपि असत्य देत दुख अहई ।।”
सूर्य की किरणें जब सीपी पर पड़ती है, तो वह चाँदी-सी भासती है। वास्तव में सीपी न तो पहले चाँदी थी, न अभी है और न भविष्य में होने वाली है, मात्र भासती है। इसी प्रकार रेतीले मैदान पर जब सूर्य की किरणें पड़ती हैं, तो वहाँ जल-सी भासती है।
वास्तव में जल है नहीं, था नहीं और न होने की संभावना है। अपने दृष्टि-दोष के कारण हम असत्य को भी सत्य मान बैठते हैं। यही हमारे दुःख का कारण हो जाता है। वैशाख-ज्येष्ठ महीने की दुपहरी में जंगल में जब मृग प्यास से आकुल-व्याकुल हो जाता है, तब वह जंगल से बाहर होकर चतुर्दिक नजर दौड़ता है, खोजता है-जल कहाँ है? उसकी नजर जब रेतीले मैदान पर पड़ती है, तो वहाँ सूर्य की किरणों के कारण जल की प्रतीति होती है। चौकड़ी भरता हुआ वह मृग उस भासमान जल की ओर बढ़ता है। दौड़ते-दौड़ते एक स्थल पर रुक जाता है; देखता है-यहाँ पर जल नहीं है, आगे जल है। फिर वह दौड़ता हुआ कुछ दूर निकल जाता है, वहाँ खड़ा होकर फिर देखता है, तो वह पाता है-यहाँ भी जल नहीं है और आगे जल है। इस प्रकार दौड़ते-दौड़ते वह मृग गिर जाता है और मर जाता है। वहाँ मरुभूमि में न तो जल था, न है और न होनेवाला है। असत्य के पीछे दौड़ते-दौड़ते उसका प्राणान्त हो जाता है। इसी तरह जगत् को सत्य मानकर तदनुकूल व्यवहार हम करने लग जाते हैं। यही कारण है कि संसार में दौड़ते-दौड़ते-विषयों में चक्कर काटते-काटते एक दिन हम भी राम-नाम सत्य कहते-कहते इस संसार से चले जाते हैं।
कोल्हू का बैल बँधा हुआ है। बैल के आगे एक लकड़ी बाँधकर उसपर हरी घास की टोकरी रख देते हैं। वह बैल देखता है कि आगे हरी घास रखी हुई है। उस घास को ख्ााने के लिए वह आगे बढ़ता है। जैसे-जैसे वह बैल आगे बढ़ता है, कोल्हू में जो सरसों रखी हुई होती है, वह पीसती जाती है और तेल निकलता जाता है। बैल यह समझता है कि अब घास मिलेगी, तब घास मिलेगी; लेकिन घास के पास वह नहीं जा पाता है। उसके ग्रास की आस उसके मन में ही रह जाती है। उसी तरह संसार के विषयों में सुख मिलेगा, ऐसा हम सोचते हैं। ऐसा भी सोचते हैं-आज सुख मिलेगा, आज शान्ति मिलेगी। अच्छा, आज नहीं तो कल ही सही, शान्ति मिलेगी। जो भासमान है, उसमें सुख-शान्ति कहाँ? यही कारण है कि विषयों के पीछे दौड़ते-दौड़ते हम थक जाते हैं; लेकिन सुख का मुख देख नहीं पाते। गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-सीपी में चाँदी का और रेतीले मैदान में पानी का भ्रम होता है, उसका कारण सूर्य की किरण है। उसी तरह परम प्रभु परमात्मा के आधार पर संसार भासता है; लेकिन वास्तव में संसार है नहीं। जिसको हम संसार कहते हैं, वह स्वप्नवत् है। हम स्वप्न देखते हैं कि हमारे मित्र आये हैं, उनका हम आदर-सत्कार करते हैं। उनको हम खिलाते हैं, पिलाते हैं, बैठाते हैं। सब तरह की बातें करते हैं; लेकिन जब हमारी नींद टूट जाती है, तब हम देखते हैं-न हमारे मित्र हैं, न हमने किसी तरह का स्वागत किया है। न हमने कुछ खिलाया-पिलाया और न बातचीत की। जब हम निद्रा-अभिभूत थे, तब उस घटना को सत्य मान रहे थे। जब हमारी नींद टूट जाती है, तब हम समझते हैं कि वे सभी असत्य थे। उसी तरह अज्ञान की नींद में जबतक हम सोये हुए हैं, तबतक यह संसार सत्य भासता है। जिस दिन अज्ञानता की निशा से हम जग जायेंगे, तब हम जानेंगे कि सत्य क्या है? जिस क्षण अज्ञानता की निशा समाप्त हो जाएगी, उसी क्षण ज्ञान का प्रभात हमारे सामने आ जाएगा। गोस्वामीजी के शब्दों में कह सकेंगे-
“ यहि जग जामिनि जागहिं जोगी ।
परमारथी प्रपञ्च वियोगी ।।
जानिय तबहिं जीव जग जागा ।
जब सब विषय विलास विरागा ।।
होइ विवेक मोह भ्रम भागा ।
तब रघुनाथ चरण अनुरागा ।।”
जिस तरह सूर्योदय होने पर रात का अंत हो जाता है और दिन का आरंभ हो जाता है; अंधकार का नाश हो जाता है और प्रकाश का विकास हो जाता है, उसी तरह जब अज्ञानता-रूपी रात्रि का नाश हो जाएगा; माया समाप्त हो जाएगी, तब हम ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जायेंगे। हम अपने को जान लेंगे और प्रभु का भी प्रत्यक्ष ज्ञान कर लेंगे। जबतक हम अपने को नहीं जान लेंगे, प्रभु को नहीं जान सकेंगे। गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-यद्यपि माया असत्य है; लेकिन दुःख देती है। आप कहेंगे कि जो असत्य है, वह दुःख कैसे देगी? एक बहुत अच्छा दृष्टान्त है-
एक लड़के ने विवाह किया। वह अपनी पत्नी के साथ घर लौट रहा था; देहात जाना था। ट्रेन पहुँचते-पहुँचते रात हो गयी थी। उसी शहर की एक धर्मशाला में पत्नी के सहित वह टिक जाता है। दोनों प्रेम से खाते हैं, पीते हैं और सोने के समय होने पर कमरे में जाते हैं। धर्मशाला में और भी बहुत-से यात्री थे, वे लोग भी अपने-अपने कमरे में सोने के लिए चले जाते हैं। ये दोनों पति-पत्नी आपस में बातचीत आरंभ करते हैं। बातचीत के क्रम में पति ने अपनी पत्नी से पूछा-अच्छा, बताओ हमलोगों को जब लड़का होगा, तब तुम उसको क्या पढ़ाओगी? पत्नी ने उत्तर दिया-मैं उसे डॉक्टर बनाऊँगी। पति ने कहा-डॉक्टर बनाना ठीक नहीं, वकील बनाना ठीक होगा। पत्नी कहती है-वकील को बहुत साँच-झूठ कहना पड़ता है। वे अपने तो झूठ बोलते ही हैं, दूसरों से भी झूठ बोलवाते हैं, अतः वकील ठीक नहीं। मेरे विचार में डॉक्टर बनाना ही उचित है। मान लिया अगर प्रैक्टिस कम चलेगी, तो क्या हानि, जन-सेवा तो करेगा। इस तरह पति-पत्नी में धीरे-धीरे बात बढ़ती चली गयी। दोनों में से कोई एक-दूसरे के विचार से सहमत नहीं। पति को गुस्सा आ जाता है, वह आक्रोश में कहता है-बेहूदी कहीं की, मैं बार-बार कहता हूँ कि लड़के को वकील बनाना है, डॉक्टर नहीं, तो मेरी बात मानती नहीं और डॉक्टर-डॉक्टर की रट लगा रखी है। पत्नी कहती है-आप कुछ कहिये, मैं तो अपने लड़के को डॉक्टर ही बनाऊँगी। इतना सुनते ही पति की क्रोधाग्नि भड़क उठी और उसने जोर से एक थप्पड़ अपनी पत्नी को मारा। वह बेचारी फूट-फूटकर रोने लगी। रोने की आवाज सुनकर आस-पास के लोग वहाँ इकट्ठे हो गये और पूछने लगे-भाई! बात क्या है? अभी तो आपलोग बड़े प्रेम से बातचीत कर रहे थे, अब इतनी ही देर में क्या हो गया, जो रोना-धोना प्रारंभ हो गया?
उक्त नवयुवक की पत्नी कहती है-देखिये न बाबू! मैं बार-बार कहती हूँ कि लड़के को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाऊँगी; लेकिन ये मानते नहीं। कहते हैं-लड़के को वकील बनाऊँगा।’ उनलोगों में से एक सज्जन ने कहा-देखो भाई! आजकल के जमाने में लड़के स्वयं अपनी रुचि के अनुसार पढ़ाई के विषय को चयन करते हैं। अतः लड़के से पूछ लिया जाय कि वह डॉक्टर या वकील; क्या बनना चाहता है। जिसमें उसकी रुचि हो, उसी विषय की शिक्षा उसे दिलवायी जाए। तब उस नवविवाहित लड़के ने कहा-अभी तो हमलोग शादी करके आ ही रहे हैं, लड़का है कहाँ?
यही बात है। लड़का है ही नहीं; लेकिन लड़के के कारण मार तो उसको लग ही गयी। इसीलिए गोस्वामीजी ने लिखा है-
‘जदपि असत्य देत दुख अहई ।’
दुःख तो हो ही जाता है। उसी तरह यह असत्य संसार सत्य-जैसा मालूम होता है। दैहिक दैविक और भौतिक-इन त्रितापों से हम संतप्त होते रहते हैं। इन त्रितापों से कैसे छूटें, इसी के लिए भगवद्भजन करना है। प्रथम परमात्म-स्वरूप का परोक्ष ज्ञान हो, पश्चात् अपरोक्ष ज्ञान। जबतक हम परमात्मस्वरूप को सही रूप में नहीं जान लेंगे, तबतक परम कल्याण नहीं होता।
अभी अपने शरीर का ज्ञान हमको है, तो दूसरों के भी शरीरों का ज्ञान है। जब अपने शरीर का ज्ञान नहीं रहता है, तो दूसरों के भी शरीरों का ज्ञान नहीं रहता है। इसलिए हम कौन हैं, जबतक अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं होगा, तबतक परमात्म-स्वरूप का ज्ञान नहीं होगा। एक बंगाली योगी पंचानन भट्टाचार्य ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ आमि आमि करि बुझिते ना पारि,
के आमि आमाते आछे कि रतन ।
कौन शक्ति बले बेड़ाय चले बले,
कार अभावे हवे देह अचेतन ।।
देह माँझे आछि प्राणेर संचार,
तहा तेई बली आमी वा आमार ।
प्राण गेले चले हवे शवाकार,
केवाकार कोथा रवे धन जन ।।”
हम ‘हम-हम’ कहते हैं, हम कौन हैं? क्या यह शरीर हम हैं अथवा कोई इन्द्रिय हम हैं? यह हमारा शरीर है; लेकिन हम शरीर नहीं हैं। इन्द्रियाँ हमारी नहीं हैं, हम इन्द्रियाँ नहीं हैं। हम कौन हैं? हम कहते हैं-हमारा मन नहीं लगता है, हमारी बुद्धि काम नहीं कर रही है। हम कहते हैं-हमारी देह दुख रही है। ये सारी बातें हमारी हैं; लेकिन हम स्वयं कौन हैं? हम समस्त शरीरों और इन्द्रियों से पृथक् हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
“ वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता, अ0 2, श्लोक 22)
जिस तरह पुराने वस्त्रें को छोड़-छोड़कर प्राणी नये-नये वस्त्रें को शरीर पर धारण करता है, उसी तरह यह जीव शरीररूपी कपड़ों को छोड़ते हुए यानी पुराने शरीरों को छोड़ते हुए नये-नये शरीरों को धारण करता है। जबसे हमलोगों ने शरीर धारण किया है, तबसे जबतक कितने कपड़े हमलोगों ने पहने हैं, किसी को याद नहीं है। शरीर वही है, कपड़े फटते गये, बदलते गये। जिस तरह एक शरीर के जीवनकाल में अनेक कपड़े पहनते और बदलते हैं, उसी तरह एक जीव के जीवनकाल में अनेक शरीर होते हैं और छूटते हैं। जीव वही रहता है, शरीर बदलते रहते हैं। वर्तमान काल में इस स्थूल शरीर में हम हैं, इसके अंदर सूक्ष्म शरीर है, उसके अंदर कारण शरीर है, उसके अंदर महाकारण शरीर है और उसके अंदर कैवल्य शरीर है।
इसी शरीर में अवस्थित होकर हम अपने स्वरूप का और परमात्म-स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। जो साधक इस स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं, उनके समक्ष माया और उसकी सेना मैना की तरह ‘मैं’ ना-‘मैं’ ना कहती हाथ जोड़े खड़ी रहती है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 1-4-1995 को अखिल भारतीय 84वाँ महाधिवेशन, बोकारो के सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 1996 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोग ‘योग’ के संबंध में सुन रहे थे। ‘योग’ कहते किसको हैं? भगवान श्रीकृष्ण ने योग की परिभाषा दी है-‘योगः कर्मसु कौशलम्।’ अर्थात् कर्म करने की कुशलता को योग कहते हैं। कर्म करने की कुशलता यह है कि हम कर्म तो करें; किन्तु कर्म का लेप हमपर नहीं लगे। यह कैसे संभव है? इसके लिए क्या यत्न है? रामकृष्ण परमहंसजी महाराज बंगाल में हुए थे। उन्होंने कहा, जब तुम कटहल काटते हो, तो कटहल काटने के पहले ही हाथ में तेल लगा लेते हो। अगर हाथ में तेल नहीं लगाओ और कटहल काटना शुरू करो, तो कटहल का लस्सा तुम्हारे हाथ में लग जाएगा। जैसे कटहल काटने में जो पहले हाथ में तेल लगाते हो, फिर कटहल काटते हो, तो लस्सा हाथ में नहीं लगता है, उसी तरह अपने हृदय को भगवद्भक्तिरूपी तेल से तर करो और फिर संसार का काम करो, लस्सा नहीं लगेगा। दूसरी परिभाषा भगवान ने दी, ‘समत्वं योग उच्यते।’ समता का नाम योग है। वह समता कैसे प्राप्त हो? जबतक हम ममताग्रस्त रहेंगे, तबतक समता नहीं आएगी, विषमता रहेगी। समता लाने के लिए शम की साधना करनी पड़ेगी और यह शम की जो साधना है, वह नादानुसंधान है और वह अंतिम साधना है। जब हम महर्षि ’पतंजलि योग’ की ओर ध्यान देते हैं, तो उसमें पाते हैं कि ‘चित्तवृत्ति निरोधः इति योगः।’ चित्तवृत्ति निरोध को योग कहते हैं। हमारी चित्त की वृत्तियाँ विषयों की ओर हैं, पंच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा पंच विषयों में बिखरी हुई हैं। इन वृत्तियों का सिमटाव करना ‘योग’ कहलाता है-
“ पाँचइ पाँच परस रस, शब्द गंध अरु रूप ।
इन्हकर कहा न कीजिये, बहुरि परव भवकूप ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा। इन वृत्तियों का सिमटाव कैसे हो? जिस उपाय से हो, उसकी संज्ञा ‘योग’ की दी गयी है। चित्तवृत्ति के सिमटाव के लिए देवताओं ने दो मार्ग नियुक्त किये। वराहोपनिषद् में आया है, ‘एक शुक मुनि का मार्ग और दूसरा वामदेव मुनि का मार्ग। शुक मुनि का मार्ग राजयोग कहलाता है। वही विहंगम मार्ग कहलाता है। आगे चलकर मीनमार्ग मिलता है। वामदेव मुनि का मार्ग पिपीलिका-मार्ग है, वह हठयोग-मार्ग है। हठयोग-मार्ग के सभी अधिकारी नहीं हो सकते; क्योंकि वह कठिन और सापद है। राजयोग मार्ग के अधिकारी सभी हो सकते हैं; क्योंकि वह सरल और निरापद है। इसीलिए गुरु नानकदेव ने कहा-
“ राज महि राज योग महि योगी ,
तप में तपीसुर गृहस्थ माँहि भोगी ।
ध्याय ध्याय भक्तः सुख पाया ।
नानक तिस पुरुष किन अंत न पाया ।।”
राज्य करते हुए राजा कर सकते हैं; योग करते हुए योगी कर सकते हैं; तप करते हुए तपी कर सकते हैं और काम-धंधा करते हुए सभी कोई कर सकते हैं। यानी सांसारिक सँभाल के साथ-साथ गृहस्थ भी कर सकते हैं। इसके लिए कोई प्रतिबंध नहीं है।
जब हम योग की तरफ और दृष्टिपात करते हैं, तो पाते हैं कि योग के आठ अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। जबतक यम-नियम का पालन नहीं होगा, तो आसन-सिद्धि नहीं होगी और जबतक आसन-सिद्धि नहीं होगी, तो प्राणायाम नहीं होगा। इसलिए आसन- सिद्धि के लिए यम-नियम का पालन अत्यावश्यक है। पाँच यम और पाँच नियम हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाँच यम हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान-ये पाँच नियम हैं। जब इन यम-नियमों का पालन हम ठीक-ठीक करेंगे, तब आसन-सिद्धि होगी अर्थात् एक ही आसन से कुछ अधिक देर तक बैठने की आदत होगी और प्राणायाम की क्रिया में सफलता तभी मिल सकती है, जबकि हम आसन-दृढ़, आहार दृढ़ और भजन-नेम में दृढ़ होंगे। आसन की दृढ़ता के लिए आहार दृढ़ होने की अत्यन्त आवश्यकता है। ‘आहार दृढ़’ का अर्थ है-सात्विक और संतुलित भोजन। अगर हमारा आहार संयमित नहीं है, युक्ताहार-विहार नहीं है, तो प्राणायाम में सफलता नहीं प्राप्त कर सकेंगे; क्योंकि इसका जो नियम है, उस नियम के अनुकूल हमको बरतना है। प्राणायाम की क्रिया में श्वास खींचते हैं, रोकते हैं, फिर छोड़ते हैं। श्वास खींचने को पूरक, श्वास रोकने को कुंभक और श्वास छोड़ने को रेचक कहते हैं। इसकी विधि इस प्रकार है कि यदि हम एक मिनट में श्वास खींचते हैं, तो चार मिनट उसको अंदर में रोककर रखना है और दो मिनट में उसको छोड़ना है। इसमें अगर व्यतिक्रम होगा, व्यवधान होगा, तो साधना में सफलता नहीं मिल सकेगी तथा यह रोग भी पैदा कर सकता है। हठयोग की क्रिया का आरंभ मूलाधार चक्र से होता है। राजयोग की क्रिया का आरंभ आज्ञाचक्र से होता है। जैसे एक वृक्ष में फल लगा हुआ है। चींटी वृक्ष की जड़ से चढ़ती है। चढ़ते-चढ़ते जाकर उस फल को खाती है और धीरे- धीरे नीचे आकर बिल में पैठ जाती है। उसी तरह से हठयोग की साधना मूलाधार से स्वाधिष्ठान में, उससे बढ़कर नाभि में, हृदय में, कंठ में; इस प्रकार क्रम-क्रम से आज्ञाचक्र में जाते हैं। कंठचक्र को षोड़श दल कमल का स्थान बतलाया गया है। इसमें सोलह स्वर हैं; यथा-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, लृ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः। ये सोलह स्वर कमल की सोलह पँखुड़ियाँ हैं। उसके नीचे हृदय चक्र है। इसमें द्वादश कमल बतलाया गया है; यथा-क, ख, ग, घ, घ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ-ये बारह व्यंजन हैं। इसके नीचे नाभिचक्र में दश दल कमल हैं-ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ। स्वाधिष्ठान चक्र में छह दल कमल हैं; यथा-ब, भ, म, य, र, ल। उसके नीचे मूलाधार चक्र में चार दल कमल हैं; यथा-व, श, ष, श। यहाँ आकर समाप्त हो जाता है। ह और क्ष का स्थान ऊपर युगल नेत्रें से संबंधित रखा गया है। इस तरह एक-एक चक्र में एक-एक कमल की और प्रत्येक कमल-पँखुड़ी में एक-एक अक्षर की कल्पना करके उस एक-एक अक्षर को बीजमंत्र मानकर उसकी साधना करते हुए आगे बढ़ते हैं। प्रत्येक चक्र में एक-एक देवता माने गये हैं; जैसे मूलाधार में, जिसको गुदाचक्र कहते हैं, श्रीगणेशजी की कल्पना करके उनका ध्यान करते हैं। ऊपर उठते हैं, स्वाधिष्ठान चक्र में ब्रह्मा की कल्पना करके उनका ध्यान करते हैं। उसके ऊपर नाभिचक्र में आकर विष्णु का ध्यान करते हैं। फिर और ऊपर हृदयचक्र में आकर शिवजी का ध्यान करते हैं। कंठचक्र में जाकर सरस्वतीजी का ध्यान करते हैं। इस तरह क्रम-क्रम से वे आगे बढ़ते हैं। राजयोगी और हठयोगी के आरंभिक विचारों में थोड़ी भिन्नता होती है और वह भिन्नता इस प्रकार की है-हठयोगी का कथन है कि जिस तरह पंखा जबतक चलता रहता है, तबतक हवा चलती रहती है। जब पंखे का चलना बंद हो जाता है, तब हवा का चलना बंद हो जाता है। पंखा स्थूल है और हवा सूक्ष्म है। स्थूल पंखे के चलने से सूक्ष्म हवा चलने लग जाती है और स्थूल पंखे के बंद हो जाने से सूक्ष्म हवा भी बंद हो जाती है। उसी तरह यह मन सूक्ष्म है और प्राणवायु है स्थूल। हठयोगी का कहना है कि इस तरह यदि क्रिया-विशेष के द्वारा प्राणवायु को अवरुद्ध कर दिया जाए, तो मन भी अवरुद्ध हो जाएगा। राजयोगी का कथन है-मनोनिरोध के लिए वायु-निरोध की नहीं, दृष्टिनिरोध की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ- जब तक हमारी दृष्टि काम करती है, तबतक मन काम करता है और जब दृष्टि काम नहीं करती, तो मन भी काम नहीं करता है। जैसे हम अभी जाग्रतावस्था में हैं। इस जाग्रतावस्था में हमारी दृष्टि काम कर रही है, तो हमारा मन भी काम करता है। जैसे अभी हम जाग्रतावस्था में हैं। इस जाग्रतावस्था में हमारी दृष्टि काम कर रही है, तो हमारा मन भी काम कर रहा है। जब हम स्वप्नावस्था में चले जाते हैं, उस समय हमारी यह दृष्टि स्थूल संसार में काम नहीं करती, तो उस समय हमारा मन भी इस संसार में काम नहीं करता है। उस समय हमारी दृष्टि मानसिक जगत में काम करती है, तो उसी मनोमय जगत में ही हमारा मन भी काम करता है। जब हम स्वप्नावस्था से सुषुप्ति में चले जाते हैं अर्थात् गहरी नींद में चले जाते हैं, उस गहरी नींद की अवस्था में हमारी दृष्टि काम नहीं करती है, तो हमारा मन भी काम नहीं करता है; किन्तु श्वास-प्रश्वास की गति होती रहती है। इसलिए मनोनिरोध के लिए वायुनिरोध की नहीं, दृष्टिनिरोध की आवश्यकता है। इसी दृष्टि-निरोध के लिए दृष्टि-साधन की क्रिया है। लेकिन दृष्टि-साधन की क्रिया सूक्ष्म है। जबतक कोई मोटे-मोटे अक्षरों को नहीं लिख लेता, महीन अक्षरों के लिखने की योग्यता नहीं होती। इसी तरह जबतक कोई मोटी उपासना नहीं कर लेगा, तबतक सूक्ष्म उपासना करने की योग्यता उनमें नहीं आएगी। इसीलिए मोटी उपासना के लिए मानस जप और मानस ध्यान रखा गया है।
अभी इस नाम-रूपात्मक जगत में हमारी वृत्तियाँ फैली हुई हैं। नाम और रूप के सहारे ही हमको आगे बढ़ना होगा। जिस तरह से नदी के जल में कोई डूब रहा है। वहाँ स्टीमर नहीं हो, नाव नहीं हो, कोई सहायक नहीं हो, तो उस नदी से निकलने के लिए, डूबने से बचने के लिए क्या करना होगा? अगर वह तैरना जानता हो, तो बच सकता है। तैरने में क्या करना होता है? आगे के पानी को पकड़ना होता है और पीछे के पानी को छोड़ना होता है। इसी तरह क्रम-क्रम से आगे के पानी को पकड़ते हुए और पीछे के पानी को छोड़ते हुए वह सूखी जमीन पर चला जाता है, इसी तरह से इस नाम-रूपात्मक जगत् में हम डूब रहे हैं, हमारी वृत्तियाँ इसमें फैली हुई हैं। इस नाम-रूपात्मक जगत से वृत्तियों को समेटने के लिए क्या करना होगा? पहले स्थूल संसार के ईश्वर-वाचक किसी एक नाम और उसी से संबंधित रूप का सहारा लेना होगा। ईश्वर-वाचक किस शब्द को लिया जाए? इसके लिए संतों के बड़े ही उदार भाव हैं। संत दादू दयालजी महाराज कहते हैं-
“ दादू सिरजनहार के, केते नाँव अनन्त ।
चित आवै सो लीजिए, यों साधू सुमिरैं संत ।।”
जिसमें आपकी श्रद्धा हो, जो आपका इष्ट हो, उस इष्ट के नाम का जप और उसी इष्ट के रूप का ध्यान कीजिए। संतों के यहाँ हम देखते हैं कि ‘गुरु’ का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। संत कबीर साहब और गुरु नानकदेवजी आदि संतों ने गुरु के नाम का जप और उन्हीं के रूप का ध्यान करने की प्रेरणा दी है; यथा-
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।”
(संत कबीर साहब)
“ अंतरि गुरु आराधना, जिह्वा जपि गुरु नाउ ।
नेत्री सतिगुरु पेखना, स्त्रवणी सुनणा गुर नाउ ।।”
तथा-
“ गुरु की मूरति मन महिँ ध्यान।
गुरु के शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरण रिदै लै धारउ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारऊ।।”
(गुरु नानक साहब)
“ गुरु ही को धरि ध्यान, नाम गुरु को जपो ।
आपा दीजै भेंट, पुजन गुरु ही थपो ।।”
(संत चरणदासजी)
“ अति पावन गुरु मंत्र, मनहिं मन जाप जपो ।
उपकारी गुरु रूप को, मानस ध्यान थपो ।।”
(महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज)
इस तरह मानस जप और मानस ध्यान करने से चित्तवृत्तियों का कुछ सिमटाव होता है, स्थूल जगत् से कुछ हटाव होता है; किन्तु स्थूल जगत् को पार करने के लिए पूर्ण सिमटाव के लिए दृष्टियोग की आवश्यकता है। इसी पूर्ण सिमटाव के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में कहा है-
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
अर्थात् शरीर, गर्दन और मस्तक को सीधा करके, स्थिर करके बैठो और नासाग्र में ध्यान करो। यह नासाग्र कहाँ है? कहाँ ध्यान करो। कैसे ध्यान करो? इन बातों की अभिज्ञता आवश्यक है।
एक बहुत बड़े महात्मा से, जिनकी बहुत ख्याति है, मेरी भेंट हुई। उन्होंने गीता पर बहुत मोटी-मोटी पुस्तकें लिखी हैं। उनसे मैंने पूछा, यह नासिकाग्र क्या है?’ उन्होंने नाक के निचले भाग को बतलाया। मैंने कहा, ‘भगवान श्रीकृष्ण ने तो किसी दिशा को नहीं देखते हुए नासाग्र में देखने के लिए कहा है। यदि नाक के निचले भाग को देखते हैं, तो एक दिशा तो हो ही गयी।’ उन्होंने अपनी बात दुहराते हुए नाक के निचले भाग को ही नासिकाग्र कहा। वास्तविक बात तो यह है कि दिशाएँ हैं दस-पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, चारो दिशाओं के चारो कोण और ऊपर और नीचे। अगर भौंओं के ऊपर कहते हैं, तो एक दिशा हो जाती है और नीचे कहते हैं, तो एक दिशा हो जाती है। इस विषम परिस्थिति में यथार्थ बोध के लिए अंतर आकुल हो उठता है। इसके समाधानार्थ एक साधक कवि की उक्ति है-
“ भेद यह गुप्त पाना, किसी ग्रन्थ से ।
है असंभव समझ लो किसी संत से ।।”
और महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की वाणी में हम कह सकते हैं-
“ बिन दया संतन की ‘मेँहीँ’, जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं, वो होनहारा है नहीं ।।”
जैन धर्म में इसी को ‘प्रेक्षा ध्यान’ और बौद्ध धर्म में इसी को ‘विपश्यना’ कहा गया है। अभी आपलोगों ने जाबालदर्शनोपनिषद् के पाठ में सुना-
“ नासाग्रे शशभृद्बिम्बे विन्दुमध्ये तुरीयकम् ।
स्त्रवन्तममृतं पश्येन्नेत्रभ्यां सुसमाहितः ।।”
कहाँ देखें, किस तरह देखें? देखने की कला क्या है? इसका स्पष्टीकरण संत पलटू साहब ने इस भाँति किया है-
“ काजर दिये से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।
ताकन को ढब नाहिं, ताकन की गति है न्यारी ।।”
इसलिए किसी जानकार से जानकर देखने की कला से देखो। जो कोई देखने की कला से देखते हैं, उनका पूर्ण सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति में आवरण-भेदन होता है और तब वह अंधकार से प्रकाश में चला जाता है, पिण्ड से ब्रह्माण्ड में चला जाता है; स्थूल जगत् से वह सूक्ष्म जगत् में प्रवेश कर जाता है; सूक्ष्म जगत् अवलम्ब सूक्ष्म ज्योति तथा सूक्ष्म नाद होता है। तब साधक उस ज्योति और नाद का अवलंब लेकर और आगे बढ़ता है। एक बहुत अच्छे महात्मा थे देवघर में। उनका था श्रीपंचानन भट्टाचार्य। उन्होंने कहा है-
“ मूलाधाराबधि पंचचक्र भेदि
आज्ञाचक्रे यदि थाक निरवधि ।
देखिबे से निधि जावे भव व्याधि
भासिवे आनन्द सागरे ।।”
शिवगीता में लिखा है-भगवान शंकर पार्वतीजी से कहते हैं, ‘मैंने जो तुमको पंच पप्रों के ध्यान के अलग-अलग फल बतलाये हैं, यदि जो कोई आज्ञाचक्र का ध्यान करता है, तो पाँचो कमलों के ध्यान का जो फल होता है, वह मात्र आज्ञाचक्र में ध्यान करने से मिल जाता है।’ इसलिए राजयोगी को मूलाधार से साधना करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। राजयोगी छठे चक्र (आज्ञाचक्र) से ही अपनी साधना आरम्भ करते हैं। छठे चक्र में जो कोई पहुँचते हैं, उनको अपने अंदर की नादानुभूति होती है। जो कोई नाद की साधना करते हैं, संत चरणदासजी महाराज ने कहा है-
“ नौ नाड़ी को खैंच पवन लै उर में दीजै ।
बज्जर ताला लाय द्वार नौ बन्द करीजै ।।
तीनों बंद लगाय स्थिर अनहद आराधै ।
सुरत निरत का काम राह चल गगन अगाध ।।”
हमारे शरीर के भीतर बहत्तर करोड़ नाड़ियाँ हैं। उन बहत्तर करोड़ नाड़ियों में एक सौ एक नाड़ियाँ मुख्य हैं। योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
“ एकोत्तरं नाडिशतं तासां मध्ये परा स्मृता ।
सुषुम्ना तु परे लीना विरजा ब्रह्मरूपिणी ।।”
इन एक सौ एक नाड़ियों में नौ नाड़ियाँ प्रसिद्ध हैं। नौ नाड़ियों में तीन नाड़ियाँ मुख्य हैं-इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इन तीन नाड़ियों में एक नाड़ी प्रसिद्ध है। वह है सुषुम्ना। संत-वाणियों में सुषुम्ना की बहुत चर्चा है। संतों ने इसकी बहुत चर्चा है। संतों ने इसकी बड़ी महिमा गायी है। संत बुल्ला साहब सुषुम्ना में सुरत की डोरी बनाकर उसमें प्रवेश करने का आदेश देते हैं-
“ सुखमनि सुरति डोरि बनाव ।
मिटिहैं सब कर्म जिव के बहुरि इतहि न आव ।।”
इसी विषय की सम्पुष्टि संत कबीर साहब करते हैं। वे कहते हैं-
‘कहै कबीर चरण चित राखो, ज्यों सूई में डोरा रे ।।’
सूई में जब हम डोरा पिरोते हैं, तो क्या करते हैं? पहले हम डोरे को यानी धागे के मुँह को चुटकी से महीन कर लेते हैं, गोया धागे को समेटते हैं, फिर छेद में प्रवेश कराते हैं। जबतक धागे का मुँह फैलाकर रहेगा, धागा सूई में प्रवेश नहीं कर सकेगा। दोनों चुटकियों से धागे के मुँह को समेटते हैं। इसी तरह इड़ा और पिंगला को दोनों अंगुलियों की चुटकियाँ मान लीजिए और उससे समेटिये और तब सुषुम्ना में सुरत को प्रवेश कराइये-दसवें द्वार में प्रवेश कराइये। जबतक बिखरी धारें रहेंगी इड़ा-पिंगला की, तबतक सुषुम्ना में प्रवेश संभव नहीं। योगिवर श्रीपंचानन भट्टाचार्य जी कहते हैं-
“ बामे इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला
रजस् तमोगुणे करिते छे खेला ।
मध्ये सत्वगुणे सुषुम्ना विमला
धरऽ धरऽ ताँरे सादरे ।।”
“ सुषुम्नायां यदायोगी क्षणैकमपि तिष्ठति ।
सुषुम्नायां यदा योगी क्षणार्धमपि तिष्ठति ।।
सुषुम्नायां यदा योगी सुलग्नो लवणाम्बुवत् ।
सुषुम्नायां यदा योगी लीयते क्षीरनीरवत् ।।
भिद्यते च तदा ग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते परमाकाशे ते यान्ति परमां गतिम् ।।”
अर्थ-सुषुम्ना में जब योगी एक क्षण भी ठहरता है, सुषुम्ना में जब योगी आधा क्षण भी ठहरता है, सुषुम्ना में जब योगी पानी और नमक के समान मिल जाता है और सुषुम्ना में जब योगी दूध और पानी के समान मिल जाता है, तब (उसकी) ग्रन्थि (गिरह-गाँठ) टूट जाती है, (उसके) सम्पूर्ण संशयों का नाश हो जाता है और वह परमाकाश में विलाकर परम गति को प्राप्त होता है। जो कोई आज्ञाचक्र में ध्यान करते हैं, उनको अंतःप्रकाश मिलता है। संत गुलाल साहब कहते हैं-
‘उलटि देखो घट में जोति पसार ।’
वे नौ द्वारों से उलटकर दसवें द्वार में प्रवेश करने के लिए कहते हैं। जो पिंड से सिमटकर अपने को ब्रह्माण्ड में प्रवेश कराते हैं यानी पिण्ड से ब्रह्मांड में जाते हैं, तो अंतःप्रकाश मिलता है। और फिर
‘बिन बाजे तहँ धुनि सब होवे,
बिगसि कमल कचनार ।।’
की अनुभूति होती है। अर्थात् बिना बाजे के विविध ध्वनियाँ वहाँ होती हैं और अपने अंदर के विभिन्न मंडल खुलते हैं और विभिन्न प्रकार के प्रकाश मिलते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि अपने अंदर प्रवेश करनेवाले नौ द्वारों ं से दसवें द्वार में जाते हैं; अंधकार से प्रकाश में जाते हैं, वहाँ उनको अनहद शब्द की अनुभूति होती है। आज्ञाचक्र से विहंगम मार्ग आरंभ होता है। विहंगम=चिड़िया, पक्षी। चिड़िया प्रकाश में उड़ती है, अंधकार में नहीं। चिड़िया एक जगह बैठी हुई रहती है और अपना निशाना करके उस जगह से दूसरी जगह चली जाती है। उसी तरह जिसका निशाना ठीक बैठ जाता है, तो उसकी ऊर्ध्वगति हो जाती है। संत राधास्वामी साहब कहते हैं-
“ बैठे ने रास्ता काटा, चलते ने बाट न पाई ।
है कुछ रहनी गहनी की बाता,
बैठा रहे चला पुनि जाता ।।”
कहने का तात्पर्य ऐसा-
‘जस पंथी बोहित चढ़ि जैसा ।’
जैसे नाव पर चढ़नेवाले को चलना नहीं पड़ता, चलती है नाव। उसी तरह जिसकी दृष्टि विन्दु को और सुरतशब्द को पकड़ लेती है, उसको वही विन्दु, ज्योति-मंडल और शब्द-मंडल का सैर कराता है। हमारे गुरुदेव अपनी अनुभूति कहते हैं-
“ विन्दु नाद अगुवाइ, तुमहिं ले जायँगे ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ ज्योति मण्डल सह नाद,
की शैर दिखायँगे ।।8।।
ज्योति मण्डल की शैर, झकाझक झाँकिये ।
तिल ढिग जुगनू जोति, टकाटक ताकिये ।।
होत बिज्जु उजियार, नजर थिर ना रहै ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ सुरत काँपती रहै,
ज्योति दृढ़ क्यों गहै ।।9।।”
अंतर्ज्योति को देखकर सुरत काँपती है। जिस तरह की ज्योति कभी देखी नहीं, उस तरह की ज्योति-प्रकाश देखने में आता है। प्रकाश भी कैसा? हमलोग नित्य पाठ करते हैं-
“ कोट भान छवि तेज उजाली ।
अलख पार लखि लाग लगीजै ।।”
इस लौकिक सूर्य का प्रकाश कैसा है, सो आप देखते हैं। जहाँ करोड़ों सूर्य का प्रकाश होगा, वह कैसा होगा, कल्पना कीजिए। लौकिक प्रकाश से हमारे विकारों का नाश नहीं होता है; लेकिन अंदर के अलौकिक प्रकाश को पाने के से विकारों का विनाश होता है। जिस तरह लौकिक प्रकाश से इस लोक में हम दूर-दूर तक देखते हैं, उसी तरह से अंतःप्रकाश जिसको मिलता है, वह बाह्यजगत् में दूर-दूर तक देखता है। आरंभ में सुरत काँपती है; किन्तु निरन्तर अभ्यास करते रहने से स्थिरता आती है-प्रौढ़ता आती है। हमारे गुरुदेव कहते हैं, घबड़ाने की कोई बात नहीं है-
“ दृष्टि योग अभ्यास अतिहि, करतहि करत ।
कँपनी सहजहि छुटै, प्रौढ़ होवै सुरत ।।
तिल दरवाजा टुटै, नजर के जोर से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ लगे टकटकी खूब ,
जोर बरजोर से ।।10।।”
जिस तरह आरंभ में जो कोई दंड-बैठक खेलते हैं, तो उनकी बाँहें और जाँघें दोनों काँपती हैं। लेकिन िनरन्तर दंड-बैठक खेलते रहने से भुजाएँ और जाँघें मजबूत हो जाती हैं। इसी तरह दृष्टियोग के आरंभ में सुरत काँपती है; लेकिन निरन्तर अभ्यास करने से वह मजबूत हो जाती है। फिर अपने अंदर नाना प्रकार की ध्वनियों की अनुभूति होती है। वे ध्वनियाँ अपनी ओर खींचती हैं। साधक स्थूल मंडल के केन्द्रीय शब्द को पकड़ता है। वह शब्द ऊपर की ओर से आया हुआ होता है। इसलिए वह स्थूल केन्द्र से सूक्ष्म केन्द्र की ओर अग्रसर होता है। साधक शब्द धार को पकड़कर भाठे से सिरे की ओर जाता है। इसलिए इसको मीनमार्ग कहते हैं। छोटी मछली जल- धारा की उलटी दिशा में चलती है। इसलिए हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
“ सुखमन के झीनानाल से अमृत की धारा बही रही ।
मीन सुरत धार धर भाठा से सीरा चढ़ी रही ।।”
यही मीनमार्ग है। मछली भाठे से सिरे की ओर चलती है। इसी तरह सुरतरूपी मछली नीचे से ऊपर यानी पिण्ड से ब्राह्मंड की ओर जाती है। स्थूल मंडल के केन्द्रीय नाद को पकड़कर सूक्ष्म के केन्द्र में, सूक्ष्म के केन्द्र के नाद को पकड़कर कारण के केन्द्र में, कारण के केन्द्रीय नाद को पकड़कर महाकारण के केन्द्र में तथा महाकारण के केन्द्रीय नाद को पकड़कर कैवल्य के केन्द्र में पहुँचती है। इस तरह उसके ऊपर से जड़ के सारे आवरण झड़ जाते हैं। कैवल्य में वह प्रतिष्ठित हो जाती है। कैवल्य के शब्द को ही स्फोट, ओ3म्, उद्गीथ, प्रणव, सारशब्द आदि संज्ञाओं से अभिहित करते हैं। यह एक-ही-एक शब्द है। उसको पकड़कर सुरत परम प्रभु परमात्मा से जा-मिल कर एक हो जाती है; आवागमन का चक्र छूट जाता है। हमारे गुरुदेव की वाणी में है-
“ नाद सों नादों में चलि धरु प्रणव सत ध्वनि सार रे ।
एक ओम् सत नाम ध्वनि धरि मेँहीँ हो भव पार रे ।।”
राजयोग की साधना सरल, सुगम और निरापद है। हठयोग की साधना कठिन और सापद है। इसलिए शाण्डिल्योपनिषद् में आया है-
“ यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः ।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।।”
जिस तरह बाघ, सिंह और हाथी शनैः-शनैः काबू में लाया जाता हैं, इसी तरह प्राणायाम की क्रिया द्वारा वायु को वश में किया जाता है, प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है।
सहरसा जिले में एक गाँव है-बनगाँव। यहाँ लक्ष्मीनाथजी महाराज एक अच्छे संत थे। उनके एक शिष्य थे, जो हठयोग की साधना करते थे और उनके भी एक शिष्य थे। श्रीलक्ष्मीनाथजी महाराज के शिष्य साधना कर रहे थे कि एकाएक उनकी छाती में दर्द मालूम हुआ। उन्होंने अपने शिष्य से कहा कि गुरु महाराज से कहो कि छाती में दर्द हो गया है। जबतक उनके शिष्य श्रीलक्ष्मीनाथ गोसाईंजी महाराज के पास से लौटकर आये, तबतक उस महात्माजी का शरीर शांत हो गया।
अब तो सुपौल जिला हो गया है। यहाँ एक सर्कस आया था। सर्कस में दिखाता था कि बाघ अपना मुँह खोल देता था और एक छोटी बच्ची थी, वह अपना सिर बाघ के मुँह में घुसा देती थी। सब दिन तो वह बच्ची तमाशा दिखाती ही थी; लेकिन एक दिन ऐसा हुआ कि जैसे ही उस बच्ची ने बाघ के मुँह में अपना सिर दिया कि बाघ ने अपना मुँह बंद कर लिया और वह बच्ची वहीं समाप्त हो गयी। तो यह हठयोग की क्रिया है, थोड़ी-सी चूक हो जाने पर वह मानने को नहीं है। लेकिन राजयोग की क्रिया तो यह है कि जबतक मन लगा, बैठे और मन नहीं लगा, उठकर चले गये अपने काम में। लेकिन जो कोई हठयोग की क्रिया करते हैं, उस साधक को तो अपनी क्रिया पूरी ही करके छोड़ना पड़ेगा। जितनी देर तक जो कुछ करना है, उसे नपे-तुले हिसाब से ही करना पड़ेगा, नहीं तो आपदा सामने है; क्योंकि वह क्रिया सापद है। अवश्य ही राजयोग में भी पहले कुछ हठ करना पड़ता है और वह यह कि मन नहीं लगता है, तो लगाते हैं। मन नहीं लगता है, फिर भी हठपूर्वक लगाने का प्रयत्न करते हैं। मन तो कहता है कि हम जाएँगे विषयों में; लेकिन हम कहते हैं कि नहीं भाई! उधर नहीं जाओ। निर्विषय तत्त्व की ओर जाओ। विषय क्षणिक है और निर्विषय तत्त्व परम प्रभु परमात्मा है। विषयों का सुख अल्प है, थोड़ी दे का है और परमात्म-सुख परम सुख है, उस ओर चलो। धीरे-धीरे मन को उस ओर लगाते हैं, यह हठ है। इसलिए गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ भक्ति पक्ष हठ नहिं शठताई ।
दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई ।।”
हठता है, लेकिन शठता इसके साथ नहीं है। यह सरल साधना सबके करने योग्य है। सब कोई इसे कर सकते हैं। गुरु महाराज ने तो बड़ी उदारता के साथ कहा है-
“ जितने मनुष तन धारि हैं, प्रभु-भक्ति कर सकते सभी ।
अन्तर व बाहर भक्ति कर, घट-पट हटाना चाहिए ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ चहू वरना को दे उपदेश ।
ता पण्डित को सदा अदेश ।।”
संत तुकारामजी महाराज ने कहा है-
“ क्या द्विजाति क्या शूद्र,
ईश को वेश्या भी भज सकती है।
श्वपचों को भी भक्ति भाव में,
शुचित कब तज सकती है।।”
मेरे कहने का तात्पर्य यह कि राजयोग सरल साधना है। यही विहंगम मार्ग तथा मीनमार्ग है। इस सरल साधना को करके हमें अपना जीवन कल्याणमय बनाना चाहिए।
महर्षि श्रीसन्तसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 2-4-1995 को 84वाँ महाधिवेशन लोहनगरी बोकारो, में प्रातःकालकालीन सत्संग के शुभ अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर 1995 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
यदि आपलोग अस्पताल में रोगियों की भीड़ देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का शारीरिक पतन हो चुका है। यदि आप कचहरी में मुकदमेबाजों की भीड़ देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का नैतिक पतन हो चुका है। यदि आप सिनेमाघरों में तमाशा देखनेवालों की अधिक भीड़ देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का चारित्रिक पतन हो चुका है; किन्तु यदि सत्संग के नाम पर इस तरह उमड़ती भीड़ देखें तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों की आध्यात्मिक उन्नति हो रही है। मैं आपलोगों की आध्यात्मिक उन्नति देखकर बहुत प्रसन्न हो रहा हूँ और बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ।
हमारे गुरुदेव कहा करते थे-सबसे ऊपर लिखो आध्यात्मिकता, उसके नीचे लिखो सदाचारिता, उसके नीचे लिखो सामाजिक नीति और उसके नीचे लिखो राजनीति। जहाँ अध्यात्म- ज्ञान का अधिक प्रचार-प्रसार होगा, वहाँ के लोग अधिक सदाचारी होंगे। जहाँ के लोग अधिक सदाचारी होंगे, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति बुरी हो नहीं सकती; क्योंकि समाज के लोग ही राजनीति में जाते हैं। आध्यात्मिकता का सदाचार से वैसा ही संबंध है, जैसा फ़ के साथ न् का। जो अध्यात्म-ज्ञान को ग्रहण करेंगे, वे सुनिश्चित रूप से सदाचारी बनेंगे। कोई आध्यात्मिक ज्ञानी कहलावे और वह सदाचारी नहीं हो, यह विश्वास करने योग्य बात नहीं है। जो आध्यात्मिक ज्ञानी होंगे, वे सदाचारी अवश्य होंगे; क्योंकि सदाचार की आधारशिला पर ही भक्ति का भव्य-भवन बनता है। अंग्रेजी में एक अच्छी कहावत है- "If wealth is lost nothing is lost, If health is lost something is lost, If character is lost everything is lost."
जहाँ सदाचार नहीं है, वहाँ सब समाप्त है। यदि सम्पत्ति नष्ट हो गयी, तो कुछ नष्ट नहीं हुआ। हमारा स्वास्थ्य नष्ट हो गया, तो साधारण हानि हुई; किन्तु यदि हमारा चरित्र नष्ट हो गया, तो समझिये हमारा सब कुछ नष्ट हो गया। सदाचार के बिना सब कुछ व्यर्थ है। एक सुभाषितकार ने कितना अच्छा कहा है- “ असन के लिए नाना प्रकार के अन्न, फल, मेवा, मिष्टान्न, दुग्ध-घृत आदि से भरा भंडार हो; वसन के लिए जाड़ा, गर्मी, वर्षा आदि ऋतुओं के अनुकूल ऊनी, सूती, रेशमी, मलमल, मखमल सभी भाँति के वस्त्रें का आगार हो; शयन के लिए गगनचुम्बी अट्टालिका खिड़कीदार और हवादार हो; मन बहलाव के लिए वातानुकूलित अत्याधुनिक कार हो; दरबार के सामने रंग-बिरंगे खिले-अधखिले फूलों की कतारें हजारों-हजार हों; परिवार में परस्पर दम्पति का प्यार हो; कामिनी के कंचन किंकिणी, नुपूर एवं पायल की झनकार हो; प्रांगण में नन्हें-मुन्ने की किलकार हो; सोने, चाँदी, हीरा, मोती, जवाहिरात आदि की टंकार हो; पद-प्रतिष्ठा और पैसे के कारण संसार में जय-जयकार हो; लेकिन यदि पालन सदाचार न हो तो सारा जीवन हाहाकार हो।”
संतजन बतलाते हैं कि सदाचार सीखो। जो सदाचार, शुच्याचार और शिष्टाचारहीन है, उस आचरणहीन व्यक्ति से कोई दीनहीन हो नहीं सकता।
इसलिए संतमत सदाचार-समन्वित ईश्वर-भक्ति का प्रचार करता है। ईश्वर-भक्ति वैसा नहीं, जो अंधी भक्ति हो, बल्कि वह ईश्वर-भक्ति जिसके साथ ज्ञान और योग संयुक्त हो। ज्ञान कहते जानने को। गो0 तुलसीदासजी का वचन है-
“ जाने बिनु न होइ परतीती ।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेश जल के चिकनाई ।।”
जबतक हम किसी के संबंध में जानेंगे नहीं, तबतक उसको हम कैसे मानेंगे? इसलिए पहले जानना होता है। जब हम किसी व्यक्ति की विशेषता जानते हैं, उनकी गुण-गरिमा जानते हैं, तब उनकी ओर हमारा आकर्षण होता है और हम जिसके दुर्गुणों को जानते हैं स्वाभाविक ही उसके प्रति हमारा विकर्षण होता है। इसलिए परमात्म-भक्ति के पहले परमात्मा के संबंध में जानना चाहिए।
अध्ययन, मनन वा श्रवण के द्वारा पहले परोक्ष ज्ञान होता है। फिर साधना के द्वारा उनका अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त किया जाता है। पहले जानें कि ईश्वर क्या है, उसका स्वरूप कैसा है? सच्छास्त्रें में वर्णित परमात्म-स्वरूप इन्द्रियातीत है। वह इन्द्रियों से ग्रहण होने योग्य नहीं है। इन्द्रियों से जो कुछ ग्रहण होता है, वह माया है। परम प्रभु परमात्मा निर्मायिक है। इन्द्रियों के द्वारा हम विषयों को ग्रहण करते हैं। परमात्मा निर्विषय तत्त्व है। इसलिए इन्द्रियों के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी। भगवान श्रीराम ने लक्ष्मणजी को बतलाया था-
“ गो गोचर जहँ लगि मन जाई ।
सो सब माया जानहु भाई ।।”
(रामचरितमानस)
संत कबीर साहब कहते हैं-
“ आवै जाय सो माया साधो, आवै जाय सो माया ।
है प्रतिकाल काल नहिं वाको, न कहुँ गया न आया ।।”
जो आता है और जाता है, वह माया है। आता वह है, जो पहले वहाँ नहीं था। लेकिन सर्वव्यापक होने के कारण परमात्मा सर्वत्र हैं। जो सबके पूर्व से सर्वत्र प्रतिष्ठित हो, वह कहाँ से आएगा और कहाँ जाएगा? वह सूक्ष्मतम है। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में-
“ ब्यापक ब्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता ।
सबदरसी अनवद्य अजीता ।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।
नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी ।
ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाहीं ।
रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।”
ऐसा वह है। उस परमात्मा का ज्ञान हम प्राप्त करें। हम परम प्रभु परमात्मा की संतान हैं। जीवात्मा परमात्मा का अभिन्न अंश हैं। जीवात्मा अंश है और परमात्मा अंशी है। जबतक अंश अंशी में नहीं मिल जाता, तबतक परम कल्याण नहीं हो सकता। आप एक मिट्टी का ढेला लीजिए और उसे ऊँचाई से फेंकिए या आप उस मिट्टी के ढेले को लेकर हवाई जहाज पर चढ़ जाइए और काफी ऊँचाई से उस ढेले को ऊपर की ओर फेंकिए। यद्यपि खाली जगह ऊपर भी है और नीचे भी, फिर भी वह मिट्टी का ढेला ऊपर की ओर नहीं जाकर नीचे की ओर ही आएगा। विचारणीय विषय है कि खाली जगह तो ऊपर भी है, तो फिर नीचे क्यों आएगा? इसलिए कि वह ढेला इसी पृथ्वी का अंश है। इसलिए जबतक जमीन में आकर वह मिल नहीं जाता है, आसमान में चक्कर काटता रहेगा। उसी तरह जीवात्मा परमात्मा का अभिन्न अंश है, जबतक वह परम प्रभु परमात्मा में मिल नहीं जाता चौरासी लाख योनियों में भटकता रहेगा। ‘अंश’ अंशी में ही जाकर शांत होता है। दूसरी उपमा लीजिए-समुद्र से वाष्प निकलता है, ऊपर जाकर वह बादल बनता है और पहाड़ की ऊँचाई पर जाकर बरस जाता है। लेकिन वह पानी वहाँ टिकता नहीं है। वह कहता है, पहाड़ हमारा घर नहीं है। वह तेजी से नीचे उतरकर किसी नाले में चला जाता है। वहाँ से छोटी नदी में जाता है, फिर आकर गंगाजी में मिल जाता है और अंत में समुद्र में जाकर स्थिर हो जाता है। जबतक वह समुद्र में नहीं मिल जाता, तबतक वह चक्कर काटता रहता है; क्योंकि वह पानी समुद्र का अंश है। उसी तरह जीवात्मा परमात्मा का अंश है, जबतक यह जीव परमात्मा में नहीं मिल जाता, चौरासी लाख योनियों में चक्कर काटता रहता है, भटकता रहता है।
इन चौरासी लाख योनियों से हम कैसे छूटेंगे? संत जन बतलाते हैं कि बाहर संसार में दौड़ने से नहीं छूटोगे। जाग्रतावस्था में हमारी चौदहों इन्द्रियाँ काम करती हैं। जब हम स्वप्नावस्था में जाते हैं, तो बाहर की पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ छूट जाती हैं, भीतर की चार इन्द्रियाँ रहती हैं। जब हम गहरी नींद-सुषुप्ति में चले जाते हैं, तो मात्र एक इन्द्रिय-चित्त रहती है, भीतर की तीनों इन्द्रियाँ भी छूट जाती हैं। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति; इन तीन को यदि कोई पार करके चौथी अवस्था में चले जाते हैं, तो उनको सभी इन्द्रियों से मुक्ति मिल जाती है। जिज्ञासा होती है-चौथी अवस्था में हम जाएँगे कैसे? इसी के समा- धानार्थ भगवान श्रीराम ने परम भक्तिन शबरी के समक्ष नवधा भक्ति का वर्णन किया था। पाँचवीं भक्ति में कहा गया है-
“ मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ।
पंचम भजन सो वेद प्रकासा ।।”
मंत्र जप से उपासना का आरंभ होता है, इससे मन को त्रण मिलता है। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने कहा है, ‘जिस कुएँ के जल से भूत उतारना हो, यदि उस कुएँ के जल में ही भूत का वासा हो, तो भूत उतरेगा कैसे?’ उसी तरह जिस मन से भगवद्भजन करना हो, वह मन ही यदि विषय में रमण करता हो, तो भजन हो कैसे, मन को विषयों की ओर से हटाना होता है। जिस नाम-रूपात्मक जगत् में हम घूम रहे हैं, इससे अपने को निकालना है। जिस तरह कोई नदी के पानी में डूब रहा होता है और वहाँ नाव, स्टीमर कुछ नहीं है, उसका कोई साथी भी नहीं है, तो वह डूबकर मरेगा। अन्यथा यदि वह तैरने की कला जानता है, तो जिस पानी में वह डूब रहा है, उसी पानी का अवलंब लेकर वह आगे के पानी को पकड़ेगा और पीछे के पानी को छोड़ेगा। आगे के पानी को पकड़ना और पीछे के पानी को छोड़ना, यह तैरने की कला है। तैरते-तैरते वह सूखी जमीन पर चला जाएगा। लेकिन यदि वह जहाँ जिस पानी में डूब रहा है, अगर उस पानी को जकड़कर, पकड़कर रखेगा, तो नीचे चला जाएगा और उसका राम-नाम सत्त हो जाएगा। उसी तरह जिस नाम-रूपात्मक जगत् में हम डूब रहे हैं, यह स्थूल नाम-रूपात्मक जगत है। उसी को पकड़कर हम नहीं रखें, बल्कि आगे बढ़ें। आगे बढ़ने का क्या उपाय है? जिस तरह पानी में डूबनेवाला पानी का ही अवलंब लेता है, उसी तरह स्थूल नाम- रूपात्मक जगत् में सर्वप्रथम परमात्मा के स्थूल नाम और स्थूल रूप का अवलंब लें। वही स्थूल नाम है- मंत्र जप। दृढ़ विश्वास के साथ मंत्र का जप करें। मंत्र जप में भी भेद है। वाचिक जप, उपांशु जप, श्वास जप और मानस जप-ये चार प्रकार के जप होते हैं। जपों में मानस जप श्रेष्ठ है, इसलिए हम मानस जप करें। जिस इष्ट के नाम का हम जप करें, उस इष्ट के रूप का हम ध्यान भी करें। इस तरह मानस जप और मानस ध्यान अर्थात् स्थूल जप और स्थूल ध्यान के द्वारा स्थूल जगत् में हमारा आंशिक सिमटाव होगा। पर पूर्ण सिमटाव के लिए भगवान छठी भक्ति बतलाते हैं-
“ छठ दमशील विरति बहु कर्मा ।
निरत निरन्तर सज्जन धर्मा ।।”
दमशील अर्थात् इन्द्रियनिग्रह का स्वभाव वाला बनो। कैसे बनो? हमारी इन्द्रियाँ विषयों में जाती हैं, उसे विषय की ओर से हटाओ। हमारे गुरुदेव कहा करते थे-मान लो, कोई व्यक्ति एक कमरे में सोया हुआ हो और पाँच आदमी उस कमरे में आवें। उनमें से दो आदमी उस सोये व्यक्ति को दोनों टाँगों को दो ओर खींचे, दो आदमी उसकी दो भुजाओं को दो ओर खींचे और एक आदमी उसके सिर को एक ओर खींचे यानी पाँचो आदमी उस व्यक्ति के पाँचों अंगो को पाँच ओर खींच रहे हों, तो क्या उस व्यक्ति को कुछ बल मालूम पड़ेगा? कुछ भी नहीं। अच्छा, खींचना छोड़ दें, वह उठकर बैठ जाए और किसी एक आदमी को दोनों हाथों से जकड़कर पकड़ ले, तो क्या होगा? उस व्यक्ति के सम्पूर्ण शरीर का बल उसकी दोनों भुजाओं में आ जाएगा। उसी तरह हमारी जो पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, वे पाँच विषयों में जा रही हैं, इसलिए हमें अपना कोई बल मालूम नहीं पड़ रहा है। उन्हें विषयों की ओर से हटा करके यदि हम अपनी दृष्टिधारों को एक करें, तो जैसे दोनों भुजाओं से हम किसी को पकड़ते हैं, तो संपूर्ण शरीर का बल अपनी दोनों भुजाओं में आ जाता है, उसी तरह हमारी जो चेतनवृति संपूर्ण शरीर में फैली हुई है, वह सिमटकर एक हो जाती है। अर्थात् पूर्ण सिमटाव हो जाता है। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है और सुरत अंधकार से प्रकाश में चली जाती है। अंधकार से प्रकाश में चले जाने पर संसार की ओर से आसक्ति हट जाती है। साधक संसार से उपराम हो जाता है। वह स्थूल शरीर में नहीं रहता है। स्थूल शरीर में नहीं रहने के कारण बाहर की दसो इन्द्रियों से ऊपर उठ जाता है। बाह्य इन्द्रियों से ऊपर उठ जाने के कारण बाह्य विषयों का त्याग हो जाता है। इस तरह नाम-रूपात्मक जगत् को त्याग करके सूक्ष्म नाम-रूपात्मक जगत् में चला जाता है। अब यहाँ सूक्ष्म रूप और सूक्ष्म नाम का अवलंब लेना पड़ता है। वह सूक्ष्म रूप है-अंतर्ज्योति और सूक्ष्म नाम है-अंतर्नाद। इस प्रकार अंतर्मुखी साधक विभिन्न प्रकार के प्रकाशों के दर्शन करते हैं और विभिन्न प्रकार के नादों यानी अनहद नादों का श्रवण करते हैं। उपमा के रूप में ऐसा समझिए, जैसे एक मंडप खूब अच्छी तरह सजा हो, तो दर्शक साज-सज्जा पर आकर्षित होकर एकटक उस ओर देखते हैं कि वहाँ विभिन्न प्रकार की बिजलियाँ वा विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे फूलादि लगे हुए हैं; लेकिन उसी मंच पर जब नृत्य और गान होने लगता है, तो उस रूप का आकर्षण छूटकर दर्शन का मन गान-श्रवण में लग जाता है। उसी भाँति अपने अंदर जो विभिन्न प्रकार की ज्योतियाँ हैं, साधक का मन पहले उसमें आकर्षित होता है; लेकिन जब अंतर्नाद की अनुभूति होने लगती है, तो वह रूप गौण हो जाता है और शब्द की प्रधानता हो जाती है। इस प्रकार सूक्ष्मरूप जगत् से सुरत ऊपर उठ जाती है। दृष्टियोग की साधना से इन्द्रिय निग्रह होता है। यह छठी भक्ति है। आगे केवल नाद-ही-नाद है। अब भगवान सातवीं भक्ति बतलाते हैं कि समस्त जगत् को ब्रह्ममय देखना और मुझसे बढ़कर संत को मानना।
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोतें संत अधिक करि लेखा ।।”
जहाँ छठी भक्ति में ‘दम’ की प्रधानता है, वहाँ सातवीं भक्ति में ‘शम’ की साधना अर्थात् मनोनिग्रह की साधना बतलायी गयी है। मनोनिग्रह की साधना कैसे होगी? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ शबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येह ।
सत्तशब्द निज सार है, यह तो झूठि देह ।।”
सातवीं भक्ति नादानुसंधान की क्रिया है। इससे मनोनिग्रह होता है। जो कोई नादानुसंधान की क्रिया करते हैं, वे अंत में सारशब्द को पाते हैं। वह सारशब्द परम प्रभु परमात्मा से जाकर मिला देता है। जिस प्रकार परमात्मा सर्वव्यापी हैं, उसी प्रकार वह ध्वनि सर्वव्यापिनी है। जो उस ध्वनि को धारण कर लेते हैं, उनकी दृष्टि ‘सियाराममय सब जग जानी’ की हो जाती है। वे अग-जग को प्रभुमय-ब्रह्ममय देखते हैं। इस तरह सूक्ष्म जगत्, कारण जगत्, महाकारण जगत् और कैवल्य जगत् को पार करके परमात्मा से मिलकर एकमेक हो जाते हैं। उनके आवागमन का चक्र छूट जाते हैं। वे दैहिक, दैविक और भौतिक; इन त्रितापों से सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं। भगवान श्रीराम-कथित नवधा भक्ति का सार यही है। प्रथम से सप्तम भक्ति तक साधना का स्वरूप और आठवीं तथा नवमी भक्ति फल स्वरूप है। संतमत यही भक्ति बतलाता है।
अंत में जो कहना चाहूँगा-भूत अर्थात् अतीत, जो व्यतीत हो चुका है और भविष्य अज्ञात है। पर वर्तमान हमारे हाथ में है, हमारे साथ है। अगर वर्तमान को हम बनाएँगे, तो भविष्य हमारा स्वतः उज्ज्वल हो जाएगा। हमको चाहिए कि हम जैसे इस लोक में सुख से रहने के लिए प्रयत्न करते हैं, उसी तरह अपना परलोक बनाने के लिए भक्ति की युक्ति सीखें और सदाचार समन्वित हो, नित्य नियमित रूप से भजन-अभ्यास करें।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 28-04-1995 को बाँका जिला के पथरा गाँव में अपराह्णकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी 2005 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ साहेबगंज जिला संतमत-सत्संग का नौवाँ वार्षिक अधिवेशन हो रहा है। इसके बाद जो वार्षिक अधिवेशन होगा वह दसवाँ होगा। यह नौवाँ अधिवेशन बतलाता है कि हमलोग जन्म-जन्मान्तर से नौ द्वारों में रहते हुए कष्ट भोगते चले आ रहे हैं। अब हमलोगों को दसवें द्वार में जाना-चाहिए। नौ द्वारों में रहने से हमारा कल्याण नहीं होगा।
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ नवमी नवद्वार-पुर बसि, न आपु भल कीन ।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत, दारून दुःख दीन ।।”
इस नौ द्वार में रहकर आपने अपनी भलाई नहीं की अर्थात् जबतक आप इन द्वारों में रहेंगे, आपकी जो सही भलाई होनी चाहिए, वह नहीं हो पाएगी। परिणामस्वरूप चौरासी लाख योनियों में घूमते रहेंगे और उनमें कष्टों को सहते रहेंगे। एक कष्ट तो हमलोग सहना चाहते नहीं हैं और जन्म-जन्मान्तर के कष्टों को सहना चाहेंगे? यदि हम इन कष्टों से मुक्ति चाहते हैं, आवागमन के कष्टों से छूटना चाहते हैं, दैहिक, दैविक और भौतिक; इन त्रयतापों से मुक्त होना चाहते हैं, तो हमलोगों को दसवें द्वार में जाना चाहिए। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
“ नउ दरि ठाके धावतु रहाए ।
दसवै निज घरि वासा पाए ।।
उथै अनहद सबद बजहि दिन राती
गुरमति शबदु सुणावणिआ ।।”
आँखों के दो द्वार, कानों के दो द्वार, नासिका के दो द्वार, मुँह का एक द्वार, मल-मूत्र विसर्जन के दो द्वार; इन नौ द्वारों में जबतक हम ठहरे रहते हैं, तो ‘धावतु रहाए’-विषयों में दौड़ते रहते हैं। और जब विषयों में दौड़ते रहते हैं, तो परिणाम क्या मिलता है? विषय-विष है। इसलिए मृत्यु में जाते हैं। संतजन कहते हैं कि इन नौ द्वारों से अपने को समेटो। विषय से निर्विषय की ओेर चलो। यह निर्विषय तत्त्व क्या है? वही अमरतत्त्व परमात्मा है। परमात्मा को प्राप्त करके अमर हो जाओगे। इसलिए नौ द्वारों से अपने को निकाल लो, दसवें में निज घर मिलेगा।
दसवें द्वार में दिन-रात अनहद शब्द- ब्रह्मनाद होता है। उस ब्रह्मनाद को जो कोई पकड़ते हैं, परम प्रभु परमात्मा के पास पहुँच जाते हैं। आप कहिएगा कैसे? अँधेरी रात हो और आप एक जगह खड़े होकर अपने कुत्ते को पुकारिए। आपकी आवाज को सुनकर कुत्ता आपके आप पहुँच जाएगा। उसी तरह जब आप ब्रह्मनाद सुनेंगे, तो उसके सहारे आप ब्रह्म के पास जाएँगे। आगरे में एक संत हुए-राधास्वामी साहब। उन्होंने कहा है-
“ इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।
खोज करो अन्तर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार ।।”
हम किस नगरी में रह रहे हैं? साहेबगंज नगरी में? नहीं, इस शरीर-रूपी नगरी में। हम शरीर के भीतर हैं। बाहर की चीजों को आँखें खोलकर देखते हैं, तो भीतर की चीजों को कैसे देखेंगे? क्रिया उलट दीजिए, आँखें बंद कर देखिए। आँखें बंद करते हैं, तो कहते हैं-‘कहाँ कुछ देखते हैं?’ संतजन कहते हैं-‘गौर से देखो।’ जब गौर से देखते हैं, तो कहते हैं-कुछ नहीं सूझ रहा है। केवल अंधकार-ही-अंधकार है। भाई मेरे! जब अंधकार-ही-अंधकार दिखाई पड़ेगा, तो अंधकार में सूझेगा क्या? जो कुछ सूझेगा, वह तो प्रकाश में ही सूझेगा। आँखें बन्द करने पर जो अंधकार मालूम होता है, इसी अंधकार में हम हैं। जबतक इस अंधकार में हम हैं, तबतक हमारे कार्यकलाप कैसे होंगे?’ ‘भूल भ्रम हर बार’-एक बार दो बार नहीं हर बार भूलें होंगी।
भागलपुर में एक बहुत बड़े जमींदार थे। उनको शराब पीने की आदत थी। वे इतना पीते थे कि पीते-पीते बेहोश हो जाते थे। डॉ0 साहब आते और उनको होश में लाते। कितनी ही बार यह घटना घटी। अन्त में डॉ0 ने कहा-‘अब आप मत पीजिए। अगर पीएँगे, तो आपकी जीवन-लीला समाप्त हो जाएगी।’ कितना भी समझाया जाता, पर पुरानी आदत बनी हुई थी। फिर पीते और बेहोश हो जाते। डॉ0 आते होश में लाते और कहते-‘अब पीएँगे, तो मर जाएँगे।’ एक दिन डॉ0 साहब उनके पास बैठे हुए थे। उन्होंने बोतल हाथ में ली और पीते हुए कहा-श्स्मज उम कपमश्ण् पीते ही राम-नाम सत् हो गया। कबीर साहब ने कहा है-
“ मैं केहि समझाऊँ, सब जग अंधा ।
एक दो होय तिन्हें समझाऊँ ,
सकल भुलाना पेट के धंधा ।।”
हमलोग सोचते हैं कि यह काम करना ठीक नहीं। थोड़ी देर के लिए तो मन मान जाता है, लेकिन हम फिर वही काम करने लग जाते हैं और जो परिणाम मिलना चाहिए, मिलता है। पीछे हम पश्चात्ताप कर लेते हैं कि हमको तो ऐसा नहीं करना चाहिए, लेकिन समय आने पर मन दुष्कर्म करवाकर छोड़ता है; क्योंकि अंधकार का गुण यही है। अंधकार काला होता है। उसमें रहने पर मन काला ही रहेगा और काले कारनामे होंगे। एक दिन कोई टेपरिकार्डर में बजा रहा था-
“ श्याम तुम आना फिर एक बार ।
पहले रहा एक दुर्योधन, अब तो हुए हजार ।
श्याम तुम आना फिर एक बार ।।
पहले काला नाग एक था, अब काला बाजार ।
श्याम तुम आना फिर एक बार ।।”
फुलवारी में रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं, उससे होकर जो हवा आएगी, वह हवा कैसी होगी? उसमें सुगन्धि रहेगी। यदि पखाने की टंकी का मुँह खुल गया है, तो उधर से जो हवा आएगी, वह कैसी होगी? दुर्गन्धयुक्त होगी। हवा जिधर से प्रवेश करती हुई आती है, उस स्थान के गुण को ग्रहण करती हुई आती हैै। उसी तरह हमारा मन नौ गंदे द्वारों में प्रवेश करता है, इसलिए गन्दा बना रहता है। जब मन ही गंदा है, तो काम भला कैसा होगा? मन गंदा, तो काम भी गंदा। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा है-‘जिस कुएँ के जल से भूत उतारना हो, यदि उस जल में ही भूत का वास हो, तब भूत कैसे उतरेगा?’ उसी तरह जिस मन से भगवद्-भजन करना है, वही मन अगर विषय मे रमण कर रहा है, तो भजन कैसे होगा? जबतक अंधकार में रहेंगे, अज्ञानता रहेगी और भूलें होंगी। अगर इन भूलों से छूटना चाहते हो और सुख पाना चाहते हो, तो ‘खोज करो अन्तर उजियारी।’ यह अन्तर की उजियारी कहाँ मिलेगी? छोड़ चलो नौ द्वार। जब नौ द्वारों को छोड़कर, दसवें द्वार में जाओगे, तब उजियारी मिलेगी और मन पवित्र होगा। हमारे गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं-
“ इस तन के नौ द्वार में पूर्ण अंधकार,
स्त्रुत फँसी है मँझार ।
गुरु भेद देवैं सार खुले बंद दशम द्वार,
हो ब्रह्माण्ड में पैसार ।।”
तथा-
“ तन नव द्वार हो रामा, अति ही मलीन हो ठामा ।
त्यागि चढ़˜ दसम दुआरे, सुख पाओ रे भाई ।।”
ये नौ द्वार बड़े ही मलिन हैं। आप देखिए, जैसे-जैसे हम आँख से नीचे की ओर जाते हैं, वैसे-वैसे अपवित्रता बढ़ती जाती है। आँख से पानी, कान से गुज्जू, नाक से नेटा-पोटा और मुँह से थूक-लार-कफ निकलता है। नीचे के द्वारों से पेशाब और पखाना निकलता है। जैसे-जैसे नीचे आइए, गंदगी बढ़ती जाती है। उसी तरह जैसे-जैसे हमारा मन नीचे जाता है, वैसे-वैसे गंदा होता जाता है। इसलिए अपने को नौ द्वारों से उठाकर दसवें द्वार में ले जाओ, तब सुख है, इधर नौ द्वारों में सुख नहीं है। साहेबगंज जिला का नौवाँ वार्षिक अधिवेशन यही संदेश देता है।
दसवें द्वार में प्रवेश करने के लिए सच्चे सद्गुरु से इसकी युक्ति जानिए। जबतक हम मनमुख हैं, तबतक दुःख-ही-दुःख है और जब गुरुमुख हो जाएँगे, तो सुख-ही-सुख होगा। कितने व्यक्ति कहते हैं-‘अरे भाई! अगर हम मांस-मछली खाते हैं, चोरी-डकैती करते हैं, तो क्या हुआ? भगवान की मौज के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिलता। हम जो कुछ भी करते हैं, वह तो भगवान ही हमसे कराते हैं।’ जरा सोचो- तुम्हारे चोरी करने में, मांस-मछली खाने में तो भगवान की इच्छा थी, तुम्हारे अपकर्म करने के लिए तो भगवान का पत्ता हिल गया और सत्कर्म करने के लिए भगवान क्या रोकते हैं, उसमें भगवान की इच्छा नहीं रहती है? एक न्यायाधीश है। वह कहता है-अमुक को मार दो। और उसके आदेश से हमने उसे मार दिया और वही जज कहता है-‘तुमने उसे मार दिया, इसके लिए तुम्हें प्राण दण्ड मिलेगा।’ तब ऐसे जज को कौन रखेगा? उसी तरह जो परमात्मा हमसे पाप भी करवावे और कहे कि तुमको नरक भोगना पड़ेगा, तो ऐसे परमात्मा को परमात्मा कौन मानेगा? ‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ परमात्मा ने हमें कर्म करने की छूट दी है, फल लेने की छूट नहीं दी है। कर्म करने के लिए हम स्वतंत्र हैं, पर हमें कर्म का फल भगवान ही देते हैं। एक रिवाल्वर हमारे पास है। अपनी रक्षा के लिए हम दुश्मन को मार भी सकते हैं या हम अपनी हत्या भी कर सकते हैं। रिवाल्वर चलाने में हम स्वतंत्र है। चाहे हम रक्षा कर लें या हत्या कर लें। एक टॉर्च है हमारे पास। उस टॉर्च को लेकर रात में चाहे हम सत्संग करने चले जाएँ या चोरी करने। कर्म करना हमारे हाथ में है, लेकिन फल हमारे हाथ में नहीं है। अगर परमात्मा ने फल भी हमारे हाथ में दे दिया होता, तो हम क्या करते? कर्म तो हम अधम करते और फल लेने के समय चुन-चुन कर अच्छे-अच्छे फल अपने हिस्से में ले लेते। परमात्मा कहते हैं-जो तुम कर्म करोगे, तदनुरूप ही मैं फल दूँगा। कोई भी दुःख पाना नहीं चाहता। इसलिए बुरे कर्म करना ही नहीं चाहिए। सब कोई सुख ही पाना चाहते हैं, तो सबको शुभ कर्म करना चाहिए। कबीर साहब कहते हैं-
“ सुकिरत करि ले, नाम सुमिर ले ।
को जाने कल की, जगत में खबर नहीं पल की ।।”
यह ज्ञान कहाँ होगा? सत्संग में होगा। ‘बिनु सत्संग विवेक न होई’ जबतक सत्संग में नहीं जाएँगे, सारासार का ज्ञान नहीं होगा, कर्त्तव्य- अकर्त्तव्य का निर्णय नहीं कर सकेंगे। जबतक कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का निर्णय नहीं कर सकेंगे, तबतक हमसे अकर्त्तव्य कर्म होते ही रहेंगे। परिणाम दुःखमय होगा, कल्याणमय नहीं होगा। इसलिए सत्संग करो। गुरुदेव का वचन है-
“ नित सत्संगति करो बनाई।
अन्तर बाहर द्वै विधि भाई ।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा।
अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
सत्संग में साधु-संतों का संग होता है, उनकी वाणियों का संग होता है। यह बाहरी सत्संग है। जब सत्स्वरूप सर्वेश्वर का साक्षात्कार होता है और जीव-पीव का मिलन होता है, तब सर्वोपरि सत्संग है। इसके लिए ध्यान करते हैं। यह ध्यान आन्तरिक सत्संग है। बाहरी सत्संग में जो हरि-चर्चा होती है, विधि-निषेध बतलाया जाता है, उसे ध्यान देकर सुनना चाहिए; क्योंकि हम जैसी बातें सुनते हैं, उसी के अनुरूप रंग लगता है। अगर कोई चर्चा शुरू कर दे कि अमुक जगह अमुक गाड़ी एक्सिडेंट हो गई, इतने लोग मारे गए, तो सब लोगों के दिमाग में एक्सिडेंट की बातें आ जाएँगी और सब उसी की चर्चा करने लग जाएँगे। उसी तरह अगर हम सत्-चर्चा करते हैं, तो हमारे मन में वह सत् प्रवेश करेगा और हम सत् को पाने के लिए प्रेरित होंगे।
जब हम डॉ0 को देखते हैं, तो रोगी, दवाई और अस्पताल की याद आती है। वकील को देखते हैं, तो कचहरी, मुकदमा और गवाही याद आती है। जब एक मौलाना को देखते हैं, तो मस्जिद और कुरान की याद आती है। एक पण्डित को देखते हैं, तो मंदिर और पुराण की बात याद आती है। और जब हम एक संत को देखते हैं, तब क्या होता है? कबीर साहब का वचन है-
“ कबीर दरशन साध के, साहब आवै याद ।
लेखा की वाही घड़ी, बाकी के दिन बाद ।।”
संतों के दर्शन करने से प्रभु की याद आती है और जिस समय प्रभु की याद आती है-‘लेखा की वाही घड़ी’-उसी समय की कीमत है, परमात्मा के घर में उसी का हिसाब रहता है। ‘बाकी के दिन बाद’-बाकी समय बरबाद ही समझिए।
“ परम पुरुष की आरसी, संतों की ही देह ।
लखा जो चाहै अलख को, इन ही में लखि लेह ।।”
-कबीर साहब
जैसे आइने में हम अपना रूप देखते हैं, उसी तरह संतों का जो शरीर है, वह परमात्मा को देखने के लिए आइना है। संतों के शरीर से जो नैसर्गिक आभा निकलती है, वह आभा हमारे शरीर में प्रवेश करती है और हमारी तमोगुणी-रजोगुणी वृत्ति परिवर्तित होकर सतोगुणी बन जाती है। इस आभा को कोई रोक नहीं सकता, यह स्वभाविक ही निःसृत होती है। इसीलिए कबीर साहब ने कहा है-
“ कबीर संगति साध की, ज्यों गंधी का बास ।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी बास सुबास ।।”
आप इत्र बेचनेवाले की दूकान पर जाइए। अगर वह इत्र का फाहा आपको नहीं भी दे, तब भी उसकी दूकान से निकलनेवाली सुगन्धि आपको मिलेगी। उसी तरह आप संत के पास जाइए, संत यदि चुपचाप बैठे ही रहें, कुछ भी नहीं बोलें, तो भी उनके शरीर की जो आभा है, गर्मी है, वह आपमें प्रवेश करेगी। इसलिए संतों का संग करना चाहिए। संत सुन्दरदासजी महाराज ने कहा-
“ तात मिलै पुनि मात मिलै सुत,
भ्रात मिलै युवती सुखदायी ।
राज मिलै गज बाजि मिलै,
सब साज मिलै मन वांछित पायी ।।
लोक मिलै सुरलोक मिलै,
विधि लोक मिलै बैकुण्ठहु जाई ।
सुन्दर और मिलै सबही सुख
संत समागम दुर्लभ भाई ।।”
भगवान शंकरजी ने पार्वतीजी से कहा था-‘गिरिजा संत समागम, सम न लाभ कछु आन।’ हे पार्वती! संतों के समागम के समान और कोई दूसरा लाभ नहीं है। भक्तिन मीराबाई कहती है-
“ मनुवाँ राम नाम रस पीजै ।
तजि कुसंग सत्संग बैठ नित, हरि चर्चा सुन लीजै ।।”
कुसंग को छोड़ो, सत्संग को पकड़ो। कुसंग करने से क्या होता है और सत्संग करने से क्या होता है, सुनिए-
जापान में एक अच्छे चित्रकार थे। उन्होंने एक चित्र बनाना चाहा और सोचा कि ऐसा भोला-भाला और सुकुमार चेहरा बनावें, जिसके चेहरे से मधुरता और मृदुलता टपकती हो। खोजते-खोजते उसे एक सुन्दर बालक मिला। जैसा वह चाह रहा था, उसका चेहरा वैसा ही सुन्दर, सुकोमल और भोला-भाला था। कलाकार ने कलात्मक ढंग से उसकी तस्वीर बनाई। वह तस्वीर इतनी सुन्दर बनी कि उसकी बिक्री से वह मालामाल हो गया। कुछ वर्षों के बाद उस कलाकार के मन में हुआ कि सुन्दर चेहरा बनाकर तो मैं मालामाल हो गया। अब इस तरह का चेहरा बनाएँ, जो कि इसके विपरीत भयानक हो, जिस चेहरे से क्रूरता, नृशंसता टपकती हो। वह सोचने लगा कि जेलखाने में चलकर देखना चाहिए, क्रूर, बदमाश और अपराधी लोग वहीं रहते हैं। जब वह जेलखाने में गया, तो देखते-देखते उसे एक चेहरा बड़ा ही खूँखार मालूम पड़ा। कलाकार ने उससे कहा-‘भाई! मैं तुम्हारी तस्वीर लेना चाहता हूँ।’ उस बदमाश ने कहा-‘मेरी तस्वीर लेकर तुम क्या करोगे?’ कलाकार ने कहा-‘मैं कलाकार हूँ। एक बार एक बालक की तस्वीर बनाई थी, उससे मुझे काफी पैसे मिले थे। अब मैं एक दूसरी तस्वीर बनाना चाहता हूँ और आपका चेहरा मुझे बहुत पसंद आया है। इसलिए आपकी तस्वीर लेना चाहता हूँ।’ बदमाश ने कहा-‘अच्छा, पहले जो तस्वीर तुमने बनाई थी, वह कैसा है, मुझे दिखलाओ।’ कलाकार ने तस्वीर दिखलाई। उस तस्वीर को देखकर वह रोने लगा और कहा-‘यह तो मेरी ही तस्वीर है।’ कलाकार ने कहा-‘अरे! यह तुम्हारी तस्वीर है? उस समय कितना सुन्दर चेहरा था। अब ऐसा कैसे हो गया?’ वह कहने लगा-‘क्या करूँ, बुरी संगति लग गई। अपराध करते-करते मेरा रूप भी बदल गया।’ सोचने की बात है कि एक अच्छे परिवार का लड़का कुसंग में पड़कर कैसा बन गया। यह संग का प्रभाव है। संग का रंग तो लगता ही है। इसीलिए सत्संग करना चाहिए।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने भगवान से प्रार्थना करते हुए कहा है-
“ यत्र कुत्रपि मम जन्म निज कर्म बस ,
भ्रमत जग जोनि संकट अनेकम् ।
तत्र त्वद्भक्ति सज्जन समागम सदा ,
भवतु मे राम विस्त्रामेकम् ।।”
अर्थात् अपने कमर्वश संसार की योनियों में भटकते हुए अनेक कष्टों में जहाँ भी मेरा जन्म हो, वहाँ आपकी भक्ति और सत्संग मुझको प्राप्त हो। हे राम! मैं यही एक विश्राम माँगता हूँ।
जो भगवद्-भजन करेंगे, सत्संग करेंगे, वे चौरासी लाख योनियों में क्यों जाएँगे? वे तो अन्ततः प्रभु में ही मिलेंगे।
एक अँगीठी थी। उसमें दहकते हुए सारे कोयले लाल-लाल हो रहे थे। उन कोयलों में से एक ने सोचा-एक साथ रहने से तो सभी लाल-ही-लाल हैं। क्यों न अलग होकर हम अपना अलग प्रभाव डालें। वह अँगीठी से कूदकर नीचे आ गया। जबतक वह सब कोयले के साथ था, तबतक उसमें गर्मी थी और वह लाल था। जब वह अँगीठी से नीचे गिरा, तो कुछ देर वह लाल रहा और उसमें गर्मी भी रही, लेकिन धीरे-धीरे लाली खत्म और गर्मी भी समाप्त हो गई। कोयला काला ही रह गया। उसी तरह जो अपने को सत्संग के माहौल में रखता है, वह लाल-ही-लाल बनकर एक दिन परम लाल- परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। पर जब कोई अपरिपक्व साधक अलग जाकर संस्था बनाता है, तो कुछ दिन तक तो लाली रहती है, लेकिन धीरे-धीरे वह माया में पड़ जाता है और उसका मन कोयले की तरह काला बनकर रह जाता है। संत तुलसी साहब ने कहा है-
“ सखी सीख सुनि गुनि गाँठि बाँधौ ।
ठाठ ठट सत्संग करै ।।
जब रंग संग अपंग आली री ।
अंग सत मत मन मरै ।।”
सत्संग करते-करते ही सत्संग का रंग लगेगा और जो मन विषयों में भागता है, वह मन मर जाएगा, उस ओर से मुड़ जाएगा। विषय की ओर से निर्विषय की ओर चला जाएगा। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
“ सठ सुधरहिं सत्संगति पाई ।
पारस परसि कुधातु सोहाई ।।”
जो मूर्ख हैं, वे भी सत्संग पाकर सुधर जाते हैं। ‘शठ’ किसको कहते हैं? जो पढ़े-लिखे नहीं हैं, कुछ लोग उनको ‘शठ’ अर्थात् मूर्ख कहते हैं। लेकिन देखा जाता है कि कितने अनपढ़ भी पण्डित होते हैं और कितने पढ़े-लिखे भी मूर्ख होते हैं। आप कहेंगे कैसे? कबीर साहब को लीजिए, वे कुछ पढ़े-लिखे नहीं थे, फिर भी महापण्डित थे।
काशी में एक पण्डित थे। वे शास्त्रर्थ करके पंडितों को हराते-फिरते थे। सबको हराते-हराते उन्होंने अपना नाम सर्वाजीत रख लिया। उसने अपनी माताजी से कहा-‘मेरे सामने जितने लोग आए, सबको मैंने शास्त्रर्थ करके हरा दिया। अब सभी मुझे सर्वाजीत कहने लगे हैं। माँ! अब तू भी मुझे सर्वाजीत कहा करो।’ उसकी माँ ने कहा-‘सब तुम्हें भले ही सर्वाजीत कहे, लेकिन मैं नहीं कहूँगी।’ उसने पूछा-‘क्यों नहीं कहेगी?’ माँ ने कहा-‘जब तुम कबीर साहब को हरा दोगे, तब मैं तुम्हें सर्वाजीत कहूँगी।’ उसने कहा-‘वह तो कुछ भी पढ़ा-लिखा नहीं है, मूर्ख है। उससे मैं क्या शास्त्रर्थ करूँगा?’ माँ ने कहा-‘एक बार जाओ तो सही।’ सर्वाजीत कबीर साहब के पास गए और उन्होंने जल से लबालब भरा हुआ एक लोटा कबीर साहब के सामने रख दिया। आशय यह था कि हम ज्ञान से लबालब भरे हैं और आपके पास शास्त्रर्थ करने आए हैं। जो लबालब भरा हुआ है, उसमें भला और क्या अटेगा? कबीर साहब जिस सूई से अपनी गुदड़ी सीते थे, उसे उन्होंने लोटे में डाल दी। सूई पानी के अन्दर चली गई। कबीर साहब का आशय था-‘तुम लबालब भरे हो, तो मेरा ज्ञान तुम्हारे ज्ञान को छेदकर अन्दर तक पहुँच जाएगा।’ सर्वाजीत ने कहा-‘मैं तुमसे शास्त्रर्थ करने आया हूँ।’ कबीर साहब ने कहा-‘मुझसे क्या शास्त्रर्थ करोगे, मैं तो कुछ पढ़ा-लिखा हूँ नहीं।’ सर्वाजीत ने कहा-‘मेरी माँ ने कहा है कि कबीर साहब को जीतोगे, तब सर्वाजीत कहूँगी। यदि आप मुझसे शास्त्रर्थ नहीं करना चाहते हैं, तो एक कागज पर लिख दीजिए कि हम हारे हुए हैं और अपना हस्ताक्षर कर दीजिए।’ कबीर साहब ने कहा-‘मैं तो एक अक्षर भी लिखना नहीं जानता, हस्ताक्षर कैसे करूँगा? एक काम करो, तुम अपने से लिख लो और मैं उसपर अगूँठा का निशान कर दूँगा।’ सर्वाजीत ने एक कागज पर लिखा-‘कबीर हारा, सर्वाजीत जीता’ और कबीर साहब ने उसपर अँगूठा-निशान कर दिया। उसे लेकर सर्वाजीत अपनी माँ के पास गया और कहने लगा-‘देखो, तुमने कबीर को हराने के लिए कहा था, देखो इस कागज में क्या लिखा हुआ है!’ उसकी माता ने जब देखा तो उसमें लिखा था-‘कबीर जीता, सर्वाजीत हारा।’ माँ ने कहा-‘तुमने कहा कि कबीर हारा, यहाँ तो लिखा है सर्वाजीत हारा।’ सर्वाजीत ने कागज को गौर से देखा और कहने लगा-‘लिखा तो मैंने ही था, पर गलती हो गई। मैं पुनः कबीर के पास जाता हूँ।’ वहाँ जाकर पुनः कागज पर लिखा-‘कबीर हारा, सर्वाजीत जीता’ और कबीर साहब से अँगूठा निशान लगवा लिया। फिर जब लौटकर माता को दिखाया, तो उलटकर हो गया-‘कबीर जीता, सर्वाजीत हारा।’ इस प्रकार वह तीन बार कबीर साहब से अँगूठा निशान लगवाकर आया और तीनों बार ऐसा ही हुआ। हारकर बेचारा पण्डित कबीर साहब के चरणों में गिर गया और उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। इसलिए मैंने कहा कि कभी-कभी जो अनपढ़ होते हैं, वे भी महापण्डित हो जाते हैं और कभी-कभी पढ़े-लिखे भी मूर्ख होते हैं।
सिगरेट के डिब्बे पर लिखा रहता है- Cigarette smoking is injurious to health ‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।’ जो पढ़ा-लिखा नहीं है, यदि वह सिगरेट पीता है, तो उसे क्या पता कि यह अमृत है या विष। लेकिन कोई पढ़ा-लिखा आदमी यदि उस चेतावनी को पढ़कर भी सिगरेट पीता है, तो उसे मूर्ख ही कहा जाएगा।
संतमत बतलाता है कि अपने को झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से बचाकर रखो। जो अपने को इन पापों से जितनी मात्र में बचाकर रखता है, उतनी ही मात्र में सत्पथ की ओर उसकी प्रगति होती है। आध्यात्मिकता और सदाचारिता में फ़ और न् का संबंध है। दोनों एक दूसरे के सहायक हैं। जहाँ आध्यात्मिकता रहेगी, वहाँ सदाचारिता रहेगी। कोई आध्यात्मिक हो और सदाचारी न हो, यह बात मानने-योग्य नहीं है। जो झूठ बोलता है, उसकी बातों पर कोई विश्वास नहीं करता। जो चोरी करता है, उसपर भी कोई विश्वास नहीं करता, क्या ठिकाना नजर बचाकर कुछ ले भागे। जो नशीली चीजों का सेवन करता है, उसका मस्तिष्क ठीक नहीं रहता, स्वास्थ्य कमजोर हो जाता है और पैसे की बरबादी भी होती है। न धन ही रह पाता है और न धर्म ही। लोग नशीली चीज के सेवन में, मांस-मछली-अण्डा खाने में, वेश्यागमन में तथा जुआ आदि में विविध प्रकार से पैसे बरबाद करते हैं। यह अनुचित है। यदि आपके पास पैसे हों, तो उसे शुभ-कर्म में खर्च कीजिए।
गुरु महाराज एक घटना सुनाते थे-पूर्णियाँ जिला में काढ़ागोला एक स्थान है। वहाँ एक सरदारजी रहते थे। उनके पास बहुत पैसे थे, लेकिन वे बहुत कंजूस थे, शुभ काम में कभी खर्च नहीं करते थे। वे पैसे जोड़-जोड़कर रखते थे, लेकिन पैसा तो सब दिन रहनेवाला नहीं है। कोई महिला जब किसी के घर मेहमान बनकर जाती है, तो कितने दिन रहती है? मेहमानी पूरा करके घर लौट आती है। वह वहाँ सब दिन तो रहेगी नहीं! मेजबान यदि सोचने लगे कि मेहमान मेरा ही हो गया, तो यह कब संभव है। उसी तरह लक्ष्मी भी मेहमान बनकर कुछ दिनों के लिए कहीं जाती है और मेजबान सोचने लगे कि लक्ष्मी मेरी हो गई, तो यह मूर्खता ही है। लक्ष्मी कभी स्थायी रूप से किसी के पास नहीं रहती। भगवान विष्णु कहते हैं-
“ लक्ष्मी पत्नी मोर , मोर-मोर ओरइ कहै ।
जबहिं लेत मैं छोड़, तो शीश धुनत रोवत फिरै ।।”
यही हालत उस सरदार साहब की हो गई। लक्ष्मी उनके घर से चली गई। धीरे-धीरे सम्पत्ति इतनी घट गई कि दाने-दाने के लाले पड़ गए। परन्तु प्रभु की क्या मौज हुई और पूर्वजन्म की उसकी कैसी कमाई थी कि वह सरदार धीरे-धीरे फिर से अमीर होने लगा। और इस बार जो उसे धन हुआ, तो वह खुले हाथों से शुभ कर्मों में खर्च करने लगा। उसे इस तरह खर्च करता देख अड़ोस-पड़ोस के लोगों ने उससे कहा-‘सरदारजी! पिछली बात आप भूल गए हैं कि आपकी सारी सम्पत्ति चली गई थी। अब पुनः आप इतना खर्च करने लगे हैं कि फिर वही हालत न हो जाए।’ सरदारजी ने उत्तर दिया-‘पिछली बार खर्च नहीं किया था, तब भी लक्ष्मी नहीं रही, भाग गई थी। अब भी चली जाएगी, तो मैं क्या करूँगा? इसीलिए खर्च करता हूँ कि कुछ शुभ काम में लग जाए।’
व्यभिचार अर्थात् परस्त्री-गमन नहीं करना चाहिए। यह हमारे वैदिक धर्म की ही बात नहीं है। इस्लाम और ईसाई धर्म में भी ऐसा कहा गया है। कुरान शरीफ में लिखा है-‘जनाकारी मत करो’ अर्थात् परस्त्री-गमन मत करो। हाल ही में एक सज्जन से भेंट हुई। वे इस्लाम देश की बात बता रहे थे। उन्होंने बताया कि आप वहाँ एक शादी ही नहीं, दो-तीन शादियाँ भी कर सकते हैं। शादी करने की मनाही नहीं है, लेकिन अगर यह पता चल जाए कि अमुक आदमी व्यभिचारी है या अमुक स्त्री व्यभि- चारिणी है, तो उसे रोड़ा-पत्थर से मार-मारकर मार देते हैं। बाइबिल में लिखा है- Ten commandants of God अर्थात् ‘ईश्वर की दस आज्ञाएँ।’ उसमें एक आज्ञा यह भी है कि व्यभिचार मत करो। सभी संतों ने पापों की मनाही की है, लेकिन इसका ज्ञान कहाँ होगा? इसका ज्ञान सत्संग में होगा। इसलिए हमलोगों को सत्संग करना चाहिए।
एक ईश्वर पर विश्वास रखना चाहिए और उसकी प्राप्ति अपने अन्दर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखना चाहिए। सत्संग, ध्यान और गुरु-सेवा करनी चाहिए; ये पाँच विधि कर्म हैं। ऊपर पाँच निषिद्ध कर्म (पंच-पाप) बतलाए गए हैं, उनसे हमें बचना चाहिए। यही कल्याण का मार्ग है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन साहेबगंज जिला के 9वें वार्षिक अधिवेशन उच्च विद्यालय, कोदरजन्ना के मैदान में दिनांक 02-05 1995 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के
अवरस पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, फरवरी 2007 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोग रामचरितमानस का पाठ सुन रहे थे, जिसमें ब्रह्म और माया की चर्चा आयी। ब्रह्म क्या है? माया क्या है? इस विषय का प्रतिपादन किया गया। पाठ में आया-
“ व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
सो दासी रघुवीर कै, समुझै मिथ्या सोपि ।
छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।।”
कागभुशुण्डिजी गरुड़जी से कहते हैं कि माया की भयानक सेना संसार में फैली हुई है, काम, क्रोध आदि सेनापति है तथा दम्भ, कपट, पाखण्ड आदि योद्धा हैं। यद्यपि रघुवीर राम की दासी, फिर भी बिना प्रभु की कृपा के छूटती नहीं ।
वेदान्त बतलाता है कि तीन प्रकार की सत्ताएँ हैं-एक पारमार्थिक सत्ता, दूसरी व्यावहारिक सत्ता और तीसरी प्रातिभासिक सत्ता। पारमार्थिक सत्ता ब्रह्म है, परम प्रभु परमात्मा है। व्यावहारिक सत्ता स्वर्ग-नरक आदि हैं और प्रातिभासिक सत्ता यह जगत् है। प्रतिभासिक सत्ता वह जिसका अस्तित्व वास्तव में है नहीं, भासमान है। एक तमाशा दिखलानेवाला आता है। सैकड़ों हजारों लोग बैठे हुए हैं। उनके सामने एक मिट्टी का गमला वह रख देता है। सबलोग देख रहे हैं कि मिट्टी का गमला है। अब उस गमले में वह एक बीज रख देता है। सब कोई देखते हैं, बीज रखा गया है। अब थोड़ी देर के बाद देखते हैं, बीज से एक अंकुर निकला। अब थोड़ी देर के बाद देखते हैं कि वह अंकुर पौधे के रूप में परिणत हो गया। अब देखते-ही-देखते, देखते हैं कि उस पौधे में फूल लग गये। अब थोड़ी देर के बाद देखते हैं कि गाछ फलों से लद गया। हजारों लोग इस तमाशे को देखते हैं; लेकिन क्या ऐसा कभी हो सकता है कि बीज होते ही पाँच मिनटों में गाछ फल हो जाए। लेकिन सब कोई देखते हैं कि ठीक ही बीज बोया गया; पौधा निकला, गाछ हुआ, फूल निकला और फलों से गाछ लद गया। यह भासमान है। देखने में वह आता है; लेकिन वास्तव में वह है नहीं। मतलब यह कि जितना दिखलाया गया, वह खेल ही खेल था; तमाशा-ही-तमाशा था। सही कुछ नहीं था। उसी तरह दुनिया में जो कुछ हम देख रहे हैं, सब तमाशा-ही-तमाशा है। सही है तो एक वही है परम प्रभु परमात्मा, दूसरा कुछ नहीं। वही परमात्मा है परमार्थिक सत्ता । यह संसार माया है और माया की सेना संसार में फैली हुई है । यद्यपि माया कुछ भी नहीं है, उसका अस्तित्व ही नहीं है, फिर भी वह अज्ञानी जीव को नचा रही है । कबीर साहब ने कहा-
“ भैया कोई न पतियाय,
बघवा के बचवा बिलैया लिए जाय ।”
बाघ के बच्चे को बिल्ली लेकर भागी चली जा रही है। यह परमात्मा का अंश जीवात्मा गोया बाघ का बच्चा है और माया बिल्ली है। यह बिल्ली माया जैसी चाहती है, वैसी नचा रही है। जीव नाच रहा है, उछल-कूद कर रहा है।
“ मन तोहि नाच नचावै माया ।
आशा डोरी लगाय गले बीच, नट जिमि कपिहि नचाया ।
नावत सीस फिरै सबही को, नाम सुरत बिसराया ।।”
जिस तरह मदारी का बंदर सबको हाथ जोड़ते फिरता है; प्रणाम करते फिरता है; घर-घर, दरवाजे-दरवाजे, घूमता-फिरता है, उसी तरह सब जीव माया के वशीभूत हो गया है।
“ गो गोचर जहँ लगि मन जाई ।
सो सब माया जानहु भाई ।।”
इस माया कि प्रबलता कितनी है-इसका वर्णन गोस्वामीजी महाराज करते हैं-
“ व्यापि रहे संसार मँह, माया कटक प्रचण्ड ।
सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।”
माया का जो सेनापति है, वह क्या है? सेनापति कामादि। और भट? भट कहते हैं योद्धा को। वे हैं दम्भ, कपट और पाखण्ड। सेनापति का आक्रमण कितना प्रबल होता है कि उसके सामने सब-के-सब ढीले पड़ जाते हैं। बहुत कम हैं जो उसके सम्मुख युद्ध करके जीत सकते हैं। गोस्वामीजी कहते हैं कि कागभुशुण्डिजी ने गरुड़जी से कहा है-
“ मोह न अंध कीन्ह केहि केही ।
जो जग काम नचाव न जेही ।।
तृष्णा केहि न कीन्ह बौराहा ।
केहि के हृदय क्रोध नहीं दाहा ।।”
गोस्वामीजी जैसे रामभक्त को स्पष्ट कहना पड़ा। और की बात तो जाने दीजिए, जिनको मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम के पिताश्री कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, माया ने उनको भी नहीं छोड़ा और ऐसा घेरा कि उनके घेरे में पड़कर वह अपने को बदनाम कर चुके। राजा दशरथ में शक्ति कितनी थी, उनकी प्रभुता कितनी थी-गोस्वामीजी वर्णन करते हैं-
“ सुरपति बसइ बाँहबल जाकें ।
नरपति सकल रहहिं उर ताकें ।।
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई ।
देखहु काम प्रताप बड़ाई ।।”
देवराज इन्द्र उनके बल पर बसे हुए थे-उनके बसाये देवराज इन्द्र बसते थे। िजतने नर लोक के राजा थे, वे सभी राजा दशरथ के मुँह देखते थे कि महाराज का क्या आदेश होता है, हाथ जोड़कर सब खड़े रहते थे। नरलोक की यह बात। सुरलोक की वह बात। उनका अधिपत्य नरलोक से सुर लोक तक था। और जब उन्होंने सुना कि कैकेयी कोप-भवन में चली गयी है, तब उनकी क्या हालत हुई, गोस्वामीजी के ही शब्दों में सुनिए-‘सो सुनि तिय रिस गयेउ सुखाई ।’ सुख गये बेचारे। यह काम की प्रबलता है।
“ सुल कुलिस असि अँगवनिहारे ।
ते रतिनाथ सुमन सर मारे ।।
कोप भवन सुनि सकुचेउ राऊ ।
भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ ।।”
राजा दशरथ में वह बल था कि उनके शरीर में शूल-बर्छा भोंक देने पर भी वे उनकी कुछ भी परवाह नहीं करते थे। शूल और बर्छे की कौन कहे, अगर बज्र भी उनके देह पर गिर जाय, तो उससे उनकी कोई हानि नहीं होती। तलवार के प्रहार की वे कोई प्रवाह नहीं करते। शरीर में इतना बल था, ऐसा बलिष्ठ शरीर था। लेकिन जब वे सुनते हैं कि कैकेयी कोप-भवन में चली गयी है, तो अब उनसे वे भेंट करने के लिए जाना चाहते हैं, तो उनका पाँव आगे नहीं बढ़ पाता है। जिनके डर से सब काँपते हैं, वे नारी के डर से काँप रहे हैं। कैसी विडम्बना है! यह क्या है? माया की प्रबलता है। वस्तुतः काम ने किसको बदनाम नहीं किया और क्रोध तो अबोध करके प्रतिशोध की भावना उत्पन्न करता ही है। इन काम, क्रोधादिक विकारों से संसार संत्रस्त है, ग्रस्त है। दम्भ, कपट, पाखण्ड तो सेना हैं। इनके लिए तो कहना ही क्या है! मुँह पर बोलते हैं कुछ, भीतर में है कुछ, दिखलाते हैं कुछ, करते हैं कुछ। संत कबीर साहब की वाणी है-
“ कह कबीर देख मन करनी ।
तेरे अन्तर बीच कतरनी ।।
कतरनी की गाँठि न छूटै ।
तब पकड़ि पकड़ि जम लूटै ।।”
बाहर में दिखलावा कुछ करते हैं और भीतर में कुछ रखते हैं। यह कपट है, छल है, छप्र है। ऐसे लोगों को यम लूटेंगे, वे किसी भी तरह यम से छूटेंगे नहीं। प्रश्नोदय होता है कि इन विकारों से कैसे बचा जाय? क्या कोई उपाय नहीं है? इसके उत्तर में कागभुशुण्डीजी कहते हैं-‘सो दासी रघुवीर कै’ अर्थात् वह माया रघुवीर की दासी है। राम को आप अपना लीजिए, तो वह आपकी भी दासी बन जाएगी। लेकिन जबतक राम को अपनाए हुए नहीं हैं; काम को अपनाए हुए हैं, तबतक तो वह बदनाम करेगी ही। कबीर साहब कहते हैं-
“ जहाँ काम तहँ राम नहिं, जहँ नाम नहिं काम ।
कह कबीर दोउ ना मिलै, रवि रजनी इक ठाम ।।”
काम और राम; दोनों एक ठाम नहीं रहते। दिन और रात दोनों एक साथ नहीं रहते। रात है तो रात है, दिन है तो दिन है। उसी तरह काम है तो काम है, राम है तो राम है। उस प्रभु की शरण में जायँ; प्रभु का भजन करें। भगवान् कृष्ण ने कहा है- ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्।’ मैं अपने भक्तों का योग-क्षेम करता हूँ। जो भगवान् के भक्त होते हैं, भगवान् उनकी रक्षा करते हैं। क्या हुआ? नारद मुनि ने तपस्या की। भगवान् के दर्शन हुए। कामदेव की सेना चढ़ आयी इनपर; लेकिन प्रभु की कृपा से इनपर उसका प्रभाव नहीं पड़ा। किन्तु अभी तो स्थूल सगुण साकार के ही दर्शन हुए थे। इसलिए जहाँ साकार है, वहाँ अहंकार भी रहता है। तो नारद के मन में अहंकार आ गया कि हमने कामदेव को जीत लिया। भगवान् ने देखा कि हमारे भक्त के मन में अहंकार का अंकुर निकल आया है। अगर कहीं वृक्ष रूप धारण कर ले, फुलने-फलने लग जाय, तो ठीक नहीं है। इसलिए अंकुर को ही तोड़ देना अच्छा है। तो भगवान् ने लीला रची। एक माया की नगरी बसायी। उस माया की नगरी में एक राजा था। नारद मुनिजी उसी माया की नगरी से जा रहे थे। उन्होंने देखा कि नगर बहुत ही सुसज्जित है। राजा के यहाँ नारद मुनि जाते हैं। राजा देखते हैं कि हमारे यहाँ मुनिजी आ गए हैं। राजा ने उनका बड़ा आदर सत्कार-किया।
राजा को एक लड़की थी, जो विवाह के योग्य हो गयी थी। राजा ने अपनी लड़की को बुलाया और कहा-मुनिजी! हमारी लड़की का जरा हाथ देखिए। इसकी शादी कहाँ होगी, कैसे वर के साथ होगी? नारदजी ने जब उस लड़की का हाथ देखा, तो हस्तरेखा से पता चला कि इसके पति त्रिभुवन पति होंगे। नारदजी का मन ललच गया कि अगर मैं ही इसका पति बन जाऊँ, तो मैं त्रिभुवनपति हो जाऊँगा। नारदजी ने यह नहीं समझा कि त्रिभुवनपति ही इसके पति होंगे। नारदजी को समझ में बात उलटी आयी। स्वयंवर रचा गया। देश-देश के राजा और राजकुमार सब आए। स्वयंवर के कार्यक्रम में राजकुमारी जिसके गले में माला डालेगी, वही उसका पति होगा, ऐसा विधान था। नारदजी के मन में हुआ-क्यों नहीं, भगवान् से अपनी सुन्दरता का वरदान ले लूँ, जिससे मेरी सुन्दरता को देखकर राजकुमारी मेरे ही गले में माला डाल दे। ऐसा विचारकर नारदजी ने भगवान् का स्मरण किया। भगवान् उनके सामने प्रकट हो जाते हैं और पूछते हैं-‘कहिए नारदजी! क्या चाहिए?’ नारदजी ने कहा-‘भगवन्! मुझे आप अपनी सुन्दरता दीजिए।’ भगवान् ने कहा-‘नारदजी! चिन्ता न करें। जिसमें आपका कल्याण होगा, मैं वही करूँगा।’ भगवान् ने नारदजी का शरीर तो बना दिया सुन्दर; परन्तु मुँह बना दिया बंदर के जैसा। नारदजी अपने शरीर की सुन्दरता को देखकर बड़े प्रसन्न हुए और जहाँ राजा-महाराजा और राजकुमार सब बैठे हुए थे, उन्हीं के बीच में जाकर बैठ गये। राजकुमारी हाथ में माला लेकर राजसभा में चतुर्दिक घूमती है। घूमते-घूमते जैसे-ही उसकी नजर बंदरवाले मुँह पर पड़ती है, तो वह दूसरी तरफ चली जाती है। नारदजी के मन में होता है कि राजकुमारी मुझे देख नहीं पा रही है। इसलिए घूम गई है। तो जिधर राजकुमारी जाती थी, उधर जाकर वे बैठ जाते थे। बंदर का मुँह देखकर राजकुमारी फिर लौट जाती थी। इस प्रकार कितनी बार नारदजी उठे और बैठे; लेकिन राजकुमारी उनके गले में माला डालती नहीं है। इतने में आते हैं भगवान्। राजकुमारी उनके गले में माला डाल देती है। राजकुमारी को लेकर भगवान् चले जाते हैं।
नारदजी बड़े आकुल व्याकुल हो गए। सोचने लगे-हम क्या चाह रहे थे, क्या हो गया! उसी सभा में महादेवजी के दो गण बैठे हुए थे। उन्होंने कहा-‘नारदजी! जरा अपना मुँह तो देखिए आईने में, कैसा है? जब वे आईने में अपना मुँह देखते हैं, तो पाते हैं कि मुँह बंदर का-सा है। उनके मन में क्रोधाग्नि जलने लगी। वे सोचने लगे कि भगवान् ने मेरे साथ छल किया। आशीर्वाद माँगा सुन्दरता का और दे दिया बंदर का-सा मुँह। क्रोध से आग-बबूला होकर वहाँ से चल पड़े। रास्ते में भगवान् से भेंट हो गई। उन्होंने देखा कि भगवान् राजकुमारी को लेकर जा रहे हैं। अब तो और क्रोध दुगुनी हो गयी, मानो आग में घी डाल दिया गया हो। उन्होंने आवेशित स्वर में भगवान् से कहा-‘आपने ने मेरे साथ धोखा किया। आपने मेरा मुँह बना दिया बंदर का-सा। मैं आपको शाप देता हूँ कि रानी के विरह से आपने जैसे मुझे व्याकुल किया है, वैसे ही आप भी नारी के विरह से व्याकुल होंगे। आपने मेरा मुँह बंदर का-सा बना दिया, तो बंदर आपके सहयोगी होंगे। भगवान् ने नारदजी के शाप को अंगीकार किया और सीता-हरण होने पर नारदजी ने नारी-विरह का नाटक करके दिखला दिया। साथ ही लंका पर विजय पाने के लिए बानरों की सहायता ली। सीता-हरण होने पर नारद मुनि देखते हैं कि भगवान् जंगल-जंगल घूम रहे हैं। तो नारद के मन में बड़ा पश्चात्ताप हुआ और मन-ही-मन कहने लगे, मैंने भगवान् को शाप देकर अच्छा नहीं किया।
“ मोर शाप करि अंगीकारा ।
सहत राम नाना दुखभारा ।।
ऐसे प्रभुहिँ बिलोकउँ जाई ।
पुनि न बनहिँ यह अवसर आई ।।”
वे भगवान् के पास पहुँचते हैं। उनसे कथोप- कथन होता है। नारदजी पूछते हैं-‘भगवन्! जब मेरा मन विवाह करने का हुआ, तो आपने विवाह करने क्यों नहीं दिया?’ भगवान् ने उत्तर दिया-‘जिस तरह किसी बालक को अगर फोड़ा निकल आता है और फोड़े के कष्ट से बच्चा व्याकुल होता है, तो उस बच्चे को लेकर उसकी माता डॅाक्टर के पास जाती है और फोड़े का अॅापरेशन कराती है। एक तो बच्चा उस फोड़े के कष्ट से व्याकुल है, दुःखी है, पीड़ित है, फिर भी करुणामयी माता उसका ऑपरेशन करवाती है। ऑपरेशन इसलिए नहीं कराती है कि बच्चे को और कष्ट हो; बल्कि बच्चे को और कष्ट नहीं हो, इसके लिए ऑपरेशन करवाती है। घाव पर मरहमपट्टी करवाके ठीक करवाती है। उसी तरह आपके मन में जो घाव हो गया था, उसी घाव को दूर करने के लिए मैंने वैसा किया था। आपके मन में अहंकार का अंकुर आ गया था, उसी अहंकार का संहार करने के लिए मैंने ऐसा किया था।
जिज्ञासा होती है-विकारों का विनाश कहाँ होता है? समूल नष्ट कहाँ होता है? कहाँ जाकर हम विकारों से छूट सकते हैं? इसके समाधान में निवेदन है कि जबतक अपने अंदर कोई प्रवेश नहीं करता; जबतक अपने अंदर के प्रकाश का दर्शन नहीं करता, तबतक विकार का विनाश नहीं होता है। जैसे बाहर संसार में हम देखते हैं-मरकरी जलती है; बल्ब जलता है। उससे प्रकाश होता है। उस प्रकाश पर कीड़े-फतिंगे जा-जाकर गिरते और मरते हैं। उसी तरह अन्तर के प्रकाश में अन्तर के विकार-रूप कीड़े जल-भुनकर समाप्त होते हैं। इसलिए अन्तःप्रकाश की आवश्यकता है।
दूसरी बात यह है कि जो करोड़पति होगा, वह कौड़ी चुनने क्यों जाएगा? लखपति है, तो वह खाक छानने क्यों जाएगा? गोस्वामीजी कहते हैं-
“ ब्रह्मपीयूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै ।
तौ कत मृग जल रूप विषय, कारण निशिवासर धावै ।।”
जिसको ब्रह्मामृत मिल जायगा, वह विषय विष की ओर क्यों जाएगा? ‘ब्रह्म-पीयूष’ यानी ब्रह्मामृत मधुर है, शीतल है। जो उसको पा जाता है, वह विषय विष की ओर नहीं जाता है। साधना के द्वारा जो जितनी ऊँचाई में उठ जाता है, उसके हृदय में उतनी ही अधिक शीतलता आती है; शान्ति आती है; गम्भीरता आती है। जबतक कोई उपर उठा हुआ नहीं है, तो उसमें शान्ति, गम्भीरता और शीतलता नहीं आती है। विचार के द्वारा थोड़ी देर के लिए वह अपने मन को नियंत्रित कर सकता है; लेकिन बराबर रोककर रखना उसकी क्षमता से बाहर की बात हो जाती है। इसलिए सन्तों ने अन्तस्साधना पर बहुत जोर दिया है। नादविन्दूपनिषद् में लिखा है-
“ मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिनः ।
नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।।”
जिस तरह मदमस्त हाथी कदली के वन में जाता है और उजाड़-पुजाड़ करता है; तोड़-फोड़ करता है; लेकिन जब महावत आता है, अंकुश मारता है, तो हाथी पीछे भागता है; आगे नहीं जाता। उसी तरह हमारा मन मदमस्त गजराज है और विषय की वाटिका में विचरण करता है। जो कोई आन्तरिक नाद की साधना करता है, उसके लिए वह नाद अंकुश का काम करता है। वह विषयों की ओर नहीं जाने देता है। जिस तरह समुद्र की लहर तट पर जाकर समाप्त हो जाती है। जिस तरह मधुमक्खी मधु को पीती है। जबतक वह मधु नहीं पीती है, तबतक गुनगुनाती रहती है और जब वह मधु के रस में लीन हो जाती है, तो गुनगुनाहट उसकी छूट जाती है। उसी तरह मन जबतक अन्तर्नाद में नहीं डूबता है, तबतक इसमें भी गुनगुनाहट रहती है और जब अन्तर्नाद की साधना करके उसमें डूब जाता है, तो इसकी भी सारी गुनगुनी बंद हो जाती है। मधुकर तो मधु के रस में लीन हो जाता है और साधक अपने अन्तर-रस में, ब्रह्म- रस में, ब्रह्म-पीयूष में तल्लीन हो जाता है। इसलिए सन्तों ने अन्तर्नाद और अन्तर्ज्योति की साधना बतलायी है। जो कोई अन्तर्नाद और अन्तर्ज्योति की साधना करते हैं, चलते-चलते वे निर्गुण निराकार ब्रह्म तक पहुँचते हैं; स्थूल सगुण साकार छूट जाता है। स्थूल सगुण साकार के बाद सूक्ष्म सगुण साकार है। सूक्ष्म सगुण साकार के बाद सूक्ष्मतर निर्गुण निराकार है। उस अवस्था को प्राप्त करके परम प्रभु परमात्मा का साक्षात्कार करके- “ जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई” वह हो जाता है। फिर उसका आवागमन नहीं होता; इस संसार में आना नहीं होता; दैहिक, दैविक, भौतिक-इन त्रितापों से जो मानव संतप्त होता रहता है, उनसे सदा के लिए वह मुक्त हो जाता है। इसलिए सन्तों ने विकारों से बचने के लिए उभय प्रकार के सत्संग करने के लिए कहा-
“ नित सत्संगति करो बनाई ।
अन्तर बाहर द्वै विधि भाई ।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा ।
अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
बाहरी सत्संग यानी कथा-प्रसंग हम करें और आन्तरिक सत्संग यानी ध्यानाभ्यास भी करें। ध्यानाभ्यास करते-करते ही-
“ निर्मल निराकार निर्मोहा ।
नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी ।
ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी ।।”
को प्राप्त कर लेंगे। तब-
“ इहाँ मोह कर कारण नाहीं ।
रवि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।”
वहाँ मोह नहीं होता। मोह यानी अज्ञानता तो अंधकार में है। जब कोई अन्तःप्रकाश-आत्मप्रकाश को पा जाता है, तो वहाँ मोह का कारण नहीं रह जाता। जैसे जहाँ सूर्योदय हो जाता है, वहाँ अधंकार नहीं रहता है। उसी तरह जिसको आत्मप्रकाश मिल जाता है, उसमें अज्ञानता नहीं रहती। जो आत्म-स्वरूप का लाभ कर लेता है, परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, तो वहाँ मोह, शोक आदि कुछ भी नहीं है। गोस्वामीजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ सोक मोह भय हरष दिवस निसि ,
देश काल तहँ नाहीं ।”
सन्तों ने अन्तस्साधना पर जोर दिया है। हमलोगों को अन्तस्साधना करनी चाहिए। सदाचार का पालन करना चाहिए। सदाचार के पालन में झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार पंच पापों का परित्याग है। इन पापों का परित्याग जितनी मात्र में हम करेंगे, अन्तस्साधना में हमें उतनी ही सफलता मिलेगी; उतने ही हम आगे बढ़ते जाएँगे, वैसे-वैसे पापों से बचने की हममें क्षमता भी आएगी; शक्ति भी आएगी । यह एक दूसरे का सहायक है । शास्त्रों में लिखा है ।
“ नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।”
जो पाप कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं है और जिसका मन असमाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान-द्वारा लाभ नहीं कर सकता है। इसलिए इन पापों से हम बचें। नित्य नियमित रूप से हम साधना करें। साथ ही गुरु-कृपा भी परमावश्यक है। “ गुरु कृपा ही केवलम्।” बिना गुरु की कृपा के नहीं होगा ।
‘बिना गुरु की कृपा पाये, नहीं जीवन उधारा है ।’
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
तथा-
“ दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् ।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां बिना ।।”
(वराहोपनिषद्)
इसलिए सन्त सद्गुरु की शरण में रहें। जो सन्त सद्गुरु की शरण में रहते हैं, गुरुदेव उनकी रक्षा करते हैं; सहायता करते हैं; जीवों का कल्याण करते हैं।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ सत्संग-मंदिर चुटिया, राँची में दिनांक 18-06-1995 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर अपराह्णकाल में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 1996 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, समादरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संत कबीर साहब की वाणी है-
“ बिन सतगुरु नर रहत भुलाना ।
खोजत फिरत राह नहिं जाना ।।”
वह रास्ता क्या है? उसका आरम्भ कहाँ से होता है और अंत कहाँ होता है? इस संसार में जब मानव का जन्म होता है, समय पाकर वह जब कुछ बढ़ता है; कुछ पढ़ता है, तो कुछ समझने-बूझने लग जाता है। जब वह सत्संग करता है, सज्जनों का सम्पर्क करता है, तो उसके मन में दुःख से छूटने के लिए, सुख पाने के लिए, एक उत्कण्ठा जागरित होती है। सत्संग के द्वारा उसको इस बात का ज्ञान होता है कि ईश्वर की प्राप्ति में ही परम सुख की प्राप्ति है; परम शांति की प्राप्ति है, परम कल्याण की प्राप्ति है, तो वह ईश्वर की खोज करने के लिए चलता है; किन्तु बात यह होती है, जैसा कि कबीर साहब ने कहा है-
“ जल परिमाने माछरी, कुल परिमाने बुद्धि ।
जाको जैसा गुरु मिला, ताकी तैसी बुद्धि ।।
गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव ।
सोई गुरु नित बन्दिये, जो शब्द बतावे दाव ।।”
कबीर साहब ने सात प्रकार के गुरुओं का वर्णन करते हुए अंत में कहा है-
“ सातवँ गुरु जिन सत शब्द लखाया ।
जहाँ का तत्त्व सो तहाँ समाया ।।”
“ कबीर सात गुरु संसार में, सेवक सब संसार ।
सतगुरु सोई जानिये, जो भव जल उतारे पार ।।”
जब संत सद्गुरु के दर्शन होते हैं; उनका सद्ज्ञान मिलता है; अन्तस्साधना की उनसे सद्युक्ति मिलती है और सदाचार-समन्वित हो साधक साधना करता है, तब उसे सर्वेश्वर का साक्षात्कार होता है। संत-सद्गुरु के अभाव में यानी जिनको संत-सद्गुरु के दर्शन नहीं हुए, उनके सन्दर्भ में संत कबीर साहब कहते हैं-
“ बिन सतगुरु नर रहत भुलाना,
खोजत फिरत राह नहिं जाना।”
उस प्रभु को पाने की जो राह है, उसकी खोज लोग करते हैं; लेकिन वह राह मिलती नहीं है; क्योंकि संत-सद्गुरु से भेंट होती नहीं है; उनके दर्शन मिलते नहीं हैं। संत-सद्गुरु क्या कहते हैं? अगर भेंट हो जाय, मिल जाएँ, तो वे कहते हैं कि ऐ यात्री! प्रभु की खोज करने के लिए तुम कहाँ जा रहे हो?
“ खोजो पंथी पन्थ तेरे घट भीतरे ।
तू अरु तेरो पीव भी घट ही अन्तरे ।।”
जिस प्रभु की खोज के लिए तुम बाहर संसार में चलते हो, वह प्रभु तो तुम्हारे अंदर ही है और मजे की बात यह है कि तुम भी अपने अंदर ही हो, तो फिर बाहर संसार में खोजने के लिए क्यों जाते हो? इस पर यदि प्रश्न हो कि ‘प्रभु भीतर हैं, तो क्या बाहर नहीं है? परमात्मा के लिए तो कहा गया है कि-‘व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता।’
तथा-‘प्रभु व्यापक सर्वत्र समाना।’
प्रभु तो सर्वत्र हैं। बाहर भी हैं और भीतर भी हैं, तो अगर हम बाहर ही खोजने के लिए जाते हैं, तो क्या गलत करते हैं?’ इसके उत्तर में निवेदन है कि प्रभु की खोज करने के लिए जो हम बाहर में जाते हैं, तो किस चीज से खोजते हैं? इन्द्रियों के द्वारा। शरीर के बाहरी भाग में दश इन्द्रियाँ हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-आँख, नाक, कान, जिभ्या और त्वचा। पाँच कर्मेन्द्रियाँ- मुँह, हाथ, पैर, गुदा और लिंग। भीतर में चार इन्द्रियाँ हैं-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। बाहर संसार में हम इन्हीं के माध्यम से चलते हैं। हमारी ये इन्द्रियाँ इतनी मोटी हैं कि उस सूक्ष्मतम परमात्मा को ग्रहण नहीं कर सकतीं। परमात्मा इन्द्रियातीत है। जबतक हम इन्द्रियातीत नहीं होंगे, तबतक परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होगा। साधारण-सी बात है कि हमारा शरीर पाँच तत्त्वों से निर्मित है। मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। जिन पाँच तत्त्वों से हमारा शरीर निर्मित है, उन पाँच तत्त्वों में भी सभी तत्त्वों को हम नहीं देख पाते हैं। पाँच तत्त्वों में मात्र मिट्टी, जल और अग्नि-इन तीन तत्त्वों को हम देखते हैं। वायु को नहीं देखते। आकाश को नहीं देखते। जिन पाँच तत्त्वों से शरीर निर्मित है, उन पाँच तत्त्वों में भी जब सब तत्त्वों को हम नहीं देखते हैं, तो इन तत्त्वों से जो सूक्ष्म है, उनको हम कैसे देखेंगे? मिट्टी स्थूल है। उससे कुछ सूक्ष्म जल है। उससे सूक्ष्म अग्नि है। उससे सूक्ष्म वायु है। उससे सूक्ष्म आकाश है। वायु का तो स्पर्श भी होता है; किन्तु आकाश का तो स्पर्श भी नहीं होता। तब आकाश से जो पूर्व का है, वह कितना सूक्ष्म होगा? फिर उसको हम इन इन्द्रियों के द्वारा कैसे ग्रहण कर सकते हैं? इसलिए बाहर की ओर नहीं, भीतर की ओर चलना होगा। भीतर की ओर चलने से इन्द्रियों से छूटना होता है। जब हम जाग्रतावस्था में रहते हैं, तो चौदहो इन्द्रियों से युक्त रहते हैं। जाग्रतावस्था से जब हम स्वप्नावस्था में जाते हैं, तो हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ बाहर ही छूट जाती हैं यानी दस इन्द्रियों से हमें मुक्ति मिल जाती है, मात्र चार इन्द्रियों के साथ हम स्वप्नावस्था में रहते हैं। जब हम सुषुप्ति की अवस्था में जाते हैं, तो मन, बुद्धि, अहंकार-ये तीन इन्द्रियाँ छूट जाती हैं, मात्र एक चित्त इन्द्रिय रह जाती है। संतजन कहते हैं कि इन तीनों अवस्थाओं से परे एक चौथी अवस्था है, जिसको तुरीय कहते हैं। उसमें तुम्हारी ये सारी इन्द्रियाँ छूट जाती हैं; सूक्ष्म चार इन्द्रियों का परिमार्जित रूप रह जाता है। इसलिए अपने अंदर चलकर चौथी अवस्था प्राप्त करो। संत दरिया साहब (मारवाड़ी) के वचन में हैं-
“ मन बुद्धि चित हंकार की, है त्रिकुटी लग दौड़ ।
जन दरिया इनके परे, ब्रह्म सुरत की ठौर ।।”
त्रिकुटी तक जाते-जाते ये चतुष्ट्य अन्तःकरण भी थक जाते हैं; इनकी दौड़ समाप्त हो जाती है; मन्थर गति हो जाती है। संत तुलसी साहब (हाथरस वाले) कहते हैं-
“ सहस कँवल दल पार में, मन बुद्धि हिराना हो ।
प्रान पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो ।।”
इस प्रकार सुरत सूक्ष्म से कारण में जाती है। पुनः कारण और महाकारण को पार करने पर कैवल्यावस्था की जब प्राप्ति होती है, तब जड़ के सारे आवरण झड़ जाते हैं, मात्र चेतन रह जाता है। उसी चेतन की शुद्धावस्था में परम प्रभु परमात्मा का साक्षात्कार होता है। जैसे दूध में घृत रहने पर भी उससे पूड़ियाँ हम नहीं छान सकते। दूध को मथकर घृत को पृथक् कर लेते हैं, फिर पूड़ियाँ छानते हैं। उसी तरह जबतक जड़ के साथ चेतन है, परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी। जड़ से चेतन को पृथक् कर लेंगे, तब परमात्मा की प्राप्ति होगी। इसीलिए स्वामी ब्रह्मानन्दजी ने कहा था-
“ जिमि दूध के मथन से, निकसत है घी जतन से ।
तिमि ध्यान की लगन से, परब्रह्म ले निहारा ।।”
शुद्ध चेतन ही परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करता है और वहाँ भी एक आवरण रहता है; क्योंकि चेतन मण्डल भी एक आवरण है। वहाँ द्वैत भाव रहता है। जब वह आवरण भी हट जाता है, तो द्वैत भाव मिट जाता है; जीवात्मा परमात्मा से मिलकर एक हो जाता है। जहाँ से जीव आया था, वहाँ पहुँच जाता है। तो कहने के लिए सारी बातें बता दी गयीं; लेिकन वर्तमान स्थिति हमारी क्या है? हम कहाँ हैं? आँखें बंद करके देखते हैं, तो अपने को अंधकार में पाते हैं। इसीलिए हमारे परम पूज्य गुरुदेव के वचन में आया है-‘तू उतरि पर्यो तम माहिं।’
और प्रभु का साक्षात्कार कहाँ होगा? तो वे कहते हैं-‘निःशब्द में।’ इसलिए-
‘यहि त परि गयो दूर चलो निःशब्द में।’
निःशब्द में पहुँचने के लिए कहाँ से चलना होगा? जो जहाँ बैठा रहता है, वहीं से वह चलता है। इस हॉल में जहाँ-तहाँ से लोग आकर बैठै हुए हैं। घर से आये हैं, यहाँ बैठे हुए हैं। अब वे जब घर जाना चाहेंगे, तो कहाँ से चलेंगे? जो जहाँ बैठे हैं, वहीं से उठकर चलेंगे। उसी तरह निःशब्द से आकर हम इस शरीर के अंधकार-मंडल में बैठ गये हैं। अब चलेंगे, तो अंधकार से ही चलेंगे। अँधेरी रात कितनी भी लम्बी क्यों न हो, चलते-चलते रात का अंत होगा। जब रात का अंत हो जायेगा, तब क्या होगा? दिन होगा। उसी तरह अंधकार में चलते-चलते प्रकाश में जायेंगे। प्रकाश से शब्द में जायेंगे, तब शब्द से निःशब्द में जायेंगे। अब जिज्ञासा होती है कि अंधकार में से हम कैसे और कहाँ से चलेंगे? इस जिज्ञासा का समाधान हमारे गुरुदेव करते हैं-
‘नयन कँवल तम माँझ से पंथहि धारिये।’
अर्थात् नयनकाश से-‘नयन कँवल तम माँझ’ से चलना होगा। यहीं से रास्ता का आरम्भ है। वह रास्ता कैसा है? वह मोटा रास्ता नहीं है, झीना रास्ता है।
‘उस नाल का झीना दुआरा, गुरु तुझे देंगे बता।’
क्या बता देंगे?
‘दोउ नैन नासा मध्य सन्मुख, सूई अग्र दर ले लही।’
सूई का अगला भाग कितना महीन होता है! वहाँ पर जो अपने को टिका सकते हैं; स्थिर कर सकते हैं, तब क्या होगा-‘तम फटे’ अर्थात् तम फट जायेगा। तब फिर क्या होगा? ‘जोती भरे’-ज्योति-पुंज में प्रतिष्ठित हो जाओगे। तत्पश्चात् क्या होगा? तो कहा-आकाश का तू सैर कर!’ अर्थात् अन्तराकाश में गमन करोगे। भगवान बुद्ध ने कहा था-
‘हंसादिच्च पथे जन्ति, आकाशे जन्ति इद्धिया।’
हंस सूर्य के रास्ते पर जाते हैं। यह जीवात्मा सूर्य-पथ पर चलता है-प्रकाश में चलता है। ऋद्धि से योगी आकाश में गमन करता है। तीन आकाशों का वर्णन संत दादू दयालजी महाराज ने किया है-
‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा।’
ये तीन शून्य क्या-क्या हैं? अंधकार का शून्य, प्रकाश का शून्य और शब्द का शून्य। इन तीनों शून्यों को पार कीजिये। जो कोई इन तीनों शून्यों को पार कर जाते हैं, तब क्या मिलता है? तो कहा- ‘अगुण-सगुण नहिं दोई।’ वे सगुण और निर्गुण; दोनों के परे चले जाते हैं। अन्तस्साधना की क्रमबद्धता कितनी अच्छी है, परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में सुनिये-
“ नयन कँवल तम माँझ से पंथहिं धारिये।
सुनि धुनि जोति निहारि के पंथ सिधारिये।।
पाँचो नौबत बजत खिंचत चढ़ि जाइये।
यहि ते भिन्न उपाय न दिल बिच लाइये।।”
हमारे अंदर पाँच नौबत हैं। वे हैं-स्थूल- नौबत, सूक्ष्म-नौबत, कारण-नौबत, महाकारण- नौबत और कैवल्य-नौबत। स्थूल-नौबत के केन्द्र से सूक्ष्म के केन्द्र पर जाइये। वहाँ से कारण के केन्द्र पर जाइये, कारण के केन्द्र से महाकारण के केन्द्र पर जाइये। महाकारण के केन्द्र से कैवल्य के केन्द्र पर जाइये। वहाँ ही चेतन-स्वरूप को प्राप्त करके परमात्म-दर्शन होंगे। कहते हैं कि इसके अतिरिक्त परमात्म-प्राप्ति का और कोई रास्ता नहीं है और न कोई दूसरा उपाय ही है। हमारा वेद स्पष्ट शब्दों में घोषण करता है-
“ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यो पन्थाः विद्यतेऽयनाय ।।”
‘न अन्यः पन्था’-और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। यही एक रास्ता है। अंधकार से प्रकाश में, प्रकाश से शब्द में और शब्द से निःशब्द में। प्रभु-प्राप्ति-पथ का आरम्भ आज्ञाचक्र से होता है और ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में जाकर अंत होता है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महषि मेँहीँ सत्संग-मंदिर, चुटिया (राँची) में दिनांक 20-06-1995 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 1995 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
यह स्थान हमारे पूज्य गुरुदेव के भी गुरुदेव का स्थान है। यहाँ तो मैं सीखने के लिए आता हूँ। जहाँ से संपूर्ण भारत में ही नहीं, विदेश में भी संतमत का प्रचार-प्रसार हुआ है, वहाँ के लोगों को मैं क्या उपदेश-वाक्य कहूँ? जिस वृक्ष के मूल में जल सींचा जाता है, समय पाकर वह फल-फूलों से भर देता है। मैं उसी मूल की पूजा के लिए यहाँ आता हूँ। ऐसा भी होता है कि विद्यार्थी पढ़ता कहीं है और परीक्षा देने के लिए जाता कहीं दूसरी जगह है। यहाँ से मुझे भी पत्र जाता है, तो मैं समय-समय पर परीक्षा देने के लिए आ जाता हूँ। श्रीचुन्नालाल साहब तो यहाँ के बहुत पुराने सत्संगी हैं, बाबा देवी साहब के आपको दर्शन प्राप्त हुए हैं। बाबा देवी साहब का वरदहस्त जिनके ऊपर पड़ा हो, उनको किस बात की कमी? उनको ज्ञान कौन सिखावेगा? उनसे तो ज्ञान सीखना चाहिए।
आपलोग सत्संग करने के लिए यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं। सत्संग क्या है? सत्संग एक तीर्थ है। तीर्थ ही नहीं, बल्कि महान् तीर्थ है। तीर्थ कहते हैं पवित्र जल को। हमलोग प्रयाग, हरिद्वार, काशी आदि तीर्थों में जाते हैं। वहाँ स्नान करते हैं, वहाँ के पवित्र जल में। इलाहाबाद के प्रयागराज में त्रिवेणी-संगम है। इस त्रिवेणी संगम में स्नान करने से तन शुद्ध होता है। सत्संग-रूपी त्रिवेणी में स्नान करने से मन शुद्ध होता है और अपने अंदर चेतनधार में स्नान करने से आत्मा पवित्र होती है।
बहुत पहले मैं इलाहाबाद त्रिवेणी-संगम पर गया था। मैं ने वहाँ पंडाजी से पूछा-यहाँ तो द्विवेणी संगम है, त्रिवेणी तो नहीं है। एक तो गंगाजी की धारा देखते हैं और दूसरी यमुनाजी की धारा देखते हैं, तीसरी धारा तो दीखती नहीं। पंडाजी ने उत्तर दिया-तीसरी धारा सरस्वतीजी की है, वह अंतःसलिला है; भीतर-ही-भीतर बहती है।
सज्जनो! जिनके पास पैसे हैं, स्वास्थ्य उत्तम है और समय है, वे इलाहाबाद जाकर प्रयागराज की त्रिवेणी में स्नान करके अपने तन को पवित्र कर सकते हैं; लेकिन जिनके पास पैसे, स्वास्थ्य और समय का अभाव हो, वे क्या करें? गो0 तुलसीदासजी ने विचारा कि कोई ऐसा भी त्रिवेणी-संगम हो, जहाँ बिना विशेष खर्च किये भी डुबकी लगायी जा सके, तो उन्होंने बताया कि वह सत्संग-रूपी त्रिवेणी है। जैसे प्रयागराज में तीन वेणियाँ हैं, वैसे ही सत्संग में तीन वेणियाँ होती हैं। किसी ने लगे हाथ पूछ लिया-महाराज! हम तो सत्संग में एक धार भी बहती हुई नहीं देखते हैं, फिर आप त्रिवेणी कैसे कहते हैं? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज उत्तर देते हैं-
“ राम भगति जहँ सुरसरि धारा ।
सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा ।।
विधि निषेधमय कलिमल हरनी ।
करमकथा रविनन्दिनी बरनी ।।”
सत्संग में तीन धाराएँ होती हैं। स्थूल, सगुण साकार भगवान की चर्चा होती है। चाहे राम कहिये, कृष्ण कहिये, देवी कहिये अथवा कोई भी देव वा देवी कहिये, कुछ फर्क नहीं पड़ता। यह गंगा की धारा है। दूसरी यमुना चाहिए, वह क्या है? विधि और निषेध यानी कर्तव्य और अकर्तव्य कर्म क्या है, इसकी सत्संग में चर्चा होती है। कर्तव्य और अकर्तव्य के निर्णय के बिना अकर्तव्य कर्म भी हमसे होंगे अथवा उसका परिणाम उत्तम नहीं होगा। इसलिए सत्संग में दोनों प्रकार की बातें बतायी जाती हैं-क्या विधि कर्म है और क्या निषेध कर्म है।
एक ईश्वर में विश्वास करना, ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर-इसका दृढ़ निश्चय करना (रखना), सत्संग करना, ध्यान करना और गुरु की सेवा करनी; ये पाँच विधि कर्म हैं, कर्तव्य कर्म हैं। झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करनी, हिंसा नहीं करनी यानी जीवों को दुःख नहीं देना; मांस, मछली, अंडे आदि का सेवन नहीं करना और व्यभिचार नहीं करना अर्थात् परस्त्री और परपुरुषगमन नहीं करना-ये पाँच निषेध कर्म हैं, अकर्तव्य कर्म हैं। यही विधि-निषेध यमुना की धारा है।
सरस्वती की धारा के संबंध में बताया गया-यह ब्रह्मज्ञान है। आत्मा क्या है? इसके लिए साधन क्या है? इसके लिए संयम क्या है? ब्रह्म क्या है? जीव क्या है? बंध क्या है? मोक्ष क्या है? इन सब बातों को जो समझाया जाता है, यह सरस्वती की धारा है। जिस तरह बाहर संसार में सरस्वती भी अंतःसलिला है, उसी तरह यह ब्रह्मज्ञान भी अंतःसलिला है। बाहर में यह ज्ञान नहीं मिलता। इसका ज्ञान, इसका साक्षात्कार साधना करनेवाले को अपने अंदर में होता है। ब्रह्मज्ञान की अनुभूति साधक को अपने भीतर होती है, यह अनुभवगम्य है।
इस तरह इस सत्संगरूपी त्रिवेणी में भी गंगा, यमुना और सरस्वती की तीनों धाराएँ हैं। हमारे संतों ने, ऋषियों ने और मुनियों ने देखा कि तन की पवित्रता तो प्रयाग की त्रिवेणी में हो जाती है, मन की पवित्रता इस सत्संगरूपी त्रिवेणी में हो जाती है; लेकिन एक ऐसी भी त्रिवेणी होनी चाहिए, जिसमें चेतन आत्मा पवित्र हो। चेतन आत्मा की पवित्रता कैसे होगी? तो कहा-
“ इडा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी ।
इडा पिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ।।11।।
त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्व्वपापैः प्रमुच्यते ।।12।।”
-ज्ञानसंकलिनीतंत्र
हमारे शरीर में 72 करोड़ नाड़ियाँ हैं। इनमें 101 नाडियाँ मुख्य हैं। इन 101 नाड़ियों में 9 (नौ) नाड़ियाँ मुख्य हैं तथा इन नौ में तीन नाड़ियाँ मुख्य हैं और इन तीनों में भी एक नाड़ी मुख्य है और वह सुषुम्ना नाड़ी है। तीन नाड़ियाँ क्रमशः इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना है।
“ इडा तिष्ठति वामेन पिंगला दक्षिणेन तु ।
तयोर्मध्ये परं स्थानं यस्तद्वेद स वेदवित ्।। 6।।”
-योगशिखोपनिषद्, अ0 6
यही परम स्थान सुषुम्ना है। इसी को सरस्वती भी कहते हैं। एक बंगाली महात्मा कहते हैं-
“ बामे इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला
रजस् तमोगुणे करिते छे खेला ।
मध्ये सत्वगुणे सुषुम्ना विमला
धरऽ धरऽ ताँरे सादरे ।।”
(योगी पंचानन भट्टाचार्य)
दृष्टि की जो दो धारें हैं, इनमें बायीं को इड़ा कहते हैं, जो तमोगुणी है। दायीं धार को पिंगला कहते हैं, जो रजोगुणी है और मध्य में सुषुम्ना है, जो सतोगुणी है। ध्यानाभ्यास करने के लिए जब हम बैठते हैं और जप, ध्यान-पूजा आदि करने लगते हैं, उस समय आलस्य आने लगता है और हम सो जाते हैं; यह तमोगुण की प्रधानता के कारण होता है। आलस्य, निद्रा, जँभाई आदि तमोगुण के लक्षण हैं।
बैठते हैं हम जप करने के लिए और करने लग जाते हैं गप्प। बैठते हैं हम जाप करने के लिए और करने लग जाते हैं पाप। उस समय न जानें हम क्या-क्या बातें सोचने लग जाते हैं, जिनका ठिकाना नहीं। थोड़ी देर के बाद जब होश होता है, तब सोचते हैं, यह क्या हुआ? हम क्या करने बैठे थे, क्या करने लग गये। जिससे कभी संबंध नहीं, उससे भी संबंध जोड़ने लग जाते हैं। जिससे कभी कोई बात नहीं, उससे भी बात करने लग जाते हैं। इसी तरह समय बीतता चला जाता है और हम समझ भी नहीं पाते हैं। यह रजोगुण की प्रधानता के कारण होता है। जब रजोगुण की धार में हमारी वृत्ति रहती है, तब चंचलता रहती है। तमोगुण की धारा में मूढ़ता उत्पन्न होती है। जब मध्यधारा-सुषुम्ना में हमारी वृत्ति रहेगी, तब हमारा मन सतोगुणी और शांत रहेगा। उस समय ध्यान-भजन ठीक से होगा। इसीलिए तो संत दादूदयालजी महाराज ने कहा है-
“ सुरति सदा स्यावित रहै, तिनके मोटे भाग ।
दादू पीवै रामरस, रहै निरञ्जन लाग ।।”
जिनकी सुरत सम्मुख होकर रहती है यानी सुषुम्ना में रहती है, उनका अहोभाग्य है। वह राम-रस पीता है; ब्रह्म-पीयूष पान करता है तथा निरंजन = निः + अञ्जन अर्थात् अंजन-रहित, माया-रहित ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। मेरे कहने का तात्पर्य-तीन तरह की त्रिवेणियाँ हैं। एक प्रयागराज की त्रिवेणी, दूसरी सत्संगरूपी त्रिवेणी और तीसरी अपने अंदर की त्रिवेणी। इस तीसरी प्रकार की त्रिवेणी-अपने अंदर की त्रिवेणी के लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है। संत राधास्वामी साहब ने कहा है-
“ बैठे ने रास्ता काटा । चलते ने बाट न पाई ।।”
“ है कुछ रहनि गहनि की बाता ।
बैठा रहै चला पुनि जाता ।।
कहै को तात्पर्य है ऐसा ।
जैसे पंथी वोहित चढ़ि वैसा ।।”
जिसकी वृत्ति सुषुम्ना में स्थिर हो जाएगी, उसका रास्ता कट जाएगा; वृत्ति आगे बढ़ जाएगी, अंधकार से प्रकाश में चली जाएगी और जबतक हमारी वृत्ति बहिर्मुखी रहती है, गुरु नानक साहब ने कहा-
“ नउ दरि ठाके धावतु रहाए ।
दसवै निज घरि वासा पाए ।।
उथै अनहद सबद बजहि दिन राती ।
गुरमति सबदु सुणावणिआ ।।”
दसवें द्वार यानी सुषुम्ना में जो कोई अपने को प्रतिष्ठित कर पाता है, उसका रास्ता कटता है। जबतक नव द्वारों में ठहरे हुए रहते हैं, विषयों में दौड़ते रहते हैं। इसीलिए कहा-‘चलते ने बाट न पाई।’ यदि हम अपने घर जाना चाहते हैं, प्रभु को पाना चाहते हैं, तो अपने को दसवें द्वार में ठहराना होगा। इसलिए कहा-
बैठे ने रास्ता काटा । चलते ने बाट न पाई ।।
“ है कुछ रहनि गहनि की बाता ।
बैठा रहै चला पुनि जाता ।।”
यदि जिज्ञासा हो कि बैठे रहनेवाले का रास्ता कैसे तय हो सकता है, तो उत्तर में निवेदन है-
आप नाव पर बैठ जाइये। अब आपको चलना नहीं है, चलेगी नाव। इसी तरह साधक अपने अंदर की नाव पर जब बैठ जाएगा, तो फिर उसको चलना नहीं पड़ेगा और अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच भी जाएगा। अपने अंदर की वह कौन-सी नाव है? इसका उत्तर हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-विन्दु और नाद।
इस यात्र में सत् की ओर जाना होता है। सत् क्या है? सत् तो वही एक अचल, अलख पुरुष परम पिता परमात्मा है और उसका अभिन्न अंश जीवात्मा भी सत् है। इस जीवात्मारूपी सत को उस परमात्मा-रूपी सत् से मिला देना असली सत्संग है। पहले हम बाहरी सत्संग करें। जबतक बाहर का सत्संग नहीं करेंगे, तबतक अंदर प्रविष्ट होने का ज्ञान अथवा मार्ग हमें नहीं मिल पाएगा। इसीलिए कहा गया है-
“ नित सतसंगति करो बनाई ।
अन्तर बाहर द्वै विधि भाई ।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा ।
अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
इतने अधिक लोग एकत्र होकर जो सत्संग अभी हमलोग कर रहे हैं, यह बाहर का सत्संग है। हाथरस- निवासी संत तुलसी साहब ने कहा है-
“ सत्संग करना मन तोड़ शरण संतन की ।
अन्दर अभिलाषा लगी रहे चरनन की ।।”
‘मन तोड़’ कहने का मतलब-संसार की तरफ से मन को तोड़ लो और सत्संग में जोड़ दो। संसार की तरफ से तोड़ेंगे नहीं, तो सत्संग में जोड़ कैसे पायेंगे? नहीं जोड़ पायेंगे। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ भवसागर कहँ नाव शुद्ध संतन्ह के चरन ।
तुलसीदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरन ।।”
संतों के चरण-शरण से भवदुःख-हरण होता है। उससे जन्म-मरण छूटता है। इसलिए साधुसंग-सत्संग करना अत्यन्त आवश्यक है। भगवान श्ांकर ने पार्वतीजी को सत्संग की महत्ता बताते हुए कहा था-
“ गिरिजा संत समागम, सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होइ सो, गावहिं वेद पुरान ।।”
अर्थात् हे पार्वती! संतों के समागम के समान अन्य कोई दूसरा लाभ नहीं है; लेकिन जबतक प्रभु की कृपा नहीं होगी, तबतक संतों का समागम नहीं मिलेगा। एक बंगाली महात्मा कहते हैं-
“ करऽ साधू समागम, पवित्र हइवे मन ।
घुचिबे मोह अंधकार रे ।।”
संतों का समागम करो, मन पवित्र होगा। भगवान श्रीराम कहते हैं-
“ निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।”
(रामचरितमानस)
तात्पर्य यह कि भगवान कहते हैं-जिसका मन पवित्र होगा, वही प्रभु को पा सकता है। पवित्र मन, शुद्ध मन, साफ मन होने से ही प्रभु के दर्शन संभव हैं। इसको समझने के लिए इस तरह से भी हम समझ सकते हैं-
अभी वर्षा का समय है। गंगाजी का जल गँदला है। गंगाजल को देखेंगे, तो उसमें स्नान करने में हिचकिचाहट होगी, उसका पान करना तो दूर की बात है। थोड़े दिनों के बाद कार्तिक-अगहन महीन में जल साफ हो जाएगा। मिट्टी नीचे बैठ जाएगी, तब गंगाजी के जल में हम साफ अपनी परिछाईं देख सकते हैं। इसी तरह जब हमारा मन गंदला रहेगा, तो प्रभु की परिछाईं हम नहीं देख सकेंगे। मन शुद्ध होगा, साफ होगा, निर्मल होगा, तभी हम प्रभु के दर्शन कर सकेंगे। संत कबीर साहब ने भी कहा है-
“ जब दरसन देखा चाहिए, तो दर्पन माँजत रहिये ।
जब दर्पन लागी काई, तो दरस कहाँ ते पाई ।।”
अतः प्रभु-दर्शन के लिए मन को साफ, शुद्ध, निर्मल करना चाहिए और यह मन पवित्र होगा निरंतर सत्संग करते रहने से, संतों का संग करने से, साधु- संग करने से। सत्संग करने से मन पवित्र होगा, शुद्ध होगा, साफ होगा। तब क्या होगा? मोह-अंधकार का विनाश होगा अर्थात् अविद्यारूपी रात्रि, अज्ञानरूपी अंधकार का नाश हो जाएगा। संतो ं का समागम कितना उत्कृष्ट होता है, इस संदर्भ में संत सुंदरदासजी महाराज ने इस भाँति कहा है-
“ तात मिलै पुनि मात मिलै,
सुत भ्रात मिलै युवती सुखदाई ।
राज मिलै गज बाज मिलै,
सब साज मिलै मन वांछित पाई ।।
लोक मिलै सुर लोक मिलै,
विधि लोक मिलै वैकुंठहु जाई ।
सुन्दर और मिलै सब ही सुख,
संत समागम दुर्लभ भाई ।।”
संतों का समागम, संतों का दर्शन बड़ा दुर्लभ है। पहले बाहरी सत्संग करें। बाहरी सत्संग करते-करते आंतरिक सत्संग करने की प्रेरणा मिलेगी। बाहर सत्संग नहीं करेंगे, तो आंतरिक सत्संग की प्रेरणा कैसे मिलेगी, कहाँ से मिलेगी अर्थात् नहीं मिलेगी। जब प्रेरणा नहीं मिलेगी, तो उस ओर हम चल भी कैसे सकेंगे?
हमारे यहाँ भागलपुर, कुप्पाघाट आश्रम में गुरुदेव के दर्शनार्थ एक वाइस प्रिंसिपल साहब आया करते थे। अब तो वे रिटायर्ड हो गये हैं। उनके इष्ट-मित्र उनसे कहा करते थे-आप बार-बार कुप्पाघाट क्यों जाया करते हैं? महर्षिजी ने आपको जो क्रिया बता दी है, अपने घर में बैठ कर किया करें। यह क्या बार-बार कृप्पाघाट जाते हैं! प्रिंसिपल साहब ने कहा-‘आपलोग समझते नहीं है। महर्षिजी हैं पावर हाउस। वहाँ जाकर हम अपनी बैटरी चार्ज कराकर आते हैं। आपलोग के बीच रहते-रहते जब वह डिस्चार्ज हो जाती है, तो पुनः हम वहाँ जाते हैं और चार्ज कराकर पुनः आपलोगों के बीच में आ जाते है।’ फुलवाड़ी में जाने पर फूलों से सुगंध माँगने की आवश्यकता नहीं पड़ती, स्वतः सुगंध मिलती है। इसी प्रकार संतों के पास जाने परउनसे कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं। हमारी आवश्यकता की वस्तु वे स्वयं देते हैं। इसलिए नित्य नियमित रूप से सत्संग करना अति आवश्यक है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन मुरादाबाद (यू0पी0) में 16-9-1995 ई0 के
सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, नवम्बर 1996 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओं तथा भक्तिमती बहनो!
भगवान् बुद्ध ने कहा है- “ हमारी वर्तमान हालत हमारे विचारों का फल है। उसकी बुनायाद हमारे विचारों पर है। वह हमारे विचारों से बनी है। यदि मनुष्य बुरे विचारों से कुछ बोलता अथवा काम करता है, तो दुःख उसके पीछे वैसे चलता है, जैसे गाड़ी खींचनेवाले बैल के पीछे-पीछे उसका चक्का।” पुनः उन्होंने कहा- “ हमारी वर्तमान हालत हमारे विचारों का फल है, उसकी बुनियाद हमारे विचारों पर है। वह हमारे विचारों से बनी है। यदि मनुष्य अच्छी कल्पना से कुछ बोलता वा काम करता है, तो सुख उसके पीछे-पीछे वैसे चलता है, जैसे उसके शरीर की छाया, जो उसे कभी नहीं छोड़ती।”
अभी हमारी हालत सुख की है अथवा दुःख की, वह हमारे स्वयं के विचारों का परिणाम है। इसलिए सन्तों ने कहा- “ कार्य करने के पूर्व ही सोच लेना चाहिए, विचार कर लेना चाहिए। किसी कार्य के करने के पूर्व जो नहीं सोच लेता, नहीं विचार लेता, वह दुःख पाता है; पश्चात्ताप करता है।”
“ बिना विचारे जो करे सो पिछे पछताय ।
काम विगाड़े आपनो जग में होय हसाँय ।।
जग में होत हँसाय, चित्त न चैन आवै ।
खान पान अरु राग रंग, कछु मन नहिं भावै ।।
कह गिरधर कविराय, कर्म गति टरै न टारै ।
खटकत है दिन रैन, किया जो बिना विचारै ।।”
रामचरितमानस में एक प्रसंग आया है कि जिस समय मर्यादापुषोत्तम भगवान् श्रीराम जगत्-जननी श्रीजानकी माता तथा भ्राता श्रीलक्ष्मणजी के साथ जंगल गये थे, श्रीभरतजी तथा श्रीशत्रुघ्नजी ननिहाल में थे। अयोध्या आने पर उनको सारी बातों की जानकारी हुई, तो श्रीभरत जी भगवान् श्रीराम को मनाने के लिए, अयोध्या लाने के लिए जंगल जाते हैं और साथ में चतुरंगिणी सेना थी, माताएँ थीं, ब्राह्मणगण थे, गुरु वशिष्ठजी आदि सभी साथ में थे। भरतजी मन-ही-मन सोचते हैं- “ श्रीराम से प्रार्थना करेंगे कि वे अयोध्या लौट आवें।”
जिस जंगल में भगवान् श्रीराम थे, उससे थोड़ी दूर पर ही भरत जी थे। श्रीलक्ष्मणजी देखते हैं कि आकाश में धूल उड़ रही है। सोचने लगे कि बिना आँधी-तूफान के यह धूल कैसे उड़ रही है? पेड़ पर चढ़कर देखा गया और खबर भी आयी कि पूरे सैन्य दल-बल के साथ श्रीभरत जी आ रहे हैं। चतुरंगिणी सेना के आने से धूल उड़ रही थी। श्रीलक्ष्मणजी शेषावतार थे। उनके मन में हुआ कि भरतजी राजपद पाकर मद में आ गए हैं। वे चाहते हैं, जंगल में राम-लक्ष्मण अकेले हैं, उन्हें मारकर निष्कंटक राज्य करूँ।
आवेश में आकर श्रीलक्ष्मण जी कहने लगे- “ आवें भरतजी, दिखला दूँगा मैं, समर क्षेत्र में उनको सुला दूँगा। भगवान् श्रीराम लक्ष्मणजी को समझाते हैं- “ भाई लक्ष्मण! सुनो-
“ भरतहिं होहिं न राजमद, विधि हरिहर पद पाई ।
कबहुँक काँजी सीकरनि, क्षीर समुद्र नसाइ ।।”
(रामचरितमानस)
भरत को राजमद नहीं हो सकता। यह अयोध्या का राज तो बहुत तुच्छ है; ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पद को प्राप्त कर करने पर भी भरत में राजमद उसी तरह नहीं हो सकता है, िजस तरह क्षीर-समुद्र को खटाई की एक बूँद नाश नहीं कर सकती। तुम शान्त रहो।” उसी समय आकाशवाणी होती है-
“ अनुचित उचित काज कछु होई ।
समुझि करिय भल कह सब कोई ।।
सहसा करि पाछे पछताहीं ।
कहहिं वेद बुध ते बुध नाहीं ।।”
सहसा किसी काम को कर लेना ठीक नहीं, ऐसा सन्तजन कहते हैं। विद्वज्जन कहते हैं-किसी काम को करने के पूर्व ही उसकी लाभ-हानि, उचित-अनुचित आदि का विचारकर जो कार्य करता है, यह बुद्धिमत्ता कहलाती है। काम करते हुए सोचते जाना अथवा सोचते हुए कर्म करते जाना, यह उसकी सर्तकता कहलाती है।
आप सोचकर देखें, विचारकर देखें। हम जो कुछ भी कर्म करते हैं, उसमें जाने-अनजाने कुछ पुण्य, कुछ पाप, कुछ शुभ, कुछ अशुभ बन ही जाते हैं। शुभ कर्मों का फल सुख और अशुभ कर्मों का फल दुःख होता है।
महाराज युधिष्ठिर धर्मराज के अवतार थे, कभी झूठ नहीं बोले थे; किन्तु समय आता है, उनसे भी थोड़ी चूक हो जाती है। महाभारत के युद्ध-मैदान में वे कह देते हैं- “ आश्वत्थामा हतो, नरो वा कुञ्जरो।” इस झूठ का परिणाम हुआ कि महाराज युधिष्ठिर को नरक देखना पड़ा। इस तरह से हमसे जाने-अनजाने में कुछ-न-कुछ शुभाशुभ कर्म होते ही रहते हैं। ऐसा कोई नहीं है, जो कह सकता है कि मुझसे अशुभ कर्म हुआ ही नहीं, कुछ-न-कुछ होता ही है।
महाभारत के युद्ध-क्षेत्र में भीष्म पितामह शर-शय्या पर पड़े थे। इतने वाण उनके शरीर में लगे थे कि उनके शरीर का कोई भाग दो इंच से अधिक खाली नहीं था। उस दिन का युद्ध बन्द हो गया। कौरव पाण्डव आदि क्रम-क्रम से उनके दर्शनार्थ आने लगे। उसी क्रम में भगवान् श्रीकृष्ण भी वहाँ आये। भीष्म ने पूछा- “ कृष्ण! पूर्व के 100 जन्मों की बातें मुझे याद हैं। मुझसे पूर्व के 100 जन्मों में कोई भी ऐसा अशुभ कर्म नहीं बना है, जिनका परिणाम दुःख हो, फिर किस कर्म का मुझे आज भोगना पड़ रहा है।” भगवान् श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- “ राजन्! इस जन्म के पूर्व के 101वें जन्म में आप राजा थे। रथ पर सवार होकर आप जा रहे थे। कुछ दूर निकल चुके थे। साँप ने आपका रास्ता काट दिया था। आपने उस साँप को मारकर फेंकवा दिया था। साँप जाकर बबूल के पेड़ पर गिरा और बबूल के काँटें उसके शरीर में जहाँ-तहाँ चुभ गए। उस समय तक साँप के प्राण निकले नहीं थे। बाद में उसी बबूल के काँटे पर तड़प-तड़पकर उस साँप ने अपने प्राण छोड़े। उसी पाप का परिणाम है कि आप आज काँटों पर पड़े हैं।
“ कर भला होवे भला करके भलाई देख ले ।
कर बुरा होवे बुरा, करके बुराई देख ले ।।
बिन भजे भगवान के, जग में नाहीं गती ।
सो मती से तू अपनी विचारो सही ।।
आम चखना जो चाहै बबुल बोय के ।
धोय कज्जल सफेदी तो होती नहीं ।।”
अशुभ कर्मों का फल नरक और शुभ कर्मों का फल स्वर्ग होता है। लोग स्वर्ग तो जाना चाहते हैं, क्योंकि वहाँ सुख होता है। नरक जाना चाहते नहीं; क्योंकि वहाँ दुःख मिलता है; लेकिन हमारा किया हुआ जो शुभ वा अशुभ कर्म है, उस कर्म का फलोपभोग तो हमें करना ही पड़ेगा। उस कर्म-फल के भोग से हम वंचित कैसे रह सकते हैं? हमारी पाँच अंगुलियाँ में से जो अंगुली आग में पड़ जाएगी, घाव उसी अंगुली में होगा, दर्द उसी अंगुली में होगा, अन्य चार अंगुलियाँ में नहीं। इसी तरह जो कोई पाप करते हैं, उनको ही उसका फल भोगना पड़ता है। देहातों मे यह कहावत प्रसिद्ध है-
‘कोई करै आप लै, माई ने बाप लै ।’
न बाप भोगेंगे, न माई भोगेगी; न बेटा भोगेगा, न बेटी भोगेगी; न पत्नी भोगेगी, न पति भोगेगा। तात्पर्य यह कि किसी के किये पाप का फल दूसरा कोई नहीं भोगता। भोगना स्वयं ही पड़ेगा। अब सोचने की बात यह है कि पाप का फल नरक होता है और नरक में दुःख मिलता है। इसलिए हम भविष्य में पाप नहीं करें, ठीक है; लेकिन जो पहले का किया हुआ पाप है, उसका फल तो हमें भोगना ही पड़ेगा। उस पाप-कर्म के फल से हम कैसे बचेंगे? इसके उत्तर में निवेदन है, अभी आपलोगों ने सामवेद के पाठ सुना-
“ यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।1।।”
यदि कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान पाप हो, तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है। इसके समान पापों को नष्ट करनेवाला दूसरा कुछ नहीं है। हम जो आँखें बन्द करके देखते हैं, तो देखने से हमारे सामने अंधकार मालूम होता है। यह अंधकार ही पाप का पहाड़ है । वास्तव में कितना बड़ा है, कहा नहीं जा सकता। पाप के इस पहाड़ को अथवा अंधकार के विस्तृत क्षेत्र को पार करने के लिए साधक के समक्ष यह कितना बड़ा होता है, सन्त तुलसी साहब ने उसका परिणाम बताया है-
“ स्याम कंज लीला गिरी सोई ।
तिल परिमाण जान जन कोई ।।”
अर्थात् उस पाप को परिमाण तिल के समान है। उस पहाड़ को छेदता कौन है; भेदता कौन है? तो कहा-
“ सम सील लील अपील पेल ।
खेल खुलि-खुलि लखि परे ।।”
जो मनोनिग्रह का स्वभाववाला होगा, वही इस तिल को पार कर सकता है; वही इस काले पहाड़ को पार कर सकता है। यह कहने कि एक कला है। कहने की अपनी-अपनी कला भिन्न-भिन्न होती है।
कुरआन मजीद में यह बात कही गयी है; लेकिन अलंकारिक भाषा में। उसमें लिखा है-रात जब उसपर छा गई, तो उसने एक तारा देखा। कहा यह मेरा प्रभु है। मगर जब वह डूब गया, तो बोला-डूब जानेवाला का मैं अनुरागी नहीं हूँ। फिर जब चाँद चमकता दिखाई दिया, तो कहा-यह है मेरा प्रभु। किन्तु जब वह भी डूब गया, तो कहा-अगर मेरे प्रभु ने मुझे राह नहीं दिखाई होती, तो मैं भी पथभ्रष्ट लोगों में सम्मिलित हो गया होता। फिर जब सूर्य के प्रकाशमान देखा, तो कहा-यह सबसे बड़ा है।
(पारा-20, सुरा-9, अल-अनआम)
काला तिल है, यही काला पहाड़ है। गुरु निर्देशित स्थान पर जो अपने को स्थिर कर सकता है, उसको इसकी अनुभूति होती है। जो मनोनिग्रह का स्वभाववाला है, वही अंधकार को छेदकर भीतर आ जाता है। उसको एक तारा दिखाई देता है, जिस तारे के विषय में गुरु नानक साहेब कहते हैं-
“ तारा चड़िआ लंमा किउ नदरि निहालिआ राम ।
सेवक पुर करंमा सतिगुर सबदि दिखालिआ राम ।।”
अर्थात्-मैं तारे पर फाँदकर चढ़ गया। और क्या हुआ? तो कहा-
“ अंतरि जोति भई गुरू साखी, चीने राम करंमा ।
नानक हउम मारि पतीणे, तारा चड़िया लंमा ।।”
हमलोग किताब की गवाही देते हैं कि फलानी किताब में यह बात लिखी है; किन्तु गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-अंतःप्रकाश मिला, यह गुरु की साक्षी है; यही गुरु की गवाही है। कहने का तात्पर्य यह है कि गुरु ने कहा था-ऐसा करो, ऐसा होगा। गुरु ने जैसी क्रिया बतायी थी, वैसी साधना की, तो तारा मिला और प्रकाश हुआ। सन्त तुलसी साहब की वाणी पढ़िये, उसमें पाएँगे-
“ स्त्रुति ठहरानी रहे अकासा ।
तिल खिरकी में निसदिन वासा।।
गगन द्वार दिसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।”
सन्त तुलसी साहब कहते हैं-‘गगन द्वार दीसै एक तारा।’ आपने कुरान शरीफ में, गुरु नानकदेवजी के वचन में और सन्त तुलसी साहब की वाणी में तारे के संबंध में सुना। अब हमारे गुरुदेव का अनमोल बोल सुनें-
“ सूरति दरस करन को जाती,
तकती तीसरि तिल खिड़की ।।
जोति बिन्दु ध्रुवतार इन्दु लखि,
लाल भानु झलकी ।
बजत विविध विधि अनहद शोरा,
पाँच मंडलों की ।।1।।
सन्तमते का सार भेद यह,
बात कही उनकी ।
समझा ‘मेँहीँ’ लखा नमूना,
बात है सत हित की ।।2।।”
(महर्षि मेँहीँ पदावली)
तिल का रंग काला होता है और उजला भी; लेकिन काले तिल की मात्र अधिक होती है और उजले तिल की मात्र कम। साधक जब साधना करने के लिए बैठता है, तो उसको पहले काला तिल मालूम होता है। इस तिल पर जो कोई अपने को ठहराकर रख सकता है, तो काले तिल की जगह श्वेत तिल-सफेद तिल हो जाता है। तब वह सफेद तिल को देखता है। जैसे-जैसे दृष्टि और मन की स्थिरता होती जाती है, वैसे-वैसे शनैः-शनैः ज्योति, विन्दु, ध्रुवतारा और इन्दु के दर्शन होते हैं। यानी प्रकाशमय विन्दु के पश्चात् ध्रुवतारा मिलता है। उसके बाद इन्दु अर्थात् चन्द्रमा दीखता है। चन्द्रमा के बद जब साधक की और ऊँची गति होती है-आगे की चढ़ाई होती है, तब लाल भानु झलकी।’ मतलब लाल वर्ण का सूर्य दिखता है। लाल वर्ण सूर्य की चर्चा हम सन्त कबीर साहब की वाणी में पाते हैं-
“ त्रिकुटि महल में विद्या सारा ।
धनहर गरजै बजै नगाड़ा ।।
लाल बरन सूरज उजियारा ।
चत्र कमल मँझार शब्द ओंकारा है ।।”
यह सूर्य बाह्य आकाश का नहीं, अन्तराकाश का है; स्थूल जगत् का नहीं, सूक्ष्म जगत् का है। सन्त पलटू दासजी महाराज कहते हैं-
“ उस देश की बात मैं कहता हूँ,
आसमान के बीच सुलाख है जी ।
बादशाह उसी बीच में बैठा है,
सूझ पड़े बिनु आँख है जी ।।
सुर्ख तो उसका चेहरा है,
आफताब तसद्दुक लाख है जी ।
पलटू हू हू आवाज आवै,
उसमें मेरा दिल मुसताक है जी ।।”
अन्तर्मार्गी साधक आँखें बन्द करके जब अपने अन्तराकाश में गुरु-निर्देशित स्थान पर देखता है, तो उनको एक सुराख यानी छेद मिलता है; लेकिन इस छेद के भेद को कोई भेदी गुरु ही बता सकते हैं, दूसरे कोई नहीं बतला सकते हैं। यों तो सामान्य जन ऐसा समझते हैं कि आसमान तो खाली-ही-खाली है, फिर उसमें छेद कहाँ से आयेगा; लेकिन उसमें छेद है। उस छेद के भेद को जाननेवाला जानते हैं और जनाते हैं। “ बादशाह उसी बीच बैठा है, सूझ पड़ै बिनु आँख है जी।” सूझता तो है आँख से। जब आँख ही नहीं, तो सूझेगा क्या? लेकिन सन्त पलटू साहब कहते हैं- “ सूझ पड़ै बिनु आँख है जी!” सन्त कबीर साहब इसी से मिलती-जुलती बातें कहते हैं-
“ है कोई गुरु ज्ञान पंडित उलटि वेद बूझे ।
पानी में आग लगे अंधे को सूझै ।।”
यह बड़ी रहस्यमयी बात है। अन्तर्मुखी गुरु के जो साधनशील गुरुमुख शिष्य हैं, वे ही इस बात को जान सकते हैं। आप जब बाहर से अंधे हो जाएँगे, तभी वह सूझ पड़ेगा-दीख पड़ेगा। जबतक आप बाहर का दृश्य देखते रहेंगे-चाहे आँखें खोलकर देखिये, चाहे आँखें बन्द करके मनोमय दृष्टि से देखिए, नहीं देख सकेंगे। जब आपकी जाग्रत की दृष्टि, स्वप्न की दृष्टि और मनोमयी दृष्टि-ये तीनों प्रकार की दृष्टियाँ छूटेंगी, तब वह दिव्य दृष्टि खुलेगी। इन तीनों दृष्टियों के निरोध होने से दिव्य दृष्टि खुलती है, तभी ‘सूझ पड़े बिनु आँख है जी’ सम्भव हो सकेगा। पुनः पलटू साहब कहते हैं-‘आफताब तसद्दुक लाख है जी ।’ आफताब कहते हैं सूर्य को। बाह्याकाश के सूर्य में आप कितना प्रकाश देखते हैं! जबकि यह जड़ सूर्य है। और जो आपके अन्तराकाश में चैतन्य सूर्य है, उसका प्रकाश कितना और कैसा होगा? लाखों सूर्य के समान वह प्रकाशमान है। यह तो समझने के लिए उपमा दी गई है। वास्तव में उस अलौकिक तेज का वर्णन नहीं हो सकता। हमलोग प्रतिदिन तुलसी साहब की आरती का पाठ करते हैं-
‘कोटि भान छवि तेज उजाली ।’
अर्थात् करोड़ों सूर्य के समान उसका प्रकाश है; और हमारे परम पूज्य गुरुदेव क्या कहते हैं, उनकी स्वानुभूति-वाणी सुनिए-
“ जा सम्मुख या सूर्य अमित अंधार है ।
ऐसो सूर्य महान चन्द हद पार है ।।”
वे कहते हैं कि आपके अंदर में जो सूर्य है, उस सूर्य का जो प्रकाश है, उस प्रकाश के सामने इस स्थूलाकाश के सूर्य का प्रकाश अंधकारवत् है अर्थात् उस प्रकाश के सामने यह प्रकाश घोर अंधकारमय मालूम होता है। आपके अंदर में जो सूर्य प्रतिष्ठित है, वह कहाँ है? उत्तर है-‘चन्द हद पार है।’ साधनाकाल में साधक को सहस्त्रदलकमल में चन्द्र-दर्शन होते हैं और उसके आगे बढ़ने पर त्रिकुटी में सूर्य के दर्शन होते हैं। हमलोग नित्य पाठ करते हैं-
‘ओ3म् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य
धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।’
वह सविता क्या है? ‘सविता’ के अनेक अर्थों में एक अर्थ सूर्य भी होता है। वह सूर्य क्या है? बाह्य आकाश का वह सूर्य नहीं है, वह अन्तराकाश का सूर्य है।
एक ब्राह्मण देवता थे। वे अन्तस्साधना करते थे। अन्य ब्राह्मण जिस तरह बाह्य पूजा, अर्चन, वन्दन, तर्पण होम आदि करते थे, उस तरह वे नहीं करते थे। उनकी धर्मपत्नी जब अड़ोस-पड़ोस में घूमने-फिरने अथवा किसी कार्य-विशेष से जाती, तो उनसे अड़ोस-पड़ोस की महिलाएँ कहतीं- “ अरी! तुम तो ब्राह्मणी हो; लेकिन तुम्हारा विवाह शूद्र से हो गया है; क्योंकि तुम्हारे पति तो कभी संध्या-वंदन, पूजा-पाठ आदि कुछ करते नहीं हैं।” ब्राह्मणी घर लौटकर आती और सारी बातें पतिदेव को कहतीं। उनके पतिदेव सुनकर, मुस्कुराकर रह जाते, कुछ बोलते नहीं। इसी तरह कितने दिन बीत गए। उपालम्भ सुनते-सुनते बेचारी ब्राह्मणी तंग आ गयीं। पुनः एक दिन एक पड़ोसिन महिला ने उन्हें बहुत तरह से बहुत कुछ कह दिया। उस दिन बहुत दुःखी होकर, रो-रोकर अपने पतिदेव से कहने लगी- “ पतिदेव! मैं पड़ोसिनों का ताना सुनते-सुनते तंग आ गयी हूँ, आप भी और ब्राह्मणों की तरह संध्या-वंदन क्यों नहीं करते? ब्राह्मणोचित कर्म तो आपको करना ही चाहिए। मैं बराबर आपसे कहती हूँ, प्रार्थना करती हूँ; किन्तु आप मेरी बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं देते।” इसपर वे ब्राह्मण देवता बोले- “ देवी! तुम नहीं जानती हो और वे देवियाँ भी नहीं जानतीं, जो तुमको उपालम्भ देती रहती हैं। अरी! सुनो-
“ हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति ।
नास्तमेति न चोदेति कथं सन्ध्यामुपास्महे ।।”
(मैत्रेय्युपनिषद्)
अर्थ-हृदय-आकाश में चैतन्यरूप सूर्य बराबर उगा रहता है, न कभी अस्त होता है और न कभी उदय लेता है; संध्या कैसे करूँ।
संध्या किसको कहते हैं? जब रात्रि का अन्त होता है और दिन का प्रारम्भ होता है, तो उन दोनों की संधि-वेला को संध्या कहते हैं। इसी तरह जब दिन का अंत होता है और रात्रि का प्रारम्भ होता है, उसको भी संध्या कहते हैं तथा एक मध्याह्नकाल को भी संध्या कहते हैं। ये ही त्रिकाल-संध्याएँ हैं।
यह बाहर का सूर्य जड़ सूर्य है, जिसका उदय और अन्त होता है; किन्तु हमारे अंदर में चैतन्य सूर्य है, जो बराबर उगा ही रहता है। वह न तो कभी उगता है और न कभी डूबता है। जो कोई साधक अन्तस्साधना करता है, उसको अपने अंदर में चैतन्य-रूपी सूर्य के दर्शन होते हैं। जिस तरह बाहर के प्रकाश में बाहर के कीड़े-मकोड़े आ-आकर गिरते और जल-भुनकर समाप्त होते हैं, उसी तरह हमारे अंदर के प्रकाश में आन्तरिक कीड़े-काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, मात्सर्य आदि जल-भुनकर समाप्त होते हैं; सारे विकार विनष्ट हो जाते हैं। विकार-शून्य जन से उस तरह के कर्म नहीं हो सकते, जिनसे उनको दुःख वा नरक होगा।
इसलिए जो कोई ध्यान करते हैं, तो ध्यान करने से अन्तःप्रकाश मिलता है; उस प्रकाश को पाकर उनका मन उज्ज्वल-पवित्र हो जाता है। जो अंधकार में रहते हैं तो अंधकार का रूप है काला। इसलिए उनके काले कारनामे हों, इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है। अन्तस्साधना-द्वारा अन्तःप्रकाश पानेवाला का मन पवित्र हो जाता है। वह अपवित्र कर्म कैसे करेगा? अतः उससे ऐसे कर्म ही नहीं होंगे, जिनसे वह नरक भोगेगा। इसलिए ध्यान-योग में पापों का नाश होता है और कोई दूसरा उपाय नहीं है। इसलिए सामवेद का कहता है-‘भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।’
ऐसा उपाय, ऐसा यत्न अथवा ऐसी विधि हमको मिलनी चाहिए कि हम अंधकार से प्रकाश में कैसे जाएँगे। हम पाठ करते हैं-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय। असतो मा सद्गमय। मृत्योर्मा अमृतगमय।’ केवल पाठ करते रहने से हम न तो अंधकार से प्रकाश में जा सकते, न असत्य से सत्य में जा सकते और न मृत्यु के मुख से छूटकर अमृतत्व का लाभ कर सकते हैं।
उपर्युक्त महावाक्यों में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक तरफ तम है और दूसरी तरफ प्रकाश है। एक तरफ सत्य है, तो दूसरी तरफ असत्य है। एक तरफ मृत्यु है, तो दूसरी तरफ अमृतत्व है। मतलब यह कि जबतक हम तम में रहेंगे, तबतक असत्य में रहेंगे और मृत्यु के मुख में जाएँगे; और जब प्रकाश में जाएँगे, तो सत्य में रहेंगे और अमृतत्व की ओर जायेंगे।
अंधकार से प्रकाश में हम चले जायेंगे, ज्योति को प्राप्त कर लेंगे, तो असत्य से सत्य में चले जायेंगे और अमृतत्व को हम प्राप्त कर लेंगे।
इसलिए ऐसी क्रिया-विशेष हमको मिलनी चाहिए, जिससे हम अंधकार से प्रकाश में जा सकें।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन बदायूँ (उत्तरप्रदेश) में दिनांक 21-09-1995 ई0 को प्रातःकाल में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर 1996 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोगों ने मुक्तिकोपनिषद् का पाठ सुना; संत कबीर साहब की वाणी सुनी; संत दादू दयालजी महाराज का वचन सुना और परम पूज्य गुरुदेव की भी अमृतवाणी सुनने का आपलोगों को अवसर मिला। इन पाठों के अंदर क्या ज्ञान था, क्या सुनाया गया आपलोगों को, सुनाने की आवश्यकता क्यों जान पड़ी? समझने की एक बात है। मुक्तिकोपनिषद् का जो पाठ हुआ, उसमें मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को उपदेश दिया। जिस तरह श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था। जिस तरह भगवान के उस उपदेश को लोग गीता कहकर संबोधित करते हैं, उसी तरह मुक्तिकोपनिषद् भगवान श्रीराम की गीता है। जिज्ञासा होती है कि भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को और भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश दिया, इसकी आवश्यकता क्या थी? आज हम भगवान के नाम पर माला फेरते हैं; 108 माला पूरी करते हैं; हजार माला फेरते हैं; लाख माला फेरते हैं और संतुष्ट होते हैं कि भगवान का नाम मैंने इतना लिया। अगर कहीं स्वप्न में हमें भगवान के दर्शन हो जाएँ, तो अपने को हम कितना बड़ा भाग्यशाली समझेंगे? लेकिन जिन भगवान राम के साक्षात् दर्शन हनुमानजी को होते थे और जिन भगवान श्रीकृष्ण के साक्षात् दर्शन अर्जुन को होते थे, तो उनके साक्षात् दर्शन के बाद फिर अब उपदेश की क्या आवश्यकता रह गयी, दर्शन में ही तो काम तमाम हो गया? लेकिन नहीं। केवल स्थूल सगुण साकार रूप के दर्शन से काम पूरा नहीं होता। इसीलिए भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को और भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया। इतना ही नहीं। बंगाल के एक सुप्रसिद्ध संत हुए स्वामी रामकृष्ण परमहंसदेवजी महाराज। वे कालीजी के उपासक थे। कालीजी से उनका इतना घनिष्ठ संबंध था, जैसे माँ-पुत्र का संबंध हो। बातचीत करते थे रामकृष्ण परमहंसजी महाराज कालीजी से। वह मृण्मयी काली उनके लिए चिन्मयी काली थी। लेकिन जब संत तोतापुरीजी आये और परमहंसजी को देखा, तो उन्होंने कहा कि मैं तुमको ब्रह्मविद्या का उपदेश देता हूँ, ब्रह्मज्ञान की दीक्षा देता हूँ, लो। परमहंसजी ने कहा, ‘मैं पहले माँ से पूछ लूँगा। जब श्रीमाँ कहेंगी, तब मैं दीक्षा लूँगा।’ तोतापुरीजी ने कहा, ‘जाकर पूछ लो माँ से।’ परमहंसजी के ‘माँ’ कहने का तात्पर्य ‘श्रीकाली जी’ से था। परमहंसजी माँ काली के पास जाते हैं। माँ कालीजी से प्रार्थना करते हैं कि तोतापुरीजी आये हुए हैं। वे मुझको ब्रह्मविद्या का उपदेश देना चाहते हैं, दीक्षा देना चाहते हैं। आपकी क्या आज्ञा है?’ श्रीकालीजी ने कहा, ‘दीक्षा ले लो।’ आज चतुर्भुजी श्री माँ काली दक्षिणेश्वर में हैं। चारो भुजाएँ उनकी फैली हुई हैं। आँखें खुली हुई हैं। हम जाकर प्रणाम करें, माँ कालीजी के श्रीचरणों में और श्री माँ कालीजी जो आँखें खोलकर खड़ी हैं, वे मेरे प्रणाम करने के बाद एक बार आँखें बंद करके फिर खोल दें और हम उस दृश्य को देखें, तो हमारा हृदय कैसा होगा? अथवा उनकी जो चारो भुजाएँ फैली हुई हैं, हमारे प्रणाम करने पर उन चारो भुजाओं में से एक भुजा आशीर्वाद के रूप में हमारी ओर बढ़ जाए, तो हमारा हृदय कैसा होगा, हम अपने को कैसा समझेंगे? लेकिन जिस काली माँ के साथ बातचीत होती थी परमहंसजी महाराज की, फिर भी वह माँ कालीजी कहती हैं, ‘तोतापुरीजी से दीक्षा ले लो।’ दीक्षा की क्या आवश्यकता पड़ी? मतलब यह कि मात्र स्थूल सगुण साकार के दर्शन से ही कार्य पूरा नहीं होता। हम अपने इष्ट के सूक्ष्म सगुण साकार रूप को भी देखें। उनके सूक्ष्मतर सगुण निराकार रूप को भी देखें और उनके सूक्ष्मतम निर्गुण निराकार को भी देखें। तत्पश्चात् उनके आत्मस्वरूप को भी देखें, तभी कल्याण होगा। जबतक आत्मस्वरूप के दर्शन नहीं होंगे, परम कल्याण नहीं होगा। इसलिए भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को उपदेश दिया; भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया और माँ कालीजी ने परमहंसजी महाराज को तोतापुरीजी से दीक्षा लेने की आज्ञा दी।
मुक्तिकोपनिषद् में क्या उपदेश है? मुक्तिको- पनिषद् में मुक्ति-विषयक शिक्षा दी गयी है। मुक्ति प्राप्त करने की क्रिया बतलायी गयी है। किस तरह मुक्ति मिलती है? मुक्ति की आवश्यकता किसको है? जो बंधन में पड़ा हुआ है। जो भूखा है, उसको भोजन करने की आवश्यकता है। जो रोगी है, उसके लिए दवाई की आवश्यकता है। उसी तरह जो बंध-दशा में है, उसके लिए मुक्ति की आवश्यकता है। बंध-दशा में कौन है? हम सभी बंध-दशा में हैं। यों तो हमारे ऊपर कोई बंधन नहीं मालूम पड़ता; क्योंकि हम जब जहाँ जाना चाहते हैं, वहाँ चले जाते हैं। जब भोजन करना चाहते हैं, भोजन कर लेते हैं। जब सोना चाहते हैं, सो लेते हैं। बंधन क्या है? इसका स्पष्टीकरण संत राधास्वामी साहब करते हैं-
“ बंधे तुम गाढ़े बंधन आन ।।
पहला बंधन पड़ा देह का, दूजा बंधन तिरिया जान ।
तीसर बंधन पुत्र बिचारो, चौथा नाती मान ।।
नाती के कहि नाती होवै, तब कहो कौन ठिकान ।
धन संपत्ति और हाट हवेली, यह बंधन क्या करुँ बखान ।।
चौलड़ पंचलड़ सतलड़ रसरी, बाँध लियो बहु विधि तान ।
कैसे छूटन होय तुम्हारा, गहरे खूँटे गड़े निदान ।।
मरे बिना तुम छूटो नाहीं, जीते जी तुम सुनो न कान ।
जगत लाज और कुल की मरयादा, यह बंधन सब ऊपर ठान ।।
लीक पुरानी कभी न छोड़ो, जो छोड़ो तो जग की हान ।
क्या क्या कहूँ विपत मैं तुम्हारी, भटको जोनी भूत मसान ।।
तुम तो जगत सत्त कर पकड़ा, क्यों कर पावो नाम निशान ।
बेड़ी तोड़ हथकड़ी बाँधे, काल कोठरी कष्ट समान ।।
काल दुष्ट तुम्हें बहुविधि बाँधा, तुम खुश होके रहो गलतान ।
ऐसे मूरख दुख-सुख जाना, क्या कहुँ अजब सुजान ।।
शरम करो कुछ लज्जा जानो, नाहिं तो जमपुर का भोगो हान ।
‘राधास्वामी’ सरन गहो अब, तो कुछ पाओ उनसे दान ।।”
अगर शरीर नहीं हो, तो कोई बंधन नहीं। सोचिये, कितनी भी पेट में पीड़ा होती है, तो क्या देह छोड़कर हम पृथक रह सकते हैं? कितनी भी चिंता हमारे सिर पर आती है, फिर भी हम शरीर छोड़कर कहीं जा नहीं सकते। विपत्ति का पहाड़ हमारे ऊपर टूट पड़ता है, फिर भी इसी शरीर में हम घुलते रहते हैं, कहीं निकल नहीं सकते। वस्तुतः समस्त दुःखों का मूल कारण अपना शरीर है। शरीर होने के कारण ही अन्य बंधन पड़ते हैं। जैसा कि राधा स्वामी साहब ने कहा-
‘पहला बंधन पड़ा देह का, दूजा बंधन तिरिया जान ।’
यह पुरुष-पुरुष का संवाद है, इसीलिए दूसरा बंधन ‘तिरिया’ यानी स्त्री को बतलाया गया है। यदि कहीं मीराबाई और सहजोबाई में संवाद हुआ होता, तो वे कहतीं-
‘पहला बंधन पड़ा देह का, दूजा बंधन पुरुषा जान ।’
वस्तुतः जैसे पुरुष के लिए स्त्री बंधन है, वैसे ही स्त्री के लिए पुरुष बंधन है। तो बंधन से निर्बन्ध होने के लिए क्या किया जाए? क्या स्त्री पुरुष का परित्याग कर दे अथवा पुरुष स्त्री का परित्याग कर दे? इस विषय में संत पलटू साहब ने बड़ी कड़ी चेतावनी दी है। वे कहते हैं कि इस प्रकार के परित्याग से मुक्ति नहीं मिलेगी। मुक्ति तो तब मिलेगी, जब तुम पाँच-पच्चीस से परे हो जाओ; यथा-
“ यार फक्कीर तू पड़ा किस ख्याल में ,
पाँच पच्चीस संग तीस नारी ।
एक तुम छोड़िया तीस तेरे संग में ,
होय अस ज्ञान नर्क भारी ।।
तीस के कारने भीख तुम माँगता ,
एक ने कवन तकसीर पारी ।
दास पलटू कहै खेल या न बदो ,
छुटै जब तीस तो छोड़ प्यारी ।।”
कहने का तात्पर्य यह है कि पहला बंधन अपने शरीर का है। अतएव ऐसा उपाय हो जिससे हमको शरीर ही नहीं मिले। हमारे परम पूज्य गुरुदेव के वचन में आया है-
“ आवागमन सम दुःख दूजा, है नहिं जग में कोई ।
इसके निवारण के लिए, प्रभु-भत्तिफ़ करनी चाहिए ।।”
आवागमन के चक्र से हम छूट जाएँ, शरीर हमको मिले ही नहीं, फिर दुःख किसको होगा और बंधन में कौन पड़ेगा? जैसे केले का वृक्ष होता है देखने में वह एक मालूम पड़ता है; लेकिन केले के डमखोलों को हटाते जाइये। कई डमखोले हट जाएँगे। उसके बीच में एक ठोस पदार्थ रहता है, जिसमें फल लगता है। उसी तरह यह शरीर देखने के लिए एक है। यह भी केले के वृक्ष के समान है। स्थूल डमखोला, सूक्ष्म डमखोला, कारण डमखोला, महाकारण डमखोला; ये चार जड़ के डमखोले हैं। इसके बीच में कैवल्य है। उस कैवल्य में वह ठोस पदार्थ है। उसी के बीच में रहनेवाली चेतन आत्मा है। उसी चेतन आत्मा से परमात्मा की प्राप्ति होती है। चार जड़ शरीरों में रहकर परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है और जब परमात्मा की प्राप्ति होती है, तभी काम पूरा होता है। जैसे केले के पेड़ को काट देते हैं, तो फिर दूसरा केले का वृक्ष निकल आता है। इसी तरह यह स्थूल शरीर छूट जाने के बाद इसके अतिरिक्त फिर स्थूल शरीर हो जाता है। आवश्यकता है जड़ के चारो शरीरों को पार करके चैतन्यातीत अवस्था प्राप्त करने की।
“ स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण, कैवल्यहु के पार ।
सुष्मन तिल हो पिल तन भीतर, होंगे सबसे न्यार ।।
ब्रह्म-ज्योति ब्रह्म-ध्वनि को धरि-धरि, ले चेतन आधार ।
तन में पिल पाँचो तन पारा, जा पाओ प्रभु सार ।।”
जब पाँचो शरीरों को पारकर परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति होती है, तभी आवागमन का चक्र छूटता है, मुक्ति मिलती है। अन्यथा भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से जिन चार प्रकार की मुक्तियों का वर्णन किया, वे चार प्रकार की मुक्तियाँ वास्तव में मुक्तियाँ नहीं हैं; क्योंकि इन चार प्रकार की मुक्तियों में संसार में आना और जाना होता है। जैसे पहली मुक्ति है सालोक्य। जहाँ इष्टदेव रहते हैं, उसी लोक में वह सेवक भी रहता है। यानी सेवक और सेव्य दोनों एक ही लोक में रहते हैं। भगवान विष्णु के दरबार में जय और विजय नाम के दो द्वारपाल रहते थे। उन दोनों को शाप मिला, तो वे ही रावण और कुम्भकर्ण हुए, यह सालोक्य मुक्ति है। दूसरी सामीप्य मुक्ति है-अपने इष्टदेव की समीपता प्राप्त करनी। जहाँ इष्ट रहते हैं, वहीं उनके निकट वे भी रहते हैं। वह सामीप्य मुक्ति है। श्रीराम के साथ हनुमानजी थे। श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन थे। यह सामीप्य मुक्ति है। तीसरी है सारूप्य मुक्ति। जिस तरह का इष्ट का रूप होता है, उसी तरह का सेवक का भी। जैसे ‘गीध देह तजि धरि हरि रूपा।’ जटायु शरीर छोड़ता है और चतुर्भुजी रूप धारण कर वैकुण्ठ जाता है, जहाँ पर राजा दशरथ जी पहले गये हुए थे। भगवान श्रीराम जटायु से कहते हैं-
“ सीता हरन तात जनि, कहहु पिता सन जाइ ।
जों मैं राम त कुल सहित, कहहिं दसानन आइ ।।”
जटायु तुम वैकुण्ठ जा रहे हो, वहाँ पर पिताजी विराजमान हैं। सीता-हरण का समाचार पिताजी को नहीं देना। अगर मैं ‘राम’ हूँ, तो कुल-सहित रावण वहाँ जाकर कहेगा। मतलब यह कि राजा दशरथ वैकुण्ठ गये थे, वहाँ ही जटायु गया और मृत्यूपरान्त रावण भी परिवार-सहित वहाँ पहुँचा है। जटायु भगवान के चतुर्भुज रूप को धारण करके वहाँ जाता है। वह सारूप्य मुक्ति है। सायुज्य मुक्ति कुम्भकर्ण को मिली। उसके लिए रामचरितमानस में लिखा है कि जब उसका शरीर छूटता है, तो उसका तेज भगवान श्रीराम के वदन में प्रवेश कर जाता है। यथा-
“ तासु तेज प्रभु बदन समाना ।
सुर मुनि सबहिं अचम्भव माना ।।”
इसलिए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से कहा था-
“ चतुर्विधा तु या मुक्तिर्मदुपासनया भवेत् ।
इयं कैवल्यमुक्तिस्तु केनोपायेन सिध्यति ।।”
(मुक्तिकोपनिषद्)
ये चार प्रकार की जो मुक्तियाँ हैं, वे असली मुक्ति नहीं हैं। असली मुक्ति तो कैवल्य मुक्ति है। संतों को भी कैवल्य मुक्ति मान्य है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर महिमा नाम की, कहना कही न जाय ।
चार मुक्ति औ चार फल, और परम पद पाय ।।”
उपर्युक्त चार प्रकार की मुक्तियों के बाद पाँचवीं मुक्ति है, जिसको कैवल्य मुक्ति कहते हैं। इसके पश्चात् ही ‘निःशब्दं परमं पदम्’ की प्राप्ति होती है। यही परमात्म-पद है। जबतक परमात्म-पद को कोई प्राप्त नहीं कर ले, तबतक आवागमन के चक्र से नहीं छूटता। भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को यही शिक्षा दी। सच्छास्त्र कहता है-
‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः ।’
हमारा मन ही बंधन का कारण है और मुक्ति दिलानेवाला भी यही है। बंगाल के सुप्रसिद्ध संत श्रीरामकृष्ण परमहंसदेवजी महाराज ने कहा है-‘जिस कुएँ के जल से भूत उतारना हो, यदि उस जल में ही भूत का वासा हो, तो भूत उतरे कैसे? इसी तरह जिस मन से भगवद्भजन करना है, वह मन ही अगर विषय में रमण करता हो, तो भजन करेगा कौन?’ इसलिए अपने को विषय से निर्विषय की ओर ले जाओ। विषय से निर्विषय की ओर कैसे जाओगे, इसका यत्न जान लो। मन से ही वासना की उत्पत्ति होती है और वासना भी एक-दो नहीं, अनेक वासनाएँ उत्पन्न होती हैं। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ जेती लहर समुद्र की, तेती मन की दौर ।
सहजे हीरा नीपजै, जो मन आवै ठौर ।।”
समुद्र की उपमा देकर जब उनको संतोष नहीं हुआ, तो पुनः कहा-
“ समुँद लहर तो थोड़िया, मन लहरे घनियाय ।
केतिक आय समाइहैं, केतिक जाय बिसराय ।।”
सबेरे से संध्या-पर्यन्त कितनी लहरें उठती हैं, याद रहती है किसी को। क्या-क्या बातें, कितनी- कितनी बातें आती हैं, जिनका कोई ठिकाना नहीं। और समय की बात तो जाने दीजिए, जब ध्यान करने के लिए बैैठिये, तब देखिये, क्या-क्या लहरें उठती हैं, किस-किस जमाने की बातें मन में आती हैं। जिससे संबंध नहीं, उससे संबंध जुड़ जाता है। जिससे बातचीत नहीं, उससे भी बातचीत होने लग जग जाती है। जप करने के लिए बैठते हैं और गप करने लग जाते हैं। जब होश आता है, तो सोचते हैं कि हम तो जप-ध्यान करने के लिए बैठे थे और गप करने लग गये। ऐसा क्यों होता है? इसका मूल कारण हमारा अपरिमार्जित मन है। इसलिए कबीर साहब कहते हैं-
“ मन ही को परबोधिये, मन ही को उपदेश ।
जो यहि मन को वश करे, (तो) शिष्य होय सब देश ।।”
इस मन से ही काम लेना है। यह मन ही सब खुराफातों की जड़ है और मन ही हमको प्रभु की ओर अग्रसारित करेगा। जिज्ञासा होती है-हमारे मन में जो विविध भाँति बातें आती हैं, विविध लहरें उठती हैं। लहरें समाप्त कैसे होगीं? भगवान श्रीराम इसका समाधान करते हैं। वे कहते हैं-
“ द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने ।
एकसि्ंमश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः ।।”
हे हनुमानजी! चित्त-रूप वृक्ष के दो बीज हैं-प्राणस्पन्दन और वासना। इन दोनों में से एक के क्षीण हो जाने से दोनों ही नाश को प्राप्त होते हैं।
जैसे चना है। समूचा चना आप खेत में बो दीजिए, अंकुर निकल आएगा। पौधा हो जाएगा। फूल खिलेगा, फल हो जाएगा। उस चने छिलके को हटाकर देखिये। आप पायेंगे कि उसमें दो दालें हैं। जबतक वे दो दालें हैं, तबतक उससे अंकुर निकलेगा। उन्हीं दो दालों को आप दो जगह कर दीजिए। खेत में बो दीजिए। अंकुर नहीं निकलेगा। उसी तरह हमलोगों के अंदर चित्तरूप वृक्ष की दो दालें हैं। प्रथम प्राण-स्पंदन और द्वितीय वासना है। इन दोनों में एक-एक को क्षीण कीजिए, नाश कीजिए। प्राण-स्पंदन यानी प्राण का हिलना। हमलोग श्वास लेते और छोड़ते हैं, यह है प्राण-स्पन्दन। वासना अर्थात् इच्छा। प्राण-स्पन्दन-निरोध के लिए कितने आदमी हठयोग की क्रिया करते हैं। यह सर्वसाधारण के लिए संभव नहीं है। दूसरी क्रिया है-वासना का नियंत्रण लाना, वश में करना। यह राजयोग की क्रिया है। यह सबके लिए सरल, सुखद और निरापद है। हठयोग के लिए शांडिल्य उपनिषद् में लिखा है-
“ यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः ।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।।”
प्राणस्पन्दन-निरोध के लिए पूरक, कुम्भक और रेचक की क्रिया करते हैं अर्थात् श्वास खींचते हैं, रोकते हैं और छोड़ते हैं। यह बारम्बार करते हैं। यह क्रिया ऐसी होती है कि जितनी देर में वायु खींचते हैं, उससे चार गुनी देर तक उसको रोककर रखना पड़ता है और खींचने के दुगुने समय में वायु को निकालना होता है। इसमें अगर कहीं किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न हो जाए, तो उसके बुरे प्रभाव से शरीर और मस्तिष्क प्रभावित हो जाते हैं। वास्तविक बात यह है कि यदि यम-नियम का पालन यथार्थ रूप में होता है, तो यह कार्य सरलतापूर्वक सम्पन्न होता जाता है; क्योंकि यम-नियम और आसन-सिद्धि के पश्चात् प्राणायाम की क्रिया की जाती है। यम-नियम में हम कुशल हों, आसन हमारा सिद्ध हो गया हो, तब प्राणायाम हमारे लिए सरल हो जाएगा। यम-नियम का पालन नहीं हो, तो आसन-सिद्धि के बिना प्राणायाम सफल नहीं होगा। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि हठयोग की क्रिया सबके लिए सरल और सुगम नहीं है। सर्वसाधारण के लिए सहज और सरल है-ध्यानयोग। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ सहज ध्यान धरु सहज ध्यान धरु गुरु के वचन समाइ हो ।
मैली चित्त चराचित राखो रहो दृष्टि लौ लाई हो ।।”
यह ध्यान की क्रिया है। ध्यानयोग की क्रिया में बिना प्रयास के प्राण-स्पन्दन रुद्ध हो जाता है और मन की चंचलता दूर हो जाती है।
“ दृष्टि युगल कर अंगुल द्वादश पर दृढ़ थिर धरु ठहराई ।
प्राणस्पन्द बन्द होइ जाई, मनहु तजइ चंचलाई ।।”
मन की चंचलता को दूर करने के लिए हठयोगी प्राणायाम-द्वारा प्राण-स्पन्दन निरुद्ध करते हैं और राजयोगी का ध्यान द्वारा बिना प्रयास के स्वतः प्राण-स्पन्दन निरुद्ध हो जाता है। उसके लिए उसको कोई पृथक् क्रिया करनी नहीं पड़ती। भगवान श्रीराम हनुमानजी से कहते हैं कि उपर्युक्त दोनों क्रियाओं में से एक करो। अब भगवान श्रीराम श्रीहनुमानजी को ध्यान की वह सरल क्रिया बतलाते हैं, जिससे इन्द्रिय- निग्रह, मनोजय, वासना-क्षय और आत्मज्ञान द्वारा मुक्ति मिलती है।
“ एकतत्त्वदृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ।।
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः ।
पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः ।।”
(मुक्तिकोपनिषद्)
जबतक मन नहीं जीता गया हो, तबतक एक तत्त्व के दृढ़ अभ्यास से चित्त एवं अहंकार को पूर्ण रूप से नष्ट करके इन्द्रिय शत्रु को निग्रह करना। ऐसा होने से हेमन्तकाल के कमल-सदृश भोग-वासना का नाश हो जायगा। तथा-
“ चित्तैकाग्र्याद्यतो ज्ञानमुक्तं समुपजायते ।
तत्साधनमथो ध्यानं यथावदुपदिश्यते ।।”
ध्यान का कारण, जिससे ज्ञान तथा मुक्ति उपजती है, मन की एकविन्दुता (चित्त की एकाग्रता) है, अब तुमको जना दिया गया। एक तत्त्व क्या है? दृष्टि-साधन की क्रिया द्वारा एकविन्दुता की प्राप्ति होती है। उस अणोरणीयाम् ज्योतिर्मय विन्दु का ध्यान एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास है। आगे चलकर भगवान अंतस्साधना की एक विशेष विधि बतलाते हैं, जिससे ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है।
“ दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः ।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम् ।।”
हे कपिशार्दूल ! दृश्य और अदृश्य को त्यागकर (पुरुष) कैवल्य-स्वरूप हो जाता है। वह केवल ब्रह्मज्ञानी नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्म ही है। दर्शन दृष्टियोग की क्रिया है और अदर्शन नादानुसंधान की। इसी दर्शन और अदर्शन को बौद्ध ग्रंथ में ‘एकांगी समाधि’ और उभयांगी समाधि की संज्ञा दी गयी है। इस संदर्भ में उनका कथन है कि एकांगी समाधि में दिव्य दर्शन होते हैं और उभयांगी समाधि में दिव्य दर्शन और दिव्य श्रवण भी होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को देखने की एक क्रिया विशेष बतलाते हैं। ‘सम्प्रेक्ष्य’ यानी देखो। किस तरह? दिक्शून्य हो नासिकाग्र में।
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
यही उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को दिया है। देखिये, श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 11, अध्याय 14 श्लोक 32-
“ सम आसन आसीनः समकायो यथासुखम् ।
हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्र कृतेक्षणः ।।”
सद्ग्रंथों में नासाग्र, नासिकाग्र, भ्रुवोर्मध्य आदि कहकर जो ध्यान की ओर आकर्षित किया गया है, वे तीनों तीन नहीं, एक ही है। वही ध्यान भगवान महावीर ने बतलाया, जिसको ‘प्रेक्षा ध्यान’ कहते हैं। ‘प्रेक्षण’ यानी देखना। और यही ध्यान भगवान बुद्ध ने बतलाया, जिसको विपश्यना की संज्ञा दी गयी। पश्यन अर्थात् देखना। सभी संत और सद्ग्रंथ देखने की प्रेरणा करते हैं; किन्तु देखने की कला है, जिसका यथार्थ ज्ञान क्रियान्वयन शुद्धाचारी से ही मिल सकता है। कुरानशरीफ में बड़ी ही अलंकारिक भाषा में यह प्रसंग आया है। उसमें लिखा है कि अल्लाह ने मूसा से कहा कि तुम मुझको देख नहीं सकते। तुम पहाड़ को देखो। मूसा पहाड़ को देखने लग गया। देखते-ही-देखते पहाड़ चूर-चूर हो गया। एक तारा निकल आया। मूसा तारे को देखने लग गया। देखते-ही-देखते वह तारा विलीन हो गया। चन्द्रमा का उदय हो आया। मूसा ने कहा कि उससे यह बड़ा है। चन्द्रमा को देखते- देखते वह भी विलीन हो, तो मूसा ने कहा कि जो विलीन होता है, वह खुदा नहीं है। फिर सूर्य निकल आया। मूसा ने कहा कि उससे यह विशेष है। अब समझने की बात यह है कि मूसा ने कौन-सा पहाड़ देखा, जो चूर-चूर हो गया। संत तुलसी साहब ने कहा-
“ स्याम कंज लीला गिरि सोई ।
तिल परिमान जान जन कोई ।।
छिन छिन मन को तहाँ लगावै ।
एक पलक छूटन नहिं पावै ।।
स्त्रुति ठहरानी रहे अकासा ।
तिल खिरकी में निसदिन वासा ।।
गगन द्वार दीसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।”
स्याह के बाद सफेद होकर तारा झलकेगा। संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के वचन में आप पायेंगे-
“ छट-छट छट-छट बिजली छटकै,
भोर का तार दिखाता है ।
चन्दा उगत उदय हो रविहू,
धूर शब्द मिल जाता है ।।”
इस प्रकार साधक को अंतराकाश में तारे, चन्द्र और सूर्य के दर्शन होते हैं। प्रभु प्राप्ति का यही एक रास्ता है। बाइबिल में लिखा है, ‘सकेत फाटक से प्रवेश करो। क्योंकि चौड़ा है वह मार्ग, जो मृत्यु को पहुँचाता है और संकीर्ण है वह मार्ग जो जीवन को पहुँचाता है।’ यही संकीर्ण मार्ग सूक्ष्म रास्ता है। दसवें द्वार होकर प्रवेश करना पड़ता है। इसी सूक्ष्म मार्ग को संत कबीर साहब ने ‘झीना मार्ग’ कहा है-भक्ति का मार्ग झीना रे।
महीन रास्ता है। इस भक्ति के रास्ते से जो चलता है, उसी को मुक्ति मिलती है। जबतक इस भक्ति के मार्ग को कोई नहीं पकड़ता, तबतक किसी को मुक्ति नहीं मिलती। सच्ची मुक्ति इसी में मिलती है। सूक्ष्म मार्ग की चर्चा हम गुरु नानकदेवजी महाराज के वचन में पाते हैं।
‘खन्निअहु तीखी बालहु नीकी, एतु मारगि जाना ।’
एक महात्मा कहते हैं-एक बाल के हजार भाग कीजिए, वह कितना महीन होता है। उस द्वार से प्रवेश करने पर अंतःप्रकाश मिलता है। ‘जोति झकाझक कीनी।’ अर्थात् प्रकाश मंडल में पहुँच जायेंगे। भगवान बुद्ध के वचन में आया है-
‘हंसादिच्च पथे यन्ति आकाशे यन्ति इद्धिया ।’
अर्थात् हंस सूर्य के रास्ते पर जाते हैं और ऋद्धि से योगी आकाश में गमन करते हैं। बौद्ध जगत् के एक बड़े अच्छे विद्वान भिक्षु जगदीश काश्यप थे। बड़ी प्रतिष्ठा थी उनकी। भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जब कभी बौद्ध देश में जाते थे, तो वे इनको साथ ले जाते थे। काश्यपजी बालब्रह्मचारी थे। परम पूज्य गुरुदेव से उन्होंने दीक्षा ली थी। वे संतमत के संबंध में मुझसे कुछ-न-कुछ पूछा करते थे, मैं भी बुद्ध धर्म के संबंध में उनसे पूछा करता था। एक दिन मैंने पूछा कि बौद्ध ग्रंथ में ‘एकांगी समाधि’ और ‘उभयांगी समाधि’ की चर्चा आयी है। यह क्या है? इसपर प्रकाश डाला जाए। काश्यपजी ने पूछा कि एकांगी समाधि और उभयांगी समाधि के संबंध में क्या लिखा हुआ है? कहाँ पढ़ा आपने? मैंने कहा,‘आपने ही जो त्रिपिटक का अनुवाद किया है, उसी में यह है।’ उन्होंने पूछा,‘इस संबंध में और क्या लिखा है?’ मैंने कहा, ‘हाँ! कुछ लिखा तो है। एकांगी समाधि उसको कहते हैं, जिसमें दिव्य दर्शन होते हैं और दिव्य श्रवण नहीं होता। उभयांगी समाधि उसको कहते हैं, जिसमें दिव्य दर्शन होते हैं और दिव्य श्रवण भी। वह क्या है? उन्होंने कहा, ‘मैंने इसपर मनन नहीं किया है। यदि इस विषय में आप कुछ कह सकते हैं, तो कहें।’ मैंने कहा, ‘दृष्टियोग की क्रिया के बाद दिव्यदृष्टि खुलती है, तो दिव्य दर्शन होते हैं और नादानुसंधान की क्रिया में दिव्यनाद श्रवण होता है। नादानुसंधान की स्तुति श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी ने इस भाँति की है-
“ नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां
मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं
विलीयते विष्णु पदे मनो मे ।।”
अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भगवान श्रीराम ने ‘दर्शन और अदर्शन’ कहकर जिस ओर इंगित किया है, भगवान बुद्ध ने ‘एकांगी और उभयांगी’ कहकर उसी ओर का संकेत किया है। अतएव दोनों के वचनों में साम्य है। दृष्टियोग की क्रिया के सहारे साधक रूप-ब्रह्मांड को पार करता है और नादानुसंधान करके वह अरूप ब्रह्मांड को पार कर जाता है। तब ‘निःशब्दं परमं पदम्’ हो जाता है। वहाँ परम प्रभु परमात्मा से मिलकर एक हो जाता है। यह एकांगी और उभयांगी समाधि की विशेषता है।’ यह सुनकर काश्यपजी बड़े प्रसन्न हुए। यही भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को उपदेश दिया है कि दृष्टियोग की क्रिया करो। दृष्टियोग से वासना क्षीण हो जाती है, समाप्त हो जाती है। साधना में अग्रसर होने पर मन, बुद्धि आदि इन्द्रियाँ छूट जाती हैं, उसके आगे चेतन की गति होती है। संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ सहस कँवल दल पार में, मन बुद्धि हिराना हो ।
प्राण पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो ।।”
रूप-ब्रह्मांड के परे अरूप ब्रह्मांड में केवल नाद-ही-नाद है।
“ आगे शून्य समाधि, नाद ही नाद की ।
लहै सन्त का दास, जाहि सुधि आदि की ।।
मीठी मुरली सुनै सुरत के कान से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ बड़ा कौतुहल होइ ,
ध्वनिन के ध्यान से ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
अंतर्नाद की साधना करते-करते अंत में आदिनाद-सारशब्द मिलता है, जो जगदाधार से मिलाकर भव पार कर देता है।
“ नाद सों नादों में चलि धरु प्रणव सत ध्वनि सार रे ।
एक ओम् सत नाम ध्वनि धरि मेँहीँ हो भव पार रे ।।”
जब कैवल्य मंडल में रहता है, वहाँ परमात्मा के दशर््ान होते हैं; किन्तु स्पर्शन नहीं होता है। वहाँ द्वैत भाव रहता है। साधक दृष्टियोग और नादानुसंधान की साधना द्वारा दर्शन और अदर्शन; दोनों को पार कर जाते हैं। ‘निःशब्दं परमं परम्’ में जाकर परमात्मा से मिलकर एकमेक हो जाते हैं। मुण्डकोपनिषद् में लिखा है-
“ यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।”
जिस प्रकार निरन्तर बहती हुई नदियाँ अपने नाम-रूप को त्यागकर समुद्र में अस्त हो जाती हैं, उसी प्रकार विद्वान नाम-रूप का सहारा लेकर अनामी अरूपी परमात्मा से जा-मिलकर तादात्म्य प्राप्त कर लेते हैं। फिर उसका आवागमन नहीं होता। मुक्ति यहाँ मिलती है। संतों के ज्ञान में मुक्ति जीवनकाल में मिलती है। ऐसा नहीं कि मरने के बाद मुक्ति मिलती है। संतों ने जीवनकाल की मुक्ति को ही असली मुक्ति कहा है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ जीवत मुक्त सो मुक्ता हो ।
जब लग जीवन मुक्ता नाहीं,
तब लग दुख सुख भुक्ता हो ।।”
और भी,
“ साधो भाई जीवत ही करो आसा ।।टेक।।
जीवत समुझै जीवत बूझै, जीवत मुक्ति निवासा ।
जियत करम की फाँस न काटी, मुए मुक्ति की आसा ।।
तन छूटे जिव मिलन कहत है, सो सब झूठी आसा ।
अबहुँ मिला सो तबहुँ मिलैगा, नहिं तो जमपुर वासा ।।
दूर दूर ढूँढ़ै मन लोभी, मिटै न गर्भ तरासा ।
साध सन्त की करै न बंदगी, कटे करम की फाँसा ।।
सत्त गहै सतगुरु को चीन्है, सत्तनाम विश्वासा ।
कहै कबीर साधन हितकारी, हम साधन के दासा ।।”
जीते-जी मुक्ति मिलनी चाहिए। गो0 तुलसी दासजी महाराज को भी यही मान्य है-
“ सुनि समुझहिं जन मुदित मन, मज्जहिं अति अनुराग ।
लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाजु प्रयाग ।।”
अर्थात् अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष; इस शरीर के रहते ही पा लेता है। संत दादू दयालजी महाराज कहते हैं-
“ जीवत छूटै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ ।
जीवत काटै कर्म सब, मुकति कहावै सोइ ।।
जीवत जगपति कौं मिलै, जीवत आतम राम ।
जीवत दरसन देखिये, दादू मन विसराम ।।
जीवत मेला ना भया, जीवत परस न होइ ।
जीवत जगपति ना मिले, दादू बूड़े सोइ ।।
मूआँ पीछैं मुकति बतावैं, मूआँ पीछैं मेला ।
मूआँ पीछैं अमर अभै पद, दादू भूले गहिला ।।”
इसलिए जीवन काल में जिससे मुक्ति मिले, ऐसी साधना करनी चाहिए। शिवगीता में लिखा है-
“ मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति ग्रामान्तरमेव वा ।
अज्ञान हृदय ग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ।।”
मोक्ष ऐसी वस्तु नही जो किसी स्थान पर रखी हुई हो। उसके लिए किसी गाँव में, किसी प्रदेश में-कहीं जाने की जरूरत नहीं है। हृदय की अज्ञान-ग्रंथि जहाँ नष्ट हो जाए, वहीं पर मुक्ति है, कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है।
संत पलटू साहब कहते हैं-
“ मुक्ति मुक्ति सब खोजत है,
मुक्ति कहो कहँ पाइये जी।
मुक्ति को हाथ औ पॉव नहीं,
किस भाँति सैति दिखलाइये जी।
ज्ञान ध्यान की बात बूझिये,
या मन को खूब समझाइये जी।
पलटू मुए पर किन्ह देखा,
जीवत ही मुक्त हो जाइये जी।।”
इसलिए संतों ने जीवनकाल की ही मुक्ति की मान्यता दी है। यह साधना हमलोगों को करनी है चाहिए। जीवनकाल में ही मुक्ति लाभ करनी चाहिए। संतों का थोड़ा-सा ज्ञान आपलोगों को सुनाया।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन संतमत-सत्संग आश्रम, ग्राम-राजपुर खुर्द, नई दिल्ली राज्य के तृतीय वार्षिक अधिवेशन के शुभ अवसर पर दिनांक 14-10-1995 ई0 के प्रातःकालीन
सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 1995 ई0)
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आदरणीय साधकवृन्द, समादरणीय सज्जनवृन्द, समादरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों ने सुना-अविवेकी के लिए शास्त्र भार है। रागी के लिए ज्ञान भार है। जो आत्म-ज्ञानी नहीं है, उसके लिए शरीर भार है। गोस्वामीजी ने लिखा है-‘बिनु सत्संग विवेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।’ बिना सत्संग के विवेक नहीं होता। जबतक विवेक नहीं होता, सारासार का ज्ञान नहीं होता। कर्त्तव्याकर्त्तव्य निर्णय के बिना अकत्तर््ाव्य कर्म भी किए जाते हैं, जिनका परिणाम दुखद होता है। जिन्होंने शास़्त्रें को पढ़ा है; किन्तु उनके अनुकूल आचरण नहीं करते, तो उनके लिए वे भार स्वरूप हैं। मुक्तिकोपनिषद् में भगवान श्रीराम का उपदेश है, जो कि उन्होंने हनुमानजी को दिया है-
“ अधीत्य चतुरो वेदान्सर्वशास्त्रण्यनेकशः ।
ब्रह्मतत्त्वं न जानाति दर्वी पाकरसं यथा ।।”
जिसने चारो वेदों और छहों शास्त्रें को पढ़ा हो; लेकिन ब्रह्मतत्त्व नहीं जाना हो, तो पके हुए भोजन के स्वाद को नहीं जाननेवाला कलछुल के तुल्य है। जानने का मतलब एक तो अपरोक्ष ज्ञान होता है और दूसरा परोक्ष ज्ञान। पहले परोक्ष ज्ञान होता है, पीछे साधना द्वारा अपरोक्ष ज्ञान होता है। पहले सुनकर जानते हैं और फिर साधना करके उसकी प्रत्यक्षता करते हैं। केवल सुना ही है अथवा अध्ययन ही किया है; किन्तु उसको आचरण में नहीं लाया है, तो वह ज्ञान भारस्वरूप है। कबीर साहब का वचन है-‘पंडित लादे बैल।’ जैसे बैल की पीठ पर बहुत-सी ज्ञान की पुस्तकें लदी हैं, पुस्तकें लदी रहने पर भी वह बैल ज्ञान की बात नहीं बोल सकता है। संत कबीर साहब की दृष्टि में जिसने शास्त्र अध्ययन किया है; परन्तु तदनुकूल वह आचरण नहीं करता है, तो वह भी वह बैल के ही समान है। दोनों में अन्तर इतना ही है कि एक वह बैल है, जो बोलता नहीं है। दूसरा वह बैल है, जो बोलता है। जिसने श्रवण किया, अध्ययन किया, मनन किया और उसको आचरण में लाया, वह वस्तुतः पंडित है। इसलिए अविवेकी के लिए शास्त्र भार है। पढ़ लिया; किन्तु विवेक नहीं है, विचार नहीं है, व्यवहार नहीं है। बहुत ज्ञान सीख लिया, कहते समय बहुत बातें कहते हैं; लेकिन आचरण में कुछ भी नहीं आता है। रागी के लिए ज्ञान भार हे। कहते रहिए। जो तेल-घीवाला बर्तन होता है, उसपर पानी डालते रहिए, फिसलता जाएगा, पानी उसपर टिकेगा नहीं। उसी तरह जो विषयानुरागी है, उसको आत्म-ज्ञान की बात कहिए, ब्रह्मज्ञान की बात कहिए, सदुपदेश की बात कहिए, कुछ असर नहीं पड़ता। जबतक आत्मज्ञान प्राप्त नहीं है, तबतक शरीर के बंधन में पड़े रहते हैं। यह शरीर भी भारस्वरूप है। आवश्यकता है शास्त्र-ज्ञान की, सद्ग्रन्थों के अध्ययन-मनन की, उसके आचरण की यानी साधना करके उसको प्रत्यक्ष करने की। अगर प्रत्यक्षता नहीं होती है, साधना हम नहीं करते हैं, व्यवहार में नहीं लाते हैं, तो वह भारस्वरूप है। इसलिए सत्संग किया जाता है। हमलोग सुनें, समझें, विचारें और करें। बंगाल में एक संत हुए श्रीरामकृष्णदेवजी महाराज। उनसे किसी ने पूछा कि हम तो देखते हैं-लोग ज्ञान की बहुत-बहुत बातें करते हैं; लेकिन जब आचरण में देखते हैं, तो कुछ भी नहीं पाते हैं। ऐसा क्यों होता है? श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने उत्तर दिया-जो वाचक ज्ञानी होते हैं, वे ऐसे ही होते हैं। गिद्ध और चील आकाश में बहुत ऊँचाई पर उड़ते हैं; किन्तु ऊँचाई पर उड़ते हुए भी उनकी दृष्टि नीचे पड़ी हुई लाशों पर रहती है। उसी तरह जो आचरण में उतारते नहीं हैं, केवल वचन में ही कुशल हैं, उनकी नजर कामिनी-कांचन पर रहती है और बात वे बहुत ऊँचाई की करते हैं। मतलब कहने का यह है कि संत वचन पर जोर डाला गया है- श्रवण-मनन के पश्चात् आचरण करने पर। जबतक हम आचरण नहीं करेंगे, मोक्ष का द्वार पर नहीं जायेंगे। जिस द्वार से हम प्रभु के पास जा सकते हैं, जिस द्वार में प्रवेश कर हम जग-बंधन से छूट सकते हैं, उसी के लिए बतलाया गया हैै। वह है मोक्ष का द्वार। उस मोक्ष के द्वारपर चार द्वारपाल हैं। जबतक आप द्वारपाल को राजी नहीं कीजिएगा, वह फाटक नहीं खोलेगा, भीतर आप जा नहीं सकते। मोक्ष के द्वार पर चार द्वारपाल हैं, वे कौन-से हैं?
‘शमो विचारः संतोषश्चतुर्थः साधुसंगमः।’
ऐसा लगता है, जैसे गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने इसी का भाषानुवाद किया है-
“ शम सन्तोष विचार विमल अति ,
सत्संगति ये चारि दृढ़ करि धरु ।
जौं मन भजा चहे हरि सुरतरु ।।”
शम = मनोनिग्रह। जब दम कि साधना होती है, तो उसमें इन्द्रिय और मन; दोनों की साधना होती है। और जब शम की साधना होती है, तो केवल मन की साधना होती है। जब हम दृष्टियोग की क्रिया करते हैं, तो उसमें शम-दम दोनों की साधना होती है और जब नादानुसंधान की क्रिया करते हैं, तो उसमें मनोनिग्रह की साधना होती है यानी केवल मन की साधना होती है। महोपनिषद् कहता है कि अगर आप प्रभु के दरबार में जाना चाहते हैं, तो शम की साधना कीजिए। जो शम की साधना करते हैं, वे ही साधना में बढ़ते-बढ़ते एक दिन सम को प्राप्त करते हैं अर्थात् समता प्राप्त करते हैं।
‘सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।’
यह समता-ज्ञान जबतक कोई शम की साधना नहीं करे, नादानुसंधान नहीं करे, तबतक नहीं होगा। नादानुसंधान की क्रिया करने के लिए पहले दम की साधना है यानी दृष्टियोग की साधना है। और उस दम की साधना में योग्यता लाने के लिए पहले मानस जप और मानस ध्यान की क्रियाएँ की जाती हैं, ये क्रमिक साधनाएँ हैं। तो शास्त्र कहता है कि सम की साधना अर्थात् मनोनिग्रह की साधना करो। मोक्ष-द्वार पर जो चार द्वारपाल बतलाए गये, उनमें पहला है-शम और दूसरा है-विचार। विचार किसको कहते हैं?
“ को मैं आया कहाँ से, कित जाना क्या सार ।
को मम जननी को पिता, या को कहिये विचार ।।”
हम कौन हैं? कहाँ से आये हैं? संसार में आते तो सब हैं, देखते हैं कि सब-के-सब आये हुए हैं; लेकिन आये कहाँ से हैं, कुछ पता नहीं है। और आए हैं, तो शरीर को देखते हैं, आये हैं। और शरीर में जो जीव है, वह कहाँ से आया है, इसका भी कुछ पता नहीं है। कबीर साहब ने कहा है-
“ वा घर की सुधि कोइ न बतावे ।
जा घर से जीव आया हो ।।”
जिस घर से जीव आया है, उसका पता कोई नहीं बताता है। जिस घर से आया, उसका पता ही नहीं है, तो बेचारा जाएगा कहाँ? इसलिए यह जानना आवश्यक है कि हम कौन हैं? हम आये कहाँ से हैं? जाना कहाँ है? सार क्या है? कौन मेरी माता है और कौन मेरे पिता हैं? इनका जो ज्ञान है, यही विचार है। हम निःशब्द से शब्द में, शब्द से प्रकाश में, प्रकाश से अन्धकार में आ गए हैं। थे वहाँ, आ गये यहाँ। अब जाना है वहाँ, तो उलटना होगा।
“ उलटि पाछिलो पैंड़ौ पकड़ो, पसरा मना बटोर ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, तब पैहौ निज ठौर ।।”
उलटो अर्थात् बहिर्मुख से अन्तर्मुख होओ। नौवें द्वार से दसवें द्वार में जाओ, वही मोक्ष-द्वार है। जबतक मन पसरा हुआ रहेगा तबतक विषयोन्मुखी मन रहेगा। जब समेटा जाएगा, तो विषय से निर्विषय की ओर चलेंगे। इसलिए-
“ तू उतरि पर्यो तम माहिं, पीव निःशब्द में ।
याते पड़ि गयो दूर, चलो निःशब्द में ।।”
चलना है, किस तरह चलना है? जिस तरह से मकड़ी छत से एक धागे के सहारे नीचे जमीन पर चली आती है। वही मकड़ी जब छत पर जाना चाहे, तो क्या आधार है उसके पास में? वही सूता आधार है। उसी सूते के आधार से चलते-चलते मकड़ी छत पर चली जाती है। उसी तरह से शब्द-धार पर सवार होकर हम इस संसार में आ गए हैं। अब हमको संसार से पार होना है, तो फिर उसी शब्द-धार को आधार बना सर्वाधार तक चले जाएँगे। उस शब्द-धार को कहाँ पकड़ेंगे? इसी संदर्भ में संत तुलसी साहब ने कहा है- “ तिल परमाने लगे कपाटा ।
मकर तार जहँ जीव का बाटा ।।
इतना भेद जाने जो कोई ।
तुलसी दास साध है सोई ।।”
उसी मकड़ी की तरह तार को पकड़ना है। वस्तुतः वह तार शब्द-धार है। सन्त राधास्वामी वचन में आया है-
“ शब्द सुरत दोउ धार समान ।
पुरुष अनामी के यह प्राण ।।
चेतनता सब इनकी मान ।
शब्द बिना कोइ और न आन ।।”
इसलिए-
“ शब्द कमाई कर हे मीत ।
शब्द प्रताप काल को जीत ।।”
कहने का तात्पर्य यह है कि शब्द-साधना ही शम की साधना है। उस शम की साधना करो। जिज्ञासा है-‘कित जाना?’ उत्तर में निवेदन है-जहाँ से आए हैं, वहाँ जाना है। सार क्या है? संसार असार है। संसार के पार में सर्वेश्वर-सर्वाधार ही सार है। इस संसार-सागर को पार कराने के लिए संत सद्गुरु की आवश्यकता है। सन्त राधास्वामी साहब कहते हैं-
“ भव सागर धारा अगम, खेवटिया गुरु पूर ।
नाव बनाई शबद की, चढ़ि बैठे कोई सूर ।।”
संसार-सागर की अगम धार को पार करने के लिए कुशल मल्लाह चाहिए। इसलिए कहा है-‘खेवटिया गुरू पूर।’ जो पूरे गुरु हैं, जो कामिल मुर्शिद हैं, वे ही पार करा सकते हैं, दूसरे नहीं । सन्त तुलसी साहब के वचन में आया है-
“ मुर्शिदे कामिल से मिल, सिद्क और सबूरी से तकी । जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिए ।।”
सुषुम्ना में जाने का मार्ग-दर्शन वे ही करेंगे, इसीलिए ऐसे गुरु के पास जाओ। जो कोई उनकी बताई रीति से चलते हैं, वे ही मोक्ष के द्वार में प्रवेश करके मोक्ष प्राप्त करते हैं।
‘शमो विचारः सन्तोषः ।’
सन्तोष होना चाहिए। हाय-हाय लगे रहने से काम नहीं चलेगा। जितना हो बटोरते जाओ, बटोरते जाओ, उसमें आसक्ति होती है और अशान्ति बढ़ती है। कुछ खर्च भी करो। हमारे गुरु महाराज कहते थे कि भोजन तो सब कोई करते हैं। जितना भोजन करते हैं, सब-का-सब पेट में ही जमा रहे, पाखाना नहीं हो, तो क्या हालत होगी उसकी? बीमार पड़ेगा, मरेगा वह। पेट में जितना है, सब निकल जाय, तब भी वह मरेगा। उसी तरह जितना जमा करते हैं, सब जमा ही जमा रह जाय, तब भी मरोगे। जितना जमा किया, सब खर्च हो जाय, तब भी मरोगे। बिल्कुल जमा ही नहीं रखो, कुछ खर्च भी करो; क्योंकि-
“ राम भगत जग चारि प्रकारा ।
सुकृती चारिउ अनघ उदारा ।।”
भक्त को उदार होना चाहिए। इसीलिए ईसा मसीह ने कहा था कि ‘सूई के छेद से हाथी निकल सकता है; लेकिन कंजूस स्वर्ग नहीं जा सकता है।’ जिसको आसक्ति रहती है, उसको वह भजन में पड़ने नहीं देती है। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ अनासक्त जग में रहो भाई ।
दमन करो इन्द्रिन दुखदाई ।।”
जो अनासक्त रहेगा, वही भगवद्भजन कर सकेगा। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेवजी ने कहा-‘कटहल काटते हो, तो हाथ में तेल लगा लेते हो, नहीं तो उसका लस्सा लग जाएगा। उसी तरह भगवद्भक्ति से हृदय को तर करके संसार का काम करो, तो लस्सा नहीं लगेगा।’ उदार बनो, कंजूस नहीं बनो, सूम नहीं बनो। जो अपने ही खाने के लिए, अपने ही पहनने के लिए, अपने ही रहने के लिए खर्च नहीं कर सकता है, तो दूसरे के लिए वह क्या करेगा? तब वह भजन क्या करेगा? उनकी तो आसक्ति उसी में लगी हुई रहती है। इसलिए संतोष धारण करो। सत्य-असत्य का विचार करके जो सत्य है, उसको ग्रहण करो। जो असत्य है, उसका त्याग करो। यह संसार है। इसमें सार-असार दोनों हैं। जिस तरह से दूध और पानी मिले हुए रहते हैं, तो हंस नीर छोड़कर क्षीर ग्रहण करता है। उसी तरह विचारवान असार-त्यागी और सार-ग्राही होते हैं। जबतक सत्संग नहीं करेंगे, यह ज्ञान नहीं होगा। जबतक ज्ञान नहीं होगा, तबतक सत्य-असत्य की पहचान नहीं होगी। सत्य-असत्य की पहचान नहीं होगी, तो हम असत्य में पड़े रहेंगे। परिणाम दुःख होगा। इसलिए सत्संग करना चाहिए। सत्संग भी करना चाहिए तो किस तरह? सन्त तुलसी साहब कहते हैं-
“ सत्संग करना मन तोड़ शरण सन्तन की ।
अन्तर अभिलाषा लगी रहे चरणन की ।।”
संसार की आशा छोड़कर प्रभु से मिलने की आशा लगी रहे। तब अपना काम भगवद्भजन बनेगा। वास्तविक बात तो यह है कि सूक्ष्म मार्ग ही मोक्ष-द्वार है, जिसको ईसा मसीह ने ‘सकेत-फाटक’, संत कबीर साहब ने ‘झीना मार्ग’, गुरु नानकदेव ने ‘खन्निअहु तीखी बालहु नीकी’ और हमारे परमपूज्य गुरुदेव ने ‘बाल नोक से मेँहीँ दर ‘मेँहीँ’ कहा है। उस मार्ग में प्रवेश करने के लिए आशा-निराशा का परित्याग करना ही पड़ेगा।
“ योग हृदय केन्द्र विन्दु में, युग दृष्टियों को जोड़िकर ।
मन मानसों को मोड़ि, सब आशा-निराशा छोड़िकर ।।”
कहने का सार यह कि संतो ं और सद्ग्रन्थों के विचार ‘सकार’ को साकार करने पर ही मोक्ष-द्वार में प्रवेश कर सकते हैं और वे हैं-शम, संतोष, सत्संग और सद्विचार।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन मास-ध्यान-शिविर, महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर स्थित सत्संग हॉल में दिनांक 19-11-95 ई0 को अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जनवरी 1996 ई0)
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आदरणीय साधकवृन्द, समादरणीय सज्जन- वृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
संतमत की सर्वश्रेष्ठ साधना नादानुसंधान है। नादानुसंधान के पूर्व एकबिन्दुता प्राप्त करने के लिए दृष्टियोग या दृष्टिसाधन की क्रिया की जाती है। दृष्टि साधन की क्रिया सूक्ष्म है। जबतक कोई मोटे-मोटे अक्षरों को नहीं लिख लेता, महीन अक्षरों को लिखने की योग्यता नहीं होती है। इसलिए सूक्ष्म उपासना, सूक्ष्मतर उपासना अथवा सूक्ष्मतम उपासना करने के लिए पहले स्थूल उपासना करने की आवश्यकता होती है। इसलिए मानस जप और मानस ध्यान; ये दोनों क्रियाएँ आरम्भ में होती हैं। मानस जप के द्वारा मन का कुछ अंश में सिमटाव होता है और मानस ध्यान के द्वारा उससे कुछ अधिक सिमटाव होता है; किन्तु पूर्ण सिमटाव नहीं होता। पूर्ण सिमटाव के लिए विन्दु ध्यान है। विन्दु ध्यान में पूर्ण सिमटाव होता है। उसमें ऊर्ध्वगति होती है। आवरण भेदन होता है। सुरत अंधकार से प्रकाश में प्रवेश कर जाती है और वहाँ अनहद नाद को ग्रहण कर आगे बढ़कर वह अनाहत नाद शब्द को ग्रहण करती है। वही शब्द प्रभु-परमात्मा से जा मिलाता है। वास्तव में विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान का सरल-सरल प्रचार सभी संतों ने किया है। विन्दु-ध्यान से क्या होता है और नाद ध्यान से क्या होता है? इस विषय का स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक समझता हूँ। किसी भी रूप का निर्माण तबतक नहीं हो सकता, जबतक विन्दु न हो। विन्दु से ही रेखा बनती है और वह रेखा सरल और वक्र होती है। उसी सरल और वक्र रेखा से रूप बनता है। रूप-जगत् का आरम्भ विन्दु से होता है और उस मण्डल का अन्त भी विन्दु पर ही होता है। किसी भी चित्र के बनाने के लिए जैसे ही हम कलम रखते हैं; कलम की नोक जहाँ पड़ती है, उस छोटे-से-छोटे चिह्न को हम विन्दु कहते हैं; किन्तु वास्तव में यह यथार्थ विन्दु नहीं है, कल्पित विन्दु है। विशुद्ध विन्दु बाह्य संसार में हम देख नहीं सकते हैं। उसको कोई बना नहीं सकता। वह तो दृष्टि की युग धाराओं के मिलने से अपने अन्तर में उत्पन्न होता है। जैसे बाह्य जगत् में दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है, वैसे ही अपने अन्दर में दृष्टि की दोनों धाराएँ जहाँ मिलती हैं, वहाँ एक विन्दु उत्पन्न होता है। हमारी लेखनी में जैसे स्याही होती है, तदनुरूप विन्दु उत्पन्न होता है। अगर लेखनी में काली स्याही है, तो काला चिह्न उत्पन्न होता है। लाल स्याही है, तो लाल विन्दु उत्पन्न होता है। जिस किसी भी रंग की स्याही रहती है लेखनी में, वैसे ही रंग का छोटे-से-छोटा चिह्न उत्पन्न होता है। हमारी दृष्टि की लेखनी में कौन-सी स्याही है? हमारी दृष्टि प्रकाशमयी है। इसलिए दृष्टि की दोनों धाराएँ जहाँ जाकर मिलती हैं, वहाँ जो विन्दु उत्पन्न होता है, वह प्रकाशमय विन्दु होता है। साथ ही,
‘विन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन दिवस सुहावनं ।’
(संत पलटू साहब)
“ गगन द्वार दीसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।”
(संत तुलसी साहब)
‘विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम् ।’
(योगशिखोपनिषद्)
जो अपने को विन्दु पर प्रतिष्ठित करता है, उसको नाद की अनुभूति स्वतः होने लगती है। जबतक कोई अपने को विन्दु पर स्थिर नहीं कर पाता है, तबतक जो नाद साधना करते हैं, वे कानों को बंद करके सुनते हैं। जिनकी दृष्टि-साधना की क्रिया परिपक्व हो जाती है, उनको कान बन्द करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। वह तो-
“ मीठी मुरली सुनै सुरत के कान से ।
अरे हाँ रे मेँहीँ बड़ा कौतुहल होई ,
ध्वनिन के ध्यान से ।।”
जबतक एकबिन्दुता की प्राप्ति नहीं होती है, तबतक स्थूल से सूक्ष्म जगत् में प्रवेश नहीं होता है, तबतक उसको आँख, कान और मुँह; ये तीनों बन्द करने पड़ते हैं। गुरु नानकदेवजी महाराज के वचन में है-
“ तीनों बन्द लगाय कर, सुन अनहद टंकोर ।
नानक सुन समाधि में, नहीं सँाझ नहिं भोर ।।”
सन्त कबीर साहब भी यही बात कहते हैं-
“ आँख कान मुख बन्द कराओ ।
अनहद झींगा शब्द सुनाओ ।।
दोनों तिल एक तार मिलाओ ।
तब देखों गुलजारा है ।।”
अपने गुरुदेव की वाणी में हम पाते हैं-
“ तीनों बन्द लगाई, देखि सुनि धरि ध्वनि धारा ।
चलिय शब्द में खिंचत, बजत जो विविध प्रकारा ।।”
अन्तःप्रकाश मिलने पर जिस अन्तर्नाद की अनुभूति होती है, वह केन्द्रीय शब्द होता है और वह सीधा शब्द, सरल शब्द, डायरेक्ट (Direct) शब्द है। जब केन्द्र में सुरत पहुँचती है, तब वह केन्द्रीय शब्द मिलता है। जबतक केन्द्र में हमारी सुरत नहीं पहुँचती, तबतक कान बन्द करके जो सुनते हैं, वह इनडाइरेक्ट (Indirect) शब्द है। शब्द वही है; लेकिन इनडाइरेक्ट (Indirect) और डाइरेक्ट (Direct) का भेद है। स्थूल के केन्द्र पर जब वृत्ति पहुँचती है, दृष्टि टिकती है, तो वहाँ जो शब्द मिलता है, वह स्वतः खिंचकर सूक्ष्म के केन्द्र पर ले जाता है। इसलिए गुरु महाराज के वचन में आया है कि नादानुसंधान करने के लिए कम-से-कम एकबिन्दुता की प्राप्ती अवश्य होनी चाहिए। जो कोई एकबिन्दुता प्राप्त किए बिना ही नादानुसंधान करते हैं, वह ऐसा है, जैसे एक वृक्ष में फल लगा हुआ है। एक नेत्रधारी उस फल को तोड़ना चाहता है और दूसरा एक नेत्रहीन है, वह भी उस फल को तोड़ना चाहता है। दोनों ही ढेले फेंक रहे हैं। उस फल को कौन तोड़ेगा? जो नेत्रधारी है, वह देखता है कि अमुक स्थान पर फल लगा हुआ है। निशाना करता है, ढेला मारता है, फल तोड़ लेता है। जो नेत्रहीन है, वह बेचारा तो उस फल को तो देखता नहीं है। अंदाज से वह ढेला फेंकता है। उसका ढेला कभी पेड़ में लगेगा, कभी टहनी में लगेगा, कभी पत्ते में लगेगा। अगर वह निरन्तर ढेला फेंकता ही रह जाय, तो सम्भव है, कभी फल में भी लग जाय। लेकिन, उसके लिए कोई गारण्टी नहीं दी जा सकती है कि वह फल तोड़ ही लेगा। लेकिन जो नेत्रधारी है, वह तो फल तोड़ ही लेगा, इसमें सन्देह का, संशय का कोई स्थान ही नहीं है। इसी प्रकार जो कोई दृष्टि-साधना की क्रिया करते हैं, उनकी दिव्य दृष्टि खुल जाती है। दिव्य नेत्र खुल जाने के कारण वह दिव्य नाद को सरलतापूर्वक पकड़ लेता है। इसलिए अभी आपलोगों ने जो सन्त कबीर साहब की वाणी सुनी, उसमें यही बात आयी-
“ जो कोई निर्गुण दर्शन पावै ।।
प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मंत्र गहि लावै ।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै ।।”
अगर उस निर्गुण ब्रह्म के दर्शन करना चाहते हैं, तो पहले जो ब्रह्म का सूक्ष्म रूप यानी विन्दु है, उसकी हम आराधना करें। अपनी दृष्टि को उसपर जमावें। सन्त राधास्वामी साहब भी कहते हैं-
“ सुरत शब्द एक अंग कर, देख बिमल बहार ।
मध्य सुखमना तिल बसे, तिल में जोत अकार ।।”
सुषुम्ना में अपनी वृत्ति को ले जाओ। वहाँ उस केन्द्रीय शब्द को पकड़ो।
“ बायें इड़ा नाड़ी दक्खिने पिंगला,
रजस्तमोगुणे करिते छे खेला ।
मध्य सत्त्व गुणे सुषुमना बिमला,
धरऽ-धरऽ ताँरे सादरे ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ सुखमन के घर राग सुन, सुन मण्डल लिव लाइ ।
अकथ कथा विचारअै, मनसा मनहीं समाइ ।।”
अगर राग सुनना चाहते हो, ब्रह्मनाद सुनना चाहते हो, तो ‘सुखमन के घर राग सुन’-अपने को सुषुम्ना में ले जाओ। इसी सुषुम्ना की साधना मीराबाई भी करती थीं, वे कहती हैं-
‘सेज सुखमना मीरा सोवै, शुभ है आज घड़ी ।’
जो सुखमना की शय्या पर सोता है। आवश्यकता है सच्चे सद्गुरु की शरण ग्रहण कर सदाचार-समन्वित हो तन्मयतापूर्वक साधना करने की। सन्त तुलसी साहब कहते हैं-
“ मुर्शिदे कामिल से मिल सिद्क और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिए ।।”
जो पहुँचे हुए गुरु हैं, उनके पास जाओ। सच्चाई से जाओ। कच्चा हृदय लेकर नहीं जाओ। सच्चा हृदय लेकर जाओ, सन्तोष धारण करके जाओ; वे तुम्हें मार्ग-दर्शन देंगे कि किस तरह सुषुम्ना-मार्ग उन्मुत्तफ़ होता है।
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ये तलासे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।”
उस प्रभु के पास जाने का रास्ता सुखमना में है। वहाँ से चलना है। वहीं से रास्ता का आरम्भ होता है। इसलिए दृढ़तापूर्वक दृष्टियोग की क्रिया करनी चाहिए। दृष्टियोग की क्रिया से दिव्य-दृष्टि खुलेगी, दिव्य नेत्र मिलेगा और दिव्य शब्द की अनुभूति होगी। वह शब्द एक ही तरह का नहीं है, अनेक तरह के शब्द हैं। इसलिए उसकी संज्ञा अनाहद की दी गई है। जब कोई दृष्टि-योग की क्रिया करते हैं; दृष्टि-योग की क्रिया से प्रकाश-मण्डल में पहुँचते हैं, तो प्रकाश भी एक ही तरह का नहीं है। प्रकाश भी विभिन्न तरह के हैं। हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
“ छट-छट छट-छट बिजली छटकै,
भोर का तार दिखाता है ।
चन्दा उगत उदय हो रविहू,
धूर शब्द मिल जाता है ।।”
कभी बिजली की चमक है, कभी चन्द्र का प्रकाश है, तो कहीं सूर्य का प्रकाश है।
‘पीली नीली लाल सफेदी स्याही सन्मुख आता है ।’
ये शब्द विभिन्न प्रकार के रंग अपने अंदर में देखते हैं; लेकिन इन सब रंगों को तबतक हम देखते रहते हैं, जबतक हमारा मन शब्द में नहीं लग जाता है। जैसे कोई मण्डप सुन्दर ढंग से सजा हुआ हो, विविध रंगों के प्रकाश से वह मण्डप सजा हुआ हो, बहुत चीजें बहुत तरह से सजायी गई हों, तो दर्शक जब वहाँ जाते हैं, तो वे उस मण्डप की सजावट को देखते हैं। उन्हीं विविध रूपों को देखने में उनका मन लगता है। लेकिन जब उसी मण्डप पर गान होने लग जाता है, तो लोगों का मन उस गान में फँस जाता है। वहाँ का जो दृश्य पहले दीखता था, वह गौण पड़ जाता है, शब्द की प्रधानता हो जाती है। उसी तरह जो कोई अन्तस्साधना करते हैं, यद्यपि आश्चर्यजनक प्रकाश मिलता है, जिस प्रकाश से जीवन में कभी भेंट नहीं हुई थी, उस तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है। मन उसमें लग जाता है, गड़ जाता है, आकर्षित हो जाता है; लेकिन जब अन्तर्नाद की अनुभूति होने लगती है, तब वे विविध प्रकाश गौण पड़ जाते हैं। जब आकर्षण दूसरी ओर हो जाता है, तब पहला आकर्षण शिथिल पड़ जाता है। अपने अन्दर के प्रकाश में देखते-देखते उस ओर से हमारे मन में शिथिलता आती है और अन्तर्नाद की प्रबलता हो जाती है। पहले मोटे-मोटे शब्दों को सुनते हैं, फिर उससे महीन शब्दों को सुनते हैं, फिर उससे भी महीन शब्दों को सुनते हैं। इस तरह क्रम-क्रम से आगे बढ़ते जाते हैं।
‘मुरली बीन शंख शहनाई, बंकनाल की बाट ।’
संत तुलसी साहब ने लिखा है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ विमल-विमल अनहद धुनि बाजै,
सुनत बनै जाको ध्यान लगे ।”
जिस तरह के शब्द हम सुनते हैं, हमारे मन पर उसी तरह की छाप पड़ती है। जैसे कोई दुःखी होकर रो रहा होता है, तो उस व्यत्तिफ़ की दुःखदायिनी ध्वनि को सुनकर हृदय में दुःख हो जाता है। कोई हमको कटु वचन कहता है या गाली देता है, तो उस कटु वचन को सुनकर हमारे मन में दुःख होता है। कोई प्रसन्नता से आकर हमसे मिलता है अथवा हँसते हुए हमसे बोलता है, तो उसकी प्रसन्नता-भरी वाणी से हमको भी प्रसन्नता हो जाती है। जिस तरह के शब्द हम सुनते हैं, हमारा मन उस तरह का हो जाता है, तो जो शब्द परम प्रभु परमात्मा की ओर से आया हुआ है, उस शब्द को यदि हम सुनेंगे, तो हमारा मन कैसा होगा? बाहर के जो बाजे-गाजे होते हैं, उन बाजे-गाजों को सुनकर भी, सुरीले स्वर को सुनकर भी हमारा आकर्षण उस ओर हो जाता है। जो हमारे हाथ का बनाया हुआ बाजा है, जो हमारे गले का गाया हुआ गाना है, उस बाजे और गाने को सुनकर तो हम उस ओर आकर्षित हो जाते हैं; लेकिन जो बाजा परम प्रभु परमात्मा का ही बनाया हुआ है और जो परम प्रभु परमात्मा की आवाज है, उसको यदि हम सुनेंगे, तो हमारा मन कैसा होगा? इसलिए हम उस ध्वनि को सुनें। वह ध्वनि सतत हो रही है।
‘आ रही धुर से सदा तेरे बुलाने के लिए ।’
सन्त तुलसी साहब ने कहा है। उस प्रभु का शब्द हमको बुलाने के लिए आ रहा है; लेकिन हम उस शब्द को नहीं सुन रहे हैं। जैसे कोई बच्चा बच्चों के साथ खेल रहा हो और उसके विद्यालय जाने का समय हो गया हो, उसकी माँ पुकार रही हो कि तुम्हारे विद्यालय जाने का समय हो गया है, आओ। लेकिन खेलने की धुन में मस्त होने के कारण वह बच्चा उस आवाज को नहीं सुन रहा हो। कोई दूसरा सुनता है, वह उस बच्चे से कहता है कि तुम्हारी माँ तुझको पुकार रही है। तुम्हारे स्कूल जाने का समय हो गया है, तो वह उस तरफ से हटता है; माँ की आवाज सुनकर माँ के पास जाता है। पश्चात् पढ़ने के लिए विद्यालय जाता है, पढ़ता है और विद्वान होता है। उसी तरह हम रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; इन पाँच विषयों में खेल रहे हैं। उन्हीं के धुन में हम लगे हुए हैं। इसलिए हमारे अन्दर जो आवाज हो रही है प्रभु की ओर से हमको बुलाने की, उसको हम नहीं सुन रहे हैं। तो जो सन्त सद्गुरु होते हैं, वे कहते हैं कि अरे! किधर तुम भटक रहे हो? प्रभु तुमको पुकार रहे हैं। अभी से नहीं, सदा से पुकार रहे हैं-
‘है आ रही सदा से सदा यार देखना ।’
सुनोगे कैसे?
“ गोश बातिन हो कुसादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
ला-इला अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिए ।।”
जब तुम दृष्टियोग की क्रिया करोगे, दिव्य दृष्टि खुलेगी, तब उस दिव्य नाद को तुम सुनोगे और वह नाद ले जाएगा तुम्हें वहाँ, जहाँ से वह आता है; क्योंकि प्रत्येक नाद में अपनी ओर आकर्षण करने का गुण होता है। बाहर का जो नाद है, वह बाहर की ओर खिंचता है। जो भीतर का नाद है, वह भीतर की ओर खिंचता है। जो परम प्रभु परमात्मा की ओर से आया हुआ नाद है, वह परमात्मा की ओर खिंचता है।
मान लीजिए, अँधेरी रात हो, हाथ को हाथ नहीं सूझता हो और तू-तू करके हम कुत्ते को पुकारते हैं, तो कुत्ता हमारे पास आ जाता है। लाउडस्पीकर यहाँ लगा हुआ है। यहाँ से आवाज जहाँ तक जाती है, अँधेरी रात क्यों न हो, उस आवाज को सुनते-सुनते लोग यहाँ आ जाएँगे। जिस आवाज को जो सुनता है, सुननेवाला उस आवाज को सुनते-सुनते वहाँ तक पहुँचता है, तो जो आवाज परम प्रभु परमात्मा की ओर से आती है, उस आवाज को हम सुनेंगे, तो कहाँ जायेंगे? उस परम प्रभु परमात्मा की ओर पहुँच जायेंगे।
इसलिए सन्तमत की साधना में ज्योति और नाद की मुख्यता है। रूप-ब्रह्माण्ड को हम दृष्टि-योग की क्रिया से पार करेंगे और वहाँ जो शब्द मिलेगा, उस शब्द को पकड़कर हम आगे अरूप ब्रह्माण्ड में जायेंगे, जहाँ पर-
“ आगे शून्य समाधि, नाद ही नाद की ।
लहै सन्त का दास, जाहि सुधि आदि की ।।”
आगे चलकर ज्योति छूट जाती है। शब्द रह जाता है। उसी शब्द के सहारे साधक आगे बढ़ते हैं। एक-एक केन्द्र को क्रम-क्रम से पार करते हुए सभी केन्द्रों को पार कर जाते हैं।
“ बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।”
साधक प्रथम स्थूल मण्डल के केन्द्रीय शब्द को ग्रहण करता है, उसके सहारे वह सूक्ष्म के केन्द्र पर पहुँच जाता है। सूक्ष्म के केन्द्र्र पर के शब्द को जो सुनते हैं, वह शब्द उसको कारण के केन्द्र पर ले जाता है। कारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर वह महाकारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कैवल्य के केन्द्र पर पहुँच जाता है। इस तरह जड़ के सारे आवरण झड़ जाते हैं। चेतन अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसी स्थिति में परम प्रभु परमात्मा के दर्शन होते हैं। दर्शन तो होते हैं; पर स्पर्शन नहीं होता। वह कैवल्य का पर्दा चेतन पर से हट जाता है, तब जीव और पीव मिलकर एक हो जाता है।
सन्तमत की साधना शृंखलाबद्ध है, क्रमबद्ध है। पहले स्थूल सगुण साकार की उपासना, फिर सूक्ष्म सगुण साकार की उपासना, पश्चात् सूक्ष्मतर सगुण निराकार की उपासना और अन्त में सूक्ष्मतम निर्गुण निराकार की उपासना है। यहाँ उपासना की इति हो जाती है। प्रभु मिल गए, काम समाप्त हुआ।
अन्त में हम निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पहले मानस जप और मानस ध्यान; इन दो क्रियाओं को करना चाहिए। इन दो क्रियाओं को करने से योग्यता आती है दृष्टि-योग करने की। दृष्टि-योग में एक विन्दु का अवलम्ब रहता है। उस विन्दु-ध्यान को करके पिफ़र नाद-ध्यान की क्रिया होती है। परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में कह सकेंगे-
“ नाद से नादों मे चलि धरु, प्रणव सत ध्वनि सार ।
एक ओ3म् सत्नाम ध्वनि धरि, ‘मेँहीँ’ हो भव पार ।।”
इस तरह सारशब्द पकड़कर उस सार-धार का अधार लेकर सर्वाधार को पाकर भव-पार हो जाएँगे, आवागमन का चक्र छूट जाएगा। फिर कभी दुःख का मुख नहीं देखना पड़ेगा। यही सन्तमत की साधना का सार थोड़े से शब्दों में कहा। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन पक्ष-ध्यान-साधना के सुअवसर पर महर्षि मेँहीँ ध्यान-योग-आश्रम, डेहरी-ऑन-सॉन में दिनांक 5-12-1995 ई0 को प्रातःकाल में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मार्च 1996 ई0)
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आदरणीय श्रीप्रमुख स्वामीजी महाराज मंचासीन महामना सन्त-महात्मागण, समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोग मुझे साधु-वेश में देखकर यह न समझें कि मैं आपलोगों को कुछ उपदेश या आदेश करने करने के लिए आया हूँ। मैं संतों का सन्देश देने आया हूँ, जिससे आपके भवक्लेश निःशेष होंगे। भारत कृषि-प्रधान देश होते हुए भी सदा से ऋषि- प्रधान देश रहा है। जिस तरह सरोवर में समय-समय पर सरसिज समुत्पन्न होकर स्वसौरभ से संसार को सुरभित करता है, उसी तरह इस अवनितल पर सन्त जन अवतीर्ण होकर अपने ज्ञानालोक से जगत् को आलोकित करते रहे हैं। उन्हीं संतों की परम्परा में थे हमारे श्रीमन्नारायण स्वामीजी महाराज, जिनके उत्तराधिकारी के रूप में ये पंचम गुरु श्री प्रमुख स्वामीजी महाराज अभी विराज रहे हैं। श्रीमन्नारायण स्वामीजी महाराज का जन्म उत्तरप्रदेशान्तर्गत परम-पावन नगरी अयोध्या से चौदह मील की दूरी पर हुआ था। ग्यारह वर्ष की अवस्था में इनके माता-पिता सुरधाम सिधार गए। स्वामीजी महाराज ने अपनी आँखों संसार की असारता देखी। इनके मन में जगत् से विराग और जगत्पति के प्रति अनुराग हुआ। इन्होंने गृह का परित्याग कर दिया और अपना नाम नीलकण्ठ वर्णी रखा। (श्रोतागण की करतल-ध्वनि) उत्तर हिमालय से लेकर आपने दक्षिण रामेश्वरम् तक की यात्र की। इस अवधि में आपने बहुत-से ग्रन्थों का अध्ययन-मनन किया; वेद, उपनिषद्, गीता, रामायण आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों का अनुशीलन और गहरा मनन किया। आप अपने नाम की ओर जब ध्यान देते हैं, तो देखते हैं कि नीलकंठ के अनेक अर्थों में शिव भी एक अर्थ होता है। आपके मन में प्रेरणा हुई की शिव कौन? त्रिदेवों में के शिव अथवा भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के समकालीन शिव, जिनकी अर्द्धांगिनि सती-पार्वती थीं अथवा हिमालय में जो शिवलिंग कि स्थापना करके लोग पूजन करते हैं। शिव कौन? विद्वान तो आप थे ही। अध्ययन आपका गहरा था ही। आपने जाबालदर्शनोपनिषद् में देखा-
“ तीर्थे दाने जपे यज्ञे काष्ठे पाषाणके सदा ।
शिवं पश्यति मूढात्मा शिवे देहे प्रतिष्ठिते ।।”
अर्थात् वह शिव तो शरीर में विद्यमान है, पर मूर्ख लोग तीर्थ में, दान में, जप में, यज्ञ में काष्ठ में और पाषाण में शिव देखते हैं । फिर आपने सोचा-अगर शिव अपने शरीर में ही विद्यमान है, तो कहाँ और किस तरह है? तो स्वामीजी महाराज ने शुक्ल यजुर्वेद का अध्ययन किया। उसमें उन्होंने पाया-
“ विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्दिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
अर्थात् यह शरीर शिवालय है। इसमें विन्दुरूप से शक्ति और नादरूप से शिव विराजते हैं। उनके मन में उत्कण्ठा जगी कि जब अपने अंदर ही शिव और शक्ति-ये दोनों विराजते हैं, तो इनके दर्शन कैसे हों? इसके लिए उन्होंने गुरु की खोज की। खोजते-खोजते वैष्णव सम्प्रदाय के सन्त श्रीरामानन्द स्वामीजी के आपको दर्शन हुए। रामानन्द स्वामीजी महाराज ने आपको दीक्षा दी। मनोयोगपूर्वक आपने साधना की। शिव के सम्बन्ध में आपने रामचरितमानस में पढ़ा था-
“ तब सिव तीसर नयन उघारा ।
चितवत काम भयउ जरि छारा ।।”
स्वामीजी महाराज ने वह साधना की और उन्होंने अपनी तीसरी आँख का उन्मेष किया। तीसरी आँख उन्मेष होने पर आपने काम पर विजय प्राप्त कर ली। आपके मन में और भी उत्कण्ठा जगी कि शिवजी ने तो ऐसी साधना की थी, जिससे उनको समाधि लग जाती थी। फिर तो आपने अष्टांग योग की साधना की। साथ ही, आपने भगवान शंकराचार्य के वचन में, जो कि योग तारावली ग्रन्थ में लिखा हुआ था, पढ़ा-
“ सदा शिवोक्तानि सपाद लक्ष
लयावधानानि वसन्ति लोके ।
नादानुसंधान समाधिमेकं
मन्यामहे मान्यतमं लयानाम् ।।”
मनोलय के सवा लाख साधन हैं, जिनमें नादा- नुसंधान श्रेष्ठ है। उससे समाधि लग जाती है। आपने दृष्टियोग की साधना के द्वारा अपने अर्न्तजगत् में प्रवेश कर प्रकाश के दर्शन किए। आज्ञाचक्र से चलकर सहस्त्रार, त्रिकुटी होते हुए आपने रूप ब्रह्मांड के अंतर्जगत् में विचरण किया। विविध प्रकाश के दर्शन किए। फिर आपने अनहद नाद की साधना की अन्तर्ज्योति और अनहद नाद की साधना करते-करते आप स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण; जड़ के इन चारो मण्डलों को पार कर चेतन स्वरूप में स्थित हो गए, समाधि लग गई। सहज समाधि लगी और उस समाधि का आनन्द भी लेने लग गए। तब आपका नाम स्वामी सहजानन्दजी महाराज पड़ा (श्रोतागणों की करतल-ध्वनि)। कैवल्य मण्डल में पहुँचकर भी द्वैत भाव था। जीव और पीव में एकता नहीं थी; क्योंकि चैतन्य मण्डल एक ऐसा आवरण है, जैसे शीशे का आवरण हो। शीशे के भीतर क्या चीज रखी हुई है, उसको देख सकते हैं; लेकिन उसको स्पर्श नहीं कर सकते। उसी तरह चेतन आत्मा का साक्षात्कार हुआ। परमात्मा के दर्शन हुए; लेकिन एकता नहीं हुई। तब आपने अनाहत नाद की साधना की, जिस अनाहत नाद के सम्बन्ध में वेद में ओ3म्, स्फोट, उद्गीथ, प्रणव आदि शब्दों से अभिहित किया गया है। सन्त कबीर साहब ने इसको आदिनाम कहा है। बाइबिल में लिखा है- In the beginning was the word, the word was with god and word was god तो स्वामीजी महाराज ने इसकी भी साधना की और इस साधना के द्वारा जीव को पीव से मिलाकर आपने एकता प्राप्त कर ली। मुण्डकोपनिषद् में लिखा है-
यथा नद्यः स्यन्दमाना समुद्रेस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परंपुरुषमुपैति दिव्यम् ।।
इस तरह जीव और पीव की एकता करके वे नर से नारायण हो गये और तबसे उनका नाम श्रीमन्नारायण स्वामीजी महाराज पड़ा । (श्रोतागण की करतल-ध्वनि) श्रीमन्नारायण स्वामीजी महाराज अन्तर्ज्योति और अन्तर्नाद साधना की शिक्षा-दीक्षा देते थे। साथ ही, भ्रष्टाचार का विरोध करते और सदाचार का खुलकर प्रचार करते थे। स्वामीजी महाराज की सीख थी-झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, किसी नशीली चीज का सेवन नहीं करो, हिंसा नहीं करो। ‘हिंसा नहीं करो के सिलसिले में मांस-मछली अण्डा वगैरह नहीं खाओ। व्यभिचार नहीं करो अर्थात् परपुरुष परस्त्रीगमन नहीं करो। इन पंच पापों की उन्होंने मनाही की। इस प्रकार लोकपकारी- परोपकारी जीवन व्यतीत करते हुए, लोगों का कल्याण करते हुए 49 वर्ष की अवस्था में आप पार्थिव पिण्ड का परित्याग कर परम प्रभु परमात्मा से जा-मिलकर एकमेक हो गए। (श्रोतागण की करतल-ध्वनि)
श्रीमन्नारायण स्वामीजी महाराज के बाद स्वामी श्रीत्रिगुणातीतानन्दजी महाराज हुए। उसके बाद स्वामी प्राग भगतजी महाराज हुए। उनके बाद स्वामी श्रीयोगीजी महाराज हुए। उनके बाद शास्त्रीजी महाराज हुए। उनके बाद आज आप स्वामी श्री प्रमुखजी महाराज विराज रहे हैं। (श्रोतागण की करतल-ध्वनि) श्रीमन्नारायण स्वामी जी महाराज का ध्येय था- ज्ञान-योग-युक्त भक्ति का प्रचार करना। इसलिए उन्होंने भक्ति के रूप में श्री भगत जी महाराज को, योग के रूप में श्रीयोगीजी महाराज को और ज्ञानी के रूप में श्री शास्त्रीजी महाराज को प्रकट किया। इस तरह ज्ञान-योग-युक्त भक्ति के समन्वयरूप का प्रचार करने का श्रेय स्वामी श्री प्रमुखजी महाराज को दिया गया। (श्रोतागण की करतल-ध्वनि) यदि कहा जाय कि श्रीमन्नारायण स्वामीजी महाराज ने जिस ज्ञान-योग-युक्त भक्ति का बीज वपन किया था, उस बीज को स्वामी श्री त्रिगुणातीतानन्दजी महाराज ने खाद और पानी देकर सजीव और सुरक्षित रखा। भगतजी महाराज ने उसको पल्लवित किया। शास्त्रीजी महाराज ने उसको पुष्पित किया और हमारे प्रमुख स्वामीजी महाराज ने उसको फलित किया, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। (श्रोतागण की करतल- ध्वनि) प्रत्यक्ष फल आप देख रहे हैं।
एक बीज के बदले में आज कितना विराट्- विशाल सम्मेलन यहाँ हो रहा है। यह क्या है? यह प्रमुख स्वामीजी महाराज की देन है। प्रमुख स्वामीजी महाराज का परिचय मैं क्या दूँ। इनसे तो आप स्वयं पूर्ण परिचित हैं। ये गैरिक वस्त्रधारी, बाल ब्रह्मचारी, शुच्याचारी, शिष्टाचारी, निरहंकारी हैं। ऐसे सद्गुणों से सम्पन्न श्री प्रमुखजी स्वामीजी महाराज आपके समक्ष विराज रहे हैं। ये ज्ञानवान, विद्वान, बुद्धिमान आपके सामने विद्यमान हैं। इनके सामने मैं इनकी प्रशंसा क्या करूँ? क्या कोई सूर्य को दीपक दिखाकर प्रकाशित कर सकता है? वह तो स्वयं प्रकाश से प्रकाशित है। फिर भी अपनी श्रद्धा अर्पित करने के लिए लोग उसको दीपक दिखलाते हैं। उस तरह से ये प्रमुख स्वामीजी महाराज अपनी ज्ञान-गरिमा से स्वयं प्रकाशित हैं। सूर्य एक भुवन को प्रकाशित करता है, तो ‘भुवन भास्कर’ नाम है और सन्त तो त्रिभुवन भास्कर होते हैं। इनके लिए कहना क्या है? तीनों लोकों को प्रकाशित करनेवाले ये स्वामीजी महाराज हैं। मैं इनका हार्दिक अभिनन्दन और अभिवन्दन करता हूँ। परम प्रभु परमात्मा से इनकी दीर्घायु के लिए प्रार्थना करता हूँ। ये जितने अधिक दिनों तक इस धरा पर रहेंगे, जन समाज का कल्याण करेंगे।
आपका नाम प्रमुख स्वामीजी महाराज है। एक होता है मुख और दूसरा होता है प्रमुख। मुख का क्या काम है और प्रमुख का क्या काम है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
“ सेवक कर पद नयन सों, मुख सो साहिब होय ।
तुलसी प्रीति की रीति लखि, सुकवि सराहहिं सोय ।।”
आँख से देखकर और और हाथ-पैर से काम करके भोज्य वस्तु मुख में डाल देते हैं, तो मुख उसको अपने पास नहीं रखता, समूचे शरीर में वितरण कर देता है। उसी तरह इन स्वामीजी महाराज के शिष्यगण, श्रद्धालुगण, भक्तगण जो कुछ इनको देते हैं, ये अपने पास नहीं रखते हैं। सब परोपकार में बाँट देते हैं। अभी आपके सामने एक बहुत बड़ा नेत्र अस्पताल खोला जा रहा है। इस नेत्र के अस्पताल में क्या होगा? नेत्ररोग की चिकित्सा होगी। जो नेत्र रोग विशेषज्ञ अच्छे-अच्छे डॉक्टर होंगे, वे आकर मोतियाबिन्द का ऑपरेशन करेंगे । लोगों का बड़ा कल्याण होगा। यह तो लौकिक मोतियाबिन्द और लौकिक ऑपरेशन है; लेकिन इसके अतिरिक्त अन्य प्रकार का भी मोतियाबिन्द भी होता है, जिसका ऑपरेशन अध्यात्म-विज्ञान के डॅाक्टर-संत सद्गुरु करते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ है नेरे सूझत नहीं, ल्यानत ऐसो जिन्द ।
तुलसी या संसार को, भयो मोतियाबिन्द ।।”
जिस मोतियाबिन्द के कारण जीव को पीव के दर्शन नहीं हो रहे हैं, उस मोतियाबिन्द का ऑपरेशन हमारे स्वामीजी महाराज करेंगे। (श्रोतागण की करतल ध्वनि)। क्योंकि जो सन्त सद्गुरु होते हैं, वे अपने शिष्य की तीसरी आँख के ऊपर का जो आवरण है, उसका निवारण करते हैं। तब क्या होता है? प्रथम दिव्य दृष्टि मिलती है, पश्चात् आत्मदृष्टि।
“ उघरहिं बिमल बिलोचन ही के ।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ।”
“ सूझहिं रामचरित मनि मानिक ।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।।”
“ जथा सुअंजन आंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखहिं सैल बन, भूतल भूरि निधान ।।”
इस तीसरी आँख का उन्मेष कैसे होगा? दो आँखें तो हमलोग देखते ही हैं। इन दोनों आँखों के मोतियाबिन्द का ऑपरेशन इस अस्पताल में हो जाएगा; लेकिन तीसरी आँख के मोतियाबिन्द का ऑपरेशन तो सन्त सद्गुरु ही कर सकते हैं। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं-
“ सदगुरू बैद वचन विश्वासा ।
संयम यह न विषय के आसा ।।
रघुपति भगति सजीवन मूरी ।
अनुपान श्रद्धा मति पूरी ।।
यहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं ।
नाहिं त कोटि जतन नहिं जाहीं ।।”
और कोई दूसरा उपाय नहीं है। इसलिए संत सद्गुरु की शरण जाकर तीसरी आँख का उन्मेष कैसे होगा, यह ज्ञान जानें और अपना कल्याण करें। इतना कहकर मैं स्वामीजी महाराज को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और आपलोगों का कल्याण चाहता हूँ। (श्रोतागण की करतल-ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन श्रीमन्ननारायण स्वामीजी के पाँचवें उत्तराधिकारी श्रीप्रमुख स्वामीजी महाराज के 75वें जयन्ती-समारोह (अमृत-महोत्सव) के अवसर पर भारत के प्रमुख महानगर सायन चूना भट्ठी, मुम्बई में दिनांक 27-12-1995 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था (शान्ति-सन्देश, फरवरी 1996 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना है। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम शबरीजी के आश्रम में पधारे हैं। शबरीजी अपने आश्रम में भगवान् श्रीराम और लक्ष्मण को आए देख हर्ष-प्रेम में मग्न हो जाती है और हाथ जोड़कर आगे खड़ी होकर प्रार्थना करती है-
“ केहि विधि अस्तुति करउ तुम्हारी ।
अधम जाति मैं जड़ मति भारी ।।
अधम तें अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह महँ मैं अति मन्द अघारी ।।”
हे पाप के शत्रु भगवान श्रीराम! मैं आपकी स्तुति किस तरह करूँ! मैं नीच जाति की अनपढ़, सभी प्रकार से अज्ञानी, नारियों में जो नीच-से-नीच- अत्यन्त नीच होती है, उनमें भी मैं नीच हूँ। भगवान् राम कहते हैं-
“ कह रघुपति सुनु भामिनी बाता ।
मानउँ एक भगति कर नाता ।।
जाँति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
धन बल परिजन गुन चतुराई ।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा ।
बिनु जल वारिद देखिये जैसा ।।”
भगवान् श्रीराम कहते हैं कि हमारे यहाँ जाति-पाँति की कोई बात नहीं है। जाति में कोई कितनी भी ऊँची जाति का हो, पाँति में उच्च हो और सभी प्रकार के धर्म उनमें हों, धन-बल हो, जन-बल हो, सभी गुणों से वह सम्पन्न हो; लेकिन अगर उसके पास भक्ति नहीं है, तो भक्ति-विहीन प्राणी उसी तरह है, जिस तरह बिना जल के बादल। सन्त और भगवन्त की दृष्टि में जाति-पाँति की कोई बात नहीं होती।
“ जात-पात पूछै नहीं कोई ।
हरि को भजै सो हरि का होई ।।”
उसी जंगल में और भी ऋषि-मुनि लोग रहा करते थे; लेकिन वहाँ नहीं जाकर भगवान् शबरीजी के आश्रम में जाते हैं। जाते ही नहीं, उनका आतिथ्य स्वीकार करते हैं। उनके यहाँ कन्द, मूल, फल भोजन करते हैं।
“ कन्द मूल फल सुरस अति, दिये राम कहँ आनि ।
प्रेम सहित प्रभु खाए, बारम्बार बखानि ।।”
एक जमाना था, जब जात-पाँत की बात बड़ी उँची होती थी; लेकिन भगवान् के यहाँ न तब, न अब, सब समान है। एक बार का प्रसंग है-स्वामी दयानन्दजी महाराज पंजाब में घूम रहे थे। घूमते हुए एक नाई के यहाँ जाकर रोटी खायी। उन दिनों वहाँ नाई के पानी का प्रचलन नहीं था। वहाँ के लोगों ने कहा कि स्वामीजी! आपने यह क्या किया? स्वामी दयानन्दजी महाराज बोले-‘क्या किया? मैंने तो कुछ नहीं किया।’ लोगों ने कहा-‘आपने नाई की रोटी खायी है।’ स्वामीजी महाराज ने कहा-‘नहीं भाई! मैंने गेहूँ की रोटी खायी है। नाई की रोटी मैंने नहीं खायी है।’ सन्त पलटू साहब कहते हैं-
“ साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।
केवल भत्तिफ़ पियार, साहिब भत्तफ़ी में राजी ।
तजा सकल पकवान, लिया दासीसुत भाजी ।।
जप तप नेम अचार, करे बहुतेरा कोई ।
खाये सबरी के बेर, मुए सब ऋषि मुनि रोई ।।
किया युधिष्ठिर यज्ञ, बटोरा सकल समाजा ।
मरदा सबका मान, श्वपच बिन घंट न बाजा ।।
पलटू ऊँची जाति का, मत कर कोइ हंकार ।
साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।”
भगवान् श्रीकृष्ण दुर्योधन को समझाने के लिए जाते हैं कि पाण्डवों का राज्य वापस कर दो। वह तैयार नहीं होता है। भगवान के लिए उन्होंने बहुत तरह से भोजन आदि की व्यवस्था की थी। भगवान् ने उस राजमहल का भोजन स्वीकार नहीं किया। विदुरजी के यहाँ जाकर उन्होंने भोजन किया। भगवान् राम अन्य मुनियों के यहाँ नहीं जाकर शबरी के यहाँ जाकर उनका आतिथ्य स्वीकार करते हैं। महाराज युधिष्ठिर ने जो राजसूय यज्ञ किया था, उसमें उन्होंने बहुत-से लोगों को भोजन कराया था। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा था कि जब यज्ञ पूरा होगा, तो तीन बार घंटा बजेगा; लेकिन पूर्णाहुति हो जाने के बाद एक बार भी घंटा नहीं बजा। युधिष्ठिरजी महाराज ने भगवान् श्रीकृष्ण से जिज्ञासा की-‘आपने कहा था कि यज्ञ पूरा होने पर तीन बार घंटा बजेगा; किन्तु एक बार भी नहीं बजा।’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘हाँ, आपने तो बहुतों को भोजन कराया है, लेकिन सन्त-भोजन बाकी बच गया है।’ युधिष्ठिर महाराज ने पूछा-‘इतने लोगों को भोजन कराया गया, इनमें कोई सन्त नहीं थे, कोई भक्त नहीं थे? संत कहाँ है? बताइये।’ भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-‘काशी में श्वपच भगत हैं, उनको सादर लाकर भोजन कराइए, तब घंटा बजेगा।’ महाराज युधिष्ठिर अपने कनिष्ठ भ्राता भीम को उनको बुलाने के लिए भेजते हैं। भीम राजपुत्र था, उसमें स्वाभाविक ही राजमद था। उसकी भुजाओं में दस हजार हाथियों का बल होने के कारण तनमद भी था, मनमद भी था, जातिमद भी था, धनमद भी था और जवानी का मद भी था। सभी प्रकार के मदों में माता हुआ वह श्वपच भगतजी के पास जाता है और उनसे कहता है-‘महाराज युधिष्ठिर के यहाँ यज्ञ है। वहाँ चलकर भोजन कीजिए। उनकी ओर से आपको निमंत्रण देने के लिए मैं आया हूँ।’ श्वपच भगतजी ने कहा-‘देखो, बात तो पीछे करूँगा। मैं पूजा पर बैठ गया हूँ। मेरी सुमरनी वह देखो खूँटी पर लटकी हुई है, जरा मुझे दो। पूजा के बाद बात तुमसे करूँगा।’ भीम के मन में हुआ कि डोम की सुमरनी छुऊँ कैसे? अगर मैं इनकी बात नहीं सुनता हूँ, तो मेरी भी बात ये नहीं सुनेंगे। ऐसा सोचकर उन्होंने सुमरनी में एक अंगुली लगाई, सुमरनी टस-से-मस नहीं हुई। दूसरी अंगुली लगाई, फिर भी टस-से-मस नहीं। तीसरी अंगुली लगाई, तीनों अंगुलियों से जोर लगाया; लेकिन सुमरनी जस-की-तस। वहाँ से टस-मस नहीं। चार अंगुलियाँ लगा दीं। पाँचो अंगुलियाँ लगाकर खींचना चाहा, सुमरनी जैसी की तैसी रही। भीम के मन में जो दस हजार हाथियों के बल का घमण्ड था, वह वहीं गल गया। श्वपच भगतजी अपने से सुमरनी उतार लेते हैं और पूजा करने के पश्चात् पूछते हैं-‘कहो भीम! क्या बात है?’ भीम ने कहा-‘चलिए, युधिष्ठिर महाराज ने निमंत्रण दिया है आपको भोजन करने के लिए।’ उन्होंने कहा-‘राजा के अन्न का भोजन मैं नहीं करता। राजा के यहाँ दूषित अन्न आता है। दूषित अन्न का भोजन मैं नहीं करता।’ भीम क्रोध से भीतर-ही-भीतर जल गया कि जाति का है डोम और कहता है कि राजा के यहाँ के अन्न का भोजन नहीं करता हूँ। भीम लौट गए। युधिष्ठिर महाराज के पूछने पर भीम ने कहा-‘आप जैसे-तैसे के यहाँ मुझको भेज देते हैं, डोम-चमार के यहाँ। वह क्या जाने की क्या बात है?’ भगवान् कृष्ण ने कहा-‘युधिष्ठिर! आपके जितने भाई हैं, सब राजमद में माते हुए हैं। आप स्वयं जाकर सादर ले आइए।’ युधिष्ठिर महाराज स्वयं गये उनको लाने के लिए और उनको अपने यहाँ चलने के लिए अनुनय-विनय करते हैं। श्वपच भगत कहते हैं-‘मैं तो राजा का अन्न नहीं खाता। राजा का अन्न दूषित होता है।’ युधिष्ठिर महाराज ने प्रार्थना की और कहा- ‘महाराज! राजा के यहाँ का अन्न तो अवश्य दूषित होता है। अगर आप भोजन नहीं करेंगे, तो वह पवित्र कैसे होगा? इसलिए आप पधारने की कृपा करें।’ युधिष्ठिर की प्रार्थना से प्रसन्न होकर श्वपच भगतजी आते हैं। द्रौपदी के मन में हो रहा था कि लाखों लोग भोजन करके चले गए, घंटा बजा नहीं और एक ऐसे सन्त हमारे यहाँ आ रहे हैं, जिनके भोजन करने से घंटा बजेगा। इसलिए उनके लिए उसने बहुत-सी चीजें बनायीं और बनवायी थीं। श्वपच भगतजी जब भोजन करने के लिए बैठे, तो उनके सामने सोने की थाली और कटोरियों में भोजन की सारी चीजें परोस दी गयीं। द्रौपदी के मन में हुआ कि एक-एक चीज उठा-उठाकर खाएँगे, सबका स्वाद लेंगे और प्रशंसा करेंगे। लेकिन उन्होंने क्या किया? जितनी चीजें थीं, सबको एक जगह मिलाकर एक कौर मुँह में लिया। जैसे ही एक कौर लिया, वैसे ही एक बार घंटा बज गया। सबके मन में उल्लास आ गया। द्रौपदी के मन में हुआ कि मैंने इतनी मेहनत करके इतनी चीजें बनायी थीं कि ये भोजन का स्वाद लेंगे। आखिर जाति के डोम ही तो ठहरे। सब मिला-जुलाकर एक कर दिया। क्या स्वाद जाने डोम जाति के ये लोग! जैसे ही द्रौपदी के मन में यह भावना उत्पन्न होती है कि श्वपच भगतजी का हाथ रुक जाता है। युधिष्ठिर महाराज कहते हैं-‘महाराज! भोजन कीजिए।’ श्वपचजी महाराज कहते हैं-‘जो संत का भोजन था, वह तो हो गया। अब जो भोजन होगा, वह डोम का भोजन होगा।’ युधिष्ठिर महाराज ने कहा-‘महाराज! आप ऐसा क्यों कहते हैं? आप तो महान् संत हैं। बहुत श्रेष्ठ हैं, पूज्य हैं।’ श्वपच भगतजी ने कहा-‘पूछो द्रौपदी से।’ अब तो द्रौपदी बेचारी लाज के मारे गल गई हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी कि मुझसे भूल हो गई। अपराध हो गया, क्षमा कीजिए। युधिष्ठिर महाराज के पुनः विनय करने पर श्वपचजी भोजन करते हैं और कहते हैं-‘भोजन तो मैं कर लेता हूँ; लेकिन अब घंटा नहीं बजेगा।’
संत कबीर साहब ने कहा-
“ मोही भावेला भगती भिलिनियाँ के ।
देश-देश के मुनिगण आये,
घंटा बजाये डोमिनियाँ के ।।”
कहते-कहते उन्होंने अन्त में कह दिया-
“ कहै कबीर सुनो भाई साधो,
हमहूँ तो हई जोलहनियाँ के
मोहे भावेला भगती भिलिनियाँ के ।।”
हाँ, तो मैं कह रहा था कि भगवान् श्रीराम कहते हैं-हमारे यहाँ जाति-पँाति की कोई बात नहीं है। जो भक्ति करते हैं, वे ही विशेष हैं। भगवान् नौ प्रकार की भक्ति का वर्णन करते हैं। पहली भक्ति संतो ं का संग है-‘प्रथम भक्ति सन्तन्ह कर संगा।’ यह इसलिए कि “ बिनु सत्संग विवेक न होई।” जबतक संतो ं का संग न किया जाय, तबतक सद्ज्ञान नहीं होता है। सारासार का ज्ञान नहीं होता है। कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय नहीं होता है। फलतः कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय नहीं होने के कारण अकर्तव्य कर्म भी किये जाते हैं; जिनका परिणाम बुरा होता है। इसलिए संतो ं का संग करने के लिए कहा गया है।
“ करि सत्संग गुरु खोज करिय चुनिये गुरु सच्चा ।
बिनु सद्गुरु का ज्ञान-पंथ सब कच्चा ही कच्चा ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
इसलिए सत्संग अनिवार्य है ।
“ सठ सुधरहिं सत्संगति पाई ।
पारस पारस परसि कुघातु सोहाई ।।”
सन्त-समागम के सम्बन्ध में भगवान् शंकर पार्वतीजी से कहते हैं-
“ गिरिजा सन्त समागम, सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होई सो, गावहिं वेद पुरान ।।”
सन्त सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं-
“ तात मिलै पुनि मात मिलै,
सुत भ्रात मिलै युवती सुखदाई ।
राज मिलै गज बाज मिलै,
सब साज मिलै मन वांछित पाई ।।
लोक मिलै सुर लोक मिलै,
विधि लोक मिलै वैकुंठहु जाई ।
सुन्दर और मिलै सब ही सुख,
संत समागम दुर्लभ भाई ।।”
एक बंगाली महात्मा, जिनका नाम योगी पंचानन भट्टाचार्य था, कहते हैं-
“ करऽ साधु समागम पवित्र हइबे मन,
घुचिबे मोह अंधकार रे ।।”
जो संतो ं का संग करते हैं, उनके मन में पवित्रता आती है; जो कलुषित विचार होते हैं, उनका शमन होता है, दमन होता है, नाश होता है। संत कबीर साहब कहते हैं-
‘जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी वास सुवास ।’
जिस तरह जब हम गंधी की दुकान पर जाते हैं तो इत्र बेचनेवाला कुछ नहीं भी देता है, तब भी उसकी दुकान पर खड़ा होने से स्वाभाविक सुगंध आती है। उसी तरह सन्त अगर कुछ नहीं भी बोले, चुपचाप बैठे ही रहें, अगर मनोयोगपूर्वक उनकी ओर हमारी धारणा बनी रहे, हमारा ध्यान लगा रहे, हमारी वृत्ति उस ओर रहे, तो उसके शरीर की जो नैसर्गिक आभा है, वह हममें प्रवेश करेगी और हमारे कलुषित विचारों को पवित्र विचारों में परिवर्त्तित करके जीवन में उज्ज्वलता प्रदान करेगी। इसलिए कहा -
‘प्रथम भक्ति सन्तन्ह कर संगा ।’
संतो ं के संग में जायँ, ठीक है; किन्तु तन रहे सत्संग में और मन रहे बाजार में, तब संग का रंग नहीं लगेगा। इसलिए संतों के संग में जाइए, तो मनोयोगपूर्वक सुनिए। इसलिए ‘दूसरी रति मम कथा प्रसंगा’ कहा। वहाँ क्या चर्चा होगी? हरि-चर्चा होगी। भगवत्-चर्चा होगी। उसको मनोयोगपूर्वक सुनिए। जो हरि-चर्चा सुनेंगे, तो हरि-भजन करने की इच्छा होगी। हरि-भजन कैसे करेंगे? जबतक उसकी युक्ति नहीं जानेंगे, उसका भेद नहीं जानेंगे, तो करेंगे कैसे? सन्त कबीर साहब की वाणी है-
“ भेदी जानै सब गुण, अनभेदी क्या जान ।
कै जानै गुरु पारखी, कै जाकै लागा वान ।।”
इसलिए तीसरी खोज भक्ति में गुरु की खोज और मान-रहित होकर उनकी सेवा बतायी गयी। लेकिन प्रश्न होता है-गुरु कौन? इसके उत्तर में सन्त राधास्वामी कहते हैं-
“ गुरू सोई जो शब्द सनेही ।
शब्द दूसरी नहीं कोई ।।
शब्द कमावै सो गुरू पूरा ।
उन चरणन की हो जा धूरा ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ जैसे जल महि कमल निरालमु मुरगाई नैसाणै ।
सुरति सबदि भवसागरु तरिअै नानक नामु बखानै ।।”
जिस तरह जल में कमल रहता है; उसकी उत्पति जल से होती है; लेकिन कितना भी जल क्यों न बढ़ जाय, कमल फूल को वह डुबा नहीं सकता है। ऐसे गुरु होना चाहिए, जो संसार में पंकज की तरह रहे, कमल की तरह रहे। संसार में है; लेकिन उनमें सांसारिकता नहीं है। जिस तरह कमल जल के ऊपर रहकर अपने सौरभ से संसार को सुरभित करता है, उसी तरह वे सन्त सद्गुरु होते हैं। वे अपने गुणों से, सद्गुणों से सबको गुणान्वित करते हैं। ऐसे संत सद्गुरु की शरण में जाओ। वे कुछ क्रिया बतलाएँगे, वह करो। स्तुति-प्रार्थना करो। गुणगान करो। यह चौथी भक्ति हो जाएगी। कुछ जप करने के लिए बतलाएँगे, वह पाँचवीं भक्ति हो जाएगी ।
‘जिकर करके शिखर हेरे फिकर रांरकार की ।’
हमलोग के यहाँ जिसको जप कहते हैं, इस्लाम धर्म उसको जिकर कहते हैं। जप करने में जो मानस जप है, वह सर्वोत्तम है। इसलिए मानस जप करो। इष्ट के नाम का हम जप करते हैं। उनका रूप हमारे सामने आना चाहिए। इसलिए मानस जप के बाद मानस ध्यान करो, यह पाँचवीं भक्ति है। छठी भक्ति के लिए कहते हैं-
“ छठ दमसील विरति बहु कर्मा ।
निरत-निरन्तर सज्जन धर्मा ।।”
सज्जनों के धर्म में बरतो। सज्जनों का धर्म क्या है? झूठ नहीं बोलो, चोरी नहीं करो, किसी नशीली चीज का सेवन नहीं करो, हिंसा नहीं करो। हिंसा नहीं करने के सिलसिले में मांस, मछली, अंडा वगैरह कुछ मत खाओ। व्यभिचार नहीं करो अर्थात् परपुरुष, परस्त्रीगमन नहीं करो। कुरान शरीफ में लिखा है-जिनाकारी मत करो। कुरान शरीफ में तो यहाँ तक लिखा हुआ है कि एक, दो, तीन पत्नियाँ कर सकते हो, करो; लेकिन जिनाकारी मत करो । बाइबिल में लिखा हुआ है-ज्मद बवउउंदकमदजे वि हवक - ईश्वरीय दस आज्ञाएँ हैं। उनमें एक आज्ञा यह भी है- क्व दवज ंकनसजमतलण् अर्थात व्यभिचार मत करो। संतों के वचन में पाँच पापों की मनाही है। भगवान् बुद्ध ने इनको पंचशील का पालन कहा। तो पंचशील का पालन करो। दमशील इन्द्रिय-निग्रह के स्वभाववाले बनो। हमारा मन इन्द्रियों को प्रेरित करता है, तब इन्द्रियाँ विषयों में जाती हैं। उन विषयों की ओर से अपने को रोको। जहाँ-जहाँ हमारी दृष्टि जाती हैं, वहाँ-वहाँ हमारा मन जाता है। इसलिए मनोनिरोध के लिए दृष्टि-निरोध करो। यही दृष्टि-निरोध दृष्टि-योग की क्रिया है। सूफी फकीर इसको सगले नसीरा कहते हैं। एक शायर ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ जिगर वो हुस्न एक सूई का मंजर याद है अब तक ।
निगाहों का सिमटना वो हुजूमे नूर हो जाना ।।”
जिनकी निगाहें सिमटती हैं, वे प्रकाश-पुंज में प्रतिष्ठत हो जाते हैं। कुरान शरीफ के सूरे फतिहा में लिखा है-‘ये कमायत के दिन का मालिक! मुझे सीधा रास्ता दिखला।’ वही सीधा रास्ता दिखलाने के लिए हजरत मुहम्मद साहब आये थे। यह सीधा रास्ता क्या है? एक फकीर का कलाम है।
“ अरे ऐ तकी तकते रहो मुर्शद ने ये पंजा दिया ।
बेहोश हो मत छोड़ियो गर चाहै तू जलवा पिया ।।
होगा फजल दर्गाह तक खौफो खतर की जा नहीं ।
सीधे चला जाना वहाँ मुर्शद ने यह फतवा दिया ।।”
इसी विषय को सन्त कबीर साहब ने इस भाँति कहा है-
“ अगल-बगल के मारि उड़ाये, सन्मुख डगर घरी ।
तेरो को है रोकनहार, मगन से आव चली ।।”
योगी पंचानन भट्टाचार्य कहते हैं-
“ बामे इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला
रजस् तमोगुणे करिते छे खेला ।
मध्ये सत्वगुणे सुषुम्ना विमला
धरऽ धरऽ ताँरे सादरे ।।”
सन्त तुलसी साहब ने कहते हैं-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है दिलवर पै जाने के लिए ।।”
जिसको संस्कृत में ‘सुषुम्ना’ कहते हैं, सूफी फकीर उसको शहरग कहते हैं। यहीं से प्रभु के पास जाने के रास्ते का आरम्भ होता है। जो कोई दृष्टि-योग की क्रिया करते हैं, वे अन्तःप्रकाश में प्रवेश कर जाते हैं; पिण्ड से ब्रह्माण्ड में चले जाते हैं। उनकी दसों इन्द्रियाँ बाहर ही छूट जाती हैं, तब इन्द्रिय-दमन हो जाता है। यह छठी भक्ति है। सातवीं भक्ति में भगवान् ने कहा-
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोते अधिक सन्त करि लेखा ।।”
इन्द्रिय-दमन दृष्टि-योग की क्रिया से हो जाता है और मनोनिग्रह के लिए सातवीं भक्ति है। वह है ‘शम’ की साधना, जिसको नादानुसंधान कहते हैं। सूफी फकीर उसी को ‘सुल्तान उलजकार’ यानी नादानुसंधान कहते हैं, उनका मन वश में हो जाता है। इसी के लिए सन्त कबीर साहब ने कहा-
“ सब्द खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि ।
सत्त सब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।”
अपने अन्दर में शब्द हो रहा है, आवाजेगैब हो रही है। उस आवाजेगैब को इस कान से नहीं सुनकर आन्तरिक कान से सुनते हैं। इसलिए सन्त तुलसी साहब कहते हैं-
“ गोश बातिन हो कुसादा, जो करै कुछ दिन अमल ।
ला-इला अल्लाह हो अकबर, पै जाने के लिए ।।”
जिस तरह रात का समय हो, हाथ को हाथ नहीं सूझता हो और आप तू-तू करके पुकारिये कुत्ते को, वह आपके पास आ जाएगा। विचारणीय विषय है कि आपकी आवाज सुनकर कुत्ता आपके पास आ जाता है और आप जब ब्रह्मनाद सुनेंगे, तो ब्रह्म का नाद सुनकर आप किधर जायेंगे? ब्रह्म की ओर जायेंगे। मैं यहाँ माइक में बोल रहा हूँ। मेरी आवाज सुनते-सुनते सुननेवाले मेरे पास आ जायेंगे। उसी तरह जो ईश्वर की ओर से आवाज आ रही है, शब्द आ रहा है, उसको सुनकर सुननेवाले ईश्वर के पास पहुँच जायेंगे।
‘है आ रही धुर सदा, तेरे बुलाने के लिए ।’
जो कोई इस अर्न्तनाद की साधना करते हैं, वे उसके सहारे परम प्रभु परमात्मा के पास जाते हैं। इस प्रकार मनोनिग्रह हो जाता है।
आन्तरिक नाद की साधना में पहले अनहद नाद की साधना होती है, पीछे अनाहत नाद की साधना की जाती है। वह अनाहत नाद की साधना मन से ऊपर उठकर होती है। प्राण के द्वारा उसका ग्रहण होता है। इसलिए संत तुलसी साहब ने कहा है-
‘प्राण पुरुष आगे चले, सोई करत बखाना हो।’
इसी अनाहत नाद को श्रीमद्भागवत में प्राणमय शब्द कहा है। इसी प्राणमय शब्द को स्फोट, ओ3म्, उद्गीथ, प्रणव आदि शब्दों से अभिहित किया गया है। इसी शब्द की साधना के लिए श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है-
‘सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।’
सारी इन्द्रियाँ का संयम करो । मन को हृदय में रोक रखो। जिज्ञासा हो सकती है-न मन काम करेगा, न इन्द्रियाँ काम करेंगी, तब कौन काम करेगा? उत्तर में निवेदन है-स्वयं करेंगे। इसी साधना के माध्यम से जीव ब्रह्म से जा मिलकर एकमेक हो जायेगा। सातवीं भक्ति ‘शम’ की साधना है। जो सर्वव्यापी शब्द को पा लेता है, वह उस सर्वव्यापक परमात्मा को पा लेता है। इस प्रकार जो ‘शम’ की साधना कर लेता है, वह सम हो जाता है। वह ‘सियाराममय सब जग जानी’ राम को प्राप्त कर लेता है। राम के संबंध में संत कबीर साहब की वाणी है-
“ एक राम दशरथ घर डोले ।
एक राम सब घट घट बोले ।।
एक राम का सकल पसारा ।
एक राम है सबते न्यारा ।।”
राम के इन सभी रूपों को जो कोई जानेंगे, उनका कल्याण हो जाएगा। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने राम की महिमा बतलाते हुए कहा-वह राम किसी मंदिर में बँधा हुआ नहीं है। वह तो ‘व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता’ है, सबमें व्यापक रहकर सबसे बाहर भी है। वह मठ में भी रहता है, गिरिजा में भी रहता है और मस्जिद में भी रहता है। गोस्वामीजी की वाणी को इस कसौटी पर कसकर देखिये उन्होंने कहा है-
“ नाम के अक्षर चौगुन के,
पुनि पाँच मिलाइके द्वै गुण कीजै ।
आठ के भाग हरै तुलसी,
जो शेष बचे उर में धर लीजै ।।”
दुनिया में जितने प्रकार के वर्णात्मक शब्द हैं, किसी को लीजिए; जैसे कहते हैं-राम मठ में है। राम मठ में किस तरह हैं? इसको इस तरह समझिये। मठ में दो अक्षर हैं। दो अक्षर को चार से गुण कर दीजिए। कितना होता है? दो चौके आठ, पाँच मिला दीजिए। तेरह होंगे। पुनः दो से गुण कर दीजिए, छब्बीस होंगे। इसमें आठ से भाग दीजिए। आठ तिया चौबीस। कितना बचा? दो। वही ‘राम’ है। वह राम गिरिजा में भी रहता है। ‘गिरिजा’ में तीन अक्षर हैं। तीन को चौगुणा कर दीजिए। कितने होंगे? तीन चौके बारह। इसमें पाँच मिला दीजिए, सत्रह हुए। दो से गुणा कर दीजिए, चौंतीस हुए। आठ से भाग दीजिए। आठ चौके बत्तीस। कितने शेष बचे, दो। वही ‘राम’ है। वह राम मस्जिद में भी रहता है। म, स, जि, द चार अक्षर हैं। चार को चार से गुणा कर दीजिए। चार चौके = सोलह। पाँच को मिला दीजिए। सोलह + पाँच = इक्कीस। दो से गुणा कर दीजिए = बियालीस। अब आठ से भाग दीजिये। शेष कितने बचे? दो। वही दो अक्षर हैं राम। जो राम मठ में भी है, गिरिजा में भी है, मस्जिद में भी है और सबके बाहर भी है, उस राम को जानिये, कल्याण हो जायेगा। केवल एक मंदिर के अंदर बाँधकर जिस राम को रखते हैं, उस राम से पूरा काम नहीं चलेगा; आंशिक काम चलेगा। जो कोई सर्वव्यापी राम के दर्शन कर लेते हैं, उनका परम कल्याण हो जाता है, उनकी दृष्टि ‘सियाराममय’ हो जाती है। वे सबमें एक-ही-एक को देखते हैं। यदि कहें कि सियाराम कहने से सिया और राम दो हो गये, तो गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं सिया और राम दो नहीं हैं, एक ही हैं। कैसे एक हैं? इसके उत्तर में वे कहते हैं-
“ गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।
बन्दउँ सीता राम पद, जिनहिं प्रिय खिन्न ।।”
जैसे वाणी और उसका अर्थ कहने के लिए दो होते हैं; लेकिन शब्द और अर्थ दो नहीं होते हैं, एक ही होते हैं। जैसे कहते हैं-जल। उसका अर्थ क्या होगा? पानी। कहने के लिए जल और पानी ये दो हो गये; लेकिन जल और पानी दो नहीं, एक ही हैं। ‘जल और बीचि’ यानी पानी और उसकी लहर कहने के लिए दो हैं; लेकिन पानी की ही लहर है, वह दूसरी चीज नहीं है। पानी उसकी लहर कहने के लिए भिन्न-भिन्न है। वास्तव में भिन्न-भिन्न नहीं हैं, उभय भिन्न है, एक ही है। उसी तरह सीता राम कहने से भिन्नता का भान होता है; लेकिन वे दोनों एक ही हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने इसके अन्दर और गहराई में पैठकर हमलोगों को समझाने की चेष्टा की है। ‘गिरा’ शब्द स्त्रीलिंग और ‘अर्थ’ शब्द है पुँल्लिंग। इसी प्रकार सीता है स्त्रीलिंग और राम है पुँल्लिंग। आगे चलकर उन्होंने ‘जल-बीचि’ की उपमा दी है। ‘जल’ है पुँल्लिंग और ‘बीचि’ है स्त्रींलिग। इसी भाँति सीता-राम और राम-सीता एक ही है, भिन्न-भिन्न नहीं है। ‘कहियत’ भिन्न यानी कहने के लिए भिन्न है; लेकिन ‘न भिन्न’ यानी भिन्न नहीं है। श्रीरामकृष्ण परमहंस देवजी महाराज ने कहा-तकिये का खोल कोई काला होता है, कोई पीला होता है, कोई नीला होता है, कोई हरा होता है, कोई उजला होता है; लेकिन खोल को खोलकर भीतर में देखिए, तो सबमें एक ही रूई मिलेगी-उजली। उसी तरह से बाहर का शरीर कोई काला है, कोई गोरा है, कोई लम्बा है, कोई पतला है, कोई मोटा है। ये बहिरंग भिन्न-भिन्न हैं। राम कृष्ण, शिव, दुर्गा, काली माँ अमुक-अमुक जितने जो कुछ भी हम कहते हैं, ये बाहर-बाहर जितने हैं, सब भिन्न-भिन्न दीखते हैं; किन्तु सबमें निवास करनेवाली आत्मा एक ही है। जो उस आत्मा को जान लेता है, उसका परम कल्याण हो जाता है ।
“ बेहोशिये इन्सान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मुहम्मद बातिन में खुदा है ।।”
अगर ईश्वर को पाना चाहते हो, खुदा को पाना चाहते हो, तो अपने भीतर धँसें। बाहर में कहीं नहीं मिलेंगे। आठवीं और नौवीं भक्ति तो उनके परिणामस्वरूप हैं।
“ आठवँ जथा लाभ संतोषा।
सपनेहु नहिं देखइ परदोषा।।”
जो मिल जाएगा, उसमें उनको संतोष होगा। वे हाय-हाय करके संग्रह नहीं करेंगे। वे स्वप्न में भी दूसरों के दोष को नहीं देखेंगे। जो सबमें भगवान् को देख रहे हों, वे दोष किसका देखेंगे?
“ नवम सरल सब सन छल हीना ।
मम भरोष हिय हरष न दीना ।।”
नवमी में वे सबसे सरल और छलहीन व्यवहार करेंगे । छल-कपट तो हम उनसे करते हैं, जिनके लिए हम समझते हैं कि ये हमारी मन की बात नहीं जानते हैं; लेकिन जो सबमें एक-ही-एक राम को देखते हैं, वे छल-कपट किससें करेंगे? छल-कपट करनेवाला भगवान् को नहीं पा सकता है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है कि भगवान् का महावाक्य है-
“ निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।”
भगवान् को छल-कपट पसन्द नहीं है। एक कामिल फकीर का कलाम सुनिये, वे कितना स्पष्ट कहते हैं-
“ दिल का हुजरा साफ कर, जाना के आने के लिए ।
ध्यान गैरों का उठा, उसको बिठाने के लिए ।।
चश्मे दिल से देख यहाँ, जो जो तमाशे हो रहे ।
दिलसताँ क्या क्या है, तेरे दिल सताने के लिए ।।
एक दिल लाखों तमन्ना, उस पै और ज्यादा हविस ।
फिर ठिकाना है कहाँ, उसको बिठाने के लिए ।।”
साफ करो अपने हृदय की कोठरी को, अगर यहाँ खुदा को बैठाना चाहते हो, परमात्मा को पाना चाहते हो। ‘मम भरोस हिय हरष न दीना’ का तात्पर्य है-भक्त को ईश्वर का भरोसा होता है, दुनिया के और किसी का नहीं। सन्त पलटू साहब कहते हैं-
“ साहब के दास कहाय यारो,
जगत की आस न कीजिये जी ।
समरथ स्वामी को जब पाया,
जगत से दीन न भाखिये जी ।।
साहब के घर कौन कमी,
किस बात से अन्तै आखिये जी ।
पलटू जो दुख-सुख लाख पड़ै,
वहि नाम सुधा रस चाखिये जी ।।”
एक इश्वर पर भरोसा करो और किसी का भरोसा नहीं करो। जो ईश्वर को पकड़ लेता है, उसको किसी बात की कमी नहीं रह जाती है। जब राजा ही अपने हाथ में आ गये, तो प्रजा की कौन पूछता है? राजा को प्राप्त कर लेने पर उनकी सारी सम्पत्ति मिल जायेगी। हमलोग कपड़ेवाले की दुकान पर जाते हैं; उनसे कपड़े की कीमत पूछते हैं-इस कपड़े की कीमत कितनी है? वे कहते हैं-इसकी कीमत पाँच सौ रुपये। हम उनको पाँच सौ रुपये देते हैं। अब वे जब हमको कपड़ा देने लगते हैं, तो थैले में कपड़ा रखकर देते हैं। मोल-तोल तो हुआ था कपड़े का, थैला तो मँगनी में मिल जाता है। उसी तरह एक ईश्वर-भक्ति कर लो। माया तो मँगनी में मिल जाएगी। अगर आप कहिए कि बनिया बड़ा चालाक होता है, थैले का भी दाम उसी कपड़ा में जोड़कर ले लेता है, तो यह समझिये कि भगवान् बनिये से कम चालाक नहीं हैं। वे भी अपनी भक्ति में ही सब कुछ जोड़-जोड़कर ले लेते हैं। अब आगे का प्रसंग इस प्रकार है-
भगवान् श्रीराम शबरीजी से सीताजी के सम्बन्ध में पूछते हैं। शबरीजी कहती हैं, आप पम्पा सरोवर जाइये, वहाँ सुग्रीव से भेंट होगी। सीता के संबंध में वे सारी बातें आपको बताएँगे। पश्चात् शबरीजी योग अग्नि में अपने शरीर को छोड़ती है और हरि के उस पद में लीन हो जाती हैं, जहाँ से कोई लौटकर संसार में आता नहीं।
“ तजि जोग पावक देह हरिपद,
लीन भई जहँ नहीं फिरे ।।”
लकड़ी की चिता पर उन्होंने अपनी शरीर नहीं जलाया था। योग की अग्नि में अपनी शरीर का त्याग करती है और हरि के उस पद में जाकर लीन होती है, जहाँ से आवागमन का चक्र छूट जाता है। शबरी को वह स्थान मिल है, जो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के पिता को भी नहीं मिला है। भगवान् श्रीराम के पिता को तो बैकुण्ठ मिला, जिस बैकुण्ठ में जय-विजय शाप मिला था, तो वे रावण और कुम्भकरण होकर संसार में आये थे। राजा दशरथ जी वहाँ गये हैं, जहाँ से आवागमन का चक्र लगा रहता है और शबरी अपनी साधना के बल पर वहाँ जाती है, जहाँ से संसार में आना नहीं पड़ता है।
‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।’
तात्पर्य यह कि भीलनी जाति की, अनपढ़ जाति की, गरीब परिवार की एक महिला भी भगवद्भक्ति करके परमात्मा से जा मिलकर एकमेक हो सकती है, तब जो उच्च कुल के हैं, विद्वान् हैं, धनवान् है, गुणवान् हैं, बलवान् हैं, एश्वर्यवान् हैं, यदि वे करेंगे, तो कहना ही क्या? वे क्या नहीं पायेंगे? कहने का मतलब यह कि क्या नर, क्या नारी-सभी ईश्वर-भक्ति के समान अधिकारी हैं। सब कोई समान रूप से ईश्वर-भक्ति करके, ईश्वर को प्राप्त करके अपना परम कल्याण बनावें। यही मानव-तन की उपादेयता है।
अन्त में, मैं आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ, कल से आपलोग सत्संग में आ रहे हैं और बड़े शान्त भाव से सत्संग-श्रवण कर रहे हैं। मेरे प्रिय श्री पूरण बापू हैं। ये बड़े गुरु-भक्त हैं। इनके सहित और जो इनके सहयोगी लोग हैं, उन सबको भी मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। जो इस सत्संग का आयोजन करते हैं और आपलोगों को सत्संग के ज्ञान से लाभान्वित करते हैं, उन सबलोगों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ और शुभकामना करता हूँ।
(श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन पश्चिम बंगाल राज्यान्तर्गत वीरभूम जिले के श्रीगणेश-मंदिर, रामपुर हाट में जिला संतमत-सत्संग के दशवें वार्षिक अधिवेशन के शुभ अवसर पर दिनांक 4-01-1996 ई0 को अपराह्णकाल में हुआ था । (शान्ति-सन्देश, अप्रैल 1996 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग का 85वाँ वार्षिक महाधिवेशन होने जा रहा है। इसी अधिवेशन सत्संग में सम्मिलित होने के लिए आपलोग यत्र-तत्र से आकर एकत्र हुए हैं; किन्तु सन्तमत का जो सही ज्ञान है, वह कोई स्वस्थ सज्जन ही दे सकते हैं। मैं अस्वस्थ हूँ। गुरु महाराज की कृपा होगी, आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है, कभी-न-कभी वे स्वस्थ जरूर करेंगे । (श्रोतागण की ओर से जय-जयकार की ध्वनि) सामान्यतया स्वस्थ शब्द का प्रयोग लोग नीरोग के लिए करते हैं। रोग-रहित शरीर नीरोग कहलाता है। आयुर्वेदिक दृष्टि से शरीर में कफ, पीत और वात की सम अवस्था को स्वस्थ और विषम अवस्था को अस्वस्थ कहते हैं।
महात्मा गाँधीजी ने कहा-शरीर स्वस्थ और मन अस्वस्थ हो, तो वह पूर्ण स्वस्थ नहीं कहा जा सकता है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वासा हो, तब ही वह पूर्ण स्वस्थ होता है। आचार्य तुलसी ने कहा-आत्मा, इन्द्रिय और मन की प्रसन्नता, निर्मलता यह स्वस्थ का प्रतीक है। स्वस्थ और अस्वस्थ की ये विभिन्न परिभाषाएँ हैं। किसी ने मुझसे पूछा-आपके स्वस्थ और अस्वस्थ की क्या परिभाषा है? मैंने कहा-जिस दिन मैं ‘स्व’ स्थित हो जाऊँगा, उस दिन मैं स्वस्थ हो जाऊँगा। (श्रोतागण की ओर से जय-जयकार ध्वनि) जो ‘स्व’ में स्थित नहीं है, वह स्वस्थ कहाँ? वह स्वस्थ नहीं है, वह तो परस्थ है। इन्द्रियों की धार में बहनेवाला, इन्द्रियों के संग में रहनेवाला स्वस्थ कहाँ? जबतक कोई बलवती दसों इन्द्रियों की धार में बहता रहता है, तबतक वह मनमुख होता है। मनमुख आदमी दसमुख का काम करे, तो इसमें आश्चर्य क्या? जो गुरुमुख होता है, वास्तव में वही सच्चा सुख पाता है।
84वें को आपलोगों ने पूरा कर 85वें में पदार्पण किया है। यह 84वाँ और 85वाँ वार्षिक अधिवेशन क्या बतलाते हैं? क्या सन्देश देते हैं? 84 के बाद 85 होता है। 85 के बाद लौटकर फिर 84वाँ अधिवेशन नहीं होगा। यह 85वाँ वार्षिक अधिवेशन बतलाता है कि हम कुछ ऐसी क्रिया साधना करें कि हमें फिर 84 में नहीं आना पड़े। (श्रोतागण की ओर से जय-जयकार की ध्वनि) यह 84 और 85 क्या है? हमलोग 84 और 85 को अंकों में कैसे लिखते हैं? 84 में आठ के आगे 4 देते हैं । 84 = 8 + 4 = 12 । जबतक बारह बाटों में रहेंगे, तबतक 84 में घूमते रहेंगे । (श्रोतागण की ओर से जय-जयकार की ध्वनि)
इसलिए अपने को बारह बाटों से समेटिए और तेरहवें में प्रवेश कीजिए। मेरे बारह और तेरह कहने का तात्पर्य आपलोग शायद समझ गये होंगे। हमारी पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों मिलाकर दस और उनमें इड़ा तथा पिंगला; इन दोनों को मिला दीजिए। कितने हुए? बारह। जबतक हम इन धारों के प्रवाह में बहते रहेंगे, तबतक बारह बाट में रहेंगे। फलतः सुषुम्ना घाट नहीं मिलेगा, जहाँ से भवसागर के चौड़े पाट को पार कर, प्रभु के धाम में ठाट से रहेंगे। अतएव आवश्यकता है, हम उस तेरहवें को अर्थात् सुषुम्ना को जानें। वह सुषुम्ना क्या है? उसकी महिमा क्या है? इन सारी बातों को आप इस अधिवेशन में सुन पायेंगे। एक योगी हुए पंचानन भट्टाचार्य। उन्होंने बतलाया-
“ बामे इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला,
रजस् तमोगुणे करिते छे खेला ।
मध्ये सत्वगुणे सुषुम्ना विमला,
धरऽ धरऽ ताँरे सादरे ।।
आर केन मन भ्रमिछ बाहिरे,
चलऽ ना आपन अन्तरे ।
बाहिरे जार तत्त कर अविरत,
सेत आज्ञाचक्रे बिहरे ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-‘इस तेरहवें में कैसे प्रवेश करोगे? इसके लिए क्या करना होगा?’
“ तेरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनन्त ।।”
तीन अवस्थाओं जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति छोड़ने पर ही हम उस (सुषुम्ना) में प्रवेश कर सकते हैं, जा सकते हैं, अन्यथा नहीं। इस सुषुम्ना की चर्चा हम वेद में पाते हैं; पुराण में पाते हैं; बाइबिल में पाते हैं; कुरान में पाते हैं और सन्तों के जो सद्ग्रन्थ हैं, उनकी जो सत् वाणियाँ हैं, उनके लिए तो कहना ही क्या, उनमें भरपूर चर्चा मिलती है। विश्व का प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है। उसमें एक मंत्र आया है-
“ शृण्व वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य सुष्मिनः।
चरन्ति विद्युतो दिवि ।।”
हम बाह्य आकाश में बिजली चमकते हुए देखते हैं। वेद कहता है कि जिस समय तुम सुषुम्ना में पहुँचोगे, तो वहाँ दिव्य बिजली मिलेगी। हमारे गुरुदेव के वचन में आया है -
“ छट-छट छट-छट बिजली छटके
भोर का तारा दिखता है ।।”
भगवान् शंकर ने श्रीब्रह्माजी को उपदेश देते हुए कहा-
“ एकोत्तरं नाडिशतं तासां मध्ये परा स्मृता ।
सुषुम्ना तु परे लीना विरजा ब्रह्मरूपिणी ।।5।।”
(योगशिखोपनिषद्, अध्याय 6)
हमलोगों के शरीर में बहत्तर करोड़ नाड़ियाँ हैं। उन 72 करोड़ नाड़ियाँ में एक सौ एक नाड़ियाँ मुख्य हैं। इन 101 नाड़ियों में 9 नाड़ियाँ मुख्य हैं। इन नौ नाड़ियों में तीन नाड़ियाँ मुख्य हैं और इन 3 नाड़ियों में एक नाड़ी मुख्य है, वह है सुषुम्ना। वह सत्त्व प्रधान नाड़ी है। सुषुम्ना नाड़ी कहाँ है और कैसे मिलेगी? इस सन्दर्भ में पुनः भगवान् शंकर कहते हैं-
“ बामदक्षे निरुन्धन्ति प्रविशन्ति सुषुम्नया ।
ब्रह्मरन्ध्रं प्रविश्यान्तस्ते यान्ति परमां गतिम् ।।3।।”
(योगशिखोपनिषद्, अध्याय 6)
जो बायें और दायें (बायीं धार और दायीं धार) को रोककर एक करता है, वह सुषुम्ना में प्रवेश करता है; वह ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश्ा कर ब्रह्म को प्राप्त करता है। पुनः ब्रह्माजी जिज्ञासा करते हैं- “ यह बायाँ और दायाँ क्या है और कहाँ है? भगवान् शंकर समाधान करते हुए कहते हैं-
“ इड़ा तिष्ठति वामेन पिंगला दक्षिणेन तु ।
तयोर्मध्ये परं स्थानं यस्तद्वेद स वेदवित् ।।6।।”
(योगशिखोपनिषद्, अध्याय 6)
इड़ा बायीं ओर रहती है और पिंगला दाहिनी ओर। उन दोनों के बीच में जो (सुषुम्ना), उसको जो जानता है, वह वेद जानता है। वास्तव में वही ज्ञान जानता है। वही ज्ञानवान् होता है। इस तरह की बात हम तंत्रशास्त्र में भी पाते हैं।
“ इडा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी ।
इडा पिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ।।
त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्व्वपापैः प्रमुच्यते ।।”
इड़ा बायीं ओर और पिंगला दाहिनी ओर रहती है। इड़ा को गंगा और पिंगला को यमुना नदी कहते हैं। बीच की नाड़ी को सुषुम्ना (सरस्वती) कहते हैं। इस त्रिवेणी-संगम में जो स्नान करते हैं, उनको सर्व पापों से मुक्ति मिलती है। भगवान् शंकर कहते हैं-
“ सुषुम्नैव परं तीर्थं सुषुम्नैव परो जपः ।
सुषुम्नैव परं ध्यानं सुषुम्नैव परा गतिः ।।”
(योगशिखोपनिषद्)
जो सुषुम्ना तीर्थ में स्नान कर लेता है, उसको फिर और किसी तीर्थ मेंं स्नान करने की आवश्कता नहीं रह जाती; बल्कि बाह्य जगत् में जितने तीर्थ हैं, उन तीर्थों में स्नान करने से तन की पवित्रता होती है; लेकिन सुषुम्ना-तीर्थ में स्नान करने से मन की पवित्रता होती है;मन उज्जवल हो जाता है; निर्मल हो जाता है।
भगवान् शंकर सुषुम्ना की महिमा-गाथा गाते हुए अघाते नहीं; पुनः वे ब्रह्माजी से कहते हैं-
“ सुषुम्नायां यदा योगी क्षणैकमपि तिष्ठति।
सुषुम्नायां यदा योगी क्षणार्धमपि तिष्ठति।। 38।।
सुषुम्नायां यदा योगी सुलग्नो लवणाम्बुवत्।
सुषुम्नायां यदा योगी लीयते क्षीरनीरवत्।। 39।।
भिद्यते च तदा ग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते परमाकाशे ते यान्ति परमां गतिम्।। 40।।”
सुषुम्ना में जब योगी एक क्षण भी ठहरता है, सुषुम्ना में जब योगी आधा क्षण भी ठहरता है, सुषुम्ना में जब योगी पानी और नमक के समान मिल जाता है और सुषुम्ना में जब योगी दूध और पानी के समान मिल जाता है, तब (उसकी) ग्रन्थि (गिरह-गाँठ) टूट जाती है, (उसके) सर्म्पूण संशयों का नाश हो जाता है और वह परमाकाश में विलाकर परमगति को प्राप्त कर लेता है। पुनः भगवान् शंकर कहते हैं-
“ गंगायां सागरे स्नात्वा नत्वा च मणिकर्णिकाम् ।
मध्यनाडी विचारस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।”
गंगासागर में स्नान कर मणिकर्णिका को प्रणाम करना (इसका जो फल होता है, वह) मध्य नाड़ी (सुषुम्ना) के विचार के (फल के) सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है ।
“ अश्वमेध सहस्त्राणि वाजपेयशतानि च ।
सुषुम्ना ध्यानयोगस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।”
हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ सुषुम्ना-ध्यान-योग का सोलहवाँ भाग भी नहीं है। एक अश्वमेध यज्ञ करना तो महामुश्किल होता है, सैकड़ों और हजारों अश्वमेध यज्ञ करना क्या सहज, सरल और सम्भव है? फिर भी यदि कोई कर भी ले, तो सुषुम्ना ध्यान की तुलना में तुच्छ होगा।
“ अनेक यज्ञदानानि व्रतानि नियमास्तथा ।
सुषुम्ना ध्यानलेशस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।”
अनेक यज्ञ, दान, व्रत और नियम; स्वल्पमात्र सुषुम्ना-ध्यान के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है।
‘सुषुम्नायां प्रवेशेन चन्द्रसूर्यौ लयं गतौ ।।’
(योगशिखोपनिषद्)
सुषुम्ना में प्रवेश करने से चन्द्र-सूर्य लय होते हैं। समझने की बात है कि अभी आपलोग जाग्रत् अवस्था में हैं। हमारे सामने दिन में सूर्य और रात में चन्द्र होता है; लेकिन जो सुषुम्ना में प्रवेश करते हैं, तो उनको न रात का ज्ञान रहता है, न दिन का ही। इस विषय की बात हमारे गुरुदेव के वचन में इस भाँति आयी है; उन्होंने अपनी अनुभूति लिखी है-
“ साधन में पगि जाइ, अतिहि गम्भीर हो ।
या तन सुधि नहीं रहे, धीर वर वीर सो ।।
साँझ भोर दिन रैन, कछु जान नहीं ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ बाहर जड़वत् रहै, माहि चेतन सही ।।”
इस क्रिया में बाहर के चन्द्र और सूर्य तो लय हो ही जाते हैं, बात रही भीतर की। उस विषय में बात ऐसी है-बायीं धार को चन्द्र नाड़ी और दायीं धार को सूर्य नाड़ी कहते हैं। दायीं धार उष्ण और बायीं धार शीत है। सुषुम्ना में प्रवेश करने पर ये दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। दोनों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व नहीं रह जाता है। इस दृष्टि से ये चन्द्र-सूर्य भी विलीन हो जाते हैं। सन्त कबीर साहब कहते हैं-
“ गगन की ओट निशाना है ।
दाहिने सूर चन्द्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना ।।”
पवित्र बाइबिल में लिखा है- “ यदि तेरी आँख एक हो, तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा।” जो कोई सुषुम्ना में प्रवेश करते हैं, उनको अन्तःप्रकाश मिलता है और वे प्रकाश विविध भाँति के होते हैं।
कुरान शरीफ में लिखा है-‘अल्लाह ने मूसा से कहा-तुम मुझे नहीं देख सकते, पहाड़ को देखो। वह पहाड़ देखने लगा। देखते-देखते पहाड़ चूर-चूर हो गया, एक तारा निकल आया। मूसा को सतोष हुआ कि कुछ मिला है। देखते-देखते चन्द्रोदय होता है। वह कहता है-यह उससे बड़ा है। देखते-ही-देखते सूर्योदय हो जाता है। मूसा कहता है-उससे यह बहुत बड़ा है।’
इस विषय में हमारे परम पूज्य गुरुदेव का कथन है कि साधक को साधना-काल में तारे, चन्द्र और सूर्य के दर्शन होते हैं; यथा-
“ चमके तारा सुषमन द्वारा, सहस कमल लख री ।
त्रिकुटी सूरज ब्रह्म दरस कर, सूरत शब्द रल री ।।”
तथा- “ चन्दा उगत उदय हो रविहू,
धूर शब्द मिल जाता है ।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
जब कोई साधक अपने को आज्ञाचक्र में प्रतिष्ठित कर पाता है, यानी दशवें द्वार में प्रतिष्ठित कर पाता है, तो वृत्ति का पूर्ण सिमटाव होता है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है और वह अपने अन्दर आज्ञाचक्र में तारे, सहस्त्रकमल में चन्द्र और त्रिकुटी में सूर्य के दर्शन करता है। निष्कर्ष यह कि साधक जब अन्तस्साधना करने के लिए बैठता है, तो वह अपनी आँखों को बन्द कर लेता है। वह बाह्य-जगत् को विस्मृत कर अन्तर्जगत् में गुरु-निर्देशित स्थान पर अपने को स्थित कर मानस-जप और मानस ध्यान करता है। उस समय उसको बाह्य-जगत् के चन्द्र या सूर्य का ज्ञान नहीं रहता है ।
जब क्रिया-विशेष (दृष्टियोग) के द्वारा साधक अपनी युगल दृष्टि-धारों को एकत्र करता है, तो बायीं और दायीं यानी चन्द्र और सूर्य; दोनों नाड़ियाँ सुषुम्ना में एक हो जाती हैं। इस प्रकार वहाँ के दोनों चन्द्र-सूर्य लय हो जाते हैं।
साधना में अग्रसर होने पर सहस्त्रार में उसको चन्द्र और त्रिकुटी में सूर्य के दर्शन होते हैं। नादानु- संधान क्रिया के द्वारा जब वह त्रिकुटी से आगे शून्य, महाशून्य, भँवर गुफा और सतलोक में अवस्थित होता है, तो अन्तर के भी चन्द्र और सूर्य नहीं रहते; साधक के सारे क्लेश निःशेष हो जाते हैं। वह दुःख के देश को पार कर सुख के देश में प्रवेश कर जाता है। इसलिए परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में आया है-‘छूटेउ दुःख को देश’ और गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ सोक मोह भय हरष दिवस निसि,
देश काल तहँ नाहीं ।।”
इससे मिलती-जुलती बात संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कहौ ँ उस देश की बतियाँ,
जहाँ नहिँ होत दिन रतियाँ ।।
नहीँ रवि चन्द्र औ तारा,
नहीं उँजियार अँधियारा ।।
नहीँ तहँ पवन औ पानी,
गये वहि देस जिन जानी ।।
नहीँ तहँ धरनि आकासा,
करै कोइ सन्त तहँ वासा ।।
उहाँ गम काल की नाहीं,
तहाँ नहिं धूप औ छाहीं ।।”
सन्तों की वाणियों में हम विलक्षण साम्य पाते हैं। वहाँ दिन-रात की कोई बात नहीं रहती। इस भाँति साधक के समक्ष उपर्युत्तफ़ किसी प्रकार का चन्द्र वा सूर्य नहीं रहता है। वहाँ मात्र आत्मप्रकाश रहता है। इसलिए सन्त कबीर साहब कहते हैं-
“ सखिया वा घर सब से न्यारा,
जहँ पूरन पुरुष हमारा ।
जहँ नहिं सुख दुख साँच झूठ नहिं,
पाप न पुन्न पसारा ।
नहिं दिन रैन चन्द नहीं सूरज,
बिना जोति उँजियारा ।”
जहाँ चन्द्र, सूर्य, तारे दिन-रात आदि नहीं हैं, यह इस लोक की-इस बाह्य जगत् की बात नहीं है। वह तो अध्यात्म-जगत् की बात है। गुरु नानकदेव जी महाराज कहते हैं कि परमात्म-धाम में यद्यपि चन्द्र, सूर्य, तारे वा गैणारे कुछ भी नहीं है, फिर भी वह आत्मलोक आत्मा-आलोक से आलोकित रहता है-
“ झिलमिल झिलकै चंदु तारा ।
सूरज किरणि न बिजुलि गैणारा ।।
अकथी कथहु चिहनु नहिं कोई ।
पूरि रहिआ मन भाइदा ।।”
सन्त चरणदासजी महाराज कहते हैं-
“ जहँ चन्द नहिं सूर जहाँ नहिं जगमग तारे ।
जहँ नहीं त्रैदेव त्रिगुण माया नहीं लारे ।।”
कितना गिनाया जाय, संतों की वाणियों में इसकी भरपूर चर्चा मिलती है। कठोपनिषद् में आया है-
“ न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्र-तारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य
भासा सर्वमिदं विभाति ।।”
वहाँ उस आत्मलोक में सूर्य प्रकाशित नहीं होता, चन्द्रमा और तारे भी नहीं चमकते और न ही विद्युत ही चमचमाती है, फिर इस अग्नि की तो बात ही क्या है? उसके प्रकाशमान होते हुए ही सब कुछ प्रकाशित होता है और उसके प्रकाश से ही सब कुछ भासता है। श्रीमद्भगवद्गीता में महायोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण का वचन है-
“ न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।”
इस प्रकार सुषुम्ना में प्रवेश करने पर सभी प्रकार के चन्द्र और सूर्य की विलीयमानता हो जाती है। सन्त तुलसी साहब ने सुषुम्ना को सुरत-शिरोमणि घाट कहा है-
‘सुरत शिरोमणि घाट गुमठ मठ मृदंग बजै रे ।।’
सुरत-शिरोमणि घाट वह है, जहाँ विन्दु मिलता है। जिसको वह विन्दु मिल गया, वही चलते-चलते एक दिन भवसिन्धु को पार कर सकेगा। यह सुषुम्ना ध्यान की महिमा है। इसी सुषुम्ना-ध्यान की महिमा के विषय में विस्तारपूर्वक आपलोगों को क्रम-क्रम से बतलाया जाएगा और क्रिया विशेष भी बतलायी जाएगी। सुषुम्ना-ध्यान करना सबके लिए सरल और स्वाभाविक है। इसमें न हाथ मैला, न पैर मैला, कहीं जाने-आने की कोई आवश्यकता नहीं। घर में बैठकर कीजिए। परमात्मा ने आपको जैसी योग्यता दी है, तदनकुल आसन पर बैठिए और सरल एवं सहज साधना कीजिये। गृहस्थ-विरक्त, धनी-निर्धन, विद्वान्- अविद्वान्; सभी कोई कर सकते हैं। क्या नर, क्या नारी; सभी इसके समान अधिकारी हैं।
“ जितने मनुष तन धारि हैं,
प्रभु-भक्ति कर सकते सभी ।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ चहु वरना को दे उपदेश,
ता पंडित को सदा अदेश ।”
तथा- “ राज महि राज योग महि योगी ।
तप में तपिसुर गृहस्थ महि भोगी ।।
ध्याय ध्याय भक्तः सुख पाया ।
नानक तिस पुरुष का किन अंत न पाया ।।”
यही एक सुषुम्ना मार्ग है, जहाँ से चलकर प्रभु के पास पहुँच जाता है। इतना कहकर अपने प्रवचन में अब मैं विराम देता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के 85वें वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर बिहार राज्यान्तर्गत अररिया जिले के रानीगंज में दिनांक 24-02-1996 ई0 को प्रातःकाल में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जुलाई 1996 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आपलोगों ने महात्माओं और विद्वानों से परम पूज्य गुरुदेव के पवित्र चरित्र के सम्बन्ध में बहुत कुछ सुना। अब उनके जीवन वृत्त की ओर नहीं जाकर उनके कथामृत और वचनामृत की ओर आपके चित को आकर्षित करना चाहूँगा। गुरुदेव ने सन्तमत का ज्ञान दिया। संतमत अर्थात संतों का मत। यह सन्तमत सर्वधर्म समन्वय-मत है। इसलिए इस सन्तमत में ईसाई, इस्लाम, वैदिक, बौद्ध, जैन, सिख आदि सभी मत समाहित हैं। शान्ति-प्राप्त महापुरुषों को संत कहते हैं। संतों के मत वा धर्म को संतमत कहते हैं।
एक बार का प्रसंग है कि समुद्र का एक मेढ़क बाढ़ में एक कुएँ में आ गया। कुएँ में जो रहनेवाला मेढ़क था, उसने उससे पूछा- “ तुम कहाँ से आए हो?” समुद्र के मेढ़क ने कहा- “ मैं समुद्र से आया हूँ।” कूप-मण्डूक ने पूछा- “ समुद्र कितना बड़ा होता है?” समुद्र के मेढ़क ने कहा- “ समुद्र बहुत बड़ा होता है।” कूप- मण्डूक ने अपना बित्ता फैलाकर पूछा- “ इतना बड़ा होता है?” उसने कहा- “ नहीं जी! बहुत बड़ा होता है।” कूप-मण्डूक ने अपनी दोनों टाँगें फैलाकर पूछा- “ इतना बड़ा समुद्र होता है?” समुद्र के मेढ़क ने उत्तर दिया- “ नहीं भाई! समुद्र बहुत बड़ा होता है।” कूप-मण्डूक ने कुएँ के एक छोर से दूसरे छोर पर जाकर पूछा- “ कहो इतना बड़ा होता है?” समुद्र-मेढक बोला- “ नहीं भाई! कहाँ समुद्र और कहाँ कूप! कूप की बात तुम क्या कर रहे हो!” कूप-मण्डूक ने झिझकते हुए कहा- “ गप्पा कहीं का! कूप से बड़ा क्या हो सकता है?” साम्प्रदायिक संकीर्णतावाले अपने को उसी तरह घेरे में रखकर समझते हैं कि दुनिया इतनी ही बड़ी है। सन्तमत कहता है-अपनी साम्प्रदायिक दीवार को तोड़ो और देखो कि दुनिया में क्या है? संतमत साम्प्रदायिक संकीर्णता से बहुत ऊपर है।
आज भारत ही नहीं, विश्व में हाहाकार मचा हुआ है। अत्याचार, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार न जाने क्या-क्या दुर्व्यवहार फैले हुए हैं। क्यों? इसका मूल कारण क्या है? आध्यात्मिकता का अभाव। इसलिए हमारे गुरुदेव कहा करते थे- “ सबसे ऊपर में लिखो ‘आध्यात्मिकता।’ उसके नीचे लिखो ‘सदाचारिता।’ उसके नीचे लिखो ‘सामाजिक-नीति।’ और उसके नीचे लिखो ‘राजनीति।’ जहाँ आध्यात्मिकता का प्रचार और प्रसार होगा, वहाँ के लोग सदाचारी होंगे। जहाँ के लोग सदाचारी होंगे, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी और जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति बुरी हो नहीं सकती; क्योंकि आध्यात्मिकता का सदाचार से वैसा ही सम्बन्ध है, जैसे अंग्रेजी के वर्ण ‘Q’ के साथ ‘U’ का संबंध होता है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे-लोग राजनीति में उन्नति येन-केन प्रकारेण रहकर भी कर सकते हैं; लेकिन आध्यात्मिक उन्नति येन-केन प्रकारेण रहकर नहीं कर सकता। जिनको आध्यात्मिक उन्नति चाहिए, उनके लिए सदाचार का पालन अनिवार्य है। सदाचार विहीन और वाक्य-ज्ञान में प्रवीण जन सदा दीन-हीन बना रहेगा; कभी उसका उत्थान नहीं हो सकता। आवश्यकता है सदाचार-पालन की। सदाचार यानी सत् आचार, सच्चा व्यवहार। सदाचार क्या है? पंच पापों का न करना सदाचार है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से जो विरत रहते हैं वे सदाचार का पालन करते हैं। इसी को भगवान् बुद्ध ने पंचशील की संज्ञा दी थी और कहा था जो सदाचारी होते हैं, उनको पाँच चीजें मिलती हैं-1- संसार में उनकी कीर्ति फैलती है। 2- उनके धन का अपव्यय नहीं होता। 3- जिस किसी सभा में जाकर वे प्रवचन देते हैं, तो लोगों पर उनके प्रवचन का प्रभाव पड़ता है। 4- उनकी मृत्यु सुखकर होती है और 5- मरने के बाद वे सुखकर स्थान में जाते हैं। जो सदाचारहीन होते हैं, उनको भी पाँच चीजें मिलती है-1- संसार में उनकी अपकीर्ति फैलती है। 2- उनके पैसे का अपव्यय होता है। 3- सभा में उनके प्रवचन का प्रभाव लोगों पर नहीं पड़ता। 4- उनकी मृत्यु कष्टकर होती है और मृत्योपरान्त वे कष्टकर स्थान में जाते हैं।
भगवान् बुद्ध से उनके एक शिष्य ने पूछा था- “ भन्ते! हम देखते हैं-कमल, जूही, तगर, बेला आदि फूलों की सुगन्ध हवा के अनुकूल चलती है। क्या ऐसी भी कोई सुगंध है, जो हवा के प्रतिकूल जाती हो?” भगवान् बुद्ध ने कहा था- “ हाँ, है और वह है-सदाचार की सुगंध, जो ऊँचे देवताओं तक जाती है।” सन्तों का ज्ञान सदाचार समन्वित हो भगवद्-भजन करने का है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे-
‘पालन हो सदाचार ना, आचार ‘मेँहीँ’ क्या ।’
अगर सदाचार का पालन नहीं है, तो बाह्य दिखलावा किस काम का? संतों के कहे अनुकूल अगर उनकी एक बात पर हमलोग दृढ़ हो जाएँ, तो विश्व का कल्याण हो जायगा। संतगण पंच पापों से बचने के लिए कहते हैं। सबसे पहली बात है-झूठ । यदि एक परिवार के सभी लोग आपस में झूठ बोलना छोड़ दें, सभी लोग परस्पर सत्य-ही-सत्य का व्यवहार करें, तो क्या उस परिवार में कलह होगा? आपस में सबको एक-दूसरे से प्रेम होगा। यदि एक समाज के सब लोग एक-दूसरे से सत्य बोलना शुरू कर दें; आपस में झूठा व्यवहार न करें, तो क्या उस समाज में लड़ाई-झगड़ा कुछ होगा? आपस में समाज के सभी लोग प्रेम से रहेंगे; मेल से रहेंगे। अगर एक देश के सभी लोग आपस में सत्य व्यवहार करने लग जाएँ, तो क्या अत्याचार, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार आदि कोई भी दुष्कर्म होगा? सदा शान्ति विराजती रहेगी। लोगों के मन में होगा कि हमें सत्य बोलना है; यदि कुकर्म करेंगे, तो पूछने पर क्या उत्तर देंगे; नीचा देखना पड़ेगा। हमारे गुरुदेव कहते हैं-झूठ पाप का ऐसा बड़ा झोला है, जिसमें सभी पाप समा जाते हैं। कितने भी पाप कर लिये, कह दिया मैंने नहीं किया। क्या हुआ? झूठ के झोले में सभी पाप समा गये। एक जगह मैं सत्संग-प्रचार में गया था। वहाँ एक दीवार पर लिखा हुआ था-
“ बाप रे बाप! झूठ सबसे बड़ा पाप ।”
एक झूठ छोड़ दें। आपस में सबको मेल हो जायगा। चोरी नहीं करें। किसी की चीज बिना पूछे ले लेना, यह चोरी है। हमारा जो कर्तव्य है, उस कर्तव्य पालन में हम अपनी योग्यता के अनुकूल मनोयोगपूर्वक नहीं जुड़ जाते हैं, तन बल के साथ नहीं लग जाते हैं, तो यह भी चोरी है। हम नौकरी करते हैं; इतने घंटे हमको काम करना है। केवल घंटा ही पूरा करना नहीं है। मनोयोगपूर्वक उतने घंटे अगर आप काम करते हैं, तो सत्य में बरतते हैं। गुरु महाराज कहते थे-जो मन से भजन नहीं करता; भजन करने में मन चुराता है, तो वह भी चोरी करता है। नशा-सेवन से देश की कितनी बुरी हानि हो रही है, कहा नहीं जा सकता। बाहर के प्रायः सभी देशों का कर्जदार है भारत। भारत के प्रत्येक नागरिक कर्जदार हैं, फिर भी भारतवासी प्रतिदिन ग्यारह करोड़ रुपये की सिगरेट पीता है। जो देश कर्जदार हो और ग्यारह करोड़ रुपये की प्रतिदिन सिगरेट पीता हो, देश का दुर्भाग्य है; दुःखद और लज्जास्पद बात है। सिगरेट के डब्बे पर लिखा हुआ रहता है- Cigarette smoking is injurious to health/सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, फिर भी लोग सिगरेट पीते हैं। सिगरेट का एक कश लेकर उसके धुएँ को आप अपने सादे कपड़े पर दीजिए। देखिएगा, उसमें दाग पड़ जाएगा। सिगरेट के धुएँ का दाग पड़ता है आपके कपड़े पर और आपका कलेजा कितना कोमल है। उस कोमल पर जो धुआँ लगता है, वह वहाँ जाकर घाव पैदा करता है; टी0बी0 और कैन्सर रोग होते हैं। सिगरेट पीनेवाला बीमार होता है। एक तो उसने सिगरेट पीने में पैसे खर्च किये; अस्वस्थ होने से काम नहीं कर सकने के कारण समय बर्बाद किया। उसकी बीमारी के कारण उसकी सेवा में आदमी रहा। डॉक्टर के पास गया, डॉक्टर की फीस और औषधि में पैसे खर्च हुए, काम इतने दिनों तक नहीं किया। सब हानि-ही-हानि। लाभ क्या हुआ पीने से? यह तो केवल सिगरेट का आँकड़ा है, प्रतिदिन ग्यारह करोड़ रुपये खर्च होने का। बीड़ी की बात तो अलग ही है कि उसमें कितने पैसे लगते हैं। जिस समय हमारा भारत परतंत्र था, हमारे ऊपर अंग्रेजों का शासन था, उस समय हम शराब की दुकान पर जाते थे। सत्याग्रह करते थे कि शराब मत बेचो। आज हम स्वतंत्रता लाभ करके क्या कर रहे हैं? जितनी दुकानें उन दिनों शराब की नहीं थीं, आज उससे कितनी गुनी शराब की दुकानें हो गई हैं। शराब पीते हैं, मस्तिष्क खराब होता है; पाचन-क्रिया कमजोर होती है; किडनी खराब होती है। भगवान् बुद्ध ने कहा था- “ तुम सिंह से मत डरो, सर्प से मत डरो; लेकिन शराब से डरो।” हमारे सम्पादकजी एक दिन कह रहे थे कि कोई शराबी शराब पीकर एक दिन सड़क पर झूमता चला आ रहा था। लड़खड़ाते हुए वह नाले में गिर गया। नाले में गिरकर वह नगरपालिका के चेयरमैन पर गालियों की बौछार करने लग गया। कहने लगा- “ नगरपालिका का जो चेयरमैन है, वह दिन के समय में तो नाले को सड़क की बगल में रखता है और जब शाम का समय होता है, हम चलने लगते हैं, तो नाले को सड़क की बीच में लाकर रख देता है।” सड़क के किनारे वह बेहोश पड़ा रहता है। उसको कुत्ता सूँघता है। उसके बाल-बच्चे सभी दुःखी रहते हैं; लेकिन उसको कोई गम नहीं है। शराब के सेवन से तन, धन, धर्म आदि सभी प्रकार की हानियाँ होती हैं, इसलिए संतों ने नशा सेवन से मनाही की। अगर शराब के पैसे, बीड़ी-सिगरेट के पैसे जो प्रतिदिन खर्च होते हैं, जमा किए जाएँ, बीमारी के कारण जो काम की क्षति होती है तथा डॉक्टरों की फीस तथा दवाइयों में जो पैसे खर्च होते हैं, इन सब बातों पर यदि विवेक विलोचन से अवलोकन किया जाय, तो देश की एक बहुत बड़ी सेवा होगी। मैं कहता हूँ कि यदि हमारी सरकार इस ओर ध्यान देने की कृपा करे, तो देश की प्रगति और लाभ अवश्य होगा। सभी सन्तों ने एक स्वर से झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार का वर्जन किया है। वैदिक ग्रन्थों के अतिरिक्त इस्लाम और ईसाई धर्म में भी व्यभिचार की मनाही है। जो कोई झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, नशीली चीजों का सेवन करते हैं, हिंसा करते हैं, तो वे अकेले पाप करते हैं और जो व्यभिचार करते हैं, वे दुगुने पाप के भागी बनते हैं; क्योंकि वे अपने तो बनते ही हैं; दूसरे को भी पापी बनाते हैं। कुरान शरीफ में हैं-जिनाकारी मत करो। मैंने बाइबिल में पढ़ा- Ten commandments of god अर्थात् ईश्वरीय दस आज्ञाएँ हैं। उनमें एक आज्ञा यह है- Do not adultury. अर्थात् व्यभिचार मत करो। हिंसा हम मन से भी करते हैं, वचन से भी करते हैं और कर्म से भी करते हैं। इन सब प्रकार की हिंसाओं से हम बचें। हिंसा के सिलसिले में मांस, मछली, अंडा आदि खाने की मनाही है। ब्रिटिश हेल्थ मिनिस्टर मिसेज क्यूरी का कहना है कि अण्डे खाने से मौत होती है, अण्डे के खाने से कैन्सर होता है, अण्डे के खाने से टी0बी0 होता है, बच्चे को अण्डे खिलाने से दाद, दिनाई, खुजली आदि सैकड़ों प्रकार के रोग होते हैं। अमेरिका के दो सुप्रसिद्ध डॉक्टर के नाम डॉ0 ब्राउन और डॉक्टर गोल्ड स्टीन हैं, जिनको अट्ठाइस लाख रुपये का नोबल पुरस्कार मिला हुआ है। उन्होंने लिखा है- “ अण्डा खाने से हार्ट अटैक होता है।” मुर्गी जो पाली जाती है, उसकी सुरक्षा के लिए डी0डी0टी0 छिड़कते हैं। वह डी0डी0टी0 मुर्गी के आहार में जाता है और प्रत्येक अण्डे में पन्द्रह हजार छिद्र होते हैं, जो इन आँखों से देखे नहीं जाते। वे छिद्र होने का मतलब है कि डी0डी0टी0 का उसमें प्रवेश हुआ है। जो उसको खाते हैं, डी0डी0टी0 के विष के कारण उनको अनेक प्रकार के रोग होते हैं। लिखा है ढाई तीन साल तक मुर्गी अण्डा देती है, उसके बाद वह अंडा देना बंद कर देती है। प्रायः उन मुर्गियों को कैन्सर रोग हो जाता है। जो उन मुर्गियों के मांस खाते हैं, उनको भी कैन्सर रोग हो जाता है। ब्रिटेन में अंडे की बिक्री 70 प्रतिशत कम हो गई है; क्योंकि अंडे खाना लोगों ने छोड़ दिया है। विदेश के लोग अंडा खाना छोड़ रहे हैं और हमारे यहाँ टी0वी0 पर प्रचार होता है-‘सण्डे हो या मण्डे रोज खाइये अंडे।’ दुःख और दुर्भाग्य की बात है। डॉक्टरों ने लिखा है, मांस खाने से बहुत तरह की बीमारियाँ होती हैं-यकृत खराब होता है, किडनी खराब होती है। जो शाकाहारी होते हैं, उनकी आँत लम्बी होती है और जो मांसाहारी प्राणी होते हैं; जैसे बाघ, सिंह, बिल्ली, कुत्ते आदि इन सबकी आँत छोटी होती है। जो मांसाहारी प्राणी होते हैं, उनकी आँत से मांस पचकर जल्दी निकल जाता है; लेकिन शाकाहारी प्राणी-मनुष्य की आँत उसके शरीर की लम्बाई से चार गुनी लम्बी होती है, शाकाहारी भोजन जल्दी पचकर निकल जाता है। मांस के पचने और निकलने में देर लगती है। जबतक मांस शरीर में पचता है, वह बाहर निकलते-निकलते भीतर में ही सड़ जाता है, जिसके कारण वह बहुत प्रकार के रोग पैदा करता है। डॉक्टर ने लिखा है कि जिस समय बधिक बकरे, बछड़े या जिस किसी भी जानवर का बध करने के लिए उद्यत होता है, तो उसे देखकर पशु के हृदय में पीड़ा उत्पन्न होती है और बधिक के प्रति उसको आक्रोश होता है। इस प्रकार एक तरफ दुःख और दूसरी तरफ आक्रोश होने के कारण उसके रक्त में जो यूरिया और यूरिक एसिड रहता है, वह रक्त से निकलकर मांस में चला जाता है और उस मांस के आहारी को कैन्सर, टी0बी0 आदि रोग होते हैं। इसलिए भी सन्तों ने शाकाहारी बनने की सतत सीख दी है-
“ मांस मछलिया भोजन त्यागो ।
सतगुण खान-पान में पागो ।।”
और मछली के लिए तो कहना ही क्या? मछली इतनी अपवित्र चीज है, जिससे बढ़कर और क्या कहा जाय! मान लीजिए, कोई टी0बी0 की बीमारी के कारण मर गया। उसको नदी में फेंक दिया गया। मछली उसको नोच-नोच कर खाती है। उस मछली को जो खाता है, तो टी0 बी किसको होगी? कैंसर रोगी की लाश नदी में भँसती चली जा रही है, उस लाश को मछली नोच-नोच कर खाती है। कैंसर किसको होगा? यह तो दूर की बात है। देहात में लोग पाखाना फिरने के लिए खेतों, मैदानों, जंगलों में जाते हैं। शौच करने के लिए सरोवर या नदी किनारे जाते हैं। जैसे ही वे शौच करते हैं और पाखाने का टुकड़ा निकलता है, वैसे ही मछली उसको निगल जाती है। जो मछली पाखाने को निगल जाती है, उस मछली को जो निगल जाय, उसके लिए क्या कहा जाय! कोई टी0बी0 का पेसेण्ट है; कोई कैन्सर का पेसेण्ट है, वह नदी, जलाशय, सरोवर में जाता है स्नान करने के लिए, मुँह धोने के लिए। जैसे वह खखार फेंकता है, थूक फेंकता है, उस खखार में भी टी0 बी0 की बीमारी के कीटाणु रहते हैं, उसको जो मछली खाती है, उस मछली को जो खाता है, तो बताइए टी0 बी0 और कैन्सर के रोग किसको होंगे? इसलिए संतों ने पहले ही आमिष-भक्षण का वर्जन किया है। जो कोई झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, और व्यभिचार से अपने को बचाकर रखते हैं, वे सदाचार का पालन करते हैं। वे ही अध्यात्म-पथ के पथिक हो सकते हैं, अन्य नहीं। कठोपनिषद् में यम-नचिकेता का संवाद है। यम ने नचिकेता को उपदेश देते हुए कहा-
“ नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।। 24।।”
अर्थात् जो पापकर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान-द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है। वास्तविक बात तो यह है कि ब्रह्मवत् परिशुद्ध हुए बिना कोई ब्रह्म को प्राप्त नहीं कर सकता। गुरु नानकजी महाराज कहते हैं-
“ सूचै भाड़े साचु समावै, बिरलै सुचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ, नानक सरणी तुम्हारी ।।”
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। हम अपने को पवित्र बनाएँ। हम सात्त्विक भोजन करते हैं, बहुत अच्छी बात है। अन्न को चुन-चुनकर धोकर पवित्र बनाकर हमलोग भोजन करते हैं। जो हमलोग मुँह से भोजन लेते हैं, यह पवित्र भोजन करते हैं; सात्त्विक भोजन करते हैं, बहुत अच्छा करते हैं; लेकिन इसके अतिरिक्त और भी हमलोग भोजन करते हैं। वह भोजन भी हमारा पवित्र होना चाहिए। कुछ भोजन तो हम मुँह से करते हैं और कुछ भोजन आँख से करते हैं। जो हम देखते हैं-आँख से ग्रहण करते हैं, वह आँख का भोजन है। इसलिए हम आँख से जो देखें, वह पवित्र देखें। वह पवित्र भोजन हमारे भीतर जाएगा। हम कान से भोजन करते हैं। इसलिए कान से ऐसे शब्द सुनें, जो पवित्र हो। वह हमारे भीतर जाएगा। हम नासिका से गंध लेते हैं। पवित्र गंध लें, जो हमारे भीतर जाकर पवित्रता लाएगी। हम रसना से स्वाद लेते हैं। हम पवित्र भोजन जिभ्या पर रखें, वह हमारे भीतर हमारे मन को पवित्र करेगा। त्वचा से हम स्पर्श करते हैं। हम ऐसा स्पर्श करें, जो पवित्र स्पर्श हो। इस तरह रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; ये पंच विषय हैं। इनकी पवित्रता हमारे भीतर तक जाए, हमारा मन पवित्र होगा। अन्यथा हम यदि अपवित्र चीजें देते रहेंगे, तो भजन करने योग्य पवित्र मन कैसे हो सकता है? तो-
“ खान-पान को प्रथम सम्हारो ।
तब रस-रस अवगुण सब मारो ।।
नित सतसंगति करो बनाई ।
अंतर बाहर द्वै विधि भाई ।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा ।
अंतर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
यह हमारे गुरुदेव का उपदेश है। इस तरह हमलोग सदाचार का पालन करें। ईश्वर-प्राप्ति के लिए हमारे गुरुदेव ने जो बात कही, वही बात सभी सन्तों ने कही है। अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति अपने अन्तर में होगी, बाहर में नहीं। जब अंदर में एक बार प्राप्त हो जाय, तब बाहर-भीतर प्राप्त-ही-प्राप्त है। गुरुनानक देवजी महाराज ने कहा है-
“ बाहरि भीतरि एको जानहु, इहु गुर गिआन बताई ।
जन नानक बिनु आपा चीनै, मिटै न भ्रम की काई ।।”
जबतक आत्मा की पहचान नहीं होगी, परमात्मा की पहचान नहीं होगी। एक सुभाषितकार ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ।
इबादत है किसी बरबाद को फिर आबाद कर देना ।।
यही सीखा है सागर हमने मुर्शद के कदम छूकर ।
खुदा से हो अगर मिलना पता खुद का लगा लेना ।।”
जबतक खुद का पता नहीं होगा, खुदा का पता नहीं होगा। इसलिए आत्मा की पहचान करो, परमात्मा की पहचान हो जाएगी। आत्मा की पहचान के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं। गुरु नानक देवजी महाराज कहते हैं-
“ काहे रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई ।।”
हाथरस के एक कामिल फकीर का कलाम भी कितना लाजवाब है, सुनिये-
“ सुन ऐ तकी न जाइयो, जिनहार देखना ।
अपने में आप जलवए, दिलदार देखना ।।
पुतली में तिल है तिल में भरा, राज कुल का कुल ।
इस परदए सियाह के, जरा पार देखना ।।
चौदह तबक का हाल अयाँ हो तुझे जरूर ।
गाफिल न हो ख्याल से, हुशियार देखना ।।
सुन लामकाँ पै पहुँच के, तेरी पुकार है ।
है आ रही सदा से, सदा यार देखना ।।
मिलना तो यार का नहीं, मुश्किल मगर तकी ।
दुशवार तो ये है कि, दुशवार देखना ।।
तुलसी बिना करम किसी, मुर्शद रसीदा के ।
राहे निजात दूर है, उस पार देखना ।।”
अगर खुदा को प्राप्त करना चाहते हो, परमात्मा को प्राप्त करना चाहते हो, गॉड को प्राप्त करना चाहते हो, तितीन को प्राप्त करना चाहते हो, तो किसी मुर्शिद कामिल के पास जाओ। यदि हमें आर्ट्स पढ़ना है और हम साइन्स-प्रोफेसर के पास जाएँगे अथवा साइन्स हमको सीखना है और कॉमर्स-प्रोफेसर के पास जाएँगे। या यों कहिए कि कॉमर्स सीखना है और आर्ट्स-प्रोफेसर के पास जाएँगे, तो वे क्या सिखायेंगे हमको और हम क्या सीखेंगे? अगर आर्ट्स पढ़ना है, तो आर्ट्स-प्रोफेसर के पास जाओ। साइन्स सीखना है, तो साइन्स-प्रोफेसर के पास जाओ। कॉर्मस सीखना है, तो कॉमर्स-प्रोफेसर के पास जाओ। अगर वकील बनना है, तो लॉ कॉलेज में एडमिशन लो और जो शिक्षक पढ़ावें, पढ़ो, तो वकील बनोगे। डॉक्टर बनना है, तो मेडिकल-कॉलेज में एडमिशन लो और शिक्षक जैसे-जैसे पढ़ायें, वैसे-वैसे पढ़ो, तो डॉक्टर बनोगे। उसी तरह ईश्वर-पथ के पथिक बनना चाहते हो, ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हो, तो जिन्होंने ईश्वर की प्राप्ति की है, उनके पास जाओ। वे जो सिखलायेंगे, उसपर चलोगे, तुम्हारा कल्याण होगा।
“ मुर्शिदे कामिल से मिल सिद्क और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम शहरग के पाने के लिए ।।”
कुरान शरीफ के सूरे फातिहा में लिखा है- “ ये कयामत के दिन का मालिक! मुझे सीधा रास्ता दिखला।” ये सीधा रास्ता क्या है? वह सीधा रास्ता बाहर संसार में नहीं है।
“ बेहोशिये इन्सान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में मोहम्मद बातिन में खुदा है ।।”
ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हो, भीतर चलो। सभी सन्तों ने एक स्वर से यही बात कही। उस ईश्वर की खोज के लिए हम अपने अंदर चलें और किसी सन्त, महात्मा की शरण में जायँ। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय में कहा है-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
तत्त्वदर्शी के पास जाओ; प्रणिपात करो; परिप्रश्न करो, वे तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान करेंगे। लेकिन हम चाहते हैं कि किताबी ज्ञान से ही खुदा को, परमात्मा को, गॉड को हासिल कर लें, सम्भव नहीं।
“ बिन दया सन्तन्ह की ‘मेँहीँ’, जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं, वो होनहारा है नहीं ।।”
“ भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रन्थ से ।
है असम्भव समझ लो किसी सन्त से ।।”
सन्त सद्गुरु के पास जाकर शिक्षा-दीक्षा लो। सदाचार समन्वित-हो साधना करो, तभी प्रभु को प्राप्त कर सकोगे, अन्यथा नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक बड़े मजे की बात कही है-
“ रवि पंचक जाके नहीं, ताहि चतुर्थी नाहिं ।
तेही सप्तक घेरे रहे, कबहुँ तृतीया नाहिं ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जिसको रवि पंचक नहीं है, उसको चतुर्थी नहीं आयेगी। उसको सप्तक घेरकर रखेगा और उसके जीवन में तृतीया नहीं आयेगी। मतलब क्या हुआ? रवि-पंचक का अर्थ होता है-रवि से पाँचवाँ यानी बृहस्पति-गुरु (रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु) अर्थात् जिनको गुरु नहीं है, तो सन्त सद्गुरु के अभाव में उसको चतुर्थी नहीं होगी। चतुर्थी यानी बुध (रवि, सोम, मंगल, बुध) अर्थात् सुबुद्धि नहीं आयेगी। सुबुद्धि नहीं होने के कारण वह सन्मार्ग पर चल नहीं सकता है। सन्मार्ग पर नहीं चलने वाले का परिणाम क्या होगा? ‘तेहि सप्तक घेरे रहे’ सप्तक क्या होता है? शनि (रवि, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि) अर्थात् उसको शनि घेरकर रखेगा और ‘कबहुँ तृतीया नाहिं।’ तृतीया यानी मंगल (रवि, सोम, मंगल)। उसके जीवन में मंगल नहीं आवेगा। इसलिए यदि अपने जीवन में मंगल चाहते हो, तो संत सद्गुरु की शरण में जाओ। साधना सरल है-मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और नादानुसंधान।
इस लोक में सुखमय जीवन जीने के लिए हमलोग कुछ-न-कुछ उद्यम करते हैं। सन्तमत बतलाता है-जागतिक जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करो। परमुखापेक्षी मत बनो। अपनी कमाई से अपना निर्वहण करो। परिवार का भरण-पोषण करो। क्षमता तुममें है, तो समाज की सेवा करो, देश की सेवा करो। विश्व की सेवा करके अपना जीवन कल्याणमय बनाओ। एक ईश्वर पर विश्वास करो। ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखो। सत्संग करो, ध्यान करो, गुरु-सेवा करो; ये पाँच विधिकर्म हैं। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; ये पाँच निषिद्ध कर्म हैं। अगर हम सन्त सदगुरु के सदुपदेश के अनुकूल आचरण करेंगे, तो हमारा इहलोक कल्याणमय होगा और परलोक भी। त्रय लोक में अभय होने के लिए हमलोगो को गुरु महाराज ने सीख दी है। अगर उनकी सीख के अनुकूल उनकी बताई लीक पर हम चलते जायेंगे, तो हमारा जीवन सुखमय बना रहेगा। केवल उनकी जयन्ती मनाकर ही हम अपने को संतुष्ट नहीं समझ लें; बल्कि सही जयन्ती तभी होगी, जब हम उनकी आज्ञानुसार चल सकेंगे। अर्थात् जितनी मात्र में हम उनकी आज्ञा का पालन कर सकेंगे, उतनी मात्र में हमने उनकी जयन्ती मनायी। इन्ही शब्दों के साथ मैं परम पूज्य गुरूदेव के श्रीचरणों में अनन्त प्रणाम करते हुए, अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ! वैशाख की इस चिलचिलाती धूप में, दोपहर की भीषण गर्मी में आपलोग यहाँ पधारे। मतदान के कारण यातायात की असुविधा रहने पर भी इतनी अधिक संख्या में आपलोग यहाँ आए, यह गुरुदेव के प्रति आपलोगों की अटूट श्रद्धा का प्रतीक है। आपलोगों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। त्र्
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन सुरसरि तट पर स्थित महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की 112वीं जयन्ती के शुभ अवसर पर
दिनांक 2-05-1996 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून 1996 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोगों ने वेद मंत्र के पाठ में सुना कि जगत्-प्रसवकर्ता ईश्वर का तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए पहले बुद्धियोग, फिर मानसयोग तत्पश्चात् अग्नि की ज्योतियों का योग करें । योग की इस दृढ़ भूमि को अपने अंदर अच्छी प्रकार धारण करें वेदमंत्र-
“ ओ3म् युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियम् । अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत् ।।”
(य0 अ0 11, म0 1)
‘जगत्-प्रसवकर्ता’ एक सामासिक शब्द है। त्रय शब्दों के योग से यह बना हुआ है। जगत्, प्रसव और कर्ता; ये तीन शब्द हैं। वेदान्त में तीन सत्ताएँ मानी गयी हैं-पारमार्थिक सत्ता, व्यावहारिक सत्ता और प्रातिभासिक सत्ता। पारमार्थिक सत्ता कर्ता है, परमपुरुष परमात्मा है। व्यावहारिक सत्ता जीव है और प्रातिभासिक सत्ता जगत् है। जगत्, जीव, और जगदीश-ये तीन हैं। कितने लोगों का कथन है कि जगत् और जीव हैं, जगदीश नहीं हैं। इस सन्दर्भ में एक घटना सुनाना चाहूँगा। वह यह है कि एक सज्जन यात्र कर रहे थे। घूमते हुए वह एक जंगल में पहुँचे। उस जंगल में एक महात्माजी से उनकी भेंट हुई। उस सज्जन ने महात्माजी से पूछा- “ महात्माजी! आप अकेले इस जंगल में क्या करते हैं?” महात्माजी ने उत्तर दिया- “ भगवद्भजन करता हूँ। ईश्वर-चिन्तन करता हूँ।” उक्त सज्जन ने पूछा- “ क्या ईश्वर है?” महात्माजी ने प्रत्युत्तर में कहा- “ हाँ ईश्वर है।” उक्त सज्जन ने कहा- “ ईश्वर है, यह मैं नहीं मानता हूँ।” महात्माजी ने कहा- “ ठीक है, तुम ईश्वर को नहीं मानो। मैं अमेरिका को नहीं मानता हूँ।” उक्त सज्जन ने कहा- “ महात्माजी! क्या कह रहे हैं आप? अमेरिका तो है और कितने लोग वहाँ से लौटकर आये हैं।” महात्माजी ने कहा- “ ईश्वर भी है और उनके दर्शन करके बहुत लोग आये हैं।” उत्तफ़ सज्जन ने कहा- “ महात्मा जी! आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं होता है, तो आप भूगोल पढ़कर देखिये, आपको पता चल जाएगा कि अमेरिका कहाँ है!” साधु बाबा ने कहा- “ तुमको मेरी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा है। तुम वेद, उपनिषद्, सन्तों की वाणियाँ पढ़कर देखो, तुमको पता चल जाएगा कि ईश्वर कहाँ है।” उत्तफ़ सज्जन ने कहा- “ महात्माजी! मैं अमेरिका का पता आपको बतलाता हूँ-सुनिये, यहाँ दिल्ली में हवाई जहाज पर आप बैठिये और इंग्लैंड पहुँचिए। फिर वहाँ से अमेरिका के लिए विमान जाता है, उसपर बैठकर वहाँ जाइए।” महात्माजी ने कहा- “ तुम मेरी बात सुनो। तुम सुषुम्ना में बैठो। वहाँ से आगे बढ़ो और सहस्त्रदलकमल, त्रिकुटी, शून्य, महाशून्य, भँवरगुफा होते हुए सतलोक पहुँच जाओ। अवश्य ही अंदर में पहले विन्दु के विमान पर और पीछे नाद के वायुयान पर बैठना होगा।”
उत्तफ़ सज्जन ने कहा- “ महात्माजी! ऐसा लगता है कि आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं होता है। सुनिए, एक ग्लोब होता है। उसमें सम्पूर्ण विश्व के चित्र बने हुए रहते हैं, उसमें देखकर आपको पता चल जाएगा कि अमेरिका कहाँ है?” उन साधु बाबा ने कहा- “ बिहार में एक संत हुए हैं-महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज। उन्होंने ‘सत्संग-योग’ नाम की एक पुस्तक लिखी है, जिसके चौथे भाग में उन्होंने पिण्ड-ब्रह्माण्ड का चित्र दिया है; उसको देखने से तुम्हें पता चल जाएगा कि ईश्वर कहाँ रहते हैं?” उत्तफ़ सज्जन ने हाथ जोड़कर कहा- “ महाराजजी! अब मेरा भ्रम दूर हो गया। आपने प्रमाणित कर दिया कि ईश्वर है।” गुरु नानक देवजी ने कहा है-
“ साचे सचिआर विटहु कुरबाणु ।
ना तिसु रूप वरनु नहीं रेखिआ
साचे सबदि निसाणु ।।1।।”
‘साचे सचिआर’ वह है-निश्चित, ध्रुव। ‘विटहु कुरबाणु’-अपने को उसपर कुर्बान करो, न्योछावर करो। लेकिन ‘ना तिसु रूप वरनु नहिं रेखिआ’ अर्थात् उसका रूप नहीं, कोई वर्ण वा रेखा नहीं है। जिसका कोई रूप नहीं, जिसका कोई आकार-प्रकार नहीं, अगर उसको पाना चाहते हो, तो उसकी एक पहचान है कि शब्द के द्वारा उसकी पहचान कर सकते हो। शब्द का सहारा लो और निःशब्दं परमं पदम् में पहुँचो, साक्षात्कार हो जाएगा। यह है पारमार्थिक सत्ता। वेदमंत्र में आया है-उस कर्ता ने प्रसव किया। जिज्ञासा होती है-वह प्रसव क्या है? उत्तर में निवेदन है-वह प्रसव है ओ3म्, स्फोट, उद्गीथ, प्रणव। उसी को परा प्रकृति भी कहते हैं और जगत् है अपरा प्रकृति-क्षर पुरुष। क्षर पुरुष के परे हैं अक्षर पुरूष। अक्षर पुरुष के परे वह पुरुषोत्तम-परमात्मा है। भगवान् श्रीकृष्ण का वचन श्रीमद्भगवद्गीता में है-
“ द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।”
जो क्षर है, वह नाशवान है। वह अपरा प्रकृति है और जो अक्षर है, अविनाशी है, वह परा प्रकृति है। इन दोनों के जो परे है, वह परब्रह्म परमात्मा है। जो अपरा प्रकृति है, वह असत् है और जो परा प्रकृति है, वह सत् है। जो अपरा प्रकृति है, वह सगुण है और जो परा प्रकृति है, वह निर्गुण है। इस सगुण और निर्गुण के जो परे है, वह परमपिता परमात्मा है। इसलिए हमलोग नित्यप्रति पाठ करते हैं-
“ सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में ।।”
संत कबीर साहब कहते हैं-
“ सर्गुन की सेवा करौ, निर्गुन का करु ज्ञान ।
निर्गुन सर्गुन के परे, तहैं हमारा ध्यान ।।”
गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
“ निर्गुण सर्गुण के त्रिहु गुण ते दूरि ।
नानक अलिप्तु रहिआ भरपूरि ।।”
परब्रह्म परमात्मा क्षर में भी है, अक्षर में भी है और क्षर-अक्षर के परे भी है। सगुण में भी है, निर्गुण में भी है और सगुण-निर्गुण के परे भी है। कितना है, कहा नहीं जा सकता; क्योंकि वह स्वरूपतः अनन्त है। अनन्त के परे और कुछ नहीं है। जो कुछ है, वह अनन्त के अंदर ही है। अगर कोई पूछे कि अनन्त के परे क्या है, तो कहा जाएगा कि अनन्त के परे कुछ नहीं है; क्योंकि अनन्त का अन्त ही नहीं है, तो उसके परे क्या हो सकता है! जो पूछता है कि अनन्त के परे क्या है, तो इसका अर्थ होता है कि वह ‘अनन्त’ शब्द का अर्थ नहीं जानता है। अनन्त शब्द एक-ही-एक होगा, एक से अधिक नहीं हो सकता है। वही ईश्वर है, परमात्मा है, गॉड है, अल्लाह है, खुदा है ब्रह्म है। भिन्न-भिन्न भाषाओं में जो कहिए वही है। संतमत उसी एक ईश्वर का ज्ञान देता है। उस ईश्वर का ज्ञान कहाँ मिलेगा? कैसे मिलेगा? इसलिए वेदमंत्र के पाठ में आपलोगों ने सुना-बुद्धियोग करो। बुद्धियोग अर्थात् सत्संग करने के लिए कहा। जबतक हम सत्संग नहीं करेंगे सद्ज्ञान नहीं होगा। सद्ज्ञान नहीं होगा, तो सत् की पहचान नहीं होगी। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा-
“ बिनु सत्संग विवेक न होई ।
रामकृपा बिनु सुलभ न सोई ।।”
और उस राम को जो स्वरूपतः जान लेता है, वह वही हो जाता है।
“ सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।।”
भगवान् श्रीराम ने हनुमानजी से कहा था-
“ दर्शानादर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः ।
या आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम् ।।”
(मुक्तिकोपनिषद्)
हे हनुमानजी! जो दर्शन और अदर्शन को पार कर जाता है, वह कैवल्य स्वरूप हो जाता है। वह ब्रह्मवित् ही नहीं, स्वयं ब्रह्म हो जाता है। जैसे जो नदी समुद्र में जाकर मिल जाती है, उसकी संज्ञा ‘समुद्र’ ही हो जाती है। इसी प्रकार जिन संतों ने अन्तस्साधना करके ब्रह्मरूप का साक्षात्कार किया, वे उस ब्रह्म के साथ मिलकर ब्रह्मरूप हो गये। ऐसे संतो ं का संग भी सामान्य बात नहीं है। यदि ऐसे संतो ं के दर्शन भी हो जायँ, तो सामान्य जन उनको पहचान नहीं सकते; क्योंकि हमारे पास कोई मीटर नहीं है। डॉक्टर ही डॉक्टर को पहचान सकते हैं। वकील ही वकील की पहचान कर सकते हैं। आप कहेंगे कि हम डॉक्टर नहीं हैं; लेकिन डॉक्टर के पास जाते हैं, उनसे बातें करते हैं, पहचानते कैसे नहीं? हम वकील नहीं है; लेकिन वकील को भी पहचानते हैं, उनके पास जाते हैं, उनसे बातें करते हैं, पहचानते कैसे नहीं?
उत्तर में निवेदन है कि आपका कथन सत्य है; किन्तु आपने डॉक्टर वा वकील की पहचान नहीं की है; किसी के कहने-सुनने पर वा साइनबोर्ड के आधार पर आप उनको डॉक्टर और वकील कहकर मानते हैं; किन्तु पहचानते नहीं हैं। संतो ं की पहचान के लिए उनका कोई साइनबोर्ड नहीं होता। संतजन संतों को अपनी आत्मदृष्टि से पहचानते हैं। आज किन्हीं को हम साधुवेश में देखकर उनके वेश-विशेष के कारण अथवा उनकी व्यवहार-कुशलता के कारण अथवा उनको प्रवचन-प्रवीणता के कारण अथवा अन्य किसी कारण से प्रभावित होकर उनको संत मानकर श्रद्धासमन्वित हो सेवा-शुश्रूषा करने लग जाते हैं, उनपर अपने को समर्पित कर देते हैं; किन्तु बाद में किसी घटना-विशेष के कारण जब उनकी वास्तविकता का उद्घाटन होता है, तो उनके प्रति हमारी श्रद्धा समाप्त हो जाती है। इतना ही नहीं, अन्य साधु- सन्तों के प्रति भी, चाहे वे वस्तुतः साधु-सन्त ही क्यों न हों, हम उदासीन होकर उनसे घृणा करने लग जाते हैं। सन्त की पहचान बहुत कठिन है। सन्त तुलसी साहब ने कहा-
“ जो कोई कहे साधु को चीन्हा ।
तुलसी हाथ कान पर दीन्हा ।।”
जिज्ञासा होती है कि जबकि सर्व साधारण जन संत की पहचान नहीं कर सकते हैं, तो सत्संग- संत-संग कैसे किया जा सकता है? उत्तर में निवेदन है कि जो संत पूर्व में हो गये हैं, उनपर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। अतः उन संतों की जो वाणियाँ हैं, वे सत् वाणियाँ हैं; क्योंकि सत्यस्वरूप सर्वेश्वर का साक्षात्कार करके वे संत हुए हैं। उन्हीं संतों की सत् वाणियों का हम संग करें। यह भी सत्संग है। अभी हमलोग यहाँ बैठकर क्या कर रहे हैं? संत वाणियों का ही संग कर रहे हैं। यह सत्संग है। इसलिए-
“ नित्य सतसंगति करो बनाई ।
अन्तर बाहर द्वै विधि भाई ।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा ।
अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
यह बाहर का सत्संग करने से आन्तरिक सत्संग करने की प्रेरणा मिलती है; साधना में सहायता मिलती है। इसलिए इस तरह का सत्संग भी हम करें। पहले संत-वाणियों का संग करें। संत-वाणियों का संग करते-करते कभी-न-कभी साधु-संतो ं का भी संग होगा। उन्हीं साधु-सन्तों में से कोई हमारे सद्गुरु होंगे, जिनसे क्रिया सीखकर सदाचार समन्वित होकर हम साधना करने लगेंगे, तो भविष्य में एक-न-एक दिन ब्रह्मरूप का साक्षात्कार कर सकेंगे। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि वेद भगवान् के वचनानुकूल प्रथमतः हम बाहरी सत्संग करें। पश्चात् आन्तरिक सत्संग के लिए मानस जप, मानस ध्यान और अग्नि की ज्योतियों का योग करेंगे। अग्नि की ज्योतियों का योग ही दृष्टि-योग है। इसके अतिरिक्त उपनिषद् में एक अन्य प्रकार की अग्नि की चर्चा आयी है, जो नादानुसंधान की ओर इंगित करती है।
“ स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ।
ध्याननिर्मथनाभ्यासाद्देव पश्येन्निगूढवत् ।।”
अरणि कहते हैं-यज्ञ की लकड़ी को। यज्ञ की एक लकड़ी को नीचे और दूसरी लकड़ी को ऊपर रखकर घर्षण करने से अग्नि पैदा होती है। उपनिषद् कहता है-अपनी देह को नीचे की अरणि और प्रणव को ऊपर की अरणि बनाकर घर्षण करो, तो निगूढ़ देव-परमात्मा की प्रत्यक्षता होगी।
हमारी देह कौन-सी है, जिसको नीचे की अरणि बनाया जाय? जिस देह में हम ठहरे हुए हैं, वही हमारी देह है। वह है कैवल्य देह-जड़विहीन चेतन देह। स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण-ये चार जड़ देह हैं। जड़ शरीर में रहकर चेतन शब्द का ग्रहण नहीं होता है। साधक जब जड़ावरणों को पार कर कैवल्य में प्रतिष्ठित होता है, तो वहाँ वह सारशब्द को ग्रहण करता है, वही है प्रणव। जैसे याज्ञिक यज्ञ की लकड़ी (अरणि) का मंथन कर अग्नि प्राप्त करते हैं; वैसे ही साधक प्रणव की साधना कर ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं। इससे मिलती-जुलती बात स्वामी ब्रह्मानन्दजी के वचन में पाते हैं-
“ जिमि दूध के मथन से निकसत है घी जतन से ।
तिमि ध्यान की लगन से परब्रह्म ले निहारा ।।”
सारांश यह है कि जो अच्छी तरह से मानस जप और मानस ध्यान करते हैं, तो उनको दृष्टि-योग करने की योग्यता हो जाती है। दृष्टि-योग में कुशलता प्राप्त साधक के लिए नादानुसंधान सरल हो जाता है। फिर तो नादानुसंधान की साधना करते-करते अन्त में परम प्रभु का तत्त्वज्ञान कर जीव भवसागर पार कर जाता है।
“ नाद सों नादों में चलि धरु प्रणव सत ध्वनि सार रे ।
एक ओम् सत नाम ध्वनि धरि, मेँहीँ हो भव पार रे ।।”
त्र्
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन स्वर्गाश्रम, ऋषिकेश (उत्तरप्रदेश) में दिनांक 13-06-1996 ई0 को प्रातःकाल में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अगस्त 1996 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ संत मत का सत्संग होगा। संतमत कोई नया मत, नया धर्म, नया मजहब, नया सम्प्रदाय नया रिलिजन नहीं है। यह परम पुरातन सनातन वैदिक मत है। वैदिक मत होते हुए भी यह किसी अवैदिक मत से राग-रोष, घृणा-द्वेष आदि नहीं करता। यह सर्वधर्मसमन्वय मत है। सन्तमत अर्थात् संतों का मत।
शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं। शान्ति को जो कोई प्राप्त कर लेते हैं, वे सन्त कहलाते हैं। चाहे वे किसी भी देश के, किसी भी वेश के, किसी भी जाति-पाँति के, किसी भी धर्म मजहब, सम्प्रदाय, रिलिजन आदि के क्यों न हों; सभी सन्त समान हैं। संतमत-सत्संग में सभी सन्तों की समान रूप से मान्यता है। कोई छोटे और कोई बड़े नहीं। इसलिए सन्तमत को समुद्रमत कहते हैं। जिस तरह समुद्र में विभिन्न नदियाँ आकर मिलती हैं, उसी तरह सन्तमत-सत्संग में विभिन्न संतों की वाणियाँ आपलोगों को सुनने को मिलेंगी। जहाँ आप वेद और पुराण की बात सुनेंगे, वहाँ आप बाइबिल और कुरान की बात सुन पायेंगे। बौद्ध, जैन, सिक्ख, ईसाई, इस्लाम-सभी धर्म इसमें समाहित हैं। अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना।
भगवान् श्रीराम जब विजय प्राप्त कर, सीताजी का उद्धार कर अयोध्या पधारे, तो उन्होंने अपने राज्य का निरीक्षण किया। उन्होंने देखा कि भरतजी ने राज-काज अच्छी तरह सँभाला है। प्रजा सब प्रकार से सुखी है; किसी प्रकार किसी को कष्ट नहीं है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम यह विचार कर कि हमारी प्रजा इस संसार में सुखी है; किन्तु सदा यह यहाँ ही नहीं रहेगी। एक-न-एक दिन सबका शरीर छूटेगा, तो शरीर छूटने के बाद यह जहाँ जायगी, वहाँ भी यह सुख से रहे, इसलिये उन्होंने एक बहुत बड़ी सभा की। उसमें गुरुजन, पुरजन, सज्जन-सब-के- सब एकत्र हुए। बहुत-से ऋषि-मुनि उपस्थित थे। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पूज्य गुरुदेव श्रीवशिष्ठजी भी समुपस्थित थे। भगवान श्रीराम कहते हैं-
“ सुनहु सकल पुरजन मम वानी ।
कहउँ न कछु ममता उर आनी ।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई ।
सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ।।”
(रामचरितामानस)
भगवान् श्रीराम प्रजा से कहते हैं कि हे प्रजागण! सुनो! मैं कुछ ममता-ग्रस्त होकर नहीं कह रहा हूँ। मैं आपलोगों से जो कुछ कहता हूँ, आपलोग ध्यान देकर सुनें। मेरी बात आपलोगों को उचित लगे, तो ग्रहण करें; उचित नहीं लगे, तो आप मुझे कह दीजिये कि आपने जो बात कही, वह सही नहीं है। भय की कोई बात नहीं है।
“ जौ अनीति कछु भाषौं भाई।
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई ।।”
यों तो मैं जो कुछ कहना चाहूँगा, बिल्कुल नीति की बात, न्यायसंगत बात कहूँगा। अगर कहीं मेरे मुँह से अनीति की बात निकल गई, तो आप निर्भय होकर वर्जन कर दीजियेगा। कह दीजियेगा कि यह बात जो आप कर रहे हैं, अनीति है, नीतिपूर्ण नहीं है, न्यायसंगत नहीं है। विचारणीय विषय है कि भगवान् श्रीराम राजाधिराज है, फिर भी वे अपनी प्रजा को बोलने की छूट दे रहे हैं, स्वतंत्रता दे रहे हैं। कह रहे हैं कि अन्याय के विपक्ष में आप निर्भय होकर बोल सकते हैं।
सज्जनो! एक-न-एक दिन सबका शरीर छूटेगा। जन्म लेने का अर्थ ही मृत्यु होता है। जो जन्म लेंगे, वे मरेंगे, सुनिश्चित है। भले ही जितने मरेंगे, सब-के-सब जन्म ले लें, यह बात नहीं है; लेकिन जितने-के-जितने जन्म लेंगे, उतने-के-उतने मरेंगे, यह बात निश्चित है। अन्य किसी बात में सन्देह हो सकता है; जैसे हम व्यापार करेंगे, हमारा व्यापार चलेगा या नहीं, इसमें सन्देह है। हम पढ़-लिखकर विद्वान होना चाहते हैं, हम विद्वान् हो सकेंगे या नहीं हो सकेंगे, इसमें सन्देह है। हम खेती करते हैं, सफलता मिलेगी या नहीं, इसमें सन्देह है। हम प्ण्।ण्ैण् की परीक्षा दे रहे हैं, उत्तीर्ण होकर उच्च पद पर प्रतिष्ठित हो सकेंगे वा नहीं, इसमें सन्देह है। इन सारी बातों में सन्देह है; लेकिन इस बात में संदेह नहीं हैं कि हम मरेंगे। जितने जो कोई संसार में आये हैं, सब-के-सब मरेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। भोजन करने के लिये हम बैठे हैं, भरपेट भोजन हम कर पाएँगे या नहीं, इसमें भी सन्देह है। एक लघु कथा है-
एक कृषक था। उसको एक पुत्र था। दोनों ने मिलकर खेती की। लड़का कहता है कि पिताजी! हमलोगों ने बहुत मेहनत से खेती की है। फसल खूब अच्छी होगी। पिता ने कहा कि हाँ, बेटा! मेहनत करो। मेहनत की गई। फसल अच्छी उग आई। पुत्र ने कहा कि पिताजी, देखिये! फसल कितनी अच्छी लहलहा रही है! अनाज होगा, हमलोग खूब खायेंगे। पिता ने कहा कि बेटा! अभी तो पौधे ही निकले हैं। जब दानें लगेंगे, तब न। जब दानें निकल आये, तो पुत्र ने कहा कि पिताजी! अब तो खायेंगे न, देखिये दानें निकल आये हैं? पिता ने कहा-‘बेटा! अभी दानें कच्चे हैं पकेंगे तब न।’ जब फसल पककर तैयार हो गयी, तब पुत्र ने कहा-‘देखिये, पिताजी! अब तो फसल पककर तैयार है, अब तो खायेंगे न?’ पिता बोला-बेटा! अभी तो खेत में फसल है, दरवाजे पर फसल आयेगी तब तो।’ कबीर साहब ने कहा है- “ पाकी खेती देखकर गरवे कहा किसान। अबहुँ झमेला बहुत है, घर आये पै जान ।।” जब फसल काटकर घर पर ले आया, तो पुत्र ने कहा-‘देखिये, पिताजी! अब तो फसल घर पर आ गई, अब तो खायेंगे न?’ पिता ने कहा-‘बेटा, अभी देर है। अभी तो फसल तैयार हुई है, आटा कहाँ बना है? गेहूँ पीसा जायेगा, आटा तैयार होगा, रोटी बनेगी, तब न खायेंगे, अभी कैसे खायेंगे?’ गेहूँ पीसा गया। रोटी बनी, थाली में आ गयी। पुत्र ने कहा-‘पिताजी! अब कहिये, अब तो रोटी बनकर थाली में आ गयी, अब क्या सन्देह है?’ पिता ने कहा-‘बेटा! अभी क्या अभी तो थाली में है, मुँह में रोटी जायेगी तब न।’ बेटे ने कहा-‘अब क्या सन्देह है?’ जब उसके पिता ने रोटी का टुकड़ा मुँह में डाला, तो पुत्र ने कहा-‘पिता जी! अब क्या, अब तो मुँह में गया?’ पिता बोला-‘बेटा!’ अभी क्या, अभी तो मुँह में ही है, पेट में जायेगा, तब तो।’ इतना सुनकर पुत्र का मन क्रोध से भर आया। उसने जोर से एक मुक्का पिता की गर्दन पर मारा। मुक्का लगते ही बूढ़े का प्राणान्त हो गया। उसकी मुँह की रोटी मुँह में ही रह गयी। राम-नाम सत्य हो गया। (श्रोताओं की ओर से ‘श्री सद्गुरु महाराज की जय’ का नारा) मेरे कहने का तात्पर्य यह कि अन्य सब कामों के होने में सन्देह हो सकता है; यही बात भगवान् श्रीराम के मन में आयी कि एक-न-एक दिन हमारी प्रजा का शरीर छूटेगा। जब हमारी प्रजा का शरीर छूटेगा, तब हमारी प्रजा जहाँ जायेगी, वहाँ भी वह सुख से रहे, इसलिए उन्होंने सबको बुलाकर उपदेश दिया-
“ जौं परलोक इहाँ सुख चहहू ।
सुनि मम वचन हृदय दृढ़ गहहू ।।”
हे प्रजागण्! यदि इस लोक में और परलोक में, दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मैं जो कहता हूँ, वह ध्यान देकर सुनो और मनोयोगपूर्वक करो। क्या करने के लिये वे कहते हैं? ईश्वर की भक्ति, जो सरल और सुखद है। “ सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।।” मेरी भक्ति यानी ईश्वर की भक्ति करो। ईश्वर की भक्ति करने का अधिकारी कौन? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, विद्वान-अविद्वान्, धनी-निर्धन, नर-नारी कौन? ‘जितने मनुष तनधारि हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी।’ भगवान् श्रीराम इसी दृष्टि को अपनाकर कहते हैं- ‘बड़े भाग मानुष तनु पावा ।’
मनुष्य-शरीर तुमको मिला है, यह तुम्हारा बड़ा भाग्य है। वे यह नहीं कहते हैं कि तुम उच्च कुल में जन्म लिए हो, इसलिए तुम्हारा बड़ा भाग्य है। यह नहीं कहते हैं कि तुम धनी घर में जन्म लिये हो, इसलिये तुम्हारा बड़ा भाग्य है। तुम बड़े विद्वान् हो, इसलिये तुम्हारा बड़ा भाग्य है, यह भी नहीं कहते हैं; बल्कि मानव मात्र के लिए वे कहते हैं कि उनका बड़ा भाग्य है, जिनको मनुष्य का शरीर मिला है। जिज्ञासा होती है कि मनुष्य-शरीर की विशेषता क्या है? उत्तर में निवेदन है; भगवान् कहते हैं-
“ मम माया संभव संसारा ।
जीव चराचर विविध प्रकारा ।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाये ।
सबते अधिक मनुज मोहि माये ।।”
भगवान् कहते हैं-वह सारा विश्व मेरा बनाया हुआ है। सब मेरे प्रिय हैं; लेकिन समस्त चराचर प्राणियों में सबसे अधिक प्रिय मुझे मानव है। पुनः कहते हैं-
“ एक पिता के विपुल कुमारा ।
होहिं पृथक गुन सील अचारा ।।
कोउ पण्डित कोउ तापस ज्ञाता ।
कोउ धनवन्त सूर कोउ दाता ।।
कोउ सर्वज्ञ धर्मरत कोई ।
सब पर पितहि प्रीति सम होई ।।”
एक ही पिता के अनेक पुत्र होते हैं। कोई ज्ञानवान् होता है, कोई विद्वान होता है, कोई धनवान् होता है, कोई धर्मवान् होता है। भिन्न-भिन्न गुणसम्पन्न भिन्न-भिन्न पुत्र क्यों न हो; लेकिन पिता का प्रेम सब पर सम होता है। जड़-चेतन जितनी भी सृष्टि है-सबमें मनुष्य-शरीर को श्रेष्ठ बतलाया गया है। मनुष्य-शरीर की विशेषता यह है कि इन शरीरों में न्यूनाधिकता नहीं होती है। मनुष्येतर जितने भी प्राणी हैं, उनके शरीरों में न्यूनाधिकता रहती है। चाहे जलचर हों, चाहे थलचर हों, चाहे नभचर हों-सबमें न्यूनाधिकता होती है; लेकिन जितने मनुष्य हैं, सबकी लम्बाई एक-सी होती है, उनमें न्यूनाधिकता नहीं होती। जन्म से लेकर बाल, यौवन, जरा, मृत्यु पर्यन्त उसकी लम्बाई में कोई अंतर नहीं पड़ता।
आप देखेंगे िक कोई गाय छोटी होती है, कोई बड़ी होती है। कोई भैंस छोटी होती है, कोई बड़ी होती है। सब एक ही माप की नहीं है; लकिन मनुष्य जितने है, सबकी माप एक ही है। आप कहेंगे- कोई आदमी लम्बा होता है, कोई नाटा होता है। कोई चार हाथ का होता है, तो कोई पाँच हाथ का भी होता है। ऐसी स्थिति में सभी मनुष्य बराबर कैसे हो सकते हैं? उत्तर में निवेदन है-
मनुष्य जन्म लेता है, बढ़ता है, युवा होता है, बूढ़ा होता है और मर जाता है; लेकिन वह उतना ही बड़ा रहता है, जितना बड़ा वह जन्म लेता है। आप कहेंगे कि जिस समय मनुष्य जन्म लेता है, एक हाथ का रहता है और बढ़ते-बढ़ते दो हाथ, तीन हाथ, साढ़े तीन हाथ और उससे भी अधिक हाथ का हो जाता है। बराबर कैसे रहता है? उत्तर में पुनः निवेदन है-
मेरे कथन पर मनन करने का कष्ट करें। जिस समय बच्चा जन्म लेता है, अपने हाथ से वह साढ़े तीन हाथ का होता है। युवा होने पर भी वह साढ़े तीन हाथ का रहता है और जब बूढ़ा होता है, तब भी वह अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ का ही रहता है। मृत्यु की गोद में जाने पर भी वह साढ़े तीन हाथ का रहता है। उसमें कोई न्यूनाधिकता नहीं होती। साढ़े तीन हाथ का जन्म लिया है और मरणपर्यन्त वह साढ़े तीन हाथ का ही रहता है। इस साढ़े तीन हाथ की विशेषता क्या है?
84 लाख प्रकार की योनियों में मात्र मनुष्य शरीर ही ऐसा होता है, जो 84 अंगुल का होता है। जितने मनुष्य हैं, सब अपने-अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ के होते हैं। साढ़े तीन हाथ का मतलब है-सात वित्ते। एक बित्ते में बारह अंगुलियाँ, तो सात बित्ते में (12 ग 7 = 84 अंगुलियाँ। इस प्रकार समस्त मानव अपनी-अपनी माप से 84 अंगुलियों के होते हैं। परमात्मा की ओर से 84 अंगुल का शरीर इसलिए मिला है कि मानव 84 लाख योनियों से छूट जाय। मानवेतर अन्य किसी शरीर में वह क्षमता नहीं है कि 84 लाख योनियों से वह छूट जाय। यह मनुष्य-शरीर की विशेषता है। इसी के लिए परमात्मा ने मनुष्य का शरीर दिया है।
“ लख चौरासी भरमि के, पौ पे अटके आप ।
अबकी पासा ना पड़े, फिर चौरासी जाय ।।”
(संत कबीर साहब)
चौपड़ एक खेल होता है, जिसमें 84 कोठे होते हैं। चार गोटियाँ होती हैं और छह कौड़ियाँ होती हैं। कौड़ियाँ भाँजकर गिराते हैं। जितनी कौड़ियाँ चित होती हैं, उसी क्रम से वे गोटियाँ चलती हैं। चलते-चलते जब 84वें कोठे पर गोटी आ जाती है, अब फिर कौड़ियाँ भाँजने पर जब एक कौड़ी चित होती है, तो गोटी लाल हो जाती है। 84वें कोठे को ‘पौ’ कहते हैं। उसी के लिए कहा-‘पौ पे अटके आय।’ जैसे गोटी ‘पौ’ पर आकर अटकी हुई है और एक कौड़ी चित हुई, तो गोटी लाल हो जाती है, उसी तरह से 84वें कोठे पर जीव आया हुआ है, अगर यह परम प्रभु परमात्मा में एक चित्त लगा दे, तो गोटी लाल है, पौ-बारह है। यदि कौड़ियाँ कहीं दो-तीन-चार चित हो गयीं, तो फिर 84 कोठों में उस पौ पर आई हुई गोटी को घूमना पड़ता है। उसी तरह से हमारा चित्त भी कहीं दो-तीन-चार में फँस गया, तो फिर 84 लाख योनियों में घूमना पड़ेगा, इसलिए चित्त को एक करना है। एक चित्त करने के लिए एक इष्ट पर अपने को लगाओ। बहुदेवों की उपासना में चित्त की एकाग्रता नहीं होगी।
मैं दिल्ली गया हुआ था ऑल इण्डिया मेडिकल इन्स्टिच्यूट ऑफ साइन्स अस्पताल में कान दिखलाने के लिए। डॉक्टर को कान दिखला दिया। मुझको साधु-वेश में देखकर डॉक्टर साहब ने पूछा-‘बाबा! आप किनकी उपासना करते हैं?’ मैंने कहा-‘मैं एक ईश्वर की उपासना करता हूँ।’ डॉक्टर साहब ने कहा-‘बाबा! मैं भी पूजा करता हूँ।’ मैंने पूछा-‘आप किनकी पूजा करते हैं?’ डॉक्टर साहब ने उत्तर दिया-‘बाबा! मैं हनुमानजी की पूजा करता हूँ। गणेशजी की पूजा करता हूँ। शिवजी की करता हूँ। दुर्गाजी की करता हूँ।’ इस प्रकार आठ-दस देवताओं के नाम उन्होंने बता दिये और पूछा-‘बाबा! ठीक करता हूँ न?’ मैंने कहा-‘पूजा करते हैं यह तो ठीक करते हैं; लेकिन आप बहुदेव-उपासी बने हुए हैं, यह ठीक नहीं है। किसी एक को पकड़िये। डॉक्टर साहब ने कहा-‘बाबा! एक की पूजा करूँगा, और सबकी पूजा नहीं करूँगा, बाकी नाराज हो जाएँगे तब?’ मैंने कहा-‘देखिये। कितने देवताओं को खुश कीजियेगा? हमारे यहाँ 33 करोड़ देवता हैं। मान लिया कि आपने समय निकालकर 1 करोड़ देवताओं की पूजा कर ली, बाकी 32 करोड़ देवता आपसे नाराज हो जाएँगे। आजकल वोट का जमाना है, एक करोड़ वोट आपको पड़ेंगे और 32 करोड़ दूसरे को, तब आपका क्या हाल होगा?’ डॉक्टर साहब ने कहा-‘कहते तो आप ठीक हैं; किन्तु थोड़ी-थोड़ी सबकी पूजा अच्छी होती है।’ मैंने देखा कि अभी भी इनके मन ने नहीं माना है। मैंने कहा-‘पहले आप डठठै डॉक्टर थे, उस समय किस-किस रोग की चिकित्सा आप करते थे और आजकल किस-किस रोग की चिकित्सा करते हैं?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘जब मैं डठठै था, तब सब रोगों का इलाज करता था; लेकिन आजकल तो केवल कान का इलाज करता हूँ।’ मैंने पूछा-‘जिस समय आप डठठैण् थे, उस समय आप बड़े डॉक्टर थे या आज बड़े डॉक्टर हैं?’ उन्होंने कहा-‘उस समय तो साधारण डठठैण् डॉक्टर था, बड़ा डॉक्टर तो अब हूँ।’ मैंने कहा-‘डॉक्टर साहब! जबतक बहुदेव उपासक रहियेगा, तबतक साधारण डठठै बने रहियेगा और जब एक ईश्वर की उपासना कीजिएगा, तो बहुत बड़े डॉक्टर बन जाएँगे। (श्रोतागण द्वारा ‘श्रीसद्गुरु महाराज की जय’ का नारा)
अतः एक को पकड़िये। एक इष्ट के उपासक सच्चे होते हैं और बहुदेव-उपासक कच्चे होते हैं।
“ एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय ।
जो गहि सेवै मूल को, फूले फले अघाय ।।”
वृक्ष लगाना हो, तो उसकी जड़ में पानी दीजिए। जड़ में पानी दीजिएगा, तो समूचा वृक्ष हरा-भरा हो जाएगा। वह पल्लवित होगा और फलित होगा। पत्ते-पत्ते पर पानी दीजियेगा तो गाछ ही सूख जाएगा। एक को पकड़िये। अभी एक सज्जन से मेरी बात हुई। उन्होंने बतलाया-‘हनुमानजी की पूजा करता हूँ, शंकरजी की पूजा करता हूँ, गणेशजी की पूजा करता हूँ। कई देवताओं के नाम उन्होंने बता दिए।’ मैंने कहा-‘हनुमानजी की पूजा करते हैं, तो हनुमान चालीसा पढ़ते हैं?’ उन्होंने कहा-‘हाँ, पढ़ता तो हूँ।’ मैंने पूछा-‘श्रीहनुमान चालीसा के आरंभ में गोस्वामीजी ने क्या लिखा है?’ उन्होंने उत्तर दिया-
“ श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि ।
बरनऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायक फल चारि ।।
बुद्धिहीन तुन जानिकै, सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस विकार ।।”
मैंने पूछा-‘श्रीगोस्वामीजी ने पहला स्थान किनको दिया?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘गुरु को।’ मैंने पूछा-‘दूसरा स्थान किसको दिया?’ उन्होंने कहा-‘राम को।’ मैंने पूछा-‘तीसरा स्थान?’ उन्होंने कहा-‘पवन कुमार श्रीहनुमानजी को।’ मैंने पूछा-‘देखिये, सन्तों ने जिनको जो स्थान दिया है, हमको भी उनको वही स्थान देना चाहिए। अर्थात् गुरु को पहला स्थान दीजिए। सन्त सद्गुरु से बढ़कर और कोई नहीं हो सकते। एक गुरु को पकड़िए।’
“ देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू ।
गुरु में करैं निवास कहत हैं संत संभू ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
“ पात पात के सींचवो, बरी बरी के लोन ।
तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु को न ।।”
वृक्ष लगाना चाहते हैं और उसमें बुद्धिमानी क्या करते हैं, पत्ते-पत्ते पर पानी देते हैं। हमलोगों के यहाँ की माताएँ पकौड़ी बनाती हैं; लेकिन उनमें जो अपने को बहुत बुद्धिमती समझती हैं, वे पकौड़ी किस तरह से बनाती हैं? पकौड़ी बना-बनाकर ऊपर से उनमें अलग-अलग से नमक डालती हैं। वे समझती हैं कि हम बड़ी बुद्धिमती हैं। उसका क्या परिणाम होगा? किसी में कम नमक होगा, तो किसी में बेसी नमक होगा और किसी पकौड़ी में नमक छूट ही जाएगा। यह बुद्धिमत्ता नहीं है, बुद्धिमत्ता तो यह है कि वेसन ही में नमक डाल दें। चाहे छोटी पकौड़ी बनाओ, चाहे बड़ी पकौड़ी बनाओ, सबमें समान रूप से नमक चला जाएगा। उसी तरह एक ईश्वर की उपासना में सबकी उपासना हो जाती है। उसी के लिए यह मनुष्य का शरीर मिला है। इसलिए भगवान राम कहते हैं-
‘बड़े भाग मानुष तनु पावा ।’
मनुष्य का शरीर मिला हुआ; लेकिन इसकी सार्थकता कब होगी? जब ‘बड़े भाग पाइये सत्संगा।’ होगा। मनुष्य का शरीर मिला हुआ है और सत्संग नहीं करते हैं, तो भाग्य आपका जगा नहीं। भाग्यवान तो आप हैं; लेकिन आपका भाग्य सोया हुआ है। जगेगा तब, जब आप सत्संग करेंगे। अगर सत्संग नहीं कर रहे हैं, मनुष्य-जन्म पाकर भी यदि सत्संग नहीं, तो गोस्वामी जी कहते हैं-
“ ते नर नरक रूप जीवत जग,
भव भंजन पद विमुख अभागी ।”
वह बड़भागी नहीं, वह अभागी है। जो सत्संग करते हैं, वे बड़भागी हैं। उनको ईश्वर-भक्ति करने की प्रेरणा मिलती हैं। ईश्वर की भक्ति में ही जीवों का कल्याण है, बाह्य संसार के किसी पद को पाकर, किसी भी प्रतिष्ठा को पाकर, कितनी भी सम्पत्ति को पाकर कोई भी शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
शान्ति नाम की चीज, सुख नाम की चीज, चिर-कल्याण नाम की चीज बाहर संसार में नहीं है, अपने अन्दर है। जबतक कोई अपने अन्दर प्रवेश नहीं करेंगे, कल्याण नहीं, शान्ति नहीं, शाश्वत सुख नहीं। इसलिए ईश्वर की भक्ति करें। भक्ति करें, तो कैसे करें-सीखना पड़ेगा। सीखने के लिए उनके पास हमें जाना होगा, जिन्होंने ईश्वर की भक्ति की है।
अगर हमको आर्ट्ससीखना है, तो आटर््स- प्रोफेसर के पास जाएँगे। कॉमर्स सीखना है, तो कॉमर्स-प्रोफेसर के पास जाएँगे और साइन्स सीखना है, तो साइन्स-प्रोफेसर के पास जाएँगे। उसी तरह अगर हमें आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा-दीक्षा लेनी है, तो आध्यात्मिक ज्ञान के जो गुरु हैं, उनके पास जाएँगे। इसलिए गोस्वामीजी ने लिखा-
“ जो गुरु पद अम्बुज अनुरागी ।
ते लोकहु बेदहु बड़भागी ।।”
एक तो मनुष्य का शरीर मिला, यह बड़ा भाग्य हुआ। सत्संग किया, भाग्य आपका जगमगाया। अब गुरु की शरण में आप चले गए। गुरु के चरणाम्बुज में अनुरक्ति आपकी हो गयी, तब ‘लोकहु बेदहु बड़भागी’ हो गए। किन्तु सन्त कबीर साहब की यह साखी भी याद रखिए-
“ गुरु गुरु में भेद है, गुरु गुरु में भाव ।
सोई गुरु नित बन्दिए, (जो) शब्द बताये दाव ।।”
जिस शब्द से प्रभु की प्राप्ति होती है, उस शब्द के जो ज्ञाता हैं, उस शब्द के जो दाता हैं, उस शब्द के जो विधाता हैं, ऐसे गुरु के पास आप जाइए। सन्त राधास्वामी साहब ने कहा-
“ गुरु सोइ जो शब्द सनेही ।
शब्द बिना दूसर नहीं सेई ।।
शब्द कमाये सो गुरु पूरा ।
उनके चरणों की हो जा धूरा ।।”
उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया-
‘शब्द मारगी गुरु न होवे । तो झूठी गुरुआई लेवे ।।’
जो गुरु शब्द-मार्ग का ज्ञाता नहीं है, वह यदि गुरु बना हुआ है, तो झूठी बड़ाई ले रहा है। भगवान श्रीराम कहते हैं शबरी से-
‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।’
गुरु के पद-पंकज की सेवा करो मान-रहित होकर। गुरु का चरण कमल के समान रहना चाहिए। अर्थात् जिस तरह जल में कमल रहता है, उसी तरह गुरु जग में जलकमलवत् रहते हैं। जल कितना क्यों न बढ़ जाय, कमल जल से ऊपर उठकर रहता र्है उसी तरह संत सद्गुरु संसार में रहकर संसार से ऊपर उठकर रहते हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेवजी महाराज ने कहा-
‘नाव पानी में रहे, कोई हानि की बात नहीं; लेकिन नाव में पानी नहीं आना चहिए, नहीं तो नाव को वह डुबा देगा। उसी तरह भक्त संसार में रहे, कोई हानि की बात नहीं; किन्तु भक्त में सांसारिकता नहीं आनी चाहिए, नहीं तो वह भक्त को डुबा देगी।’
जो गुरु स्वयं संसार में डूबे हुए हैं, वे अपने शिष्य को उद्धार कैसे कर सकते हैं? जिन्होंने अपना उद्धार कर लिया है, वे ही दूसरे का उद्धार कर सकते हैं। जो स्वयं विद्वान् हैं, वे ही दूसरे को भी विद्वान् बना सकते हैं। जो स्वयं विद्वान् नहीं, वे दूसरे को विद्वान कैसे बना सकते हैं? संत कबीर साहब ने कहा-
“ बन्धा का बन्धा मिले, छूटे कौन उपाय ।
कर सेवा निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ।।”
आपका भी हाथ बँधा हुआ हो और दूसरे का भी हाथ बँधा हुआ हो, तो कौन किसको कैसे छुड़ावेगा? उसी तरह स्वयं माया के जाल में जकड़ा हुआ व्यक्ति दूसरे को बन्धन से मुक्त कैसे करा सकता है? अर्थात् जो बन्धनमुक्त गुरु होंगे, वे ही शिष्य को बन्धनमुक्त करा सकते हैं। जो बन्धनयुक्त हैं, वे बन्धनमुक्त कैसे कर सकते हैं?
एक मकान बनाते हैं, मकान की नींव देते हैं। नींव बहुत अच्छी है। बहुत मजबूत नींव देते हैं। लेकिन जबतक इसपर दीवार खड़ी नहीं हुई है और जबतक छत नहीं दी गई है, तबतक जाड़े, गरमी, बरसात से हम बच नहीं सकते हैं। मान लिया कि नींव दी और दीवाल भी उसपर खड़ी कर दी और छत नहीं है उसपर, तब भी जाड़े, गरमी, बरसात से नहीं बच सकते हैं। नींव मजबूत हो, दीवाल खड़ी हो, छत उसपर डाल दीजिए, फिर जाड़े, गरमी, बरसात से आप बच जायेंगे।
भारत आस्तिक देश है। जन्म लेते ही बच्चे को सिखाया जाता है-ओ3म्-ओ3म्, शिव-शिव, वाह गुरु। राम का नाम बच्चे को सिखाया जाता है। तो भगवान का नाम हम लेते हैं, भगवान में आस्था रखते हैं-नींव हमने दे दी। लेकिन सत्संग करते ही नहीं हैं, तब दीवाल खड़ी नहीं है; केवल नींव आपकी पड़ी है। और भगवान में आस्था है; सत्संग आप करते हैं, तब नींव के ऊपर दीवाल आपकी खड़ी हो गई; लेकिन गुरु नहीं हैं, सच्चे सद्गुरु नहीं हैं, तो छत नहीं है; जाड़े, गरमी, बरसात से आप नहीं बच सकेंगे। दैहिक, दैहिक और भौतिक-इन त्रय तापों से संतप्त आप होंगे ही। यदि छत हो जाय अर्थात् सन्त सद्गुरु की शरण आप चले जायँ, तब आराम-ही-आराम है; दैहिक, दैविक और भौतिक-त्रितापों से आप बच सकते हैं। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज ने कहा-
“ रवि पंचक जाके नहीं, ताहिं चतुर्थी नाहिं ।
तेहि सप्तक घेरे रहै, कबहुँ तृतीया नाहिं ।।”
गोस्वामीजी कहते हैं कि जिसको रवि पंचक नहीं है, यानी-रवि, सोम, मंगल, बुध और गुरु; जिनको गुरु नहीं है। रवि पंचक का अर्थ होता है गुरु; क्योंकि रवि का पाँचवाँ दिन होता है-बृहस्पति। बृहस्पति ही गुरु कहलाता है। जिनको गुरु नहीं है, उनके जीवन में कभी चतुर्थी नहीं आयेगी। चतुर्थी किसको कहते हैं? रवि सोम, मंगल, बुध। उसको सद्बुद्धि नहीं मिलेगी। परिणाम क्या होगा? ‘तेहि सप्तक घेरे रहै।’ सप्तक क्या होता है-रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि। अर्थात् उसको शनि घेरकर रखेगा। परिणाम क्या होगा-‘कबहुँ तृतीया नाहिं।’ तृतीया क्या होती है? रवि, सोम, मंगल। उसके जीवन में मंगल कभी नहीं होगा। इसलिए यदि मंगल चाहते हैं, तो संत सद्गुरु की शरण जाइए। इसलिए जिनकी गुरु में श्रद्धा है, भक्ति है, प्रेम है, तो उनके लोक-परलोक-दोनों बन जाते हैं।
हमने गुरु से दीक्षा ली। कुछ क्रिया उन्होंने बतला दी। हम साधना करने लगे, साधना करते समय इष्ट का रूप हमारे सामने आ जाता है, तब क्या होता है? संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ दरसन उनके उर माहिं करैं बड़ भागी ।
तिनके तरने की नाव किनारे लागी ।।”
यदि इष्ट के दर्शन अपने अन्तर में हो रहे हैं, तो नैया किनारे लग गयी। वे बड़भागी होते हैं; लेकिन अभी तो स्थूल-सगुण-साकार के ही दर्शन हुए हैं और भी आगे बढ़ना होगा। अब क्या होगा? सूक्ष्म में जायेंगे। वह क्या है? गोस्वामीजी के शब्दों में-
“ श्री गुर पद नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ।।
दलन मोह तम सो सुप्रकासू ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ।।”
अन्तःप्रकाश जिनको मिल गया, अब भाग्य उनका और चमक गया। क्रमबद्धता देखिये कितनी अच्छी है। प्रकाश तक पहुँच गये; लेकिन प्रकाश तक पहुँचने से ही काम पूरा नहीं होता। और आगे चलना होगा। कहाँ जाना होगा? परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में हम पाते हैं-
“ अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते ।
सुनत लखत सुख लहत अद्भुती, ‘मे ँहीँ’ प्रभु मिलते ।।”
आपके अन्दर में अमृत ध्वनि हो रही है, नाद हो रहा है। ब्रह्मनाद हो रहा है। अन्तर्ज्योति प्राप्त करने के बाद जो अंतर्नाद श्रवण करते हैं, वे बड़भागी होते हैं। उनके भाग्य के लिए क्या कहना! परम प्रभु परमात्मा मिल जाते हैं और अद्भुत सुख की अनुभूति होती है। इससे बढ़कर और कोई सुख नहीं।
भगवान सबसे पहली बात कहते हैं-मनुष्य- शरीर तुम्हें मिला, यह तुम्हारा पहला बड़ा भाग्य है। सत्संग करते हो, तुम्हारा भाग्य जग गया। गुरु की शरण में चले गये, लोक-परलोक तुम्हारे बन जाएँगे। दीक्षा ग्रहण कर अन्तस्साधना करते समय उनके दर्शन अन्दर में करने लग गये हो, मानो तुम्हारी नाव किनारे लग गई है। तुम उस पार चले जाओेगे। जब तुम सूक्ष्म ध्यान करने लग जाओगे और अन्तर्ज्योति में प्रवेश करोगे, तो तुम्हारा भाग्य और चमक जाएगा और तुम अन्तर्नाद की साधना करने लग गये, तब तो कहना ही क्या! प्रभु से मिलकर एकमेक हो जाओगे। इससे विशेष भाग्य और क्या हो सकता है? तुम्हारा जीवन तो उज्ज्वल होगा ही, तुम अन्य कितने के भाग्य समुज्ज्वल करोगे।
यह जब कभी भी होगा, तो मनुष्य-शरीर में ही होगा। दूसरे शरीर में नहीं। इसीलिए भगवान श्रीराम कहते हैं-‘बड़े भाग मानुष तनु पावा।’
सुरदुर्लभ-देवताओं को भी दुर्लभ है। अब समझने की बात है-भगवान श्रीराम अपने श्रीमुख से यह कह रहे हैं कि यह मनुष्य का शरीर देवताओं को दुर्लभ है। विचारणीय विषय है-जो शरीर देवताओं को दुर्लभ है, वह शरीर हमको सुलभ हो गया है, फिर भी यदि देवपूजन में ही अपने जीवन को ला रहे हैं, आगे की ओर नहीं बढ़ रहे हैं, तो हम नीचे की ओर जा रहे हैं या ऊँचे की ओर जा रहे हैं? हम उन्नति की ओर जा रहे हैं या अवनति की ओर?
जो भक्त होता है, जिसको सच्चे सद्गुरु मिले हुए हैं, जो सदाचार-समन्वित होकर साधना करता हैं, वह साहब का लाल कभी कंगाल नहीं हो सकता है। संत पलटू साहब कहते हैं-
“ जो साहब का लाल है, सो पावेगा लाल ।।
सो पावेगा लाल, जाय कर गोता मारै ।
मरजीवा होइ रहै, लाल को तुरत निकारै ।।
निसि दिन मारै मौज, मिली जब वस्तु अमानी ।
रिद्धि सिद्धि और मुक्ति, भरत है तिन घर पानी ।।
वे शाहन के शाह, आस उनको नहिं दूजा ।
ब्रह्मा विष्णु महेश, करत है तिनकी पूजा ।।
पलटू गुरु भक्ती बिना, भेष भया कंगाल ।
जो साहब का लाल है, सो पावेगा लाल ।।”
बैठकर केवल मंत्रजप कर रहे हैं, उसी में काम पूरा नहीं होगा। ‘जाय कर गोता मारै’-डुबकी मारे अपने शरीर में। किस तरह डुबकी मारे? “ मरजीवा होइ रहै, लाल को तुरत निकारै।” मरजीवा-पानी में गोता लगानेवाला। पानी का गोताखोर होता है, जो पानी में डुबकर रहता है। यह शरीर क्या है? समुद्र है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।”
इस शरीर में जो डूबता है, वही पाता है। अपने अन्दर डूबो। डूबने की कला जानो। फिर अपने अन्दर डूबो। जो डूबता है, तो क्या होता है? ‘मरजीवा होइ रहै, लाल को तुरत निकारै।’
“ लाल लाल जो सब कोइ कहै, सबकी गाँठी लाल ।
गाँठी खोलिके परखै नाहीं, तासे भयो कंगाल ।।”
जबतक परमात्मा-रूपी लाल नहीं मिलेगा, तब तक कितना भी माल जमा कर लो, कंगाल ही बने रहोगे। जो उस परमात्मा-रूपी लाल को पाता है, वह मालोमाल हो जाता है। उसपर तो काल की दाल भी नहीं गलती।
‘मरजीवा होइ रहै, लाल को तुरत निकारै ।’
लाल मिल गया तब?
“ निसि दिन मारै मौज, मिली जब वस्तु अमानी ।
रिद्धि सिद्धि और मुक्ति, भरत है तिन घर पानी ।।”
ऋद्धि-सिद्धि उस घर में पानी भरती है।
“ वे शाहन के शाह, आस उनको नहिं दूजा ।
ब्रह्मा विष्णु महेश, करत है तिनकी पूजा ।।”
ब्रह्मा विष्णु, महेश जिसकी पूजा करें, ऐसा मनुष्य का शरीर हमलोगों को मिला है, और वह मनुष्य-शरीर पाकर दूसरे की पूजा करता है, वह देवता की पूजा करता है, तो कहाँ जा रहा है? कौन गुरु मिला है उसको? किस तरफ जा रहा है वह?
“ पलटू गुरु भक्ती बिना, भेष भया कंगाल ।
जो साहब का लाल है, सो पावेगा लाल ।।”
गुरु तो वह है जिसको ज्ञान है।
“ ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्ज्ञानं परात्परम् ।
यतो यो ज्ञानदानेहि न क्षमस्तंत्यजेद् गुरुम् ।।”
(बृहत्तंत्रसार)
जिन गुरु के सम्पर्क में आने से, जिनको गुरु धारण करने से मोक्ष मिलता है। मुक्ति मिलती है। छुटकारा मिलता है। आवागमन से मुक्ति मिलती है। दैहिक, दैविक और भौतिक-इन त्रय तापों से संतप्त प्राणी को सदा के लिए मुक्ति मिल जाती है, गुरु तो उनको कहते हैं। जब हम बन्धन में ही पड़े हैं, तो बृहत्तंत्रसार कहता है कि ‘तंत्यजेद् गुरुम्’ जो ज्ञानदान में समर्थ नहीं हो, ऐसे गुरु को छोड़ देने में ही शिष्य की भलाई है।
“ गुरु मिला सब जानिए, मेटे मोह संताप ।
हर्ष शोक व्यापे नहीं, तव गुरु आपे आप ।।”
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 19-09-1996 ई0 को कलकत्ता-निवासी श्री सुशील कुमारजी अग्रवाल के मकान के उद्घाटन के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 1997 ई0)
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आदरणीय साधकगण, समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
“ श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यन्दिनं परि ।
श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः ।।”
(ऋग्वेद-संहिता)
अर्थात् हम प्रातःकाल में उस सत्य से जगत् को धारण करनेवाली प्रभु-शक्ति की प्रार्थना करते हैं। दिन के मध्यकाल में उस सत्यधारक प्रभु का ध्यान करते हैं। सूर्य के अस्तकाल में भी हम उसी श्रद्धामय प्रभु की उपासना करते हैं।
“ भ्रुवोर्घ्राणस्य च यः सन्धिः स एष द्योर्लोकस्य
परस्य च सन्धिर्भवतीति ।।
एतद्वै सन्धिं सन्ध्यां ब्रह्मविद् उपासत इित-।।”
(जाबालोपनिषद्)
अर्थात् दोनों भौंओं का और नासिका का जो मिलन-स्थान है, वह द्युर्लोक और परलोक का भी मिलन-स्थान है। इस संधि-स्थान में ब्रह्मज्ञानी अपनी संध्या की उपासना करते हैं अर्थात् वहाँ पर ध्यान करके ब्र्रह्म-साक्षात्कार की चेष्टा करते हैं।
“ दरिया त्रिकुटी संध में, मन ध्यान धरै कर धीर ।
अवस चलत है सुषमना, चलत प्रेम की सीर ।।”
(संत दरिया साहब, मारवाड़ी)
“ गंग यमुन सरस्वती संगम पर, संध्या करु नित भाई ।।
दृष्टि युगल कर अंगुल द्वादश पर, दृढ़ थिर धरु ठहराई ।
प्राण स्पन्द बन्द होइ जाई, मनहु तजइ चंचलाई ।।
अणुहू से अणुरूप ब्रह्म संग, सहजहिं सुरति मिलाई ।
सुखदायिनी ध्वनि सहज गायत्री, हो तहँ सुनहु समाई ।।
ध्वन्यात्मक गायत्री ध्याना, जो जन करइ सदाई ।
‘मेँहीँ’ तासु ताप सब नाशै, मुक्ति दिशा सो जाई ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
अभी आपलोगों ने वेद-मंत्र का पाठ सुना, उपनिषद् की वाणी सुनी, और भी संतों की वाणियाँ सुनीं। सबका सार भगवद्भजन करने के लिए है; त्रिकाल संध्या करने के लिए है। वेद में भी त्रिकाल संध्या की चर्चा आयी, उपनिषद् और महाभारत में भी, दरिया साहब की वाणी में भी, परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में भी। सबमें यही चर्चा आयी कि संध्या कीजिए, संध्या कीजिए। यह संध्या क्या है? ‘संधि’ शब्द से ‘संध्या’ शब्द बना है। संधि कहते हैं-जोड़ को, मिलन को। जितने आस्तिक धर्म हैं, सभी आस्तिक धर्मों में संध्या करने के लिए कहा गया है। ईसाई धर्म में भी, इस्लाम धर्म में भी, वैदिक धर्म के लिए तो कहना ही क्या! बौद्ध धर्म में, जैन धर्म में-सबमें संध्या करने के लिए कहा गया है।
रात का अंत होता है और दिन का आरम्भ होता है, एक संधि-काल यह है। दिन का अंत होता है और रात का आरम्भ होता है, दूसरा संधि-काल यह है और तीसरा संधि-काल मध्याह्न-काल है; क्योंकि यहाँ पूर्वाह्ण और अपराह्ण का मिलन होता है। हमलोगों के वैदिक धर्म में यही त्रिकाल संध्या है। ईसाई धर्म में भी दानियल आदि त्रिकाल संध्या किया करते थे। इस्लाम धर्म में पंचवक्त की नमाज है। उसमें भी वर्णन आया है कि खुदा नमाज को पसंद करता है, मध्य की नमाज को वह विशेष पसंद करता है। मध्य की नमाज क्या है? इसी मध्य की संध्या के संबंध में हमारे परम पूज्य गुरुदेव की वाणी इस भाँति है-
‘गंग यमुन सरस्वती संगम पर, संध्या करु नित भाई ।’
मेरे विचार में यही बीच की नमाज है। इड़ा और पिंगला का बीच, गंगा और यमुना का बीच, पिण्ड और ब्रह्माण्ड का बीच, अंधकार और प्रकाश का बीच, अधः और ऊर्ध्व का बीच-यही मध्य संधिकाल की संध्या है। इसकी व्यावहारिक क्रिया वे बतलाते हैं-
‘दृष्टि युगल कर अंगुल द्वादश पर, दृढ़ थिर धरु ठहराई।’
इसका परिणाम क्या होगा? इस विषय में वे कहते हैं-
‘प्राण स्पन्द बन्द होइ जाई, मनहु तजइ चंचलाई।’
मन बड़ा चंचल है। संध्या करने के लिए हम बैठते हैं, मन कहाँ-कहाँ चला जाता है; मन क्या-क्या सोचने लग जाता है। जिस ध्येय को लेकर साधना करने के लिए हम बैठते हैं, उसमें हमको सफलता दीखती नहीं है, इसका मूल कारण मन की चंचलता है। हमारे गुरुदेव कहते हैं-‘अगर अपनी दृष्टिधारों को तुम द्वादश अंगुल पर ले जाओ, वहाँ स्थिर करो, तो मन की चंचलता छूट जाएगी, प्राण-स्पन्दन रुद्ध हो जाएगा।
एक बंगाली महात्मा हुए, योगी पंचानन भट्टाचार्य जी। उन्होंने कहा-
“ प्राण स्थिर हॅले स्थिर हॅबे मन,
आत्मा ते आत्मा करिबे रमण ।”
अर्थात् प्राण-स्पन्दन रुद्ध होने से मन स्थिर हो जाएगा और आत्मा में आत्मा रमण करेगी।
शाण्डिल्य उपनिषद् में आया है-
“ द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे ।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुधयते ।।”
जब ज्ञान-दृष्टि (सुरत, चेतन-वृत्ति) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो, तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है।
योगवाशिष्ठ में लिखा है-संवित् को शून्य आकाश में, जहाँ पर कोई कलना (चिह्न) नहीं है, ले जाकर शांत करना। नासाग्र से द्वादशांगुल पर शुद्ध आकाश में संवित् को लीन करना। भ्रुवों के मध्य में दृष्टि लीन करके शुद्ध चेतन में स्थित होना आदि।
विचारणीय विषय है कि जबतक हमारी दृष्टि काम करती है, तबतक हमारा मन काम करता है। दृष्टि का जितना अधिक फैलाव रहता है, मन का भी उतना ही अधिक फैलाव रहता है। दृष्टि का जैसे-जैसे संकोच होता जाता है, मन की चंचलता भी उतनी मात्र में मिटती जाती है। दृष्टियोग की क्रिया से एकविन्दुता की प्राप्ति होती है। उससे मन का पूर्ण सिमटाव होता है।
मन के क्रमशः संकोचन के लिए-मन को एकाग्र करने के लिए संतों ने मानस जप और मानस ध्यान की क्रिया बतलायी है।
“ अति पावन गुरु मंत्र मनहि मन जाप जपो ।
उपकारी गुरु रूप को मानस ध्यान थपो ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
हम आँखें बंद करके जप करते हैं, तो मन कहाँ-कहाँ जाता है, इसका ठिकाना नहीं रहता है। इसका कारण यह होता है कि हम लक्ष्य-विहीन रहते हैं। लक्ष्य-विहीन रहने के कारण ही मन यत्र-तत्र भटकता है; लेकिन यदि हम मन को गुरु-निर्देशित लक्ष्य स्थान पर लगाकर जप करें, तो मन शनैः शनैः स्थिर होता जाएगा। मानस जप करने के समय हम मन को जिस स्थान पर ठहराकर रखेंगे, वह क्षेत्र जितना बड़ा होगा, मानस ध्यान करने के समय उससे छोटा हो जाएगा। मानस ध्यान का जितना बड़ा क्षेत्र होगा, उससे छोटा क्षेत्र और तब हो जाएगा, जब हम भगवान श्रीकृष्ण के कथनानुसार अपने इष्टदेव के चेहरे पर अपनी दृष्टि को लगाएँगे, दृष्टि का सिमटाव और अधिक हो जाएगा। जितना दृष्टि का सिमटाव होगा, मन का भी उतना ही सिमटाव होता जाएगा। जैसे-जैसे दृष्टि का क्षेत्र छोटा होता जाएगा, उसी क्रम से क्रमशः मन का अधिकाधिक सिमटाव होता जाएगा। और जब मुखारविन्द को छोड़कर दृष्टियोग की क्रिया-द्वारा एक विन्दु पर अपनी दृष्टि को स्थिर करेंगे, तो क्षेत्र अत्यंत छोटा हो जाएगा; मन का पूर्ण सिमटाव हो जाएगा।
विन्दु उसको कहते हैं, जिसका स्थान हो, परिमाण नहीं। अविभाजित चिह्न को विन्दु कहते हैं। जिस तरह विन्दु अविभाजित चिह्न है, उसी तरह मन भी अविभाजित हो जाएगा। मन, जो कई भागों में, कई स्थानों में बँटा रहता है, विन्दु पर स्थिर हो जाने से उसका पूर्ण सिमटाव हो जाता है। पूर्ण सिमटाव होने से ऊर्ध्वगति होगी यानी जिस क्षेत्र में, जिस सतह पर मन का सिमटाव होता है, उससे उसकी ऊर्ध्वगति हो जाती है। तात्पर्य यह कि साधक आँखेंं बंद करके जिस समय ध्यान करते हैं या जप करते हैं, तो वहाँ अंधकार की सतह रहती है। वहाँ पर पूर्ण सिमटाव होने से उस सतह को वह पार करके ऊपर चला जाता है अर्थात् अंधकार से प्रकाश में चला जाता है। जैसे कोई जल की धारा बह रही हो, उसके आगे आप बाँध दे दीजिए। कुछ देर तक वह पानी बाँध के इस पार में रुकता जाएगा; किन्तु निरन्तर उस पानी की धारा के बहते रहने के कारण उस बाँध को लाँघकर वह पानी ऊपर चला जाएगा। उसी तरह निरन्तर जप और ध्यान करते-करते मन का पूर्ण सिमटाव होता है और वह उस अंधकाररूपी बाँध को लाँघकर प्रकाश में चला जाता है।
जब दृष्टि की दोनों धाराएँ मिलकर एक होती हैं, तो ब्रह्म के सूक्ष्म रूप के दर्शन होते हैं। इसी संदर्भ में हमारे गुरुदेव कहते हैं-
‘अणुहू से अणु रूप ब्रह्म संग, सहजहिं सुरति मिलाई।’
प्रभु की अणुरूप विभूति के संबंध में श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
“ कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।।”
“ प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि ।
रुक्माभं स्वप्नधाीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम् ।।”
(मनुस्मृति, अ0 12, श्लोक 122)
मनुस्मृति में भगवान मनु ने जो अणुरूप कहा है, वही है ‘अणोरणीयाम्।’ यह उनकी बहुत तेज विभूति है। जो उसपर अपने को स्थिर करते हैं-‘अणुहू से अणु रूप ब्रह्मसंग सहजहिं सुरति मिलाई। सुखदायिनी ध्वनि सहज गायत्री, हो तहँ सुनहू समाई।।’ हमलोग गायत्री मंत्र का जप करते हैं-
‘ओ3म्! भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य
धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।’
अर्थात् (सवितुः देवस्य) सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक और सबके प्रकाशक प्रभु परमेश्वर के (वरेण्यम्) सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त करनेवाले एवं सबों से वरण करनेयोग्य सर्वोत्तम (भर्गः) पापों को भून डालनेवाले तेज का हम (धीमहि) ध्यान करते हैं, जो हमारे बुद्धियों, कर्मों और वाणियों को उत्तम मार्ग में प्रेरित करे। उस तेज का हम ध्यान करते हैं, ऐसा कहते हैं। ध्यान तो करते हैं नहीं, मात्र कहने से क्या होगा? करने से होगा। असल में परमात्मा के गायन को ही गायत्री कहते हैं। उसी को सारशब्द कहते हैं। इसका ध्यान करने से भव-बंधन जल जाता है। अन्तर्नाद की साधना में प्रथम अनहद नाद की साधना की जाती है। अनहद नाद-साधना के बाद अनाहत नाद की साधना होती है। इसी को ॐ, स्फोट, उद्गीथ, प्रणव आदि शब्दों से अभिहित करते हैं। वह परम प्रभु परमात्मा का प्रथम शब्द है, इसलिए उसको आदिनाद, आदिशब्द, ब्रह्मनाद आदि कहते हैं।
पातंजल-योग-दर्शन में लिखा है-‘तस्य वाचकः प्रणवः।’ उस परम प्रभु परमात्मा का वाचक प्रणव है। उस प्रणव-ध्वनि को यानी वाचक को जो कोई प्राप्त करते हैं, वे वाच्य से जाकर मिल जाते हैं; क्योंकि नाम नामी से मिलाता है। वह परम प्रभु परमात्मा का ध्वन्यात्मक नाम है, निर्गुण नाम है। संत दरिया साहब (बिहारी) के वचन में है-
‘सन्तो सुमिरहु निर्गुण अजर नाम ।’
इसी ‘अजर नाम’ के लिए ‘अजर अमर एक नाम है।’ संत कबीर साहब ने कहा है-वही अजर नाम है, अमर नाम है, वही रामनाम है, वही शिवनाम है, सत्यनाम है। उस नाम को जो कोई प्राप्त करते हैं, उस नाम का जो कोई भजन करते हैं, वे नामी अर्थात् परम प्रभु परमात्मा तक पहुँच जाते हैं; जीव और पीव की संधि हो जाती है। दोनों का मिलन हो जाता है, असली संध्या हो जाती है। इसकी क्रमिक संधि इस प्रकार है-पहले मानस जप के साथ मन को जोड़ें, यह संधि है। फिर मानस ध्यान के साथ मन का योग होगा, यह संधि है। फिर दृष्टि के साथ मन के योग की संधि है। पश्चात् अनहद नाद के साथ सुरत का योग होता है, यह संधि है। तत्पश्चात् सारशब्द के साथ सुरत का योग होता है, यह संधि है। और अंत में जीव-पीव की संधि हो जाती है। यह अंतिम संधि इस प्रकार की संधि है कि जिस संधि के बाद कभी विच्छेद नहीं होता। जीव-पीव मिलकर एक हो जाते हैं। यही असली संध्या है।
हमलोगों को परम पूज्य गुरुदेवजी ने जो क्रिया बतलाई है, उसको हम मनोयोग से करें। सफलता मिलेगी और मानव-जीवन कल्याणमय बनेगा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन मास-ध्यान-साधना-शिविर, चुटिया (राँची) में
दिनांक 31-10-1996 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, फरवरी 1997 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं बहनो!
गोपाष्टमी के पावन पर्व पर हमलोग यत्र-तत्र से यहाँ आकर गोशाला-प्रांगण में एकत्र हुए हैं। अतएव तीन बार कहिए-‘गौ माता की जय, गौ माता की जय, गौ माता की जय!’
आपकी जिज्ञासा हो सकती है कि गौ माता की जय’ तीन ही बार क्यों? इनसे न्यूनाधिक क्यों नहीं। उत्तर में निवेदन है-
तीन काल होते हैं- भूतकाल, वर्त्तमान काल और भविष्यत् काल। जो गौ माताएँ पूर्व में हो चुकी हैं, जो वर्त्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगी, सबके लिए जय-ध्वनि हो गयी।
गाय हमारी ‘माय’ है। माता तीन प्रकार की होती हैं-जननी, जन्मभूमि और गौ। इन तीनों के अतिरिक्त चौथी प्रकार की भी माता होती हैं, जिनके लिए कहा गया है-
‘परदारेषु मातृवत् परद्रव्येषु लोष्टवत् ।’
रामचरितमानस में आया है-
“ जननी सम जानहिं पर नारी ।
धन पराव विष तें विष भारी ।।”
और किसी कवि का भी कथन है-
“ पर दारा निज माता जान ।
पर धन को तृण सम अनुमान ।।
छूते जो न कदापि सुजान ।
वे ही पण्डित विज्ञ महान ।।”
यदि विवेक-विलोचन से अवलोकन किया जाय, तो एक पाँचवें प्रकार की भी माता होती हैं। कभी-कभी ऐसा होता है कि जब हमारी माताजी के शरीर में दूध नहीं होता, तो हम बकरी का दूध पीते हैं, इस दृष्टि से इसकी संज्ञा भी ‘मातृवत्’ को दी जा सकती है।
माता की दूध की तरह हम गाय का दूध पीते हैं या यों कहिये कि माताजी का दूध हम कुछ ही दिन पीते हैं; लेकिन गौ का दूध जीवन भर पीते हैं। अपनी माताजी का दूध केवल हम पीते हैं; लेकिन गाय का दूध हम सम्पूर्ण परिवार मिलकर पीते हैं। हमारे बच्चे, जवान, बूढ़े, हमारी माता के भी माता-पिता, हमारे समाज, कुटुम्ब, सभी जातियों, सभी देशों के लोग पीते हैं। हमारी माताजी तो केवल हमारी माताजी होती हैं; लेकिन गाय हमारी, हमारे परिवार, हमारे समाज, हमारे देश और विश्व की माता होती है। इसलिये गोवध मातृ-वध के समान है।
गाय बूढ़ी हो जाय, बैल बूढ़ा हो जाय अथवा जो गाय बछड़ा-बछड़ी नहीं देती, इन्हें किसी को भी नहीं बेचना चाहिए। इन सबको पालन करना चाहिये; क्योंकि इस तरह के गाय-बैल को, जिनके हाथ हम बेचते हैं, वे पालते नहीं; उसको मारते हैं, वध करते हैं। इसलिए हमको उस पाप का भागी होना पड़ता है। ऐसी माता की रक्षा कीजिए, वध करनेवालों से बचाइए।
हमारी माता हमें दूध पिलाती है; किन्तु गौ माता दूध पिलाने के अतिरिक्त जब बछिया देती है, तो उससे गौवंश को वृद्धि होती है और जब बछड़ा देती है, तो उससे हम खेती करते हैं, अन्न उपजाते हैं, साग-सब्जी, कन्द-मूल, फल आदि का उत्पाद करके, उसका उपभोग करके सुखमय जीवन जीते हैं। बछड़े को गाड़ी में जोतते हैं, एक स्थान की चीजों को हम दूसरे-दूसरे स्थानों में भेजते हैं और दूसरे-दूसरे स्थानों की चीजों को अपने यहाँ मँगाते हैं। जबतक गाय जीवित रहती है, हम उसको घास-भूसा, दाना-खल्ली खिलाते हैं और उसके बदले वह हमको अमृतोपम दूध देती है। उस दूध से हम दही, मक्खन, घी, दूध का पाउडर आदि बनाकर उससे विविध चीजें बनाते हैं और उनका उपभोग करते हैं। गाय और बाछी के गोंत से बहुत प्रकार के रोगों का निवारण होता है। गाय के गोबर की खाद बनाकर खेत पटाते हैं, भूति को उर्वरा बनाते हैं। गोबर से गैस उत्पन्न करके ईंधन और प्रकाश का काम लेते हैं। जब गाय मर जाती है, तब भी वह अपनी हड्डी और त्वचा से हमारी सेवा करती है। अतएव गोवंश की रक्षा करें, उनका पालन करें और उनकी हिंसा से उन्हें बचावें।
विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है। उसमें एक मंत्र आया है, जिसमें गौ की स्तुति की गयी है और उसकी रक्षा करने तथा वध-निषेध की आज्ञा है।
“ हिघ् कृण्वती वसूपत्नी वसूनां
वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात् ।
दुहामाश्वभ्यां पयोघ्न्येयं सा
बर्धतां महते सौभगाय ।।27।।”
जिस प्रकार अपने बछड़े की प्यारी गौ अपने वत्स के प्रति प्रेमहिंकार शब्द-पूर्वक उसको चूमती हुई चित्त से स्नेहपूर्वक गृह के बछड़े के समीप आ जाती है और वह मनुष्यों के अन्न, दुग्ध, घृत आदि सब ऐश्वर्यों और बाल-वृद्धादि सबको पालनेवाली होती है। वह कभी वध न करने योग्य एवं सदा पालन योग्य होकर स्त्री-पुरुषों के लिए दूध प्रदान करती है और वह बड़े भारी सौभाग्य की वृद्धि के लिए वृद्धि को प्राप्त हो। उसी प्रकार समस्त लोकों में बसनेवाले जीवों को पालन करनेवाली और ज्ञानपूर्वक बसे हुए इस लोकरूप वत्स को प्रेम से चाहती हुई, प्रभु की परमेश्वरी शक्ति वेद-द्वारा ज्ञानोपदेश करती हुई, साक्षात् दिखाई देती है। वह अविनाशिनी होने से ‘अघ्न्या’ है। वह इन्द्र, वायु और आत्मा और मन दोनों को पुष्टिप्रद सामर्थ्य प्रदान करती है। उत्तम ऐश्वर्य की वृद्धि के लिए सबसे बढ़कर है और वह हमें बढ़ावे।
‘गो’ शब्द के अनेक अर्थों में एक अर्थ इन्द्रिय भी होता है। जिस घर में गायें रहती हैं, वह गोशाला कहलाता है। यह देह भी एक प्रकार की गोशाला है। इस शरीर-रूपी गृह में इन्द्रियरूपी गौएँ रहती हैं। गायें घास चरती हैं, इन्द्रियाँ विषयों को ग्रहण करती हैं। भूमिस्थ गोशाला की गायों को हम दाना-खल्ली, घास, जल आदि खिलाते-पिलाते हैं। शरीरस्थ इन्द्रियरूपी गौओं को रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दरूपी विषयों का भोजन देते हैं।
उभय प्रकार को गौओं और गोशालाओं में अन्तर यह है कि भूमिस्थ गोशाला की सभी गौओं का भोजन एक-सा होता है; किन्तु शरीरस्थ गौओं का भोजन भिन्न-भिन्न होता है। भूमिस्थ गोशाला जड़ होती है और शरीररूप गोशाला जंगम होती है।
भगवान श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ गौएँ चराते थे, उन्हें अपने अधिकार में रखते थे और उनकी रक्षा करते थे। हम भी ईश्वर के अंश जीव अविनाशी हैं। अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित रखकर सुरक्षा करते रहें, क्षति होने से बचावें। इनके साथ भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा के अनुसार ‘युक्ताहार- विहार’ का व्यवहार करें।
भगवान श्रीकृष्ण जब बाँसुरी बजाते थे, तो ग्वाल-बाल और सभी गौएँ घास खाना छोड़कर उनके निकट आ जाती थीं। वह बाँसुरी कौन-सी है, जिससे मन-रूपी चरवाहे के सहित इन्द्रियरूपी गौएँ अपने विषयों का परित्याग करके बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जायँ। हाथरस-निवासी संत तुलसी साहब ने लिखा है-
“ तल्ली ताल तरंग बखानी ।
सोहम मुरली बजै सुहानी ।।
मुरली नाद साध मन सोवा ।
विष रस वादि बिची सभ खोवा ।।”
इन्द्रियों को विषयोपभोग के लिए प्रेरण करनेवाला मन होता है। जिसके मन का अस्तित्व ही नष्ट हो गया हो, उसकी इन्द्रियों को विषयों में जाने के लिए प्रेरित कौन करेगा? सन्त चरणदासजी महाराज अपनी अनुभूति की बात कहते हैं-अन्तर्नाद की साधना करने से, अन्तर्नाद के श्रवण करने से इन्द्रियाँ थक जाती हैं और मन गल जाता है-
“ जब से अनहद घोर सुनी ।
इन्द्री थकित गलित मन हुआ, आशा सकल सुनी ।।”
ऋग्वेद का एक तेजस्वी अंश नादविन्दु उपनिषद् है। उसमें लिखा है-नादानुसंधान करने से मन किस प्रकार वश में होता है और अन्त में उसकी किस प्रकार विलीनता हाती है-
“ मकरन्दं पिबन्भृंगो गन्धान्नापेक्षते यथा ।
नादासक्तं सदा चित्तं विषयं न हि कांक्षति ।
बद्धः सुनादगन्धेन सद्यः संत्यक्तचापलः।। 42।।”
अर्थात् जिस प्रकार मधुमक्खी फूल के केसर वा रस का पान करता हुआ उसकी सुगन्ध की चिन्ता नहीं करती है, उसी प्रकार चित्त जो नाद में सर्वदा लीन रहता है, विषय-चाहना नहीं करता है; क्योंकि वह नाद की मिठास में वशीभूत है तथा अपनी चंचल प्रकृति को त्याग चुका है।।42।।
“ नादग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः ।
विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्न हि धावति ।। 43।।”
अर्थात् नागरूप चित्त नाद का अभ्यास करते-करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर नाद में अपने को एकाग्र करता है।।43।।
“ मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।। 44।।”
अर्थात् नाद मदान्ध हाथी-रूप चित्त को, जो विषयों की आनन्द-वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है।।44।।
“ नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
अन्तरंगसमुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।45।।”
अर्थात् मृग-रूपी चित्त को बाँधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र-तरंग-रूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है।।45।।
“ विस्मृत्य सकलं बाह्यं नादे दुग्धाम्बुवन्मनः ।
एकीभूयाथ सहसा चिदाकाशे विलीयते ।। 39।।”
अर्थात् बाहरी भावों से विस्मृत होकर दूध एवं जल की नाईं वह उसमें मिल जाता है और शीघ्र ही चिदाकाश में लय हो जाता है।।39।।
अफसोस! इस देव-दुर्लभ शरीररूपी गोशाला को आज हमने अघशाला बना रखा है। मात्र पंच पापों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार का यदि हम परित्याग कर सकें, तो यह धर्मशाला बन जाएगा, फिर तो विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान करके हम इसको शिवालय और ठाकुरवाड़ी बना सकते हैं। इतना ही नहीं, इस शिवालय और ठाकुरबाड़ी में हम शिव और विष्णु के दर्शन करके शिव और विष्णु बन सकते हैं; यथा-
“ विन्दुनाद महालिंगं शिवशिक्तनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्विदं सर्वदेहिनाम् ।।”
(योगशिखोपनिषद्)
अर्थात् विन्दु-नाद महालिंग है और शिवशक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
“ विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्विदं सर्वदेहिनाम् ।।”
(योगशिखोपनिषद्)
अर्थात् विन्दु-नाद-रूप जो महालिंग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु मन्दिर (ठाकुरबाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
अन्त में, गोशाला के संस्थापक, व्यवस्थापक और सहायक-सबको अनेकानेक धन्यवाद है! जिन्होंने इसकी स्थापना की है, वे धन्यवाद के पात्र हैं! जो इसकी व्यवस्था कर रहे हैं, वे भी धन्यवाद के पात्र हैं और जो कोई गोसेवा के लिए तन, मन, धन या वचन से किसी प्रकार की सहायता कर रहे हैं, वे भी धन्य हैं! इन सबको मैं हार्दिक धन्यवाद देता हूँ!
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन राँची नगर के गोशाला में गोपाष्टमी के अवसर पर दिनांक 17-11-1996 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी 1997 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आज गीता-जयन्ती के शुभ अवसर पर आप सज्जनों तथा देवियों को देखकर बड़ी प्रसन्नता हो रही है। गीता कई प्रकार की है; यथा-उत्तरगीता, शिवगीता, रामहृदय-गीता, अनुगीता, श्रीमद्भगवद्- गीता आदि। इन गीताओं में श्रीमद्भगवद्गीता की अत्यधिक ख्याति के कारण अधिक लोग इसी गीता को जानते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता की प्रतियाँ भी तीन प्रकार की देखने को मिली हैं; जैसे सप्तश्लोकी गीता, सत्तरश्लोकी गीता और सात सौ श्लोक की गीता।
भगवान् श्रीकृष्ण-द्वारा गाया हुआ गीत श्रीमद् भगवद्गीता है। महाभारत के समरांगण में अर्जुन को मोह उत्पन्न हुआ था, उसी मोह के निवारणार्थ श्रीभगवान् ने जो उनको उपदेश दिया था, वही श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से जगद्विख्यात हुआ। इसकी मान्यता मात्र भारत में ही नहीं विदेशों में भी है। आज विश्व की प्रायः सभी समुन्नत भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। भगवान्-द्वारा अर्जुन को दिये गये ज्ञान का संसार ने इतना सम्मान किया कि यह छोटी-सी पुस्तिका विश्ववंद्या हो चुकी है।
श्रीमद्भगवद्गीता कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है। महर्षि व्यास-रचित महाभारत के अठारह पर्व हैं। इन अठारह पर्वों में से भीष्म पर्वान्तर्गत श्रीमद्भगवद्गीता है। इसके अठारह अध्याय हैं। इसमें सात सौ श्लोक हैं, जो कि नौ हजार चार-सौ छप्पन शब्दों में आबद्ध हैं। महाभारत का पूर्वनाम ‘भारत’ था और इसके भी पूर्व का नाम ‘जय’ था। व्यासदेवजी ने ‘जय’ की रचना की थी। उक्त ग्रन्थ में आप पढ़ेंगे-
“ नारायणं नमस्कृत्यं नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदिरयेत् ।।”
व्यासदेवजी के शिष्य वैशम्पायनजी ने इसमें और श्लोकों को जोड़कर इसकी संज्ञा ‘भारत’ दी। उन्होंने उपर्युक्त श्लोकों में ‘चैव’ के स्थान पर ‘व्यास’ शब्द का समावेश किया; यथा-
“ नारायणं नमस्कृत्यं नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदिरयेत् ।।”
तत्पश्चात् उक्त ग्रंथ में और भी श्लोक जोड़े गये। तब उसका नाम ‘महाभारत’ पड़ा।
महाभारत युद्ध के पूर्व ही धृतराष्ट्र को इस बात की चिंता हुई कि पाँचो भाई पांडवों के सामने हमारे शतपुत्रें की क्षमता नहीं कि ये उनपर विजय प्राप्त कर सकें; क्योंकि पांडवों में अर्जुन ‘महावीर’ है। यह नरलोक और सुरलोक दोनों लोकों के अस्त्र-शास्त्रों की विद्याएँ सीखकर युद्ध करने के लिए प्रस्तुत है। अतएव ऐसा षडयंत्र रचा जाए, जिससे अर्जुन युद्ध से विमुख हो जाए, युद्ध न करे। ऐसा विचारकर उन्होंने अपने मंत्री संजय को पाँचो भाई पाण्डव के पास भेजा और कहा कि तुम वहाँ जाकर उनलोगों को अपने विचार से ऐसा प्रभावित करो कि युद्ध स्थगित हो जाए।
धृतराष्ट्र की प्रेरणा से प्रेरित होकर संजय ने पांडवों के पास जाकर उनलोगों को समझाया कि दुनिया यह बात जानती है कि कौरव आसुरी वृत्ति के और पाण्डव दैवी वृत्ति के हैं। लोग कौरवों को असज्जन और पांडवों को सज्जन की दृष्टि से देखते हैं। यही कारण है कि कौरवों की क्रूरता के कारण अपयश और पांडवों की साधुता के कारण सुयश फैला हुआ है।
“ सम्भावित कहँ अपयश लाहू ।
मरण कोटि सम दारुण दाहू ।।”
अगर युद्ध करने के लिए कौरव तैयार हो, तो पांडवों को युद्ध करने के लिए तैयार नहीं होना चाहिए। आसुरी वृत्ति के लोगों का युद्ध करने के लिए तैयार होना स्वाभाविक है। उसी प्रकार दैवी वृत्ति के लोगों की सहनशीलता और क्षमावृत्ति स्वाभाविक है। अगर दोनों ही प्रकृति के लोग परस्पर युद्ध करने के लिए तैयार हों, तो फिर दोनों में अंतर ही क्या रहा?
दूसरी बात यह कि यह शरीर क्षणभंगुर है, नाशवान है। चन्द दिनों के लौकिक सुख-भोग हेतु युद्ध करके स्वजनों को मारना और रक्त की नदी बहाकर राज्य स्थापित करना पांडवों के लिए योग्य नहीं है। इसलिए आपलोगों को समझाने के लिए मैं आया हूँ कि आपलोगों के यश में कहीं कलंक न लग जाए। आपलोग बुद्धिमान हैं, ज्ञानवान हैं, विचारवान हैं, जरा विचारकर देखिये- आप किनको मारेंगे! आपसे युद्ध करने के लिए आपके सामने आपके भाई हैं, भतीजे हैं, आपके गुरु आचार्य द्रोण भी युद्ध करने के लिए तैयार हैं। आपके दादाजी भीष्म पितामह, जिन्होंने अपनी गोद में आपलोगों को खेलाया है, प्यार दिया है, युद्ध करने के लिए आपके सामने होंगे। आप गुरु को मारेंगे या ताऊ को, चाचा को या भाई को; किनको मारेंगे? अपने ही परिवार के लोगों को मारकर राज्य-सुखोपभोग करना बुद्धिमत्ता नहीं है। आपलोगों को जो संसार में सुयश है, वह सुरक्षित रहे, इसी हेतु मैं आपलोगों के पास आया हूँ। इस प्रकार बहुत तरह की बातें पांडवों को समझा-बुझाकर संजय चले गये। अर्जुन के अतिरिक्त अन्य चारो भाइयों के गले यह बात उतरी नहीं; लेकिन अर्जुन प्रभावित हो गया। ‘अर्जुन’ शब्द का अर्थ होता है-सरल। अ + ऋजु + न = अर्जुन। वास्तव में अर्जुन बहुत सरल था। उसका हृदय बड़ा ही कोमल था। जैसे उज्ज्वल वस्त्र पर जो रंग चढ़ा दीजिये, वह रंग चढ़ जाता है, अथवा सादे कागज पर जो लिख दीजिए, लिखा जाता है। सरल होने के कारण अर्जुन के हृदय ने संजय के विचार को स्वीकार कर लिया। उसने मन में सोच लिया कि वास्तव में युद्ध करना उचित नहीं। कुछ दिनों के बाद कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध के लिए जब आमने-सामने फौज खड़ी हुई, तो अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा, ‘केशव! आप मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले चलकर खड़ा करने की कृपा करें, जिससे मैं देख सकूँ कि मुझे किन-किन वीरों से युद्ध करना है।’ भगवान श्रीकृष्ण ने रथ को दोनों सेनाओं के बीच खड़ा कर दिया। रथ पर खड़ा होकर अर्जुन ने उभयदल की सेनाओं का सिंहावलोकन किया। देखने पर उसके मन में यह बात दृढ़ हो गयी कि संजय ने जो बात कही थी, बिल्कुल सत्य है। हमसे युद्ध करने के लिए हमारे सामने हमारे गुरु हैं, हमारे दादा हैं, हमारे ताऊ हैं, हमारे चाचा हैं, हमारे भाई हैं, हमारे भतीजे हैं। ये सब तो हमारे ही स्वजन-संबंधी लोग हैं। अपने से अपने स्वजनों को मारकर रक्तरंजित राज्य मैं भोगूँ, यह उचित नहीं है। यह सोचते-सोचते उसके शरीर में कँपकँपी आ गयी, हाथ थरथरा गया और गांडीव नीचे गिर गया। शरीर पसीने से लथपथ हो गया। वह कहता है, ‘केशव! मैं युद्ध नहीं करूँगा। अपने ही स्वजनों की निर्मम हत्या कर रक्तसना राज्य का भोग करूँ, यह मुझसे नहीं होगा। मैं भीख माँगकर खाऊँगा; लेकिन स्वजनों की हत्या नहीं करूँगा।
भगवान श्रीकृष्ण महायोगेश्वर थे। वे समझ गये कि धृतराष्ट्र ने जो चाल चली थी, उसी की छाप अर्जुन पर पड़ गयी है। यह मोहग्रसित हो गया है। उसी के मोह को दूर करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया, उसी को ‘श्रीमद्भगवद्- गीता’ कहकर अभिहित किया गया है। गीता का पहला श्लोक है-
“ धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ।।”
इस श्लोक के आरंभ में ‘धर्मक्षेत्रे’ और ‘कुरुक्षेत्रे’ दो शब्दों का प्रयोग किया गया है। क्यों? इसलिए कि धर्मराज के क्षेत्र को कुरुराज द्वारा हड़प लिये जाने के कारण ‘धर्मक्षेत्रे’ ‘कुरुक्षेत्रे’ में परिवर्तित हो गया था।
धृतराष्ट्र मन-ही-मन सोच रहा है कि उन्होंने संजय द्वारा पांडवों पर जो अपना जाल फेंका था, उसमें उनको कहाँ तक सफलता मिली। इसलिए वे पूछते हैं कि हे संजय! ‘कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से उपस्थित मेरे पुत्रें और पांडवों ने क्या किया? बतलाया जा रहा है कि अर्जुन मोहग्रसित हुआ है। इसके मोह को दूर करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण उपदेश देते हैं। रामचरितमानस में मोह को समस्त व्याधियों का मूल बतलाया है-
“ मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला ।
तेहि ते उपजहिं बहु सूला ।।”
तथा ‘मोह न अंध कीन्ह केहि केही’ अर्थात् मोह ने किसको अंधा नहीं किया? मोह के संबंध में गुरु नानकदेवजी महाराज इस भाँति कहते हैं-
“ मोहु कुटंबु मोहु सभकार ।
मोहु तुम तजहु सगल बेकार ।।1।।
मोह अरु भरमु तजहु तुम बीर।
साचु नामु रिदे रवै सरीर ।।2।।
सचु नामु जा नव निधि पाई ।
रोवै पूत न कलपै माई ।।3।।
एतु मोहि डूबा संसारु ।
गुरुमुखि कोई उतरै पारि ।।4।।
एतु मोहि फिरि जूनी पाहि ।
मोहे लागा जमपुरी जाहि ।।5।।
गुरु दीखिआ जपु तपु कमाहि ।
ना मोहु तूटै ना थाइ पाहि ।।6।।
नदरि करे ता एहु मोहु जाइ ।
नानक हरि सिउ रहै समाइ ।।7।।”
गुरु नानक साहब कहते हैं-मोह छूटता कब है?
उत्तर देते हैं-‘नदरि करे ता एहु मोहु जाइ ।’
जब कोई नदरि करते हैं, तब मोह छूटता है। ‘नदरि’ कहते हैं-नजर को अर्थात् अंतदृष्टि को। जब कोई दृष्टियोग की क्रिया करते हैं; तब दिव्यदृष्टि खुलती है, जिससे दिव्य ज्ञान होता है। तब उसका मोह छूटता है। दिव्यदृष्टि की प्राप्ति होती कैसे है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस में कहते हैं-
“ श्री गुर पद नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ।।
दलन मोह तम सो सुप्रकासू ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ।।”
मोह का नाश तब होता है, जब अपने अंतर में प्रकाश मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को दिव्य दृष्टि देते हैं और अपना दिव्य रूप दिखलाते हैं। भगवान का एक रूप नराकृति है। वह द्विभुज है। भगवान का दूसरा रूप है-देवाकृति, वह चतुर्भुज है। भगवान का तीसरा रूप विराटाकृति होता है, जिसमें अनेक सिर, अनेक नेत्र, अनेक मुख, अनेक भुजाएँ आदि होते हैं। यही विराटरूप भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत के मैदान में अर्जुन को दिखलाया था। विचारणीय विषय है कि यही विश्वरूप जब भगवान ने नारद को दिखलाया था, तब कहा था-तुम मेरे जिस रूप को देख रहे हो, यह मेरी उत्पन्न की हुई माया है। इससे यह न समझो कि मैं माया के गुणों से युक्त हूँ। मेरा शुद्ध स्वरूप इस प्रकार है-
“ अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्ध्यः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।”
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-मैं अव्यक्त हूँ; लेकिन जो अबुद्ध लोग हैं, अज्ञानी लोग हैं, वे मेरे व्यक्त रूप को ही जानते-मानते हैं। क्योंकि मेरा जो प्रभाव है, उसको वे जानते नहीं हैं। वास्तव में मेरा जो अव्यक्त, अव्यय रूप है, वही उत्तम है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने तीन पुरुषों की चर्चा की है; यथा-क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम। क्षर सगुण है। अक्षर निर्गुण है। इन दोनों से परे पुरुषोत्तम है। क्षर असत् है। अक्षर सत् है। क्षर अपरा प्रकृति है और अक्षर परा प्रकृति। महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में ।।”
भगवान कहते हैं-जो मूल स्वरूप है, उसको जानो। जिसको क्षर कहते हैं, वह असत् और जो अक्षर है, वह है सत्। भगवान कहते हैं कि क्षर-अक्षर से परे मैं हूँ। वह क्या है? जो सत्-असत् और सगुण-निर्गुण के परे है, उस ओर इंगित करते हुए संत कबीर साहब इस भाँति कहते हैं-
“ सर्गुन की सेवा करो, निर्गुन का करु ज्ञान ।
निर्गुन सर्गुन के परे, तहैं हमारा ध्यान ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ निर्गुण सर्गुण त्रिहु ते दूरि ।
नानक अलिप्तु रहिआ भरपूरि ।।”
संत गरीबदासजी महाराज कहते हैं-
‘निर्गुन सर्गुन सब कला बहुरंगी बरियाम ।’
सगुण और निर्गुण-ये दोनों प्रभु की कलाएँ हैं। इन दोनों की व्याख्या करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ महिमा सगुन जो कहब बखानी ।
सोइ स्वच्छता करइ मल हानी ।।
रघुपति महिमा अगुन अबाधा ।
बरनव सोइ बर वारि अगाधा ।।”
गोस्वामीजी कहते हैं-सगुण की महिमा का जो वर्णन कर रहा हूँ, वह मल की हानि करता है। विचारणीय विषय है-जल की मात्र जितनी रहेगी, उसी मात्र में मल की सफाई होगी; मल की धुलाई होगी। जल कम है, तो कम मल प्रक्षालन होगा। जल अगर अगाध है, तो समस्त मल धूलकर साफ हो जाएगा। गोस्वामीजी ने सगुण को जल की स्वच्छता बतलाया है, जो कि स्वल्प है। और निर्गुण को जल की अगाधता कहा है, जो ‘अबाधा’ यानी बाधा- रहित है। तात्पर्य यह है कि सगुण रूप बाधा है; लेकिन निर्गुण स्वरूप निर्बाध है। इसका अर्थ यह नहीं कि सगुण को छोड़कर निर्गुण को ही पकड़ा जाय। स्थूल सगुण साकार रूप को देखकर जयन्त के मन में मोह हुआ। स्थूल-सगुण साकार रूप को देखकर नारद के मन में मोह हुआ। भगवान श्रीकृष्ण के साक्षात् दर्शन करते हुए भी अर्जुन के मन में मोह हुआ, जिस मोह को भंग करने के लिए भगवान ने गीता का उपदेश दिया। भगवान के स्थूल-सगुण साकार रूप को ग्वाल-बालों के साथ गौओं को चराते हुए देखकर इन्द्र और ब्रह्मा के मन में मोह हो गया-भ्रम हो गया। ब्रह्मा ने गौओं को, बछड़ों को और ग्वाल-बालों को चुरा लिया। भगवान ने अपनी महिमा से सब गौओं, बछड़ों और सब ग्वाल-बालों को बना लिया। तब ब्रह्माजी की आँखें खुलीं। मोह- ग्रसित इन्द्र ने ब्रज पर पानी बरसाना शुरू कर दिया। भगवान ने सबकी रक्षा कर ली। तब इन्द्र भगवान को श्रीकृष्ण में भगवत्ता का ज्ञान हुआ। स्थूल सगुण साकार रूप के दर्शन से सती-जैसी साध्वी नारी को और नारद-जैसे मुनि के मन में भ्रम हुआ। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज को कहना पड़ा-
“ निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुण जान नहिं कोय ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।।”
अतएव यह अतिशयोक्ति नहीं कि सगुण रूप बाधक तथा भ्रमोत्पादक है और निर्गुण रूप निर्भ्रम होने के कारण निर्बाधक है।
भ्रम-निवारणार्थ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश करते हैं। गीता तीन प्रकार की है- सप्तश्लोकी गीता, सत्तरश्लोकी गीता और सात सौ श्लोकी गीता। अधिकतर लोग सात सौ श्लोकी गीता को जानते हैं। इसके अठारह अध्याय हैं। इन अठारहो अध्यायों में भगवान श्रीकृष्ण ने अठारह तरह के योगों की चर्चा कर अर्जुन को योगी बनने के लिए प्रेरित किया है।
“ तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।।”
योगी बनने के लिए भगवान श्रीकृष्ण के कहने का तात्पर्य यह नहीं कि वह घर-वार, परिवार छोड़कर संन्यासी बन जाए। घर-वार, परिवार, राज्य आदि छोड़कर भीख माँगकर खाने के लिए तो अर्जुन चाहता ही था; लेकिन भगवान ने सीख दी; लेकिन भगवान ने भीख माँगकर खाने की सलाह व सीख नहीं दी; बल्कि उन्होंने कहा-
“ तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पित मनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।।”
हे अर्जुन! तुम मेरा स्मरण भी करो और युद्ध भी करो। प्रभु-स्मरण करने से परलोक बनेगा और युद्ध करके राज्य प्राप्त करने पर इहलोक बनेगा। इसलिए भगवान ने उभय कर्म करने की प्रेरणा दी।
भगवान कहते हैं-युद्ध करके राज्य-सुख भोगो; लेकिन अनासक्त होकर। ‘अनासक्त जग में रहो भाई। दमन करो इन्द्रिन दुखदाई ।।’
योग की विभिन्न परिभाषाएँ देते हुए भगवान ने कर्म करने की कुशलता को भी ‘योग’ की संज्ञा दी है। ‘योगः कर्मसु कौशलम्’। कर्म करने की कुशलता यह है कि कर्म तो करो; लेकिन उसका लेप नहीं लगने पावे अर्थात् निर्लिप्त भाव से कर्म करो। अनासक्त होकर कर्म करने से उसका बंधन नहीं पड़ता।
“ कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।।”
कर्म करने का अधिकार तुम्हारा है; किन्तु फल लेने में तुम स्वतंत्र नहीं हो। भगवान का यह विधान मात्र अर्जुन के लिए नहीं है, वरन् प्राणिमात्र के लिए है।
आम का फल बोओगे, तो उसमें आम का फल लगेगा। धान बोने से धान मिलेगा। गेहूँ बोने से गेहूँ मिलेगा। जिस कर्म का बीज तुम बोओगे, उसका फल मैं दूँगा।
लोगों की प्रवृत्ति ऐसी होती है कि वे कर्म तो खोटे करेंगे; लेकिन फल चाहेंगे उत्तम। भगवान कहते हैं-ऐसा नहीं होगा। संतों ने श्रीमद्भगवद्-भजन करते हुए संसार में अनासक्त रहकर कर्म करने के लिए कहा है-
“ कर ते कर्म करो विधि नाना ।
सुरति राख जहँ कृपानिधाना ।।”
श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने कहा-जल में नाव रहे, कोई हानि की बात नहीं; किन्तु नाव में जल नहीं आना चाहिए। नहीं तो वह नाव को डुबो देगा। उसी तरह भक्त संसार में रहे, कोई हानि की बात नहीं; लेकिन भक्त में सांसारिकता नहीं आनी चाहिए। नहीं तो वह उसको डुबो देगी। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणै ।
सुरति सबदि भवसागरु तरिअै नानक नामु बखाणै ।।”
जल से कमल की उत्पत्ति होती है। कितना भी जल बढ़ता जाएगा; लेकिन वह कमल को नहीं डुबो सकता है। जैसे-जैसे जल बढ़ता है, कमल ऊपर उठता जाता है; यद्यपि कमल की जल से ही उत्पत्ति होती है, फिर भी वह जल से ऊपर रहता है। उसी तरह इस संसार में रहो, जिस संसार से तुम्हारी उत्पत्ति हुई है। कमल क्या करता है? अपनी सुगंध से चतुर्दिक सुगंधित करता है। जिनको पराग से अनुराग है, दूर-दूर से भँवरे आकर पराग ले जाते हैं। उसी तरह संसार में रहो। अपने यश-सौरभ से संसार को सुरभित करो और संसार से ऊपर होकर यानी निर्लिप्त होकर रहो।
आचार्य बिनोवा भावे ने कहा-अर्जुन संन्यासी का भेष लेना चाहता था और जंगल जाना चाहता था। अर्जुन को संन्यासी का भेष लेकर जंगल जाना सरल था; लेकिन जंगल जाकर भी वह शिकार खेलना शुरू कर देता; क्योंकि संन्यासी की वृत्ति उसकी नहीं थी। संन्यासी की वृत्ति होनी चाहिए। केवल संन्यासी के भेष से काम नहीं चलेगा। जिस समाज में जन्म लिये हो, उस समाज में रहकर अपनी उन्नति करो। मछली पानी में रहती है; यदि मछली कहे कि पानी की कोई कीमत नहीं है, मैं पानी में नहीं रहूँगी। दूध की कीमत अधिक है और उससे भी अधिक कीमत घी की है, मैं वहीं रहूँगी, तो मछली जो दूध में जी नहीं सकती और न घी में ही जी सकती है। वह जब भी जियेगी, तो पानी में ही जियेगी और उसी में अपनी वृद्धि-समृद्धि-उन्नति कर सकती है।
भगवान ने ‘योग’ की दूसरी परिभाषा दी है- ‘समत्वं योग उच्यते’ अर्थात् समता का नाम योग है। प्रश्न होता है-समता कैसे आएगी? जबतक हम ममता-ग्रस्त रहेंगे, समता कैसे आएगी? संत कबीर साहब ने कहा है-
“ कंचन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह ।
मान बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ साधो! मन का मान तियागो ।
काम क्रोध संगत दुर्जन की, ताते अहिनिसि भागो ।।
सुख दुख दोनों सम करि जानै, और मान अपमाना ।
हर्ष शोक ते रहै अतीता, तिन जग तत्त्व पिछाना ।।
अस्तुति निन्दा दोऊ त्यागै, खोजै पद निरवाना ।
जन नानक यह खेल कठिन है, कोऊ गुरु-मुख जाना ।।”
इस प्रकार संत और भगवंत की वाणियों में जहाँ हम मान के परित्याग का उपदेश पाते हैं, वहीं जन साधारण के मन में मान एक विशिष्ट स्थान रखता है।
‘मान’ शब्द के अनेक अर्थों में एक अर्थ ‘माप’ भी होता है। माप अर्थात् मापना। जहाँ कहीं भी हम जाते हैं, तो हमारे पास जो अपने अर्जित ज्ञान का मीटर है, उस मीटर से हम उनकी माप करते हैं। हम देखते हैं कि ये हमसे कम हैं या अधिक? जब देखते हैं कि ये हमसे कम हैं और हम इनसे अधिक हैं, तब ‘मान’ शब्द के साथ अपने में ‘अभि’ शब्द जोड़ देते हैं। परिणाम क्या होता है? हममें अभिमान आ जाता है और हम उसका अपमान करने लगते हैं। हम जब देखते हैं कि जैसे हम हैं, वैसे ये भी हैं यानी हम दोनों सम हैं, तो उस ‘मान’ के साथ ‘सम’ शब्द जोड़ देते हैं अर्थात् सम्मान करने लग जाते हैं। जब हमारे मीटर में यह मालूम पड़ता है कि ये हमसे विशेष हैं और हम इनसे कम हैं, तो उस ‘मान’ के साथ ‘पूज्य’ शब्द और अपने लिये ‘यज’ शब्द जोड़ देते हैं। तब वे हमारे हो जाते हैं पूज्यमान और हम उनके बन जाते हैं यजमान। ऐसी स्थिति में समता आयेगी कैसे? अहंता का नाश कैसे होगा? एक अहं की ही बात नहीं है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य; हम सोचें कि इन षट् विकारों की उत्पत्ति कहाँ से है? इनका जनक कौन है? उत्तर मिलेगा-मन। इसलिए जबतक मनोनिग्रह नहीं होगा, तबतक विषमता मिटेगी नहीं और समता आयेगी नहीं। अब हम भगवान से ही जिज्ञासा करें कि मनोनिग्रह हेतु वे क्या उपाय, यत्न, क्रिया, विधि बतलाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भगवान ने अर्जुन को विधिवत् ध्यानयोग की क्रिया बतलायी है।
“ समं काय शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
अर्जुन! इस तरह ध्यान करो। किस तरह? तो कहा-काया, सिर और गले को समान एवं अचल और स्थिर करके अन्य दिशाओं को नहीं देखते हुए अपनी नासिका के आगे देखो।
इस श्लोक में भगवान ने अचल और स्थिर इन दो शब्दों का प्रयोग किया है। सामान्यतया लोग अचल और स्थिर दोनों शब्दों का एक ही अर्थ करते हैं यानी अचल का अर्थ स्थिर और स्थिर का अर्थ अचल। किन्तु भगवान ने दो शब्दों का प्रयोग किया है। क्यो? यदि दोनों शब्दों का एक ही अर्थ हो, तो भगवान के वाक्य में पुनरुक्ति दोष आ जाएगा। भगवान द्वारा कथित दोनो शब्दों के दो अर्थ हैं। अचल का अर्थ है हम चल नहीं रहे हैं-बैठे हुए हैं और स्थिर का अर्थ है-हमारे शरीर में किसी अवयव का संचालन नहीं हो। अगर हमारा अवयव संचालित है, तो हम स्थिर नहीं हैं। भगवान कहते हैं कि तुम इस तरह बैठो कि शरीर, गर्दन और मस्तक सीधा हो। साथ ही अचल और स्थिर हो। तब क्या करो? तो भगवान क्रिया बतलाते हैं-‘सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं’ नासिका के आगे देखो। उसके साथ ही शर्त यह है कि ‘दिशश्चानवलोकयन्’। देखो, किन्तु किसी दिशा को नहीं देखते हुए। आज गीता की इतनी टीकाएँ हुई हैं, ठिकाना नहीं है। बड़े-बड़े विद्वानों ने इसकी विविध प्रकार की टीकाएँ की हैं। बड़े-बड़े आचार्यों ने भी टीकाएँ की हैं। मात्र भारत ही नहीं, विश्व की प्रायः सभी समुन्नत भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। लेकिन यहीं आकर टीका टिक जाती है, स्पष्ट नहीं हो पाती है। कितने बड़े-बड़े विद्वानों और महात्मा महानुभावों से मैंने पूछा-यह ‘सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं’ क्या है? किन्हीं ने बतलाया-‘नासिका का निचला भाग।’ किन्हीं ने बतलाया-‘नासिका का ऊपरी भाग।’ किन्हीं ने कहा-‘भ्रूमध्यवाला स्थान है।’ किन्तु जब उनसे जिज्ञासा की जाती है कि भगवान ने किसी दिशा को नहीं देखते हुए नासिकाग्र में देखने की आज्ञा दी है। दिशाएँ दश हैं-उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम, नैऋत्य, वायव्य, ईशान, अग्नि, ऊपर और नीचे। इस प्रकार दश दिशाओं के अंदर ऊपर और नीचे भी आ जाते हैं। इसलिए ऊपर वा नीचे किसी को भी नासिकाग्र कैसे कहा जा सकता है? इसके उत्तर में वे मौन धारण कर लेते हैं।
वास्तविक बात तो यह है कि बिना क्रियावान शुद्धाचारी संत सद्गुरु के इसकी सही जानकारी नहीं हो सकती। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के चतुर्थ अध्याय में कहा है-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
संत कबीर साहब ने कहा है-
“ वस्तु कहीं ढूढै कहीं, केहि विधि आवै हाथ ।
कह कबीर तब पाइये, जब भेदी लीजै साथ ।।
भेदी लीन्हा साथ कर, दीन्हा वस्तु लखाय ।
कोटि जन्म का पंथ था, पल में पहुँचा जाय ।।”
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के अनुसार-
“ बिन दया सन्तन की मेँहीँ, जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं वो, होनहारा है नहीं ।।”
गीता-पारायण के साथ-साथ यदि भगवान के वचनानुसार उसमें परायण हो सकें, तो हमारा उभय लोक कल्याणमय होगा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 21-12-1996 ई0 को भागलपुर नगर के सुजागंज-स्थित सत्संग-भवन में गीता जयन्ती के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मार्च 1997 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृंद, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ संतमत का सत्संग होगा। संतमत सर्वधर्म-समन्वय मत है। विश्व में जितने मत हैं, जिनको आस्तिक मत कहते हैं, सभी इसमें समाहित हैं। जिस तरह विभिन्न नदियों का जल समुद्र में एकत्रित होता है, उसी तरह सभी संतों का मत संतमत में सन्निहित है। संतमत में जाति-पाँति की कोई बात नहीं होती।
“ जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बात ।
सबै सयाने एक मत, तिनकी एकै जात ।।”
परमात्मा ने जो सृष्टि की है, मानव-मात्र को एक-सा बनाया है। चाहे वे हिन्दू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों, जैन हों, बौद्ध हों, सिक्ख हों आदि जितने भी मानव-मात्र हैं; सबकी रचना एक-सी है। परमात्मा ने सबको देखने के लिए आँखें दी हैं, सुनने के लिए कान दिए हैं, गंध ग्रहण करने के लिए नासिका दी है, रसास्वादन के लिए जिभ्या दी है, स्पर्श के लिए त्वचा दी है, भोजन के लिए मुँह दिया है, मल-मूत्र विसर्जन के भी दो द्वार हैं। किसी भी जाति, किसी भी पाँति, किसी भी धर्म, किसी ही मजहब, किसी भी सम्प्रदाय, किसी भी रिलिजन के कोई क्यों न हों, किसी भी देश के क्यों न हों, परमात्मा ने सबके लिए एक-सा न्याय बख्शा है। ऐसा नहीं है कि किसी को देखने के लिए आँखें आगे में हैं, तो किसी को पीछे में हैं; किसी का कान बगल में है, तो किसी का कान आगे में है; कोई मुख से भोजन करते हैं, तो कोई किसी और से भोजन करते करते हैं-ऐसा नहीं। अल्लाह ताला की सुरचना में सबका बँटवारा बराबर-बराबर है। किसी को कम और किसी को वेशी नहीं। किसी को दो आँखें और किसी को एक आँख; किसी को एक कान, किसी को दो कान-ऐसा नहीं। सबके लिए समान वितरण है। उसी तरह यह संतों का ज्ञान सबके लिए समान है। उस प्रभु को पाने के लिए जो रास्ता है, वह रास्ता सबके लिए एक है-
“ क्या हिन्दू क्या मुसलमान, क्या ईसाई जैन ।
गुरु भक्ती पूरन बिना, कोइ न पावै चैन ।।
गुरु भक्ती दृढ़ कै करो, पीछे और उपाय ।
बिन गुरु भक्ती मोह जग, कभी न काटा जाय ।।
मोटे बंधन जक्त के, गुरु भक्ती से काट ।
झीने बंधन चित्त के, कटें नाम परताप ।।
मोटे जब लग जायँ नहिं, झीने कैसे जायँ ।
ताते सबको चाहिए, नित गुरु भक्ति कमायँ ।।
सुरत शब्द एक अंग कर, देखो विमल बहार ।
मधय सुखमना तिल बसे, तिल में जोत अकार ।।”
यह सुखमना क्या है? इसी सुखमना का ज्ञान सभी संतों ने दिया है। कुरआन शरीफ के सूरे फातिहा रूकु 1 में लिखा है-‘ऐ कयामत के दिन का मालिक! मुझे सीधा रास्ता दिखा। मुझे वह रास्ता दिखा, जिस पर तुम्हारी मेहर हुई है। मुझे वह रास्ता न दिखला, जिस पर तुम्हारी क्रूर दृष्टि रही है।’ तीन बातें आयीं-पहली बात सीधा रास्ता, दूसरी बात मेहर की दृष्टि और तीसरी बात क्रूर दृष्टि। क्रूर दृष्टि किनके लिए अल्लाह की है? जो कुरआन शरीफ के कहे अनुकूल नहीं चलते हैं, जो गुमराह हैं, उनकी ओर उनकी क्रूर दृष्टि रहती है। जो असत् कार्य करते हैं, सन्मार्ग से बिछुड़े हुए हैं, उन पर उनकी क्रूर दृष्टि रहती है और जो सन्मार्ग पर चलते हैं, उन पर अल्लाह की मेहर-दृष्टि रहती है। कुरआन शरीफ के अलबकरा पारा 3, सूरा 2 में लिखा है-‘जो कोई अल्लाह पर ईमान लाते हैं, अल्लाह उनके रक्षक और सहायक होते हैं और उनको वे अंधकार से प्रकाश में ले जाते हैं।’ जिस अंधकार से प्रकाश में ले जाने की बात हम कुरआन शरीफ में पढ़ते हैं, वही बात वैदिक धर्मग्रंथों को जब हम पढ़ते हैं, तो उनमें पाते हैं-
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
असतो मा सद्गमय ।
मृत्योर्माऽमृतं गमय ।
अर्थात् हे प्रभु! मुझे असत् से सत् की ओर ले चल, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल और मृत्यु के मुख से छुड़ाकर अमृतत्व का लाभ करा। यह हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं।
आचार्य विनोबा भावे ने कहा था-‘हमारी कुछ प्रार्थना भगवान सुनते हैं और कुछ प्रार्थना नहीं भी सुनते हैं।’ कौन-सी प्रार्थना सुनते हैं और कौन-सी प्रार्थना नहीं सुनते हैं? इस पर उन्होंने कहा था-राँची से जो ट्रेन पटना जाती है, उस ट्रेन पर आप बैठिये और प्रभु से प्रार्थना कीजिए कि हे प्रभु! हमें सकुशल पटना पहुँचा दो, तो प्रभु यह प्रार्थना स्वीकार कर हमें सकुशल पटना पहुँचा देंगे, लेकिन जो ट्रेन राँची से कलकत्ता जाती है, उस ट्रेन पर हम बैठकर प्रार्थना करें कि हे प्रभु! हमें सकुशल पटना पहुँचा दो, तो यह प्रार्थना परमात्मा नहीं सुनेंगे। जहाँ जाना है, उस सवारी पर आप बैठिये और प्रार्थना कीजिए, तो प्रभु आपकी प्रार्थना सुनेंगे और सहायता करेंगे। उसी तरह अल्लाह परवरदिगार उनकी सहायता करते हैं, जो उस मार्ग पर चलते हैं। जिस मार्ग से चलकर अंधकार से प्रकाश में जा सकते हैं, वह अंधकार से प्रकाश में जाने का रास्ता क्या है? वही कुरआन शरीफ की पहली प्रार्थना है-‘मुझे सीधा रास्ता दिखला।’ वह सीधा रास्ता क्या है? कहीं बाहर संसार में सीधा रास्ता नहीं है। जबतक कोई अंधकार में रहता है, वह टटोलता रहता है, रास्ता नहीं मिलता है। जो कोई अंधकार से प्रकाश में जाते हैं, उनको सीधा रास्ता मिलता है। अंधकार से प्रकाश में हम कैसे जाएँगे, इसके लिए क्या यत्न है? कुरआन शरीफ के पारा 11, सुरा 11 हूद में ठीक वही बात लिखी है, जो बात श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 6/13 में लिखी हुई है। दोनों में बिल्कुल साम्य है।
‘अकिम वज्हक लिद्दीनि हनीफा ।’ (कुरान शरीफ)
अर्थात् अपना चेहरा जमा दे, तेरा रुख एक ही ओर स्थिर हो, डगमगाता और हिलता-डुलता न हो, कभी पीछे, कभी आगे और कभी दायें, कभी बायें न मुड़ता हो। बिल्कुल नाक की सीध। उसी मार्ग पर दृष्टि जमाकर चल, जो तुझे दिखाया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में-
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
अर्थात् शरीर, गर्दन और सिर को सीधा करके, अचल और स्थिर होकर बैठे तथा किसी दिशा को न देखते हुए अपनी नाक के आगे दृष्टि को जमावे।
बाइबिल में हम पाते हैं-‘शरीर का दीपक आँख है, यदि तेरी आँख एक हो, तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा, परन्तु यदि तेरी आँख बुरी हो, तो तेरा सारा शरीर अँधियारा होगा। जो ज्योति तुम में है, सो यदि अंधकार है, तो वह अंधकार कितना बड़ा है।’ (सेन्ट जॉन-योहन्ना)
अपने अंदर देखें, हम कहाँ हैं? जब हम आँखें बन्द कर देखते हैं, तो हमें अंधकार-ही-अंधकार मालूम पड़ता है। इस अंधकार से प्रकाश में हम कैसे जाएँगे, क्या यत्न है, क्या उपाय है? किस तरह हमको मार्ग-दर्शन मिलेगा? इसी मार्ग-दर्शन के लिए हजरत मुहम्मद साहब आए थे। उन्होंने लोगों को सीधा रास्ता दिखलाया। उस रास्ते पर चलें। वह सीधा रास्ता कहाँ है, क्या है?
एक फकीर ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है दिलवर पै जाने के लिए ।।”
“ अरे ऐ तकी तकते रहो मुर्शद ने ये पंजा दिया ।
बेहोश हो मत छोड़ियो गर चाहे तू जलवा पिया ।।”
अगर हम जलवा पाना चाहते हैं, खुदा का नूर पाना चाहते हैं, प्रभु का प्रकाश देखना चाहते हैं, गॉड की लाइट देखना चाहते हैं, तो मुर्शिद के बताए तरीके से चलें।
“ होगा फजल दर्गाह तक खौफो खतर की जा नहीं ।
सीधे चला जाना वहाँ मुर्शद ने यह फतवा दिया ।।”
‘सीधे चला जाना वहाँ’-यह सीधा रास्ता है। जिज्ञासु जिज्ञासा करता है कि जो रास्ता आप बतला रहे हैं, क्या उस रास्ते से और भी कोई पहले गुजरे हैं, गए हुए हैं? तब वे जिज्ञासा का समाधान करते हैं-
“ मनसूर सरमद बूअली और शम्स मौलाना हुए ।
पहुँचे सभी इस राह से जिसने कि दिल पुख्ता किया ।।
यह राह मंजिल इश्क है पर पहुँचना मुश्किल नहीं ।
मुश्किल कुशा है रोबरू जिसने तुझे पंजा दिया ।।
तुलसी कहै सुन ऐ तकी यह राज बातिन है जुदा ।
रखना हिफाजत से इसे तुझको निशाँ ऊँचा दिया ।।”
जो मार्ग-दर्शन तुमको दिया गया है, वह बहुत ऊँचा निशाना है, इसको हिफाजत से रखो। यह राज बातिन है अर्थात् आन्तरिक रहस्य है। यह बाहर का मार्ग नहीं, अन्दर का है।
“ बेहोशिये इन्सान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मुहम्मद बातिन में खुदा है ।।”
अगर हम खुदा के पास जाना चाहते हैं, खुदा का दीदार चाहते हैं, तो अपने अन्दर चलना होगा। बाहर संसार में वे कहीं नहीं मिलेंगे।
आज हमारे सामने हजरत मुहम्मद साहब नहीं हैं। हम पूछें किनसे? हजरत मुहम्मद साहब कौन थे? हजरत मुहम्मद साहब खुदा के नूर थे, नवी थे, रसूल थे, पीर थे, पैगम्बर थे। उनको हम कहाँ खोजेंगे? उस खुदा के नूर को, अल्लाह के जलवे को देखना चाहें, तो कहाँ देख सकते हैं? संत कबीर साहब ने बहुत अच्छा उत्तर दिया है-
“ मुर्शिद नैनों बीच नबी है ।
स्याह सफेद तिलों बीच तारा, अविगत अलख रबी है ।।
आँखी मद्धे पाँखी चमके, पाँखी मद्धे द्वारा ।
तेहि द्वारे दूरबीन लगावे, उतरे भवजल पारा ।।
शून्य शहर में वास हमारा, तहँ सरभंगी जावे ।
साहब कबीर सदा के संगी, सबद महल ले आवे ।।”
अमीर खुसरो ने लिखा है-‘अपने गुरु ख्वाजा साहब से तोहफए बेनजीर लेकर मैं पंचगंगाघाट पर गया था। वहाँ जगद्गुरु स्वामी रामानन्दजी के मुझे दर्शन हुए। उन्होंने जो मुझपर मेहर की, उससे फौरन मेरे दिल की सफाई हो गई और खुदा का नूर झलक गया।’
खुदा का नूर कैसे झलकता है? जब कामिल मुर्शिद की मेहर होती है। हजरत मुहम्मद साहब की जीवनी में लिखा हुआ है कि वे मक्का से मदीना गए थे। ख्वाजा साहब लिखते हैं कि हजरत मुहम्मद साहब का मक्का से मदीना जाना-नौवें द्वार से दसवें द्वार में जाना है।
हमलोग नौ द्वार में बँधे हुए हैं। आँख के दो द्वार, कान के दो द्वार, नाक के दो द्वार, मुँह का एक द्वार और मल-मूत्र विसर्जन के दो द्वार; इन नवो द्वारों में हम रह रहे हैं। आगरे में एक संत हुए राधास्वामी साहब, उन्होंने कहा है-
“ इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।
खोज करो अन्तर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार ।।”
जबतक हम इन नौ द्वारों में रहेंगे, तबतक अंधकार में रहेंगे। इन नवो द्वारों को छोड़कर हम दसवें द्वार में कैसे जाएँगे, इसकी क्या कला है, इसकी क्या विधि है, इसकी क्या युक्ति है, इसका क्या राज है, इसका क्या रहस्य है? जबतक कोई इसके बतानेवाले हमें नहीं बताएँगे, नहीं पा सकते हैं। इसीलिए कहा-
“ मुर्शिदे कामिल से मिल सिद्क और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम शहरग के पाने के लिए ।।”
मुर्शिद ने तुमको जो फतवा दिया, तकते रहो, देखते रहो। वह देखना क्या, किस तरह देखो, कहाँ देखो? यह समझना होगा, सीखना होगा। केवल किताब पढ़ लेने से पूरा ज्ञान नहीं हो जाएगा।
एक बूढ़े सेठजी थे। उन्होंने अपने पुत्र से कहा-‘बेटा! घर में निठल्ले बैठकर क्या करोगे? जाओ, कुछ काम-धंधा करो। कुछ पैसे कमाओ।’ सेठ-पुत्र चला गया विदेश कमाने के लिए। बूढ़े बीमार हुए। खबर दी कि मेरा अंतिम समय है, आकर भेंट करो। दूर होने के कारण आने में देर हो गई। सेठजी का शरीर छूट गया। घर आने पर उसने तिजोरी में पूर्व संचित सम्पत्ति की खोज की। वहाँ धन नहीं था। उसको चिन्ता हुई। किसी से पूछने पर भी कुछ पता नहीं चला। उसके मन में आया, अगर पिताजी किसी को दिए होंगे, तो रोकड़ बही में जमा-खर्च होता ही होगा, उसमें लिखे होंगे। वह लड़का रोकड़-खाते के पन्ने उलटाने लगा। उसमें उसने लिखा पाया-आज महीना अमुक, तिथि अमुक, बारह बजे दिन में मैंने अपनी सारी सम्पत्ति दरवाजे पर स्थित शिवालय के त्रिशूल पर रख दी है। वह जाता है, बाहर दरवाजे पर देखता है, शिवालय तो है, त्रिशूल भी है, लेकिन इतनी सम्पत्ति त्रिशूल पर रहे, तो कैसे? त्रिशूल पर तो कुछ भी नहीं है। तो क्या मेरे पिताजी झूठी बात लिखकर चले गए? नहीं! इसमें कोई राज है, जो हम नहीं समझ रहे हैं। वह चला गया मुनीमजी के यहाँ। वहाँ उनसे पूछा कि आपको पता होगा, पिताजी ने सम्पत्ति क्या की? मुनीमजी ने उत्तर दिया-हाँ, मुझे मालूम है, लेकिन वह महीना आने दो, वह तिथि आने दो, मुझे खबर करना। मैं जाऊँगा और बारह बजे दिन जैसे होगा, वैसे मैं तुमको पता बतला दूँगा। वह महीना आया, वह तिथि आयी। सेठ-पुत्र गया मुनीमजी के यहाँ। मुनीमजी को बुलाकर लाया और कहा-‘अब बतलाइए।’ मुनीमजी ने कहा-‘बैठो।’ अब बारह बजने में एक-दो मिनट की देर रही, तो मुनीमजी ने कहा-‘चलो अब बतलाता हूँ।’ ठीक बारह बजे दिन में शिवालय के त्रिशूल की छाया जहाँ पड़ती थी, मुनीमजी ने कहा-‘खोदो यहाँ।’ जमीन खोदी गई, सारी सम्पत्ति मिल गई। यह एक रहस्य की बात है।
इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि किसी जानकार से जाने बिना, मात्र किताबी ज्ञान से पूरा लाभ नहीं मिल सकता है। इस प्रकार की बात अन्तस्साधना के संबंध में भी समझनी चाहिए। अंधकार से प्रकाश में कैसे जाओगे, नौ द्वारों से दसवें द्वार में कैसे जाओगे-सद्ग्रंथों में सारी बातें लिखी हुई हैं, लेकिन मात्र अध्ययन ज्ञान से काम नहीं चलता।
“ भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रंथ से ।
है असंभव समझ लो किसी संत से ।।”
“ बिन दया सन्तन की ‘मेँहीँ’ जानना इस राह हो ।
हुआ नहीं होता नहीं वो होनहारा है नहीं ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
यह राह क्या है? यह बाहर संसार की स्थूल राह नहीं है। यह भीतर का सूक्ष्म रास्ता है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ भक्ती का मारग झीना रे ।
नहिं अचाह नहिं चाहना चरनन लौ लीना रे ।।”
वह भक्ति का जो रास्ता है-महीन है, सूक्ष्म है, बारीक है। उस रास्ते पर यह शरीर नहीं चलेगा। उस रास्ते पर रूह चलेगी, सुरत चलेगी, जीवात्मा चलेगी, चेतन आत्मा चलेगी; क्योंकि खुदा का दीदार या परम प्रभु के दर्शन इन आँखों से नहीं हो सकते।
ईश्वर-स्वरूप बतलाते हुए संत कबीर साहब ने स्पष्ट कहा है-
“ श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींहीँ तें सब लेखा ।
सब के मध्य निरंतर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै ।
ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ।।
जाहि रूह अल्लाह के भीतर तेहि भीतर के ठाईं ।
रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।।
जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा ।
कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।।”
‘दिल देखा’ का तात्पर्य क्या है? दिल यानी चेतन आत्मा, रूह-सुरत। यही उस परम प्रभु परमात्मा का साक्षात्कार कर सकती है और कोई नहीं। हम चाहते हैं दस्त के द्वारा, आँख के द्वारा, हवासों के द्वारा, इन्द्रियों के द्वारा उस प्रभु का प्रत्यक्षीकरण हो, खुदा का दीदार हो; ऐसा हो नहीं सकता। ‘हुआ नहीं, होता नहीं और होनहारा है नहीं।’
यह संसार क्या है-मोहात्! और वह खुदा, अल्लाह, परवरदिगार-मोहितेकुल्ल। यह संसार व्याप्य है और परम प्रभु परमात्मा उसमें व्यापक। हमलोग इन आँखों से फूल को देखते हैं, लेकिन फूल में जो व्यापक सुगन्ध है, उस सुगन्ध को हम इन आँखों नहीं देख सकते। अगर हम सुगन्ध ग्रहण करना चाहें, तो उसके लिए हमारे पास नाक इन्द्रिय चाहिए। दो छेद नाक में हैं और दो छेद कान में हैं। कान का काम नाक नहीं कर सकती और नाक का काम कान नहीं कर सकता। नाक बन्द करके कान के सामने फूल रख दीजिए, सुगन्धि मिलेगी आपको? और किसी बात को सुनने के लिए कान बंद करके नाक के द्वारा क्या आप शब्द सुन सकेंगे? कदापि नहीं। इसमें राज क्या है? राज इसमें यह है-हम कहते हैं कि हम आँखों से देखते हैं, कानों से सुनते हैं, नासिका से गंध ग्रहण करते हैं, जिभ्या से रसास्वादन करते हैं, त्वचा से स्पर्श का ज्ञान करते हैं। इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा हम पंच विषयों का ज्ञान करते हैं, लेकिन न तो आप आँखों से देखते हैं, न तो आप कानों से सुनते हैं, न तो आप नासिका से गंध ग्रहण करते हैं, न जिभ्या से रसास्वादन करते हैं और न त्वचा से स्पर्श का ज्ञान करते हैं। ये इन्द्रियाँ तो यंत्र हैं, जिन यंत्रें के द्वारा आप काम लेते हैं। शक्ति का केन्द्र कहीं अन्यत्र है। जैसे पावर हाउस में बिजली भरी पड़ी है। वहाँ से विद्युत्-धारा प्रवाहित होकर हमारे घरों में आती है। मरकरी लगी हुई है, बल्ब लगा हुआ है। इस मरकरी और बल्ब में वही बिजली की धार आती है, तो प्रकाश हो जाता है। वही बिजली की धारा जब पंखे में आती है, वहाँ हवा का काम होने लग जाता है। वही बिजली की धारा जब हम मोटर में लगा देते हैं, तो पानी खींचने का काम होने लग जाता है। अगर विद्युत्-धारा नहीं रहे, तो क्या मरकरी और बल्ब प्रकाश देगा, क्या पंखा हवा देगा, क्या मोटर आपको पानी देगा? नहीं। क्यों? सब तो हैं ही-मोटर है ही, पंखा है ही, बल्ब है ही; तो प्रकाश क्यों नहीं मिलता, हवा क्यों नहीं मिलती, पानी क्यों नहीं निकलता? जिस तरह विद्युत्-धारा के कारण ये सभी यंत्र काम करते हैं, अन्यथा नहीं, उसी तरह आपके अन्दर जो चेतन-धार है, उस चेतन-धार के कारण ही आँखों से आप देखते हैं, कानों से आप सुनते हैं, नासिका से गंध ग्रहण करते हैं, जिभ्या से रसास्वादन करते हैं और त्वचा से स्पर्श का ज्ञान करते हैं। चेतन-धार के अभाव में कोई इन्द्रिय काम नहीं कर सकती। आप इस तरह भी समझ सकते हैं-कितने आदमी पान खा लेते हैं और अखबार पढ़ते हैं। पढ़ते-पढ़ते नींद आ जाती है। अखबार हाथ से गिर जाता है और वे सो जाते हैं। और स्वप्न में वे देखते हैं कि हमारे मित्र आए हैं और उन मित्र के साथ बैठकर हम जलपान कर रहे हैं, रसगुल्ला खा रहे हैं, तो उस स्वप्न अवस्था में रसगुल्ला का स्वाद आता है अथवा जिभ्या पर जो पान है, उसका स्वाद आता है? किसका स्वाद आता है? अगर जिभ्या से हम रसास्वादन करते हैं, तो जिभ्या पर पड़ा हुआ पान का स्वाद आना चाहिए, किन्तु उस समय उसका स्वाद नहीं मिलता, रसगुल्ला का स्वाद मिलता है। क्यों? अगर कानों से ही सुनते हैं, तो जिस समय हम सो जाते हैं, हमारे दोनों कान खुले रहते हैं, हमारे नजदीक में ही बैठकर जब कोई आदमी हमारी निन्दा या प्रशंसा करता है या कोई अन्य बात ही करता है, तो हम सुनते हैं? सुनते क्यों नहीं? मान लिया कि आँखें बन्द रहने के कारण हम कुछ देखते नहीं, लेकिन कान खुले रहने के कारण सुनना तो चाहिए? क्यों नहीं सुनते? मान लीजिए, हमारा एक छोटा-सा नन्हा-मुन्ना है। उसको प्यार करते-करते छाती से चिपकाकर हम नींद में चले गए। वह छोटा-सा नन्हा हमारी छाती पर पाखाना कर देता है। वह पाखाना हमारी छाती पर पड़ा हुआ है। क्या उस समय उसकी दुर्गन्ध मालूम पड़ती है? क्यों नहीं दुर्गन्ध मालूम पड़ती है, नासिका तो खुली हुई है। अगर नासिका से ही हम गंध लेते हैं, तो उस समय दुर्गन्ध नहीं मालूम होने का कारण क्या हुआ? कारण यह हुआ कि जिसके माध्यम से हम कानों से सुनते थे, नासिका से गंध लेते थे, जिभ्या से रसास्वादन करते थे; वह चेतन-धार उस समय वहाँ नहीं है। वह चेतन-धार वहाँ से हट गई है। कहाँ चली गई वह चेतन-धार? इस शरीर में वह चेतन-धार सतत एक ही जगह नहीं रहती है। हम एक ही जगह नहीं रहते हैं, स्थान बदलते रहते हैं। जाग्रत के समय में जहाँ हम रहते हैं, स्वप्न के समय में वहाँ नहीं रहते हैं। स्वप्न के समय जहाँ हम रहते हैं, सुषुप्ति के समय वहाँ नहीं रहते हैं। जाग्रत के समय हम आँख में रहते हैं, स्वप्न के समय कण्ठ में चले जाते हैं और सुषुप्ति के समय हृदय में चले जाते हैं। अभी हमारी आँखें खुली हुई हैं। जितने लोग बैठे हुए हैं, सबका ज्ञान हमको हो रहा है। यदि बैठे-बैठे हमको नींद आ जाए, तब कौन कहाँ हैं, पता ही नहीं रहेगा। कौन क्या बोल रहे हैं, हम सुन नहीं सकते। क्यों? आँख से नीचे कण्ठ में चले आए, इसलिए बाहर का ज्ञान भूल गए। अब स्वप्न में हम देख रहे हैं, शरीर तो हमारा बिछावन पर पड़ा हुआ है और हम कलकत्ता में घूम रहे हैं, दिल्ली में घूम रहे हैं, मद्रास में घूम रहे हैं; विविध स्थानों में घूम रहे हैं। वहाँ कौन जाता है? वस्तुतः हम मानसिक जगत् में घूमते हैं। जाग्रतावस्था में मुँह से जो हम उच्चारण करते हैं, उस समय उच्चारण नहीं कर सकते हैं। कभी-कभी कोई आदमी स्वप्न में भी बोलते हैं, लेकिन बहुत कम वैसा होता है, लेकिन क्या बोल रहे हैं, उसका ज्ञान उनको नहीं होता है। कण्ठ स्वर का स्थान है। बिना स्वर के व्यंजन का उच्चारण नहीं होता। इससे जाना जाता है कि स्वप्नावस्था में हम कण्ठ में रहते हैं और जब हम हृदय में चले आते हैं, सुषुप्ति की अवस्था रहती है। उस समय स्वप्न नहीं रहता, किन्तु हृदय काम करता रहता है, धड़कनें चलती रहती हैं, श्वास-प्रश्वास की गति होती रहती है। जब नींद टूटती है, तो हम कहते हैं कि वाह! आज बहुत अच्छी नींद आयी। अब यहाँ से ऊपर जब हम कण्ठ में जाएँगे, तो फिर स्वप्न देखने लगेंगे और जब कण्ठ से ऊपर आँख में आ जाएँगे, तो नींद टूट जाएगी और स्थूल संसार का ज्ञान होने लग जाएगा।
संतजन कहते हैं कि जैसे-जैसे तुम नीचे की ओर जाते हो, अज्ञानता की ओर जाते हो और जैसे-जैसे ऊपर की ओर जाते हो, ज्ञान की ओर जाते हो। हृदय से ऊपर कण्ठ में जाने पर मानसिक जगत् का ज्ञान हुआ और कण्ठ से ऊपर आँख में आने पर स्थूल जगत् का ज्ञान हुआ। इन आँखों से यदि तुम अपने को ऊपर कर सको, तो सूक्ष्म दुनिया का ज्ञान हो जाएगा। इस दुनिया की कौन कहे, उस दुनिया का भी ज्ञान हो जाएगा। गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ यथा सुअंजन आंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखहिं सैल वन, भूतल भूरि निधान ।।”
(रामचरितमानस)
आपको वह ज्ञान हो जाएगा कि आप कहीं भी बैठकर कहीं भी देख सकेंगे। योगशिखोपनिषद् में लिखा है-‘विन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात्।’ तथा महर्षि मेँहीँ-पदावली में भी पाते हैं-‘एकविन्दुता दुरबीन हो, दुरबीन क्या करे।’ स्वामी विवेकानन्दजी ने कहा था कि ‘मनुष्य का मस्तिष्क अनंत ज्ञान का भंडार और अछोर पुस्तकालय है। इसलिए यदि तुम विद्वान बनना चाहते हो, तो मस्तिष्क का अध्ययन करो।’ स्वामी विवेकानन्द ने मात्र कहा ही नहीं था, साधना भी की थी। अमेरिका के शिकागो नगर में जहाँ विश्वधर्म सम्मेलन हुआ था, वहाँ वे गए हुए थे। वहाँ उनका प्रवचन हुआ था। उस प्रवचन को सुनकर विश्वधर्म सम्मेलन के उपस्थित लोगों ने एक स्वर से कहा था-‘He is Learned beyond Learning’ वह विद्या से बाहर का विद्वान है। उनकी कॉलेज की शिक्षा मात्र ठण्।ण् तक की थी, लेकिन उनका ज्ञान इतना महान था कि सबको कहना पड़ा कि ‘विद्या से बाहर का विद्वान है।’ उन्होंने किस विद्या का अध्ययन किया था? आँख से ऊपर की विद्या का।
संत कबीर साहब का जमाना था। एक बहुत बड़े पण्डित घूम-घूमकर लोगों से शास्त्रर्थ किया करते थे और शास्त्रर्थ करके लोगों को पराजित करते थे। जितने से उन्होंने शास्त्रर्थ किया, सबको पराजित कर अपना नाम सर्वाजित रखा। घर आकर अपनी माताजी से कहा कि माताजी! अब मेरा नाम सर्वाजित है। इसलिए पहलेवाला नाम अब आप नहीं कहिए। उनकी माताजी की श्रद्धा संत कबीर साहब में थी। उन्होंने कहा-सबको तो तुमने पराजित किया। जब संत कबीर साहब को तुम पराजित करके आओगे, तब मैं तुमको सर्वाजित नाम से पुकारूँगी, वैसे नहीं। पण्डितजी ने कहा-माताजी! कबीर तो महामूर्ख है, उसने कभी कुछ पढ़ा नहीं, कभी मदरसा गया नहीं, एक अक्षर का ज्ञान उसको नहीं है, उसके साथ शास्त्रर्थ क्या करना है? उनकी माताजी ने कहा-बेटा! एक बार जाओ तो तुम; बातें करो। उन दिनों लोग बैल पर भी सामान लादते थे। पण्डितजी ने बैल पर बहुत-सी पोथियाँ-वेद, शास्त्र, पुराणादि लाद लीं और चले कबीर साहब से शास्त्रर्थ करने। कबीर साहब का घर अभी थोड़ी दूर बाकी था। बस्ती के बाहर कुएँ पर माताएँ पानी भर रही थीं। पण्डितजी ने पूछा-कबीर का घर कहाँ है, किधर है? एक पनिहारी उत्तर देती है-
“ कबीर का घर शिखर पर, जहाँ सिलहिली गैल ।
पाँव न टिकै पपीलिका, पण्डित लादे बैल ।।”
पण्डितजी! कबीर का घर तो शिखर पर है, जहाँ चींटी की भी टाँग नहीं जा सकती। आप वहाँ बैल पर पुस्तकें लाद कर कैसे पहुँच सकते हैं? पण्डितजी के मन में हुआ कि जहाँ की पनिहारी की भाषा ऐसी है, तो कबीर की भाषा कैसी होगी? फिर भी विद्या के अहं में आगे बढ़े। वहीं पनिहारी से एक लोटा जल लेकर वे कबीर साहब के घर पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने कबीर साहब के सामने जल भरा हुआ लोटा रख दिया। कबीर साहब के पास गुदड़ी सीने की सूई थी, उसी जल में उन्होंने डाल दी। पण्डितजी का कहना था कि जैसे लोटा जल से लबालब भरा हुआ है, उसी प्रकार मैं ज्ञान से लबालब भरा हुआ हूँ। कबीर साहब ने जल में सूई डालकर उत्तर दिया-आपका जितना ज्ञान है, उस ज्ञान को हमारा ज्ञान छेदकर नीचे तक चला जाएगा अर्थात् आपके ज्ञान को भेदनेवाला हमारा ज्ञान है। पण्डितजी सैन से सैन का समाधान पाकर बैन में बोले-मैं आपसे शास्त्रर्थ करने के लिए आया हूँ। कबीर साहब ने उत्तर दिया कि मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। आपसे शास्त्रर्थ मैं क्या करूँ? शास्त्र किसे कहते हैं, हम जानते ही नहीं हैं। पण्डितजी ने कहा कि आपमें शास्त्र ज्ञान नहीं है, तो एक कागज पर लिख दीजिए कि-‘कबीर हारा, पण्डित जीता।’ कबीर साहब ने कहा-मैं एक अक्षर भी लिखना जानता नहीं; लिखूँगा क्या? आप स्वयं लिख लें। पण्डितजी ने लिख लिया-‘कबीर हारा, सर्वाजित जीता।’ पण्डितजी ने कहा कि आप इस पर हस्ताक्षर कर दीजिए। कबीर साहब ने कहा-‘मैं एक अक्षर लिखना जानता नहीं, तो हस्ताक्षर कैसे करूँगा?’ पण्डितजी ने कहा कि हस्ताक्षर करना नहीं जानते हैं, तो अँगूठा का निशान कर दीजिए। कबीर साहब ने कहा-हाँ, अँगूठा का निशान कर दूँगा। ऐसा कहकर कबीर साहब ने अँगूठा का निशान कर दिया। बड़ी खुशी के साथ पण्डितजी अपनी माँ के पास आए और कागज दिखलाते हुए कहा-यह देखो, ‘कबीर हारा, सर्वाजित जीता’ कागज पर लिखा हुआ है। पण्डितजी की माताजी उस कागज को देखती हैं, तो उस पर ‘कबीर जीता, सर्वाजित हारा।’ पण्डितजी की माता ने कहा-‘पुत्र! पढ़ो, कागज पर लिखा हुआ है-‘कबीर जीता, सर्वाजित हारा।’ उस कागज को देखकर पण्डितजी चकित हो गए। सोचने लगे, यह क्या हुआ? पुनः बोले-माताजी! लिखा हुआ तो मेरा ही है, लिखने में गलती हो गई। फिर दूसरी बार कबीर साहब के पास जाते हैं और कहते हैं-देखिए कबीर साहब! उस बार तो गलती हो गई लिखने में। अब इस बार मैं ठीक से लिखता हूँ, आप अँगूठा का निशान कर दीजिए। फिर उन्होंने लिखा-‘कबीर हारा, सर्वाजित जीता।’ कबीर साहब ने उस पर अँगूठा का निशान कर दिया। पण्डितजी जब माँ के पास कागज लेकर आते हैं, तो वहाँ हो जाता है-‘कबीर जीता, सर्वाजित हारा।’ माताजी कहतीं हैं-देखो, तुम बार-बार हारते हो और अपनी जीत बताते हो। इस प्रकार पण्डितजी तीन बार कबीर साहब के पास गए, तीनों बार ऐसे ही हुआ। अन्त में संत कबीर साहब की शरण जाकर उन्होंने उनसे दीक्षा ली। कहते हैं कि वे ही पण्डितजी संत कबीर साहब के प्रथम शिष्य बने।
संतों का ज्ञान सीना है, सफीना नहीं। यह अक्षरों में लिखने वाला ज्ञान नहीं है, आन्तरिक ज्ञान है, भीतरी रहस्य का ज्ञान है।
शिष्यत्व ग्रहण करने के पश्चात् एक दिन पंडितजी ने कबीर साहब से जिज्ञासा की-आप तो कभी स्कूल गए नहीं, मदरसा गए नहीं, विद्यालय-महाविद्यालय कभी गए नहीं; आपने इतना बड़ा महान ज्ञान कहाँ पाया? कबीर साहब ने उत्तर दिया-
“ मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
मुट्ठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।।”
अर्थात् मैंने समुद्र में डुबकी लगायी और वहाँ से ज्ञान की मुट्ठी लायी, जिसमें अनेक वस्तुएँ भरी हैं। पण्डितजी ने पूछा-आपने किस समुद्र में डुबकी लगायी? अरब सागर में, प्रशांत महासागर में, लाल सागर में, हिन्द महासागर में, अटलांटिक महासागर में, किस सागर में? कबीर साहब ने उत्तर दिया-
“ कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होय के जो रहै, माणिक लावै सोय ।।”
इस शरीररूपी समुद्र में मैंने डुबकी लगायी। अगर रूहानी इल्म हासिल करना चाहते हो, तत्त्वज्ञान प्राप्त करना चाहते हो, आत्मज्ञान लाभ करना चाहते हो, तो इस शरीर में डुबकी लगाओ। मरजीवा बनो। मरजीवा कहते हैं, गोताखोर को जो समुद्र में बहुत देर तक डूबकर रहता है। उसी तरह अपने अन्दर जितनी देर आप डूबकर रह सकेंगे, उतना ही अधिक ज्ञान लाभ कर सकेंगे। ईश्वरीय ज्ञान भीतर में है, बाहर में कहाँ है? अरे! दियासलाई में आग भरी हुई रहती है, लेकिन आप मुट्ठी में लीजिए, आपका हाथ नहीं जलेगा। उसी दियासलाई में से एक काठी निकालकर जहाँ दियासलाई में मसाला लगा हुआ हैं, उस मसाले पर घिसिए, भक् से आग निकलेगी और आपका हाथ उसको पकड़ने पर जलेगा। उसी तरह आपके अन्दर वह ज्ञान भरा हुआ है, आवश्यकता है एक काठी निकालकर घिसने की। और वह काठी क्या है? वह काठी है-दृष्टि की।
“ दृष्टि की कुंजी सुखमन द्वारा ।
तम कपाट तीसर तिल तारा ।।
खोलिये चमकि उठे ध्रुवतारा ।
गगन थाल भरपूर उजेरा ।।” -महर्षि मेँहीँ-पदावली
शहरग में नजर थिर कर खुदा के नूर को देख सकते हैं। सुषुम्ना के द्वार को खोलो और अन्तःप्रकाश पाओ। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
“ गुरु कुंजी पाहू निबल मनु कोठा तनु छति ।
नानक गुर बिन मन का ताकुना उखड़ै
अबरू न कुंजी हथि ।।”
गुरु नानकदेवजी कहते हैं-दूसरे के पास वह कुंजी नहीं है। अगर दसवाँ द्वार खोलना चाहते हो, भीतर जाना चाहते हो, अंधकार से प्रकाश में प्रवेश करना चाहते हो, तो ‘गुरु कुंजी पाहू निबल।’ अर्थात् अरे! निर्बल आदमी, अरे! कमजोर आदमी गुरु की शरण जाओ, कुंजी लो और खोलो। जैसे कपाट खोलोगे, वैसे वह प्रकाश मिलेगा। नव द्वार से दसवें द्वार में जाना, अंधकार से प्रकाश में जाना है। और तभी हम असत् से सत् में जा सकते हैं। अंधकार क्या है, कहाँ है-संतों ने बाहर संसार के अंधकार के लिए नहीं कहा है। माया का स्थूल रूप अंधकार है और वह अपने शरीररूपी नगर के अन्दर है। आँखें बंद कर देखिए।
“ इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।
खोज करो अन्तर उजियारी, छोड़ चलो नव द्वार ।।”
-संत राधास्वामी साहब
जो खुदा के नूर को देखता है, वह अल्लाह के आवाजेगैब को भी सुनता है, बाहर के कान से नहीं, अन्दर के कान से। एक कामिल फकीर ने अपने अनुभव की बात कही है-
“ गोश बातिन को कुशादा जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिये ।।”
हमारी आवाज सुनकर कुत्ता हमारे पास आता है और God की आवाज हम सुनेंगे, खुदा की आवाज सुनेंगे, ब्रह्मनाद सुनेंगे, तो हम कहाँ जाएँगे? ब्रह्मनाद को सुनकर ब्रह्म के पास, खुदा की आवाजेगैब को सुनकर खुदा के पास और God की आवाज को सुनकर God के पास जाएँगे; इसमें संशय का स्थान कहाँ है, वह नाद कहाँ पकड़ेंगे? वह आंतरिक नाद और अन्तः प्रकाश कहाँ मिलेगा? इसका यत्न संतमत बतलाता है। किन्हीं क्रियावान शुद्धाचारी साधु-संत- महात्मा से इसका यत्न जानकर इसकी साधना करनी चाहिए। साधना करने पर जीवन में सफलता परमात्मा देंगे ही, खुदा देंगे ही, God देंगे ही। उस खुदा की राह पर चलेंगे, तो हमारा भविष्य जीवन उज्ज्वल होगा।
मैंने जो परमात्मा, खुदा और गॉड; इन तीन शब्दों के प्रयोग किए हैं, वास्तव में वे तीन नहीं, एक ही हैं। देशान्तर के कारण भाषान्तर है और भाषान्तर के कारण शब्दान्तर है, तत्त्वान्तर नहीं है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन राँची जिलाधिवेशन के सुअवसर पर ग्राम पिस्कानगड़ी में दिनांक 10-02-1997 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर+नवम्बर 1998 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
यह ऋषिकेश ऋषि-मुनियों की तपस्या-भूमि है। यहाँ कितने ही ऋषि-मुनि लोगों ने आकर साधना की है। सत्य का साक्षात्कार किया है। उनकी आभा यहाँ के कण-कण में समायी हुई है। वह वहाँ के वातावरण में चतुर्दिक परिव्याप्त है। ऐसी पुण्य भूमि में हमलोग सत्संग के हेतु एकत्र हुए हैं, अहोभाग्य है।
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 86वाँ वार्षिक महाधिवेशन होगा। यह 86वाँ वर्षिक महाधिवेशन बतलाता है कि इसके पूर्व हमलोग 84वाँ और 85वाँ वार्षिक अधिवेशन कर चुके हैं। अब हमारे सामने 84, 85 और 86-ये तीन आते हैं। ये तीनों किस और इंगित करते हैं? ये तीनों अन्धकार प्रकाश और शब्द-इन तीन बातों की ओर संकेत करते हैं। अर्थात् जबतक हम अन्धकार में रहेंगे, 84 लाख योनियों में घूमते रहेंगे। 84 हमलोग कैसे लिखते हैं? 8 के आगे 4 देते हैं। 8 और 4 मिलाकर 12 अर्थात् जबतक अन्धकार में रहेंगे, बारह बाट होते रहेंगे। यह बारह बाट क्या है? यदि यहाँ इसका स्पष्टीकरण कर दिया जाय, तो उत्तम ही होगा, श्रीभरतजी ने कहा था-
“ मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा ।
घालेसि सब जगु बारह बाटा ।।”
“ मोहो दैग्यं भयं हासो हानिर्ग्लानिः क्षुधा तृषा ।
मृत्युः क्षोभो वृथाऽ कीर्तिर्वाटाद्येते हि द्वादश ।।”
यह अखिल भारतीय वार्षिक अधिवेशन बतलाता है कि हमलोग चौरासी और पचासी से निकलकर अब 86 में आ गये हैं।
‘प’ अक्षर से पचासी शब्द बनता है और ‘प’ अक्षर से प्रकाश भी लिखा जाता है। अर्थात् अन्तःप्रकाश में जाने के लिए 85वाँ वार्षिक अधिवेशन प्रेरित करता है। 85 हमलोग कैसे लिखते हैं? 8 के आगे 5 देते हैं, तब 85 होता है। 8 और 5 के योग से तेरह होता है। यह किस ओर संकेत करता है। तेरह से सम्बन्धित एक मधुर संस्मरण है, सुनिये-
गुरु नानकदेवजी महाराज एक मोदी के यहाँ अनाज बेचते थे। वे तो सिद्धपुरुष थे; संत थे; लेकिन काम कर रहे थे। तुला में अनाज रख-रखकर मापकर लोगों को दे रहे थे और क्रम-क्रम से कहते जा रहे थे-एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह। जैसे ‘तेरह’ कहते हैं, उनका सम्बन्ध उस तेरा (प्रभु) से जुड़ जाता है। जब ‘तेरा-तेरा-तेरा’ कहते-कहते कितनी ही बार उन्होंने माप दिया।
जब दुकान-मालिक को मालूम हुआ कि ऐसा यह कर रहा है, तो उनको बहुत क्रोध आया और विचारा कि ऐसे को दुकान में रखना ठीक नहीं। किन्तु जब भण्डार के सामान का वजन कराया गया, तो ठीक निकला। न कुछ कमी, न बेशी। यह ‘तेरह’ तेरा की ओर संकेत करता है। ज्ञातव्य है कि 84 अन्धकार है और 85 प्रकाश है। प्रकाश में जाना कैसे होगा? गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ तेरसि तीन अवस्था, तजहु भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनन्त ।।”
तेरहवीं तिथि बतलाती है कि तीन अवस्थाओं का त्याग करो। तीन अवस्थाओं का जो कोई त्याग करेगा, तो वह चौथी अवस्था में जाएगा और जो चौथी अवस्था में जाएगा, तो वह प्रकाश में जाएगा ही, प्रकाश को पाएगा ही; ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ हो जाएगा। 85वाँ वार्षिक अधिवेशन हमलोगों को प्रकाश में चलने के लिए प्रेरित करता है और यह 86वाँ? शब्द-साधना नादानुसन्धान के लिए संकेत करता है। अंधकार के बाद प्रकाश होता है और प्रकाश के बाद शब्द होता है, तो यह 86वाँ वार्षिक अधिवेशन शब्द-साधना करने के लिए प्रेरित करता है। (‘जय-जयकार’ की ध्वनि) और 86वाँ वार्षिक अधिवेशन यदि ठीक-ठीक कर सकेंगे, तो 87वें की तरफ हमारा ध्यान होना चाहिए अर्थात् शब्द के बाद ‘निःशब्दं परमं पदम्।’ गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
‘तेरसि तीन अवस्था, तजहु भजहु भगवन्त ।’
भगवन्त का भजन तो तीन अवस्थाओं का परित्याग कर चौथी अवस्था में प्रवेश करके ही होगा। अब अन्धकार से प्रकाश में कोई आ जाते हैं, तो क्या होता है? दिव्य दृष्टि मिलती है। दिव्य जीवन होता है। हृदय प्रकाशित होने के कारण भविष्य उज्ज्वल होता है; विचार उज्ज्वल होते हैं; कर्म उज्ज्वल होते हैं; व्यवहार उज्ज्वल होते हैं। मनुष्यत्व से देवत्व लाभ हो जाता है। सिद्धि-लाभ करते हैं। जब कोई प्रकाश से शब्द में पहुँचते हैं, तब सारी सृष्टि का ज्ञान होने लगता है। शब्द से सारी सृष्टि बनी है। जो कोई शब्द-साधना करते हैं, वे सर्वेश्वर का साक्षात्कार करते हैं। बिना शब्द-साधना किये सर्वेश्वर का साक्षात्कार नहीं होता। यह 86वाँ वार्षिक अधिवेशन कहता है-
“ चौदसि चौदह भुवन, अचर चर रूप गोपाल ।
भेद गये बिनु रघुपति, अति न हरहिं जग जाल ।।”
यह चौदहवीं बात यह है कि चौदहो भुवन में व्यापक ब्रह्म का ज्ञान नादानुसन्धान करने से होता है। तब चर-अचर-सबमें व्यापक परमात्मा का साक्षात्कार होता है। उनके लिए-
“ सीय राम मय सब जग जानी ।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ।।”
हो जायगा। फिर यह 86वाँ वार्षिक अधिवेशन हमलोगों को उस ओर संकेत करता है कि नादानुसन्धान कितना आवश्यक है और वह हमलोग करें। जिज्ञासा होती है-अन्धकार से प्रकाश में कैसे जायें? प्रकाश से शब्द में कैसे जायें? शब्द से ‘निशब्दं परमं पदम्’ में कैसे जाना होगा? इसका ज्ञान कौन देगा? इसका ज्ञान तो जो कोई स्वस्थ सज्जन होंगे, वे ही बतलाएँगे। आप तो जानते और देखते हैं कि मैं अस्वस्थ हूँ। मैं आपलोगों को क्या बतलाउँगा। अच्छा, तो स्वस्थ और अस्वस्थ पर भी कुछ कह दूँ। स्वस्थ मैं अपने को इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि मैं ‘स्व’ में स्थित नहीं हूँ। जो ‘स्व’ में स्थित होते हैं, वे ही स्वस्थ होते हैं। मैं तो परस्थ हूँ। ‘परस्थ’ का अर्थ जो ‘पर’ में स्थित हो। ‘पर’ क्या है? हमारी जो इन्द्रियाँ हैं, जिनको हम अपनी कह रहे हैं।
एक समय का प्रसंग है, बंगाल के सुप्रसिद्ध संत श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज अपने आसन पर आसीन थे। स्वामी विवेकानन्दजी उसी समय उनके श्रीचरणों में उपनीत होते हैं और भक्तिपूर्ण भाव से प्रणाम कर एक ओर बैठ जाते हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज बड़ी प्रसन्न मुद्रा में थे। उन्होंने कहा-‘नरेन्द्र! एक भजन सुनाओ।’ वे बहुत अच्छा गाते और बाजा भी बजाते थे। तो स्वामी विवेकानन्दजी ने भजन सुनाया; कुछ अंश आपलोग भी सुनिये-
“ मन चलो निज निकेतने ।।
संसार विदेश विदेशीर बेसे, केन भ्रमँ अकारने ।।
विषय पंचक आर भूतगण, सब तोर पर केह नय आपन ।
पर प्रेमे केने हये छ मगन, भूले छ आपन जने ।।”
अरे मन! अपने घर की ओर चलो। जहाँ हमलोग रह रहे हैं, यह हमारा घर नहीं है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ कहा मँढ़ावे मेड़िया, लम्बी भीत उसार ।
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चार ।।”
और वह घर भी जिसको हम साढ़े तीन हाथ का कहते हैं, अपना नहीं है। अपना घर कौन है? अपना घर तो उसको कहते हैं, जहाँ से किसी को कोई निकाल नहीं सकता है। भाड़े के घर में रहेंगे, तो एक-न-एक दिन तो निकाले जाएँगे ही। यह साढ़े तीन हाथ का जो घर है, यह तो भाड़े का घर है, कभी-न-कभी तो इससे निकलना ही पड़ेगा। स्वामी विवेकानन्दजी कहते हैं-अपने घर को चलो। वह घर इस देश में नहीं है। ‘इस देश’ कहने का तात्पर्य हम भारत नहीं समझें। भारत कौन कहे, स्वामीजी किस घर की ओर संकेत कर रहे हैं, वह इस धरा पर नहीं है। इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा था-
“ वा घर की सुधि कोई न बतावे,
जा घर से जीव आया रे ।”
जिस घर से यह जीव आया हुआ है, उस घर की बात तो कोई बताता है नहीं। संत कहते हैं-उस घर को चलो, जिस घर से तुम आये हुए हो। तुम तो यात्री हो, मुसाफिर हो, यहाँ कितने दिनों तक रहोगे? संत कबीर साहब की ही यह भी वाणी है-
‘रहना नहिं देश विराना है।’
यह अपना देश नहीं है। भिन्न-भिन्न देशों के भिन्न-भिन्न वेश होते हैं, इसीलिए कहा गया है-‘जैसा देश, वैसा वेश।’
अर्थात् जैसा देश होता है, वैसा वेश होता है। भारतीय वेश कुछ अलग है। नेपाल का वेश कुछ अलग है। अमेरिका का वेश कुछ अलग है। जैसा देश होता है, वैसा वेश होता है। तो हमलोग जो अपना देश छोड़कर इस देश में आ गये हैं, इस देश में यह स्थूल शरीर वेश है; किन्तु वस्तुतः यह हमारा वेश नहीं है।
‘संसार विदेश विदेशीर बेसे ।’
अभी हमारा वेश विदेशी का वेश है; विदेशी का वेश धारण किए हुए हैं। ‘केन भ्रमॅ अकारने।’
अर्थात् व्यर्थ क्यों धूम रहे हो, क्यों भटक रहे हो? और
“ विषय पंचक आर भूतगण, सब तोर पर केह नय आपन ।
पर प्रेमे केने हये छ मगन, भूले छ आपन जने ।।”
कहते हैं-ये जो पंच विषय हैं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द तथा पाँच तत्त्वों का जो यह शरीर है, ये सब तुम्हारे पर ही पर हैं। इसमें तुम्हारा कोई भी अपना नहीं है। और ‘पर प्रेमे केने हये छ मगन।’ दूसरे के प्रेम में फँसकर तुम क्यों मगन हो रहे हो; क्यों प्रसन्न हो रहे हो? भगवान् बुद्ध ने कहा था-‘भिक्षु! ध्यान कर। सावधान रह। अपने चित्त को खुशी की तरफ न ले जा, ताकि तुझे बेपरवाही के बदले नरक में जलते हुए लोहे का गोला न निगलना पड़े और जलते समय चिल्लाना न पड़े कि हाय! यह दुःख है।’
पर प्रेम में अपने को हम भूले हुए हैं। यह शरीर जिसको हम अपना कह रहे हैं, अपना नहीं है, यह पर-शरीर है, इसपर हम प्रेम करते हैं। ‘पर प्रेमे केने हये छ मगन।’ इसमें मगन हम हो रहे हैं।
इस वर्ष कटिहार जिला-सन्तमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन था। अच्छे-अच्छे गण्यमान्य प्रतिष्ठित लोग वहाँ के, मेरे पास आये भागलपुर कुप्पाघाट, महर्षि मेँहीँ आश्रम, मुझे ले जाने के लिए। मेरा स्वास्थ्य अनुकूल नहीं था। मैंने कहा- “ आपलोग इतने बड़े-बड़े लोग आये हुए हैं। आपलोग कहें, तो मैं चलने के लिए तैयार हूँ; लेकिन भगवान् बुद्ध की एक वाणी सुनिये-
“ मतासुखयरिच्चागा पस्से च विपुलं सुखं ।
चजे मत्तासुख धीरो सम्पस्सं विपुल सुखं ।।”
अर्थात् ‘अगर थोड़ी खुशी छोड़ने से बड़ी खुशी की प्राप्ति हो, तो बुद्धिमान् को बड़ी खुशी की ओर देखना चाहिए।’ आपको एक कटिहार जिले का संतमत-सत्संग है और आपके सामने अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का वार्षिक महाधिवेशन ऋषिकेश में होने जा रहा है। अब आप ही निर्णय लें कि मुझे कटिहार जिले में जाना है या ऋषिकेश। (जय- जयकार का नारा)
जब श्रीसीताजी की खोज के लिए वानर-सेना समुद्र के किनारे पहुँची, तो सम्पाति के द्वारा सुनने में आया कि श्रीसीताजी लंका में हैं। जबतक सौ योजन समुद्र पार नहीं किया जाएगा, लंका पहुँचना संभव नहीं। प्रश्न चिह्न लग गया कि सौ योजन समुद्र को कौन लाँघ सकते हैं? सबने अपना-अपना बल बतलाया। किसी ने कहा-दस योजन मैं लाँघ सकता हूँ। किसी ने कहा-बीस। क्रमशः किसी ने तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी, नब्बे तक कहते चले गये; लेकिन जबतक सौ योजन नहीं लाँघेंगे, तो समुद्र पार कैसे जा सकेंगे? अंगद ने कहा-‘मैं चला तो जाऊँगा; किन्तु वहाँ से लौटने में सन्देह है।’
“ अंगद कहा जाउँ मैं पारा ।
मन संसय कछु फिरती बारा ।।”
इसी भाँति की बात मेरे साथ भी समझिए। मैं भागलपुर से गंगा पार करके आपके यहाँ कटिहार जिला चला तो जाऊँगा; लेकिन वहाँ से आकर मैं ऋषिकेश जा सकूँगा, इसमें सन्देह है।
‘मन संसय कछु फिरती बारा।’
अब आपलोग ही कहिए कि ऋषिकेश के लिए अखिल भारतीय संतमत-सत्संग में मुझे ले जाना पसंद करते हैं अथवा कटिहार जिले के वार्षिक सत्संग में। वे लोग पढ़े-लिखे, विद्वान, बुद्धिमान तो थे ही, कहा- ‘हमलोगों को आपको ऋषिकेश ले जाना ही पसंद है।’ (जय-जयकार का नारा)
इन्द्रियों का सुख, स्वल्प सुख है, तुच्छ सुख है। इसमें थोड़ी खुशी है और आत्मसुख महान सुख है, परमानंद है। इसलिए उस महान सुख को प्राप्त करने के लिए यदि हमें थोड़े-से सुख का त्याग करना पड़े, तो हमें चाहिए कि इस थोड़े-से सुख को छोड़ दें। इसलिए स्वामी विवेकानंदजी कहते हैं कि आत्मसुख को छोड़कर, निज सुख को छोड़कर। इन्द्रियों के भोग में क्यों लोलुप हो रहे हो? तुम इन्द्रिय नहीं हो। अपने को पहचानो, तुम कौन हो? संत सुंदरदासजी ने कहा है-
“ तू तौ कछु भूमि नाहिं, अप तेज वायु नाहिं ।
व्योम पंच विष नाहिं, सो तौ भ्रम कूप है ।।
तू तौ कछु इन्द्रिय रु, अन्तःकरण नाहिं ।
तीन गुण तू तौ नाहिं, न तौ छाहिं धूप है ।।
तू तौ अहंकार नाहिं, पुनि महतत्त्व नाहिं ।
प्रकृति पुरुष नाहिं, तू तौ स्वअनूप है ।।
सुन्दर विचार ऐसे, शिष्य सूँ कहत गुरु ।
नाहिं नाहिं कहत रहै, सोई तेरो रूप है ।।”
स्व को पहचानें। वह स्व क्या है? जिस दिन उस स्व में स्थित हो जाएँगे, उसी दिन स्वस्थ हो जाएँगे। जबतक उस स्व में स्थित नहीं हैं, तबतक अस्वस्थ हैं। हमारे गुरुदेव या जितने भी संत हुए, सभी संत उसी स्व में स्थित होने के लिए कहते हैं और वही स्वधर्म है। अभी तो हम पर-धर्म में हैं। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण ने जो कहा है, श्रीमद्- भगवद्गीता में लिखा है-
‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।’
स्वधर्म के लिए अपने को बलिदान कर देना उत्तम है, सर्वोत्तम है; लेकिन परधर्म बड़ा भयावह होता है। स्व-धर्म हमें उन्नति की ओर ले जाएगा और परधर्म अवनति की ओर। स्व-धर्म हमको अमरता दिलाएगा और पर-धर्म हमको मृत्यु के मुख में ले जाएगा। स्वधर्म हमारा उत्थान करावेगा और पर-धर्म हमारा पतन करावेगा। आवश्यकता है-स्व को जानने की। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-स्वधर्म के लिए मर मिटो। गुरु नानक देवजी महाराज कहते हैं-
‘साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।’
वह परम प्रभु परमात्मा सत्य है। उसपर अपने को न्योछावर कर दो, कुरबान कर दो। बंगाल के एक और महात्मा हुए, जो कि बिहार में रहते थे, उनका नाम था पंचानन भट्टाचार्य। वे भी यही बात कहते हैं-अपने को पहचानो, तुम कौन हो? तुम्हारी इतनी उम्र बीत गयी, क्या अपने से भेंट हुई तुम्हारी?
“ आमि आमि करि बुझिते ना पारि ।
के आमि आमाते आछे कि रतन ।।
कौन शक्ति बले बेड़ाय चले बले ।
कार अभावे हय देह अचेतन ।।
देह माँझे आछे प्राणेरी संचार ।
तहा तेई बली आमी वा आमार ।।
प्राण गेले चले हवे शवाकार ।
केवाकार कोथा रवे धन जन ।।”
अपने को जानो। जबतक तुम अपने को नहीं जानते हो और सब कुछ जानते हो, तो समझो कि कुछ भी नहीं जानते हो। अगर स्व को जानते हो और कुछ नहीं जानते हो, तो सब कुछ जानते हो। उस स्व को जानने के लिए सभी संतों ने कहा है। पहले हम अपने को पहचानें। पीछे हमसे संबंधित कौन है, क्या है, उसकी पहचान होगी। शरीर का ज्ञान जब रहता है, तो शरीर से संबंधित व्यक्ति और वस्तु का ज्ञान रहता हैं तब उससे हम लाभ उठाते हैं। जब अपने शरीर का ज्ञान नहीं रहता है, तो शरीर से संबंधित व्यक्ति और वस्तु का ज्ञान नहीं रहता। तब जो लाभ लेना चाहिए, हम नहीं ले पाते। उसी तरह जब अपना ज्ञान हो जाएगा कि हम आत्मा हैं, तो क्या होगा? आत्मा का संबंध परमात्मा से है, तब परमात्मा से जो लाभ मिलना चाहिए, वह लाभ हम उठायेंगे। इसलिए जबतक स्व को नहीं जानते हैं-आत्मा को नहीं जानते हैं, उससे संबंधित परमात्मा को नहीं जान सकते। यही कारण है कि उनसे जो लाभ मिलना चाहिए, उससे हम वंचित रहते हैं। इसलिए संतजन कहते हैं-स्व को जानो। स्व के अतिरिक्त जितने हैं, सब पर हैं।
श्रीभर्तृहरिजी महाराज का वचन वैराग्य शतक में है-स्वस्थावस्था में स्व को जानने के लिए प्रयत्न करो।
“ यावत् स्वस्थमिदं कलेवरगृह यावच्च दूरे जरा ।
यावच्चेन्द्रिय शक्तिर्प्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् ।
प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं कीदृशः ।।”
श्रीभर्तृहरिजी कहते हैं-जबतक यह शरीर स्वस्थ है, नीरोग है; जबतक बुढ़ापा इससे दूर है, जबतक इन्द्रियाँ बलवती हैं, जबतक शरीर में जीवन है, आत्म- उत्थान के लिए महान प्रयत्न के साथ लग जाओ। अगर आत्मोन्नति के लिए अभी प्रयत्नशील नहीं होते हो, तो क्या होगा, जानते हो? बुढ़ापा आयेगा। इन्द्रियाँ शिथिल हो जाएँगी, शरीर चलेगा नहीं, आँखें देखेंगी नहीं। कान सुनेगा नहीं। संतों के दर्शन कैसे करोगे, संतों की सद्वाणी कैसे सुनोगे? देर तक बैठ सकोगे नहीं, भजन क्या करोगे? सर्दी आयगी, खाँसी आयगी, बुखार आयगा, कमजोरी आयगी, ‘खाँ-खाँ’ करते खाट पर-पलँग पर पड़े रहोगे। डॉक्टर लोग घेरे रहेंगे। बगल में बेटे और संबंधी लोग बैठे रहेंगे, उस समय क्या करोगे? उस समय पश्चात्ताप करोगे कि हाय! कुछ नहीं किया। समय बीत गया। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ आछे दिन पाछे गया, हरि से किया न हेत ।
अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत ।।”
तो भर्तृहरिजी महाराज कहते हैं-उस समय की तुम्हारी स्थिति वैसी होगी, जिस तरह कि घर में आग लग गयी हो और उस आग को बुझाने के लिए कुआँ खोदने के लिए गया हो। वह कुआँ खोदेगा, पानी निकलेगा, तब अग्नि बुझाएगा। क्या वह उस समय उस प्रज्वलित अग्नि को बुझा सकेगा? वही हालत तुम्हारी होगी। अंत समय रोते-चिल्लाते- बिलबिलाते रह जाओगे। रह क्या जाओगे! दुनिया से चले जाओगे। भगवान बुद्ध ने कहा था-
“ अचरित्वा ब्रह्मचरियं अलद्धा यौब्बने धनं ।
जिण्ण क्रोञ्च व झायन्ति छीणच्छे’ व पल्लले ।।
अचरित्वा ब्रह्मचरियं अलद्धा यौब्बने धनं ।
सेन्ति चापातिखित्ता व पुराणानि अनुत्थनं ।।”
जिन्होंने जवानी में ब्रह्मचर्य-पालन नहीं किया है, जीवन-यापन के लिए धन-संग्रह नहीं किया है, वह बुढ़ापे में उसी तरह सोचता रहता है, जिस तरह धनुष से छोड़ा हुआ तीर वापस आता नहीं। फिर उन्होंने कहा-
जिस तरह जलाशय में बगुला रहता है, वह बूढ़ा हो गया है, जलाशय का पानी सूख गया है। उस समय वह बूढ़ा बगुला क्या करेगा? भूखे मरेगा और क्या करेगा! उसी तरह बूढ़े बगुले की तरह हमारी हालत होगी, अगर हमने भगवंत-भजन करके कुछ संग्रह नहीं कर लिया। ‘कुछ संग्रह’ का मतलब- जागतिक संग्रह नहीं, भजन-धन का संग्रह कीजिए। हमारे गुरुदेव के वचन में है-
‘दृढ़ भजन धन ही खास हो, फिर त्रस क्या रहे।’
संत कबीर साहब ने कहा-
“ कबीर सो धन संचिये, जा आगे को होय ।
माथ चढ़ाये गाठरी, जात न देखा कोय ।।”
कितना भी धन हमारे पास क्यों न हो, कुछ भी तो साथ नहीं जाएगा। अगर जाएगा तो वह भजन-धन ही साथ जाएगा।
मुझे प्रसन्नता है। हमारे पास अमेरिका के मिस्टर डॉन होवार्ड साहब आये हुए हैं। पिछली दफा आये हुए थे। मैंने उनसे पूछा-‘आप कितनी देर भजन करते हैं; आपने मुझसे दीक्षा ली है।’ उन्होंने बतलाया-‘मेरे पास काम बहुत है, कम समय मिलता है, कम भजन करता हूँ, अधिक समय नहीं लगा सकता हूँ।’ मैंने उनसे कहा-‘पैसा जमा करके क्या साथ ले जाइएगा? जो साथ ले जाइएगा, वह कीजिएगा। जीवन-यापन के लिए काम कीजिए; किन्तु कम कीजिए।’ यहाँ से अमेरिका जाकर इन्होंने छोड़ दिया अधिक काम करना। काम कम करते हैं और भजन में समय अधिक देते हैं। कितने बड़े वे सौभाग्यशाली हैं। वे अपना काम भी करते हैं और भजन भी करते हैं। उनको मैं आशीर्वाद और बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ! उनके अच्छे संस्कार हैं। जो सूखी दियासलाई होती है, उसपर एक बार काठी घिसने से ही वह भक् करके जल उठती है और जो भींगी दियासलाई होती है, उसपर काठी घिसते रहिये, घिसते रहिये, काठी भले ही टूट जाए; किन्तु जलती नहीं। इसी प्रकार जिनके अच्छे संस्कार होते हैं, उनको एक बार उपदेश कर देने से ही बात लग जाती है। यही बात मेरे प्रिय शिष्य मिस्टर डॉन होवार्ड में चरितार्थ होती है।
उसी अमेरिका के एक सज्जन के संबंध में सुना था कि जमीन के नीचे उनका खजाना था। खजाने के पास गये, बिजली गुम हो गयी। दम घुटकर वे वहीं मर गये। तो खजाने के पास शरीर छोड़ा, तो जाते समय कुछ ले ही जाना था, ले ही गये होंगे? नहीं। क्यों? अरे! हम कहीं रहें, हमारा खजाना कहीं दूसरी जगह रहे, तब तो भले ही तन छूट जाए, तो धन भी छूट जाए; लेकिन खजाने के पास हमारा शरीर छूटेगा, क्या तब भी हमारे साथ नहीं जाएगा? नहीं जाएगा। कैसी विडम्बना है! फिर भी हम लौकिक धन के लिए हाय-हाय कर रहे हैं। संत पलटू साहब के वचन में है-
“ माया ठगनी बड़ी ठगी यह जात है ।
बचे न या से कोउ लगी दिन रात है ।
कौड़ी नाहिं संग करोड़नि जोड़ि के ।
अरे हाँ रे पलटू गये हैं राजा रंक
लंगोटी छोड़ि के ।।”
इसलिए हम उस धन का संग्रह करें, जो हमारे साथ जाएगा। वह कौन-सा धन है? भजन-धन है। हमारे पूज्य गुरुदेव ने करुणा कर हमलोगों को वह क्रिया बतला दी है। गृहस्थ-विरक्त की कोई बात नहीं। सब कोई कीजिए। परस्पर मिल-जुलकर रहिये और भजन-सत्संग कीजिए। आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ! त्र्
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के 86वें वार्षिक
महाधिवेशन के अवसर पर वाणप्रस्थ आश्रम (ऋषिकेश) में दिनांक 03-05-1997 ई0 को
प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जुलाई 1997 ई0)
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आदरणीय स्वामी श्री चिदानंदजी महाराज, आदरणीय महामंडलेश्वर डॉ0 स्वामी श्रीश्यामसुन्दर दासजी महाराज, मंच में उपस्थित संत-महात्मागण, समादरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीय माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
संत गरीबदासजी महाराज ने कहा है-
“ साहब से सतगुरु भये, सतगुरु से भये सन्त ।
धर-धर भेष विलास अंग, खेलैं आदि अरु अंत ।।
साहिब से सतगुरु भये, सतगुरु से भये साध ।
ये तीनों अंग एक हैं, गति कछु अगम अगाध ।।4”
ऐसे जो साधु, संत, महात्मागण यहाँ उपस्थित हैं, उन सबका मैं अभिवन्दन और अभिनन्दन करता हूँ। (श्रोतागण के द्वारा जय-जयकार की ध्वनि)
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ संतमत का सत्संग होगा। यह संतमत-सत्संग अखिल भारतीय संतमत का सत्संग है। संतमत कोई नया मत, नया धर्म, नया मजहब, नया सम्प्रदाय अथवा नया रिलिजन आदि नहीं है। यह परम पुरातन, सनातन वैदिक मत है। वैदिक मत होते हुए भी यह किसी अवैदिक मत से राग, रोष या घृणा-द्वेष नहीं करता। संतमत में सभी संतों का, चाहे वे किसी देश, किसी भेष, किसी जाति, किसी पाँति, किसी धर्म, किसी मजहब, किसी सम्प्रदाय, किसी रिलिजन आदि के क्यों न हों, समान रूप से सम्मान किया जाता है। सन्तमत-सत्संग में कोई संत श्रेय अथवा कोई प्रेय नहीं हैं, बल्कि सभी उपादेय हैं। इसलिए यहाँ प्रतिदिन प्रत्येक सत्संग के प्रारंभ में संत स्तुति गाई जाती है-
“ सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी ।। टेक ।।
उनकी स्तुति केहि विधि कीजै,
मोरी मति अति नीच अनाड़ी ।। सब0।।
दुख-भंजन भव-फंदन-गंजन,
ज्ञान-ध्यान-निधि जग-उपकारी ।
विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि,
सरल-सरल जग में परचारी ।। सब0।।
धनि ऋषि-सन्तन्ह धन्य बुद्ध जी,
शंकर रामानन्द धन्य अघारी ।
धन्य हैं साहब सन्त कबीर जी,
धनि नानक गुरु महिमा भारी ।। सब0।।
गोस्वामी श्री तुलसि दास जी,
तुलसी साहब अति उपकारी ।
दादू सुन्दर सूर श्वपच रवि,
जगजीवन पलटू भयहारी ।। सब0।।
सतगुरु देवी अरु जे भये हैं,
होंगे सब चरणन शिरधारी ।
भजत है ‘मेँहीँ’ धन्य-धन्य कहि,
गही सन्त-पद आशा सारी ।। सब0।।”
यह संतमत आस्तिक मत है। इसमें एक ईश्वर की मान्यता है। आज भारत ही नहीं, सारा विश्व अशान्त है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे-शान्ति कैसे आयेगी? शान्ति कोई बाहर की चीज नहीं है, अपने अन्दर की चीज है। शान्ति अध्यात्म-ज्ञान से आएगी। जबतक हम अध्यात्म-ज्ञान को नहीं अपनाएँगे, शान्ति नहीं मिलेगी।
जिस तरह एक दीवार पर दीवार-घड़ी टँगी हुई है। उसका पेण्डुलम हिल रहा है। एक मकड़ी उस पेण्डुलम पर जाकर बैठ जाए तो वह भी हिलेगी; क्योंकि पेण्डुलम हिल रहा है। किन्तु यदि वह मकड़ी पेण्डुलम को छोड़कर दीवार पर जाकर बैठ जाए, तो दीवार स्थिर है, इसलिए वह मकड़ी भी स्थिर हो जाएगी। इसी तरह दुनिया की जितनी चीजें हैं, सारी चीजें हिलने-डुलनेवाली हैं। इस दुनिया की चीजों को पकड़कर हम शान्ति चाहते हैं, तो वह शान्ति कहाँ मिलेगी? कैसे मिलेगी? यह तो हिलता-डुलता संसार है। यहाँ जो शान्ति मिलेगी, वह तो हिलती-डुलती शान्ति मिलेगी। वह वास्तविक शान्ति नहीं है। वह काल्पनिक शान्ति है। जिसके आधार पर यह संसार है, उस सर्वाधार को अपना आधार बना लें। वह परम शान्ति स्वरूप है, उसको प्राप्त करके हम शाश्वत शान्ति का अनुभव करेंगे।
हमारे परम पूज्य गुरुदेव की वाणी है-
“ शान्ति रूप सर्वेश्वर जानो ।
शब्दातीत कहि संत बखानो ।।
क्षर अक्षर के पार हैं येही ।
सगुण अगुण पर सकल सनेही ।।
यहि तुम्हरा निज प्रभु रे भाई ।
जहाँ तहाँ तब सदा सहाई ।।
इन्ह की भक्ति करो मन लाई ।
भक्ति भेद सतगुरु से पाई ।।”
यह सन्तमत उस एक ईश्वर की भक्ति करने के लिए बतलाता है। उस ईश्वर की भक्ति कैसे करें?
“ विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि ।”
आज तक जितने संत हुए हैं, चाहे वे अपने देश के हों अथवा विदेश के हों-सभी ने विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान की साधना की। भले ही देशान्तर के कारण भाषान्तर हुआ है; भाषान्तर होते हुए भी तत्त्वान्तर नहीं हुआ है, वह तत्त्व-रूप में एक-ही-एक है।
अपने देश के ऋषियों ने, सन्तों ने नाद-ध्यान को ‘नादानुसन्धान’ की संज्ञा दी है और वह नाद ब्रह्म से आया है। प्राचीन यूनानी धर्म में उस नाद को ‘लोगास’ कहा गया है। यहूदी धर्म में हिव्र भाषा में उसको ‘मैमरा कहा है। आरमीनी भाषा में उसको ‘एमर’ कहकर पुकारा गया है। ईसाई धर्म के बाइबिल में उसी को वर्ड (Word), होली घोस्ट, होली स्पिरिट आदि शब्दों से अभिहित किया गया है। हम फिर देखते हैं कि मौलाना रूम ने उसको ‘इस्में आजम’ कहा है। संत शम्स तबरेज ने उसको ‘सौत’ कहा है। पारसी धर्म में उसको ‘सरोश’ कहा है। चीनी ताउ धर्म में उसको ‘ताउ’ कहा है। थियोसिफिकल सोसाइटी में उसके Voice of the silecnce (भ्वाइस ऑफ दि साइलेन्स) कहा है। मुहम्मद दारा शिकोह ने कहा है कि यह सारी दुनिया परमात्मा के प्रकाश और शब्द से भरपूर है, फिर भी अंधे लोग कहते हैं कि परमात्मा कहाँ है? अपने कान से चतुराई और अहंकार की रूई निकाल दो, तो उस परमात्मा की आवाज को सुन सकोगे। मौलाना शेख मुहम्मद अकरम साबरी ने अपनी पुस्तक ‘इक्तवास-उल-अनवार’ नाम की पुस्तक में लिखा है-हजरत मुहम्मद साहब ने वर्षों तक गुफा में बैठकर नादानुसन्धान की साधना की थी। कादरी सूफी धर्म के प्रवर्त्तक हजरत अब्दुल कादरजीलानी ने उसी गुफा में बैठकर वर्षों नादानुसन्धान की साधना की।
बिना नाद के कल्याण नहीं; बिना नाद के ज्ञान नहीं श्रुति भगवती कहती है-
‘न नादेन बिना ज्ञानं न नादेन बिना शिवः।’
नाद की चर्चा हम परिब्राजकाचार्य स्वामी एक रसानन्दजी महाराज के वचन में भी पाते हैं। उन्होंने लिखा है कि भगवान शंकराचार्यजी महाराज ने ‘योगतारावली’ ग्रन्थ में लिखा है कि योगशास्त्र के प्रव़र्त्तक भगवान शंकर ने मनोलय के सवा लक्षसाधन बतलाये हैं, जिनमें नादानुसंधान को सर्वश्रेष्ठ बतलाया है और साथ ही उन्होंने नादानुसन्धान की स्तुति की है और कहा है।
“ नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं
त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसावात् पवनेन साकं
विलीयते विष्णुपदे मनो मे ।।”
“ सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
नाद एवानृसन्धेयो योगसाम्राज्यगिच्छता ।।”
हे नादानुसन्धान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं, आपके ही प्रसाद से मेरा प्राणवायु और मन, ये दोनों विष्णु के परमपद में लय हो जाएँगे। योग-साम्राजय में स्थित होने की इच्छा हो, तो सब चिन्ताओं को छोड़कर सावधान हो एकाग्र मन से अनहद नादों को सुनो।
यही एक नाद आधार है जो सर्वाधार से मिलाता है; परमात्मा का साक्षात्कार कराता है। इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा-
“ आदिनाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह ।।
कबीर धारा अगम की, सतगुरु दई बताय ।
ताहि उल्टि सुमिरन करो, स्वामी संग मिलाय ।।”
अर्थात् अगम से एक धारा आई हुई है, उस धारा को संत सद्गुरु ही बतला सकते हैं और दूसरे कोई नहीं। उस धारा को पकड़कर उलटो। ऊपर से नीचे की ओर धारा आई है, उस धारा को पकड़ो। नीचे से ऊपर की ओर चलो। तब परिणाम क्या होगा? ‘स्वामी संग मिलाय’-वह धारा जाकर स्वामी से, परमात्मा से मिला देगी। संत तुलसी साहब कहते हैं-
‘गगन धार गंगा बहै, कहें संत सुजाना हो।’
एक गंगा की धारा तो हमारे सामने है-भगवती भागीरथी की धारा। दूसरी धारा हमारे अन्दर में है। बाहरवाली धारा’-जड़ धारा है; लेकिन हमारे अन्दर की धारा चेतन है। यह जड़ धारा आगे बढ़कर जब प्रयाग पहुँचती है, तो वहाँ यमुना और सरस्वती का संगम हो जाता है, तब इसकी संज्ञा ‘त्रिवेणी’ हो जाती है। यह जड़ त्रिवेणी है। वहाँ स्नान करने से तन पवित्र होता है। गो0 तुलसीदासजी महाराज देखते हैं कि वहाँ त्रिवेणी में जाने के लिए श्रम, समय और राशि चाहिए। कोई ऐसी त्रिवेणी हो जो जंगम त्रिवेणी हो, जो स्वयं जाती हो। वहाँ जड़ त्रिवेणी के पास तो हमको स्वयं जाना पड़ता है; लेकिन ऐसी जंगम त्रिवेणी हो कि वह स्वयं ही हमारे पास आए। वह कौन-सी त्रिवेणी है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ राम भगति जहं सुरसरि धारा ।
सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा ।।
विधि निषेधमय कलिमलहरनी ।
करम कथा रबिनन्दनि बरनी ।।
मुद मंगलमय संत समाजू ।
जो जग जंगम तीरथ राजू ।।”
वह जड़ त्रिवेणी और यह जंगम त्रिवेणी है। हमको कहीं जाना नहीं है। संत-महात्मागण चलते-फिरते तीर्थराज हैं। ऋषियों ने देखा-इससे भी कोई ऐसी सुलभ त्रिवेणी हो, जिसमें कहीं बाहर जाना नहीं पड़े और उसका आना भी नहीं हो; घर बैठे त्रिवेणी संगम में स्नान कर लें। तो वे कहते हैं-
“ इडा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी ।
इडा पिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ।।
त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्व्वपापैः प्रमुच्यते ।।”
अपने भीतर की त्रिवेणी में हम डुबकी लगाएँ, स्नान करें। सभी पापों से मुक्ति मिल जाएगी। हमारे अंदर में ये तीनों धाराएँ विद्यमान हैं; लेकिन जबतक संत सद्गुरु की शरण हम नहीं जाएँगे, इसका पता नहीं लगेगा। इसलिए उस नाद की साधना हम तभी कर सकते हैं, जब हम अपने भीतर की त्रिवेणी संगम को ‘सुषुम्ना’ की संज्ञा दी गयी है। संतों की वाणियों में हम कहीं सुषुम्ना पढ़ते हैं, तो कहीं सुखमना। आगत-स्वागत के बाद भगवान शंकर के पास ब्रह्माजी जिज्ञासा करते हैं-हे देवाधिदेव महादेव! जागतिक जन दैहिक, दैविक और भौतिक-इन त्रितापों से संतप्त होते रहते हैं इन त्रय तापों से मुक्ति पाने का यदि कोई सरल, सहज उपाय हो, तो आप बतलाने की कृपा करें? भगवान शंकर कहते हैं-
“ योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।।”
अर्थात् योगहीन ज्ञान मोक्षप्रद भला कैसे हो सकता है ? उसी तरह ज्ञान-रहित योग भी मोक्ष-कार्य में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए ज्ञान और योग; दोनों का अभ्यास दृढ़ता के साथ मुमुक्षु को करना चाहिए ।
“ धर्म से बिरति योग ते ज्ञाना ।
ज्ञान मोक्षप्रद बेद बखाना ।।”
(गोस्वामी तुलसीदासजी)
इसके लिए क्रिया बतलायी और कहा-
“ एकोत्तरं नाडिशतं तासां मध्ये परा स्मृता ।
सुषुम्ना तु परे लीना विरजा ब्रह्मरूपिणी ।।”
हे ब्रह्मा! हमलोगों के शरीर में बहत्तर करोड़ नाड़ियाँ हैं। उनमें एक सौ नाड़ियाँ
“ सुषुम्नायां यदा योगी क्षणैकमपि तिष्ठति ।
सुषुम्नायां यदा योगी क्षणार्धमपि तिष्ठति ।।38।।
सुषुम्नायां यदा योगी सुलग्नो लवणाम्बुवत् ।
सुषुम्नायां यदा योगी लीयते क्षीरनीरवत् ।।39।।
भिद्यते च तदा ग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते परमाकाशे ते यान्ति परमां गतिम् ।।40।।”
आगे कहते हैं-
“ सुषुम्नैव परं तीर्थं सुषुम्नैव परो जपः ।
सुषुम्नैव परं ध्यानं सुषुम्नैव परा गतिः ।। 45।।”
सुषुम्ना में जब योगी एक क्षण भी ठहरता है, सुषुम्ना में जब योगी आधा क्षण भी ठहरता है, सुषुम्ना में जब योगी पानी और नमक के समान मिल जाता है और सुषुम्ना में जब योगी दूध और पानी के समान मिल जाता है, तब (उसकी) ग्रन्थि (गिरह-गाँठ) टूट जाती है, (उसके) सम्पूर्ण संशयों का नाश हो जाता है और वह परमाकाश में विलाकर परम गति को प्राप्त होता है।
सुषुम्ना ही प्रधान तीर्थ है, सुषुम्ना ही प्रधान जप है, सुषुम्ना ही प्रधान ध्यान है और सुषुम्ना ही परा (ऊँची) गति है।
इसी सुषुम्ना में वह शब्द पकड़ा जाता है; वह नाद पकड़ा जाता है। उस नाद को पकड़कर हम वहाँ तक पहुँचते हैं, जहाँ परम प्रभु परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं। इसी आदिनाद के लिए बाइबिल में लिखा है- In the beginning was the word, the word was with God and the word was God आरम्भ में शब्द था। शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था। इसी आदिशब्द के लिए, जिससे वह सारी सृष्टि हुई है, संत कबीर साहब संकेत करते हैं-
“ साधो सब्द साधना कीजै ।
जेहि सब्द से प्रगट भये सब, सोई सब्द गहि लीजै ।।
सब्दहि गुरू सब्द सुनि सिष भे, सब्द सो बिरला बूझे ।
सोई सिष्य सोइ गुरू महातम, जेहि अन्तरगति सूझे ।।
सब्दै वेद पुरान कहत हैं, सब्दै सब ठहरावै ।
सब्दै सुर मुनि सन्त कहत हैं, सब्द भेद नहिं पावै ।।
सब्दै सुनि सुनि भेष धरत हैं, सब्द कहै अनुरागी ।
षट दरसन सब सब्द कहत हैं, सब्द कहै वैरागी ।।
सब्दै माया जग उतपानी, सब्दै केरि पसारा ।
कहै कबीर जहँ शब्द होत है, तवन भेद है न्यारा ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा-
“ शब्द तत्तु बीर्ज संसार ।
शब्दु निरालमु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा ।
नानक भेदु न शब्द अलेषा ।।
शब्दै सुरति भया प्रगासा ।
सभ को करै शब्द की आसा ।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता ।
नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलु ।
बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी स्त्रिष्टि शब्द कै पाछै ।
नानक शब्द घटै घटि आछै ।।”
संत दादू दयालजी महाराज कहते हैं-
“ एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ ।
आगैं पीछैं तौ करै, जे बलहीणा होइ ।।”
एक शब्द से सारी सृष्टि बन गयी। किसी भी निर्माण के लिए शब्द परमावश्यक होता है। बिना शब्द के कुछ निर्माण हो नहीं सकता। हम एक शब्द उच्चारण करना चाहते हैं, वह शब्द नाभि, हृदय, कंठ का स्पर्श करते हुए, मुँह के उच्चारण-स्थलों को स्पर्श करते हुए बाहर निकलता है, जिसको बैखरी वाणी कहते हैं संत चरणदासजी महाराज की वाणी में है-
“ नाभि मध्य वाणी परा, हिय पश्यन्ती सुख्य ।
कण्ठ मध्यमा जानिये, कहूँ बैखरी मुख्य ।।”
एक अक्षर हम लिखना चाहते हैं, जैसे ही हम कलम पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाते हैं, हमारे हाथ में कम्पन होता है, उस कम्पन में शब्द होता है। जब कलम स्पर्श करते हैं, उस स्पर्श में शब्द होता है। कलम लेकर हम चलते हैं, शब्द होता है। कागज पर रखते हैं, शब्द होता है। लिखते हैं, तब भी शब्द होता है। अवश्य कर्णेन्द्रिय में उतनी क्षमता नहीं है कि प्रत्येक शब्द को यह कर्णेन्द्रिय ग्रहण कर सके। आज के भौतिक वैज्ञानिकों ने माप करके बतला दिया है कि प्रति सेकेण्ड तीस फ्रीक्वेंसी से लेकर तीस हजार फ्रीक्वेंसी तक के शब्द को कान सुन सकता है। इसके नीचे या ऊपर के शब्द को नहीं सुन सकता है। इसलिए हम जो कुछ भी लिखते, पढ़ते या सुनते हैं, जितनी आवाजें होती हैं, सबको हम नहीं सुन सकते हैं। ईसा से छह सौ वर्ष पूर्व इटली में एक बहुत बड़े संत हुए पाइथागोरस। उन्होंने नादानुसंधान की इतनी अच्छी साधना की थी कि वे सृष्टि मंडल की गति का संगीत सुनते थे। उसी की ओर इंगित करते हुए हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ अधः ऊर्ध्व अरु दाँयें बाँयें, पिच्छु पाँचो त्यागि ।
षष्ट बीचो बिच एक निशान, दृष्टि की लागि ।।
उदित तेजस् विन्दु में पिलि, चलो चाल विहंग ।
तहाँ अनहद नाद धरि चढ़ि, चलो मीनी ढंग ।।
विहंग मीनी मार्ग दोउ से, चलो हे मन मीत ।
मन हो उनमुन चढ़ि सुरत सुन, उठत ध्वनि उद्गीथ ।।
स्फोट ओम् उद्गीथ सतध्वनि, प्रणव नाद अखंड ।
सृष्टि की ध्वनि आवरण में, गुप्त गुंज प्रचंड ।।
नाद से नादों में चलि धरु, प्रणव सत ध्वनि सार ।
एक ओम् सतनाम ध्वनि धरि, ‘मेँहीँ’ हो भव पार ।।”
इसमें दृष्टियोग और नादयोग की सारी बातें समासरूप में आ जाती हैं।
यह प्रचण्ड ध्वनि है। हमारा कान उस शब्द को सुन नहीं सकता। इस कान से जो सुनते हैं, उसको कहते हैं-शब्द और जिसको इस कान से नहीं, भीतर के कान से सुनते हैं, उसको कहते हैं स्वन। इस संदर्भ में ऋग्वेद में एक मंत्र आया है-
‘शृण्वे वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः।
चरन्ति विद्युतो दिवि ।।3।।’
(सू0 41, मंडल 9)
पवित्र सुषुम्ना में ध्यान लगाओ। जैसे आकाश में बिजलियाँ चमकती हैं, उसी तरह तुम्हारे भीतर में वह प्रकाश मालूम पड़ेगा; बिजली मालूम पड़ेगी और जिस तरह कि वर्षा होती है, उसी प्रकार की ध्वनि सुनाई पड़ती हैै।
प्रभु ईसा मसीह ने कहा-‘मुझे पहले तो आवाज बिगुल-जैसी मालूम पड़ी।’ सभी संतों ने नाद की साधना की है। कहाँ पकड़ेंगे इस शब्द को, तो गुरु नानक देवजी महाराज कहते हैं-
“ सुखमन कै घरि राग सुन सुन मंडल लिव लाइ ।
अकथ कथा बीचारीअै मनसा मनहिं समाइ ।।”
उस शब्द को अगर पकड़ना चाहते हो, तो तुम सुषुम्ना में अपने को ले जाओ। सुषुम्ना की चर्चा संत कबीर साहब के भी वचन में है-
“ जो कोइ निरगुन दरसन पावै ।। टेक ।।
प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मन्त्र गहि लावै ।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै ।।
बिन जिभ्या नामहिं को सुमिरै, अमि रस अजर चुवावै ।
अजपा लागि रहै सूरति पर, नैन न पलक डुलावै ।।
गगन मंदिर में फूल फुलाना, उहाँ भँवर रस पावै ।
इंगला पिंगला सुखमनि सोधै, प्रेम जोति लौ लावै ।।
सुन्न महल में पुरुष विराजै, जहाँ अमर घर छावै ।
कहै कबीर सतगुरु बिनु चीन्हे, कैसे वह घर पावै ।।”
जो कोई अपने को सुखमना में प्रतिष्ठित करते हैं, वे उस शब्द को पकड़ते हैं।
परमात्मा ने सृष्टि की है। ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ जो शब्द हुआ, वह शब्द सृष्टि के कण-कण में समा गया। उदाहरणार्थ मिट्टी की एक गोली यदि हम बनाना चाहते हैं, तो मिट्टी का लोंदा हम हाथ में लेते हैं और उसको घुमाना प्रारंभ करते हैं। हमारी अंगुलियों में जो गति होती है, उस गति के साथ शब्द भी होता है और वह शब्द उस मिट्टी की गोली के कण-कण में समा जाता है। यदि अंगुलियों में गति नहीं हो, गति के साथ कम्पन न हो, तो गोली नहीं बनेगी। कम्प शब्दमय होता है और शब्द कम्पमय होता है।
यह सृष्टि जो बनी है, परमात्मा की मौज से बनी है। मौज में जो कम्प हुआ, उस कम्प से जो शब्द हुआ, वह शब्द सृष्टि के कण-कण में व्यापक हो गया; लेकिन उस शब्द को हम इस कान से सुन नहीं सकते; चूँकि हमारी वृत्ति स्थूल है। उस स्थूल वृत्ति को सूक्ष्म करने के लिए अपने को सुषुम्ना में ले जाना होगा।
हम देखते हैं कि सोने का पतला तार बनाना होता है। यदि पतले-से-पतला तार बनाना है, तो क्या करते हैं? एक ताँबे का प्लेट लेते हैं, उस प्लेट में मोटे से महीन कई प्रकार के छिद्र बने होते हैं। मोटा छिद्र, फिर उससे पतला छिद्र, फिर उससे पतला छिद्र, इस तरह से क्रम-क्रम से छिद्र पतले होते जाते हैं। सोने के तार के छोर को ठोक-ठाक कर पतली-सी नोक को अपेक्षाकृत पहले मोटे छिद्र से पार कराके सँड़सी से पकड़कर खींचता हैं। जितना मोटा वह तार था, उससे पतला हो जाता है। फिर उससे पतला जो छिद्र है, उसमें से उसे प्रवेश कराते हैं, फिर उससे पतला जो छिद्र है, उससे प्रवेश कराते हैं। फिर और जो पतला छिद्र है, उससे होकर प्रवेश कराते हैं, इस प्रकार क्रम-क्रम से खींचते-खींचते जितना पतला तार हम बनाना चाहते हैं, उतना पतला बनाकर हम अपने काम में लेते हैं।
इसी प्रकार हमारी जो वृत्ति है, स्थूल संसार में मोटी हो गयी है। इस मोटी स्थूल वृत्ति से उस सूक्ष्म नाद को हम ग्रहण नहीं कर सकते। हमारी वृत्ति भी सूक्ष्म होनी चाहिए; क्योंकि भक्ति का द्वार संकीर्ण है यानी सूक्ष्म है। उसकी सूक्ष्मता का वर्णन संत कबीर साहब करते हैं-
“ भक्ति दुवारा साँकरा, राई दसवें भाव ।
मन ऐरावत ह्वै रहा, कैसे होय समाव ।।”
वह सूक्ष्म भी इतना कि राई का दसवाँ भाग करने से जितना सूक्ष्म होता है, उससे भी सूक्ष्म। बाइबिल में आया है-‘शरीर का दीपक आँख है। यदि तेरी आँख एक हो, तो तेरा शरीर उजियारा होगा।’ ‘सकेत फाटक से प्रवेश करो; क्योंकि चौड़ा है वह मार्ग, जो मृत्यु को पहुँचाता है और संकीर्ण है वह मार्ग, जो जीवन को पहुँचाता है।’ यही सुषुम्ना का मार्ग है, जो जीवन को पहुँचाता है, अमृतत्व- परमात्मा से मिलता है।
सुषुम्ना में प्रवेश करने के लिए योग्यता कैसे होगी? जैसे पहले मोटे-मोटे अक्षरों को लिखते हैं, फिर महीन अक्षरों को। उसी तरह पहले मोटी उपासना करें, फिर सूक्ष्म उपासना करेंगे। मोटी उपासना के लिए कुछ स्थूल जप, फिर स्थूल ध्यान है। भगवान् श्रीकृष्ण ने बतलाया है-‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ (श्रीमद्भगवद्गीता)।
रामचरितमानस में काक् भुशुण्डिजी ने भी जप को ‘यज्ञ’ की संज्ञा से अभिहित किया है; यथा-
‘जाप यज्ञ पाकरि तर करई ।’
जापरूपी यज्ञ करो, इससे कुछ एकाग्रता आयेगी। इसके आगे की क्रिया भगवान् श्रीकृष्ण इस भाँति कहते हैं-श्रीमद्भागवत में कथा आयी है-भगवान् ने उद्धवजी से कहा है-पहले मेरे सम्पूर्ण रूप का ध्यान करो, फिर मेरे मुस्कानयुक्त मुख का ध्यान करो, फिर इसको भी छोड़कर शून्य में ध्यान करो। यह शून्य-ध्यान ही सूक्ष्म ध्यान है। इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा था-
“ शून्य ध्यान सबके मन माना ।
तुम बैठो आतम स्थाना ।।”
जबतक हमारा मन शून्यगत नहीं होता, तबतक सूक्ष्म-ध्यान नहीं होता। मन को शून्यगत करने के लिए ही सूक्ष्म-ध्यान है। ज्ञान संकलिनी तंत्र में लिखा है-
“ न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्यगतं मनः ।
तस्य ध्यानप्रसादेन सौख्यं मोक्षं न संशयः ।।”
ध्यान को ध्यान नहीं कहते हैं, शून्यगत मन को ही ध्यान कहते हैं। उसी ध्यान के प्रीति के द्वारा ही सुख और मोक्ष लाभ होते हैं, इसमें संदेह नहीं।
इसलिए मानस जप के द्वारा कुछ एकाग्रता प्राप्त करें। जिस मानस ध्यान के द्वारा कुछ और अधिक एकाग्रता होगी, फिर शून्य में ध्यान करने से अत्यधिक एकाग्रता होगी। इसी को विन्दु-ध्यान कहते हैं। यहाँ पूर्ण सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आवरण-भेदन होता है। इसी पूर्ण सिमटाव के लिए यह सूक्ष्म-ध्यान है, विन्दु-ध्यान है। जो विन्दु-ध्यान करते हैं, सिमटकर एक विन्दु पर आ जाते हैं। स्मरण रहे, वह विन्दु काल्पनिक विन्दु नहीं, वास्तविक विन्दु है।
हमलोग विद्यालयों में पढ़ते हैं-कल्पना किया कि ‘अ ब स’ एक त्रिभुज है। ‘कल्पना किया’ क्यों कहते हैं? सामने त्रिभुज है, फिर हम कहते हैं-‘कल्पना किया।’ ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि हमलोग जैसी परिभाषा पढ़ते हैं, उस परिभाषा के अनुकूल नहीं है। त्रिभुज में तीन भुजाएँ होती हैं। भुजाएँ यानी रेखाएँ। त्रिभुज में परिभाषा के अनुकूल रेखाएँ नहीं हैं; किन्तु हमारे सामने जो त्रिभुज है, उसकी भुजा में लंबाई तो है ही, चौड़ाई भी होती हैै। और रेखा बनती है विन्दुओं से। विन्दुओं के समूह को रेखा कहते हैं। विन्दु की परिभाषा है-जिसका स्थान है, परिमाण नहीं। अर्थात् विन्दु में लंबाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं होती। इस दृष्टि से इस तरह का विन्दु हम संसार में नहीं देख सकते हैं।
बाल की नोक से भी चिह्नित करने पर उसका कुछ-न-कुछ परिमाण हो ही जाएगा। कलम की नोक जहाँ पड़ती है, इसको हम विन्दु कहते हैं। यह कल्पित विन्दु है। अतः कल्पित विन्दु से जो रेखा बनती है, वह कल्पित रेखा होगी। कल्पित रेखा से जो त्रिभुज बनेगा, वह कल्पित त्रिभुज होगा। इसमें संशय का स्थान कहाँ? इसीलिए हम कहते हैं कि कल्पना किया कि ‘अ ब स’ एक त्रिभुज है।
विचारणीय विषय है कि जबतक कहीं सत्य नहीं है, तबतक उसकी नकल नहीं होती। अतएव कहीं-न-कहीं असल अवश्य है। वह असल क्या है, कहाँ है? उसकी खोज होनी चाहिए।
हमारी दृष्टि की धारों में केवल लंबाई-ही- लंबाई है, चौड़ाई नहीं। चौड़ाई उसको कहते हैं, जो लंबाई के अतिरिक्त पार्श्व स्थान को ढकती है। हम दृष्टि से जहाँ तक देखते हैं, उसमें लंबाई-ही-लंबाई होती है। यहाँ से हम सूर्य को देख लेते हैं, लंबाई ही लंबाई है। उससे पार्श्व स्थान ढकता नहीं है। हमारी दृष्टि की धार में केवल लंबाई ही है। यह लंबी और विशुद्ध रेखा है। दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है। जहाँ हमारी दृष्टि की दोनों धाराएँ मिलेंगी, वहाँ पर एक विन्दु का उदय होगा और वह विन्दु कैसा होगा? हमारी लेखनी में जिस रंग की स्याही होती है, कागज पर हम लेखनी रखते हैं, तो उसी रंग का एक छोटा-सा चिह्न उत्पन्न होता है, जिसको हम ‘विन्दु’ की संज्ञा देते हैं। लेखनी में लाल स्याही होती है, तो लाल रंग का चिह्न होता है। काली स्याही होने से काला चिह्न होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस रंग की स्याही होती है, उसी रंग का चिह्न होता है। हमारी दृष्टि की जो धार है, इसमें कौन- सी स्याही है? हमारी दृष्टि प्रकाशमयी है, इसलिए दृष्टि की दोनों धाराएँ जहाँ मिलेंगी, वहाँ जो विन्दु उत्पन्न होगा, वह प्रकाशमय विन्दु होगा। इसीलिए तेजो- विन्दूपनिषद् में कहा है-
‘तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।’
अर्थात् हृदयस्थित विश्वात्म तेजस् स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है।
उस तेजस् विन्दु में जो अपने को प्रतिष्ठित कर पाते हैं, वे सूक्ष्म में प्रवेश कर जाते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ हो जाता है। वे ही सुषुम्ना में उस नाद को पकड़ते हैं।
सृष्टि के पाँच बड़े-बड़े विशाल मंडल हैं। उन पाँचो के पाँच केन्द्र है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
सो मन्दिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग ।।”
गुरु नानक देवजी महाराज कहते हैं-
“ घर महि घरु देखाइ देइ सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
पंच सबदु धुनिकार धुनि तहँ बाजै सबदु निसाणु ।।”
उन पंच शब्दों को पकड़ो। वे पाँचो केन्द्रों के पाँच शब्द हैं। किस तरह पकड़ो? हमारे गुरुदेवजी महाराज इसकी व्याख्या करते हैं; वे कहते हैं-ईश्वर को प्राप्त करने के लिए तुम बाहर कहाँ जा रहे हो? अपने अंदर खोजो।
“ निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।”
किस तरह-
“ दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के ।
अन्तर में देख सुन-सुन, अन्तर में खोजना ।।”
कहाँ तक दृष्टि को ले जाओ, किस तरह ले जाओ?
‘तिल द्वार तक के सीधे, सुरत को खैंच ला ।’
वहाँ ले जाओगे, तो क्या होगा?
‘अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढ़ के खोजना ।।’
वहीं पर ध्वनि मिलेगी; वहीं पर वह आवाज मिलेगी; वहीं पर वह शब्द मिलेगा।
“ बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।”
शब्द में यह और गुण होता है कि वह अपने केन्द्र में खींचता है। शब्द का दूसरा गुण है-ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है। शब्द का तीसरा गुण है-उसके केन्द्र में जो गुण होता है, उसको वह साथ लिये रहता है और सुननेवाले को उस गुण से वह संयुक्त करता है। परमात्मा ने जो सृष्टि की; ऊपर से जो शब्द हुआ, वह नीचे की ओर आया। शब्द अपनी ओर खींचता है। जैसे अँधेरी रात हो और हम ‘तू-तू’ करके कुत्ते को पुकारें, तो हमारी आवाज सुनकर कुत्ता हमारे पास आ जाएगा। उसी तरह परमात्मा से जो आवाज हुई है, उस आवाज को यदि हम सुन पायें, तो हम कहाँ जायेंगे? गीता के छठे अध्याय में भगवान ने कहा है; श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है-
‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ।’
अर्थात् शब्दब्रह्म से परे चला जाएगा। एक कामिल फकीर का भी कलाम है कि-
“ गोश बातिन हो कुशादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिए ।।”
अर्थात् परब्रह्म परमात्मा तक पहुँच जाएगा। संत कबीर साहब और गुरु नानकदेव की भाँति हमारे गुरुदेव कहते हैं-सुषुम्ना में उस शब्द को पकड़ो। यह स्थूल मंडल का केन्द्र है।
स्थूल के केन्द्र पर के शब्द को पकड़ोगे, तो खिंचकर सूक्ष्म के केन्द्र पर चले जाओगे। सूक्ष्म के केन्द्रीय शब्द को पकड़ोगे, तो वह खींचकर ले जाएगा कारण के केन्द्र पर; क्योंकि कारण के केन्द्र से वह शब्द आ रहा है। कारण के केन्द्र पर जिस शब्द को पकड़ेंगे, वह खींचकर ले जाएगा महाकारण के केन्द्र पर; क्योंकि महाकारण के केन्द्र से वह शब्द आया हुआ है। महाकारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़ेंगे, तो वह खींचकर कैवल्य के केन्द्र में ले जाएगा। कैवल्य के केन्द्रीय शब्द को पकड़ेंगे, तो वह परम प्रभु परमात्मा तक पहुँचा देगा; क्योंकि प्रणव ब्रह्म का वाचक है और ब्रह्म वाच्य। योगशास्त्र में लिखा है-तस्य वाचकः प्रणवः।
वही प्रणव ओम है। वही स्फोट है। वही उद्गीथ है। वह शब्दब्रह्म है। वही ब्रह्मनाद है।
जो उस वाचक को प्राप्त करता है, वह वाच्य को प्राप्त करता है; वह प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। उपनिषद् में आया है-
“ स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ।
ध्यान निर्मथनाभयासद्देव पश्येन्निगूढवत् ।।”
अर्थात् अपनी देह को नीचे की अरणि और प्रणव को ऊपर की अरणि करके ध्यानरूप मंथन से छिपी हुई वस्तु के समान देव को देखे।
कितने लोग प्रणव का उच्चारण करते हैं; कितने लोग ओ3म् का उच्चारण करते हैं; लेकिन यह शब्द उच्चारण का नहीं है, वह तो तंत्रशास्त्र के अनुसार है-
“ अघोषम् अव्यञ्जनम् अस्वरं च
अकण्ठताल्वोष्ठम् अनासिकं च ।
अरेफ जातम् उभ्योष्ठ वर्जितं
यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।”
इसका उच्चारण हम कैसे करते हैं? इसीलिए ओ3म्-साधना के संदर्भ में भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद् गीता के आठवें अध्याय में कहा है-
“ सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदिनिरुध्य च ।
मूध्र्न्याधायात्मनः प्राणामास्थितो योगधारणाम् ।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।।”
विद्वज्जन इस विषय को अच्छी तरह समझ सकते हैं कि जब इन्द्रियों के सभी द्वार बंद हो जाएँगे और मन भी हृदय में निरुद्ध हो जाएगा, तब फिर ओ3म् वा प्रणव का उच्चारण किया जा सकता है? वस्तुतः अंतस्साधना द्वारा-अंतर्ज्योति और अंतर्नाद की साधना द्वारा जो अपने को जड़ात्मक मंडल से ऊपर चैतन्य मंडल में पहुँचाता है, वही उस चैतन्य शब्द को पकड़ सकता है। वही शब्द परम प्रभु परमात्मा से जाकर मिलाता है; क्योंकि परमात्मा से ही वह धारा स्फुटित हुई है। इसलिए उसका नाम है स्फोट। वह यहाँ का गीत नहीं, वहाँ का गीत है, इसलिए उसका नाम है-उद्गीत। इसी को ओम् कहते हैं। इस तरह-
“ पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजैं ।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’, तहँ पहुँचि खोजना ।।”
वह जो पंचम शब्द है, उस पंचम नाद को जो कोई पकड़ता है, वह परम प्रभु परमात्मा से जा मिलता है, जो परम प्रभु परमात्मा शांतिस्वरूप है। जो उस परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त करेगा, उसी को परम शांति मिलेगी।
संसार में कहीं शांति नहीं है। हमारे गुरुदेव कहते थे-आध्यात्मिकता और सदाचारिता, दोनों का Q और U संबंध है। जो आध्यात्मिकता को ग्रहण करेगा, वह परमात्मा को ग्रहण कर परम पवित्र होगा। वह झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-सबसे ऊपर उठ जाएगा। वही सदाचारी होगा। जो सदाचारी होगा, उसका हृदय शांत होगा। फिर कलह कहाँ? फिर अत्याचार, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार आदि जो कुछ दुष्कर्म हो रहे हैं, वे क्योंकर होंगे? ये तो हो रहे हैं इसलिए कि हम सदाचार-विहीन हैं। सदाचार-विहीन हम इसलिए हैं कि आध्यात्मिक ज्ञान हमारे पास नहीं है। आध्यात्मिक लाभ करना परमावश्यक है। इसी के लिए इस सत्संग का आयोजन है। इस सत्संग से, जो कुमन है, वह सुमन हो जाता है और वह सुमन आगे चलकर एक दिन अमन हो जाता है। फिर तो अमन-चैन की वंशी बजाता रहता है। अगर सब-के-सब आध्यात्मिकता को अपनायेंगे, तो सब-के-सब अमन-चैन की वंशी बजायेंगे। (श्रोतागण की ओर से ‘सद्गुरु महाराज की जय’ का नारा)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अ0 भा0 सन्तमत-सत्संग के 86वें वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर वाणप्रस्थ आश्रम (ऋषिकेश) में दिनांक 03-05-1997 ई0 को अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अगस्त 1997 ई0)
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परमादरणीय महामण्डलेश्वर स्वामी श्री असंगानन्द जी महाराज, मंचासीन आदरणीय संत महात्मागण, समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओं एवं भक्तिमती बहनो!
स्वामी असंगानन्दजी महाराज के सान्निध्य से मुझे बहुत लाभ हुआ है। इन्होंने अपने आश्रम में मुझे जिस तरह रखा है, इतना आराम, इतना सुख दिया, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इनकी वाणी में इतना माधुर्य है, इतनी शांति है, क्या कहा जाए! इनका हृदय इतना ही शुद्ध है, कोमल है, सरल है, उदार है। ये संत के स्वाभाविक गुण हैं। ये गुण हमारे स्वामी श्री असंगानंदजी महाराज में हैं। असंग होना यह मामूली बात नहीं है। श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी महाराज ने बतलाया है कि असंग कैसे हुआ जाता है और असंग से क्या लाभ है। उन्होंने कहा-
“ सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम् ।
निर्मोहत्वे निश्चलितत्वं निश्चलितत्वे जीवन्मुक्तिः ।।”
“ सत्संगति से हो जाता नर विषयों से निस्संग ,
फिर व्यामोह-रहित हो जाता, हो सर्वत्र असंग ।
मोह-विगत होते ही होता मन निश्चलतायुक्त ,
निश्चलता आते ही वह हो जाता जीवन्मुक्त ।।”
सत्संग करने से यानी सत्य का संग करने से असत्य से असंग हो जाता है। सत्य के ग्रहण से असत्य का त्याग हो जाता है। हमारा यह मन जोंक की तरह का है। यह कुछ-न-कुछ पकड़कर रखेगा। दो तरह की जोंक होती है-एक जोंक पानी में रहती है और दूसरी घासों पर रहती है। उसका एक छोर एक तरफ और दूसरा छोर दूसरी तरफ रहता है। घासवाली जोंक चलते समय जब मुँह से आगे की किसी वस्तु को पकड़ लेती है, तब उसके पीछे के भाग को छोड़ देती है। इस प्रकार वह चलती है। (इशारे से बताया गया) इसी प्रकार हमारा मन जब असत्य को छोड़ेगा, तब सत्य को पकड़ेगा। एक को पकड़ेगा, तो दूसरे को छोड़ेगा। जो असत्य को छोड़ देते हैं, तो सत्य को पकड़ लेते हैं। यह कैसे होता है? यह सत्संग से होता है। श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी महाराज कहते हैं-
‘सत्संगति से हो जाता नर विषयों से निस्संग ।’
अर्थात् सत्संग करने से विषयों से विरक्तता आती है; उपरामता आती है; अनासक्ति आती है। जिनका मन विषयों से निस्संग होगा, तो किधर जाएगा? विषय अगर नहीं हो, तो निर्विषय में जाएगा। यह निर्विषय तत्त्व क्या है? वही निर्विषय तत्त्व परमात्मा है। भगवान श्रीराम ने प्रजा को उपदेश देते हुए कहा था-‘ऐहि तन कर फल विषय न भाई ।’ हे भाई! इस मनुष्य-शरीर के पाने का फल यह नहीं है कि तुम विषयों में लगे रहो। विषय तो विष है। किसी सुभाषितकार ने कितना अच्छा कहा है-
“ मृग मीन भृंग पतंग कुंजर, एक दोष बिनासहीं ।
पंच दोष असाध्य जामें, ताकी केतिक आसहीं ।।”
मृग वन में रहता है; लेकिन उसको कर्णेन्द्रिय का विषय शब्द प्रिय है। इस कारण वह व्याधे के जाल में फँसता है और अपने प्राण गँवाता है। मछली को जिभ्या का रस प्रबल है। मछली मारनेवाला बंसी में चारा लगाकर बंसी पानी में फेंक देता है। मछली आती है, पहले थोड़ा-थोड़ा करके खाती है। स्वाद लगता है, समूची बंसी को निगल जाती है। काँटा जीभ में फँस जाता है। मछली मारनेवाला बंसी-सहित मछली को खींचकर सूखी जमीन पर पटक देता है। भ्रमर को नासिका का विषय गंध बहुत सुहाती है। गंध सुहाने के कारण अरविन्द का मकरन्द लेने के लिए वह कमल पर बैठ जाता है। संध्या होने पर कमल की पँखुड़ियाँ बंद हो जाती हैं। भ्रमर उसी में रह जाता है। सबेरा होता है; हाथी आता है, कमल को खाता है। उसके साथ वह भी उसका ग्रास हो जाता है अथवा पैर के नीचे रौंदा जाता है। इस तरह भौंरा अपने प्राण गँवाता है। फतिंगे को नेत्र का विषय रूप प्रबल है। आपने देखा ही होगा कि रात्रि में बल्ब जलता है, मरकरी जलती है, दीपक जलता है, फतिंगे उड़-उड़कर आते हैं और जलकर खतम हो जाते हैं। हाथी को स्पर्श विषय का सुख मिलता है, उसके कारण वह फँसाया जाता है। इसी हेतु उसकी जान जाती है। कवि कहते हैं-मृग, मीन, भृंग, पतंग, कुंजर-इनको एक-एक विषय की प्रबलता है और एक-एक विषय के कारण इन पाँचो की जान जाती है; किन्तु मानव को तो इन पाँचो विषय प्रबल हैं, तब इसकी जान कैसे बचेगी? इसको सुख कैसे मिलेगा? इसीलिए भगवान श्रीराम ने कहा था-‘ऐहि तन कर फल विषय न भाई।’ हे भाई! विषय से अपने को हटाओ, निर्विषय की ओर ले जाओ और वह निर्विषय तत्व परमात्मा है। यह सत्संग से होता है।
“ सत्संगति से हो जाता नर विषयों से निस्संग ।
फिर व्यामोह-रहित हो जाता, हो सर्वत्र असंग ।।”
मोह-रहित हो जाता है। सर्वत्र असंग हो जाता है। जो सर्वत्र असंग हो जाता है, उसको सर्वव्यापक परमात्मा का संग हो जाता है। रमन्ति रामः-जो सबमें रमण करनेवाला है, जिसमें योगीजन रमण करते हैं, गमन करते हैं, वह राम है। उस राम के स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, अनुभव ज्ञान होता है।
ज्ञान चार प्रकार के होते हैं-एक श्रवण ज्ञान होता है, दूसरा मनन ज्ञान होता है, तीसरा निदिध्यासन ज्ञान होता है और चौथा अनुभव ज्ञान होता है। जिनको परमात्म-स्वरूप का अनुभव ज्ञान हो जाता है, उनको और कोई ज्ञान बाकी नहीं रह जाता आत्मस्वरूप की पहचान हो जाती है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने राम के सगुण और निर्गुण रूप का वर्णन किया है। सन्त कबीर साहब ने कहा है-
‘राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रे ।’
जितना पसार देख रहे हैं, सब अंजन है; माया-ही-माया है। वह राम निरंजन है, माया-रहित है। उस माया-रहित राम को जानने के लिए जबतक हम स्वयं माया-रहित नहीं होंगे, नहीं जान सकते। यही कारण है कि स्थूल सगुण साकार भगवान श्रीराम के उस रूप को देखकर उनके चरित्र को देखकर सती-जैसी साध्वी नारी के मन में मोह उत्पन्न हो गया। नारदजी के मन में मोह उत्पन्न हुआ। गुरुड़जी के मन में मोह उत्पन्न हो गया। प्रसंग इस प्रकार है-जब मेघनाद ने भगवान श्रीराम और लक्ष्मणजी को नाग-पाश में बाँध लिया, तब नारदजी ने गरुड़जी को खबर की। भगवान नाग-पाश से बँधे हुए है। गुरुड़जी आते हैं, देखते हैं कि भगवान नाग- पाश से बँधे हुए हैं। गरुड़जी के आते ही नाग भाग जाता है। भगवान नाग-पाश से मुक्त हो जाते हैं। अब गरुड़जी के मन में मोह उत्पन्न होता है। उनके मन में यह भावना उत्पन्न होती है, गो0 तुलसीदासजी महाराज लिखते हैं-
“ भव बंधन ते छूटहिं, नर जपि जाकर नाम ।
खर्ब निसाचर बाँधेउ, नाग फाँस सो राम ।।”
गरुड़जी मन-ही-मन सोचते हैं कि सुना था कि भगवान राम का नाम लेने से भव-बंधन कट जाता है; लेकिन देखता हूँ कि उन राम को एक छोटे-से राक्षस ने बाँध लिया। ये कौन-से राम हैं? मोह उत्पन्न हो गया। ब्रह्माजी के पास गरुड़जी जाते हैं। ब्रह्माजी कहते हैं-शंकरजी के पास जाओ। गरुड़जी जाते हैं भगवान शंकर के पास। भगवान शंकर यात्र पर जा रहे थे, कुवेरजी के पास। रास्ते में भेंट हुई। गरुड़जी ने अपने मोह की बात कही। मोह होने का कारण बताया और उसके निवारण हेतु प्रार्थना की। भगवान शंकर ने कहा-
“ मिले गरुड़ मारग महँ मोही।
कवन भाँति समझावौं तोही।।”
कहा-घर पर भेंट हुई होती, तो बातचीत करके समाधान कर देता। तुम चले जाओ काकभुशुण्डिजी के पास। गरुड़जी चले जाते हैं काकभुशुण्डिजी के पास। काकभुशुण्डिजी ने समझाया-बुझाया, तब उनका मोह दूर हुआ। तो इस कथा-प्रसंग से विदित होता है कि स्थूल सगुण साकार रूप को देखकर मोह छूटता नहीं। भगवान श्रीकृष्ण के सामने ही अर्जुन थे, फिर भी उनको मोह हुआ। भगवान ने मोह दूर करने के लिए गीता के अठारह अध्याय अर्जुन को सुनाये। भगवान श्रीकृष्ण के चरित्र को देखकर इन्द्र के मन में मोह उत्पन्न हो गया कि क्या ये ही भगवान हैं? इन्द्र ने व्रज पर वर्षा शुरू कर दी। भगवान ने सबकी रक्षा की, तब इन्द्र की आँखें खुलीं और उनमें भगवत्ता का बोध हुआ। ग्वाल-बालों के संग भगवान की लीला देखकर ब्रह्माजी के मन में भ्रम उत्पन्न हो गया कि ये भगवान कैसे हैं? उन्होंने गौवों, बछड़ों और ग्वाल-बालों- सबको चुरा लिया। भगवान ही तो ठहरे, उन्होंने सब गौवों, बछड़ों और ग्वाल-बालों को बना लिया, तब ब्रह्माजी को ज्ञान हुआ कि ये ठीक ही भगवान हैं। इस तरह इन आख्यानों से जाना जाता है कि स्थूल सगुण साकार रूप के दर्शन से मोह दूर नहीं होता। तब जिज्ञासा होती है कि ऐसा कौन-सा रूप है, जिस रूप को देख कर मोह दूर हो जाता है। उस राम के स्वरूप के संबंध में गो0 तुलसीदासजी महाराज इस भाँति कहते हैं-
“ उमा राम विषयक अस मोहा ।
नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ।।
जथा गगन घन पटल निहारी ।
झाँपेउ भानु कहहिं कुविचारी ।।”
भगवान शंकर कहते हैं-हे उमा! राम के संबंध में इस प्रकार मोह है। जैसे आकाश में यदि तम, धूम और धूल छायी रहे, तो आकाश का सही रूप हम नहीं देख सकते। उसी प्रकार जीवात्मा के ऊपर जबतक अंधकार, प्रकाश और शब्द का आवरण है, तबतक वह राम के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं कर सकता।
अंधकार के आवरण से धूम का और धूम के आवरण से धूल का आवरण हल्का होता है। अंधकार नराकृति है, धूम देवाकृति है और धूल विराटाकृति है। नराकृति स्थूल है, देवाकृति सूक्ष्म है और विराटाकृति कारण है। अंधकार में कुछ सूझता नहीं है, धूम में कुछ-कुछ दीखता है और उससे कुछ अधिक धूल में दिखाई पड़ता है, फिर भी स्पष्ट नहीं। इसी प्रकार अंधकार में राम की विभूति सूझती नहीं, प्रकाश में कुछ-कुछ मालूम पड़ती है; किन्तु राम के स्वरूप का ज्ञान तो तीनों परदों को पार करने पर ही होगा। जो कोई स्थूल, सूक्ष्म, कारण यानी अंधकार, प्रकाश और शब्द-इन त्रयावरणों को पार कर सकेंगे, वे ही राम के शुद्ध स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे।
एक ही समय हम संपूर्ण संसार में कभी अंधकार नहीं होता। एक ही समय संपूर्ण संसार में धूआँ- ही-धूआँ नहीं होता। आकाश तो इतना विस्तृत है, विश्व-ब्रह्मांड इतना विशाल है, उसके किसी एक कोने में ऐसा होता है। अगर तम, धूम और धूल-इन तीनों को पार कर सकें, तो हम आकाश के शुद्ध रूप को देख सकेंगे। उसी तरह से राम का जो स्थूल रूप है, वह तमरूप है। राम का सूक्ष्म रूप धूमरूप है और राम का कारण रूप धूल रूप है। इन तीनों रूपों को जब हम पार कर जाएँगे, तभी राम के शुद्ध स्वरूप, निर्मल रूप को देख सकेंगे। (श्रोतागण की ओर से जय-जयकार की ध्वनि) इस अनुपम रूप के दर्शन तब होंगे, जब नराकृति, देवाकृति और विराटाकृति-इन तीनों को हम पार करेंगे, तब राम के स्वरूप को हम देख सकेंगे। जिस स्वरूप के लिए वाल्मीकिजी ने कहा था, रामचरितमानस में प्रसंग आया है कि वनवासकाल में भगवान श्रीराम जगज्जननी जानकी और अनुज लक्ष्मणजी के साथ वाल्मीकिजी के आश्रम में पधारे थे। भगवान श्रीराम ने उनसे पूछा कि हे मुनिवर! आप बताइये, जंगल में मुझे चौदह वर्ष तक रहना है, मैं कहाँ रहूँ? वाल्मीकि मुनिजी कहते हैं-
“ पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ, मैं पूछत सकुचाउँ ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि, तुम्हहिं देखावौं ठाउँ ।।”
आप अपने निवास के लिए पूछते हैं; लेकिन मैं तो आपसे पूछने में सकुचाता हूँ कि आप कहाँ नहीं हैं? जहाँ नहीं हैं, कहिये, मैं बतलाता हूँ अर्थात् आप सर्वव्यापक हैं-
“ राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
निरुपम न उपमा आन, राम समान राम निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम, रवि कहत अति लघुता लहै।।”
राम के समान दूसरा कोई नहीं है। राम के समान राम ही है, वह निरुपम है, अनुपम है। उन राम का ज्ञान तबतक हमको नहीं हो सकता, जबतक इन तीनों रूपों को हम पार नहीं कर जाएँ। नराकृति, देवाकृति और विराटाकृति-इन तीनों रूपों को हम कैसे पार करें? भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विराट रूप दिखाया था। भगवान ने इसी विराट रूप के दर्शन श्वेत द्वीप में नारद जी को दिखाकर कहा था कि तुम मेरे जिस रूप को देख रहे हो, यह मेरी उत्पन्न की हुई माया है। मेरा स्वरूप इससे परे है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने कहा-
“ अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्ध्यः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।”
अर्थात् मैं अव्यक्त हूँ; लेकिन जो अबोध लोग हैं, अज्ञानी लोग हैं, वे मुझको व्यक्त मानते हैं; देह- धारी मानते हैं। वास्तव में मैं तो अव्यक्त हूँ। उस अव्यक्त स्वरूप के दर्शन जिस दिन हो जायेंगे, जिस क्षण, जिस पल हो जायेंगे, उसी समय राम के स्वरूप के दर्शन हो जायेंगे। (श्रोतागण की ओर से जय-जय कार की ध्वनि) और अब मोह क्या है और इससे मुक्ति कैसे मिलती है, गुरु नानक साहब के वचन में सुनिये-
“ मोहु कुटंबु मोहु सभकार ।
मोहु तुम तजहु सगल बेकार ।।1।।
मोह अरु भरमु तजहु तुम बीर।
साचु नामु रिदे रवै सरीर ।।2।।
सचु नामु जा नव निधि पाई ।
रोवै पूत न कलपै माई ।।3।।
एतु मोहि डूबा संसारु ।
गुरुमुखि कोई उतरै पारि ।।4।।
एतु मोहि फिरि जूनी पाहि ।
मोहे लागा जमपुरी जाहि ।।5।।
गुरु दीखिआ जपु तपु कमाहि ।
ना मोहु तूटै ना थाइ पाहि ।।6।।
नदरि करे ता एहु मोहु जाइ ।
नानक हरि सिउ रहै समाइ ।।7।।”
जो आंतरिक सूक्ष्म भक्ति करते हैं; नदरि करते हैं अर्थात् दृष्टियोग की क्रिया करते हैं, वे अंधकार से प्रकाश में चले जाते हैं। उनकी अज्ञानता मिट जाती है और वे शब्द को ग्रहण करते हैं। सामवेद में आया है-
“ बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।”
वे शब्द के सहारे निःशब्द में चले जाते हैं। निःशब्द ही परम पद है; परमात्म-पद है। परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। कल्याण हो जाता है। परम कल्याण हो जाता है। आवागमन का चक्र छूट जाता है। दैहिक, दैविक और भौतिक-इन त्रितापों से जो मानव संतप्त होता रहता है, सदा के लिए मुक्त हो जाता है। यही थोड़ा-सा आपलोगों की सेवा में कहा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अ0 भा0 सन्तमत-सत्संग के 86वें वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर वाणप्रस्थ आश्रम (ऋषिकेश) में दिनांक 04-05-1997 ई0 को प्रातःकालीन
सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर 1997 ई0)
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आदरणीय स्वामी चिदानन्दजी महाराज, आदरणीय संत-महात्मागण, समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीय माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
परम पूज्य प्रातःस्मरणीय, गुरुदेव की अनुकम्पा से अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 86वाँ वार्षिक महाधिवेशन स्वामी चिदानन्द मुनिराज महाराजजी के सहयोग से सुसम्पन्न हुआ। अगर स्वामी श्रीचिदानन्द मुनिराज महाराजजी यहाँ नहीं होते, इनका सहयोग हमलोगों को नहीं मिला होता, इनकी कृपा, इनका आशीर्वचन, इनकी सद्भावना हमलोगों के प्रति नहीं होती, तो पता नहीं यह महाधिवेशन किस तरह का रहा होता। (श्रोतागण की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय) इसलिए स्वामी चिदानन्दजी महाराज को जितना भी धन्यवाद दिया जाए, थोड़ा ही होगा। इनको देखकर तो मुझे वही रामचरितमानस की चौपाई याद आ जाती है-
“ चिदानन्दमय देह तुम्हारी।
विगत विकार जान अधिकारी ।।”
लेकिन इसके नीचे की पंक्ति में-
“ नरतन धरेउ संत जन काजा।
कहहु करहु मानो मुनिराजा ।।”
लोग इनको मुनिजी! मुनिजी!! कहते हैं; लेकिन मैं तो इनको मुनिराज कहता हूँ (श्रोतागण की ओर से जय-जय कार की ध्वनि)। कितनी अच्छी-अच्छी बातें ये सुना रहे थे। हमलोग सब प्रसन्न हो रहे थे। कितना ज्ञान भरा हुआ है इनमें! इस तरह का सुंदर व्यवहार करते हैं लोगों के साथ। सबका सुख-दुःख देखते हैं। किनको क्या सहायता चाहिए, किनको क्या सहयोग चाहिए, किस तरह से करना चाहिए। सब तरह के लिए तत्पर रहते हैं। इनको देखकर बड़ी प्रसन्नता होती है और एक आत्मीयता उत्पन्न होती है। अभी कह रहे थे कितनी अच्छी बात-सूर्योदय होता है किस रंग को लिये हुए। सूर्यास्त होता है किस रंग को लिये हुए और वह अस्त भी नहीं कहा जा सकता है। कितनी अच्छी बात है। एक तो सूर्य यह है, जिसको हम प्रतिदिन उगते ओर अस्त होते देखते हैं। दूसरा सूर्य है-ज्ञानसूर्य। परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में हम कह सकते हैं-‘गुरु ज्ञान सूर्यरूप उनकी ज्योति अनूप। उर के नासै तम कूप।। भजो साध गुरु ए।’ (श्रोतागण की ओर से जय-जय कार की ध्वनि) गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-‘जे सउ चंदा उगवहि सूरज चड़हि हजार। एतै चाणन होदिआ, गुर बिन घोर अंधार ।।’ अर्थात् सैकड़ों चन्द्र उदय हों, हजारों सूर्य उदय हो जाएँ; लेकिन जबतक संत सद्गुरु नहीं मिलेंगे, तबतक उरपूर में जो तम भरपूर है, वह दूर नहीं होगा। (श्रोतागण द्वारा जय-जय कार)
एक सूर्य का तो नित प्रति हमलोग दर्शन करते हैं, दूसरा ज्ञानसूर्य है और इनके अलावा एक तीसरा सूर्य भी है। तीसरे प्रकार का वह सूर्य कहाँ है और कैसा है? वह तीसरा सूर्य अपने अंदर में है। इस तीसरे प्रकार के सूर्य को हम इन आँखों से नहीं देख सकते। उस सूर्य की चर्चा हम संतो ं की वाणियों में पाते हैं। मैत्रेय्युपनिषद् में एक कथा आयी है-एक ब्राह्मण देवता थे। अन्य ब्राह्मणों की भाँति वे पूजा-पाठ नहीं करते थे; तिलक-चंदन नहीं लगाते थे। फूल-पान, बेल-पत्र आदि देकर पूजन-अर्जन आदि नहीं करते थे। त्रय काल संध्या नहीं करते थे। उनकी धर्मपत्नी जब अड़ोस-पड़ोस में जातीं, तो उनकी सखी-सहेलियाँ उनको उपालम्भ देतीं कि तुम तो ब्राह्मणी हो; किन्तु तुम्हारा विवाह शूद्र से हो गया है। अगर वे ब्राह्मण होते, तो वे भी अन्य ब्राह्मणों की भाँति पूजा-पाठ, त्रय काल संध्या आदि करते, अर्चन-वंदन आदि करते। तुम्हारे पति कब स्नान करेंगे, कब पूजा करेंगे? पूजा करेंगे अथवा नहीं करेंगे, इसका भी कोई ठीक-ठिकाना नहीं है। बेचारी दुःखी होकर आतीं, अपने पति से कहतीं, दुखड़ा सुनातीं। पति मुस्कुरा देते। निरंतर इस तरह से होते-होते कितने दिन बीत गये। एक दिन बहुत दुःखी होकर फूट-फूटकर अपने पति के चरणों में रोने लगीं और कहने लगीं-‘आप भी अन्य ब्राह्मणों की तरह स्नान कर, पूजन, अर्चन, वंदन, त्रय काल संध्या आदि किया कीजिए।’ उन्होंने देखा, पत्नी बहुत दुःखी है, तो वे कहते हैं-‘देवि! तुम नहीं जानती हो कि मैं क्या करता हूँ और तुम्हारी सखी सहेलियाँ भी नहीं जानतीं। सूर्योदय होता है, सूर्यास्त होता है और एक मध्याह्नकाल होता है, इसी को सन्ध्याकाल कहते हैं। ‘सन्धि’ शब्द से ‘सन्ध्या’ शब्द बना है।
रात का अंत होता है और दिन का प्रारंभ होता है, वह एक संधिकाल है। दिन का अंत होता है और रात का आरंभ होता है, यह दूसरा संधिकाल है और मध्याह्नकाल को भी सन्ध्या कहते हैं। इसलिए कि इस समय यहाँ पूर्वाह्ण का अंत और अपराह्न का आरंभ होता है, यह तीसरा संध्याकाल है। यही त्रयकाल संध्या है। देवि! सूर्य के उदय होने पर, सूर्य के अस्त होने पर और मध्याह्नकाल में जो सन्ध्या करते हैं, उसे त्रयकाल सन्ध्या कहते हैं। लेकिन देखो देवि! तुम और तुम्हारी सखी-सहेलियाँ तो इस बाहर की सूर्य की बात कर रही हैं। लेकिन मैं अपने अंदर के सूर्य की बात कहता हूँ। मैत्रेय्युपनिषद् में लिखा है-
“ हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति ।
नास्तमेति न चोदेति कथं संध्यामुपास्महे ।।”
अर्थात् हमारे हृदय-आकाश में चैतन्य-रूप सूर्य बराबर उगा ही रहता है, न कभी अस्त होता है और न कभी उदय लेता है; संध्या कैसे करूँ ? । उसी सूर्य के लिए संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर कमल प्रकासिया, उगा निर्मल सूर ।
रैन अंधेरी मिटि गई, बाजे अनहद तूर ।।”
हम आँखें बंद करते हैं, तो अमावस्या की रात सामने होती हैं; लेकिन गुरु-निर्देशित स्थान पर हम अपने को प्रतिष्ठित कर सकें, तो संत कबीर साहब की वाणी के अनुकूल ‘कमल प्रकासिया’ का प्रत्यक्ष अनुभव होगा अर्थात् कमल खिल जाता है। कमल कब खिलता है? जब सूर्य का उदय होता है। रात में कमल नहीं खिलता। जो कोई अंतस्साधना करते हैं, तो संत कबीर साहब कहते हैं-‘उगा निर्मल सूर’। पवित्र सूर्य का उदय हो जाता है। ‘पवित्र सूर्य’ क्यों कहा गया? बाहर संसार में जो सूर्य है, उस सूर्य को देखकर हमारा हृदय पवित्र नहीं होता। ऐसे-वैसे, अच्छे-बुरे कर्म हम करते ही रहते हैं; लेकिन जो अपने अंदर के सूर्य के दर्शन करते हैं, तो उस सूर्य के दर्शन से मन पवित्र हो जाता है, जब जो कर्म होते हैं, वे पवित्र कर्म होते हैं। अगर बाहर के सूर्य को देखकर मन पवित्र हुआ होता, तो हम पवित्र काम ही करते, अपवित्र नहीं। आज जो अत्याचार, अनाचार, दुराचार आदि अपवित्र कर्म होते हैं, वे नहीं होते। अगर भीतर का सूर्य किन्हीं को मिल जाए, तो देख लीजिए वे स्वतः पवित्र हो जायेंगे और दूसरे को भी वे पवित्र करेंगे। (श्रोतागण के द्वारा जयघोष)
संत पलटू साहब कहते हैं-जिस सूर्य की चर्चा संतों ने की है, वह सूर्य इस बाह्य संसार का नहीं है। समस्त संसार के किसी भी देश का वह सूर्य नहीं है। वह कोई दूसरा ही देश है। वस्तुतः वह स्थूल देश नहीं, सूक्ष्म देश है। संत पलटू साहब कहते हैं-
“ उस देश की बात कहता हूँ
आसमान के बीच सुलाख है जी ।
बादशाह उसी बीच बैठा है,
सूझ पड़ै बिनु आँख है जी ।।
सुर्ख तो उसका चेहरा है,
आफताब तसद्दुक लाख है जी ।
पलटू हू हू की आवाज आवै,
उसमें मेरा दिल मुसताख है जी ।।”
आफताब कहते हैं सूर्य को। इस सूर्य में क्या प्रकाश है? कहते हैं-‘आफताब तसद्दुक लाख है जी ।’ अर्थात् लाखों सूर्य मिलाने से जो प्रकाश होता है, वैसा प्रकाश आपके अंदर के सूर्य का है। (श्रोतागण के द्वारा जयघोष) केवल प्रकाश ही होता है? नहीं, नहीं। ‘पलटू हू हू की आवाज आवै’ अर्थात् शब्द भी होता है। जैसे कबीर साहब कहते हैं-‘बाजे अनहद तूर।’ जहाँ सूर है, वहाँ सूर भी है अर्थात् जहाँ प्रकाश है, वहाँ शब्द भी है। संत पलटू साहब कहते हैं-‘आसमान के बीच सुलाख है जी।’ आसमान तो शून्य होती है, खाली होती है। उसमें छिद्र कैसा? इसमें रहस्य है; लेकिन यह क्या राज है? कहते हैं-आसमान के बीच सुलाख (सुराख) है, छेद है। इस छेद के भेद को तबतक हम नहीं जान सकते, जबतक संत सद्गुरु के दर्शन नहीं होंगे। उनकी सद्शिक्षा-दीक्षा की प्राप्ति नहीं होगी। हम अपने गुरुदेव से पूछना चाहेंगे कि मैत्रेय्युपनिषद् में अपने भीतर के सूर्य की चर्चा आयी है। संत कबीर साहब सूर्य की बात कहते हैं। गुरु नानकदेवजी भी सूर्य की चर्चा कर रहे हैं-
‘रवि ससि लउके इहु तनु, किंगुरी बाजै सबदु निरारी ।’
गुरुदेव! यदि आप भी इस संबंध में कुछ प्रकाश डालने की कृपा करते, तो कितना उत्तम होता! हमारे गुरुदेव कहते हैं-अरे! इस सूर्य के लिए तुम क्या कहते हो? अपने अंदर में जो सूर्य है, उस सूर्य के प्रकाश के सामने बाह्य संसार के सूर्य की तुलना नहीं हो सकती। उस सूर्य के पटतर में यह सूर्य नगण्य है।
“ जा सम्मुख या सूर्य अमित अन्धार है ।
ऐसो सूर्य महान चन्द हद पार है ।।”
आज्ञाचक्र में ध्यान करो। सहस्त्रदल कमल में चन्द्र के दर्शन होंगे। आगे बढ़ेंगे, त्रिकुटी में सूर्य के दर्शन होंगे। संत तुलसी साहब जो हाथरस में हुए थे, उस सूर्य के संबंध में कहते हैं-
“ कोट भान छवि तेज उजाली ।
अलख पार लखि लाग लगीजै ।।”
यह प्रकाश करोड़ों सूर्य के प्रकाश के समान होगा। अतः सूर्य के दर्शन की कला क्या है तथा इससे लाभ क्या होता है? जब हम दृष्टियोग की क्रिया करते हैं और दृष्टि की दोनों धाराएँ मिल जाती हैं, तो एक विन्दु का उदय होता है तथा नाद-श्रवण होता है। तब क्या होता है? योगशिखोपनिषद् में आया है-
‘विन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात् ।’
अगर कोई अपने को विन्दु पर प्रतिष्ठित कर पाते हैं, जितनी देर चाहें, अपने को उसपर प्रतिष्ठित कर पाते हैं, तो संसार में जहाँ देखना चाहे, वहाँ का दृश्य देख सकते हैं। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ एकविन्दुता दुर्बीन हो, दुर्बीन क्या करे ।
पिण्ड में ब्रह्माण्ड दरस हो बाहर में क्या फिरे ।।”
गुरुदेव की सेवा में मैं रहता था। कहीं कार्यवश आवश्यकता पड़ती थी जाने की, तो उनकी आज्ञा मिलती थी और मैं जाता था। एक बार का प्रसंग है कि गुरुदेव की आज्ञा हुई कटिहार जाने के लिए। जाते समय उनके श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित किया। उन्होंने पूछने की कृपा की-‘कब लौटेंगे?’ मैंने कहा-‘गुरुदेव! आजकल ट्रेन का कोई ठिकाना नहीं रहता, किस समय ट्रेन पहुँचेगी? इसलिए जिस कार्य के लिए जा रहा हूँ, कल वह कार्य हो ही जाएगा, परसों लौटकर श्रीचरणों में उपस्थित हो ही जाऊँगा। गुरुदेव का आशीर्वाद मिला। मैं चला, बरारी घाट में स्टीमर पर बैठा और उस पार गया। महादेवपुर घाट में ट्रेन में बैठा। ट्रेन से बिहपुर होते हुए कटिहार पहुँच गया। गुरुदेव की कृपा से आशीर्वाद प्राप्त था ही, जिस कार्य विशेष के लिए गया था, उसी दिन वह कार्य हो गया। दूसरे ही दिन मैं लौट गया। कटिहार से ट्रेन द्वारा बिहपुर, बिहपुर से ट्रेन द्वारा महादेवपुरघाट आयी। वहाँ स्टीमर पर बैठा और गंगा पार कर रहा था। आधी गंगा पार कर गया होऊँगा। मेरी नजर बरारी घाट पर पड़ी। मेरे साथ एक सज्जन थे, उनसे मैंने कहा-वह गाड़ी मालूम पड़ती है अपने आश्रम की ही है। उक्त सज्जन ने कहा, ‘एक रंग की तो कितनी ही गाड़ियाँ होती हैं। अपनी ही गाड़ी है, कैसे कहा जाए?’ मैंने कहा, ‘हाँ भाई! बात तो सही है। थोड़ी देर के बाद जैसे स्टीमर बरारी घाट पर लगता है, तो उस समय के ‘शांति-संदेश के सम्पादक श्रीअधिक लाल दासजी वर्तमान श्रीअच्युतानंद जी और बरारीघाट के स्टेशन मास्टर श्रीविजय बाबू-दोनों वहाँ पर खड़े थे। मेरी नजर उनलोगों पर पड़ी और उनलोगों की नजर मुझपर। ये लोग तो मुझे लिवाने के लिए ही आये थे। मैंने पूछा, ‘आपलोग कहाँ?’ तो उन्होंने कहा, ‘गुरुदेव ने आपको लिवाने के लिए गाड़ी भेज दी है, आप चलिए। उसी के लिए आये थे।’ (श्रोतागण की ओर से जय-जयकार) मैंने कहा, ‘आपलोग किन्हीं दूसरे को लेने के लिए आये होंगे; मैं तो आज आनेवाला था नहीं, आपलोग मेरे लिए क्यों गाड़ी लायेंगे, कोई और आनेवाला है क्या?’ तो कहते हैं-नहीं, नहीं! गुरुदेव ने आज्ञा दी है कि संतसेवीजी इसी स्टीमर से आ रहे हैं। गाड़ी लेकर उनको ले आइये। (श्रोतागण की ओर से जय-जयकार)
अब समझिये कि कहाँ भागलपुर, कहाँ कटिहार? कैसे गुरुदेव देखते थे कि मैं कटिहार से कब चला हूँ, किस ट्रेन से चला हूँ और किस स्टीमर से आ रहा हूँ? ठीक स्टीमर के समय वे गाड़ी भेजते हैं। यह क्या है?
‘विन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात् ।’
जो दृष्टियोग की क्रिया करते हैं, वे कहीं पर बैठे रहेंगे और कहीं पर देखते रहेंगे। जो नादानुसंधान- क्रिया करते हैं, वे कहीं पर बैठे रहेंगे और कहीं की बात सुन लेंगे। उनके लिए रेडियो की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। जहाँ देखना चाहेंगे, देख लेंगे; जहाँ सुनना चाहेंगे, वह सुन सकते हैं; जो कोई दृष्टियोग की क्रिया करते हैं, नादानुसंधान की क्रिया करते हैं। दृष्टियोग की क्रिया में अंतःप्रकाश होता है। इसकी चर्चा गो0 तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस के उत्तरकांड में की है-
“ जब ते राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका ।
बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ।।”
शोक किनको और सुख किनको हुआ? ‘जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी । प्रथम अबिद्या निसा नसानी।।’ अविद्या रूपी रात्रि की समाप्ति हो जाती है। सूर्य का उदय हो जाने पर फिर रात्रि कहाँ रहेगी? ‘प्रथम अबिद्या निसा नसानी ।’ उल्लू पक्षी अँधेरी रात में चहचहाते हैं; लेकिन जब सूर्य का उदय होगा, तब क्या होगा? ‘अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने ।’ पापरूपी उल्लू पक्षी जहाँ-तहाँ लुक जाते हैं, छिप जाते हैं। ‘काम क्रोध कैरव सकुचाने ।’ कुमुदिनी सकुचा जाती है।
“ बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ ।
ये चकोर सुख लहहिं न काऊ ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा ।
इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ।।”
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मात्सर्य-ये जितने विकार हैं, सूर्य के प्रकाश से विनष्ट हो जाते हैं। आप देखते हैं-बल्ब जलाइये, मरकरी जलाइये, दीपक जलाइये। कीड़े-फतिंगे उड़-उड़कर वहाँ जाते हैं और जल-भुनकर समाप्त हो जाते हैं, उस अंतर के प्रकाश में अंतर के कीड़े-काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मात्सर्य आदि ये जल-भुनकर समाप्त हो जाते हैं। (श्रोतागण के द्वारा जय-जयकार) तो इनको दुःख हुआ और सुख किनको हुआ?
“ धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना ।
ये पंकज बिकसे बिधि नाना ।।
सुख सन्तोष बिराग बिबेका ।
बिगत सोक ये कोक अनेका ।।”
“ यह प्रताप रबि जाकें, उर जब करइ प्रकास ।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास ।।”
कहीं लोगों के मन में यह भ्रम नहीं हो जाय कि जिस समय मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अयोध्या में थे, उस समय यह सूर्य उदित हुआ और उस समय के लोगों के साथ लगा हुआ था। उसी भ्रम के निवारणार्थ गोस्वामी जी कहते हैं-
‘यह प्रताप रबि जाकें, उर जब करइ प्रकास ।’
जब जिसके हृदय में यह रवि (सूर्य) उदित होगा, तब ‘पिछले बाढ़हिं’ अर्थात् बाद में जो कहे गये हैं-सुख, संतोष, वैराग्य, विवेक और ज्ञान-विज्ञान; ये बढ़ेंगे और जो पहले कहे गये हैं-काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मात्सर्य आदि-ये सब नाश को प्राप्त होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-यह सूर्य हमारे अपने अंदर में है; प्रकाश हमारे अपने अंदर है, शब्द हमारे अपने अंदर है।
जबतक इस शरीर में गर्मी रहती है और जबतक इस शरीर में शब्द है, तबतक ही यह शरीर जीवित है। इस शरीर से गर्मी निकल जाय और धड़कन बंद हो जाए अर्थात् शब्द का होना बंद हो जाए, तो शरीर मृत हो जाता है। उसी तरह से जिस धर्म में अंतर्ज्योति और अंतर्नाद की उपासना, साधना है, वह धर्म जीवित है और जिस धर्म में अंतर्ज्योति और अंतर्नाद की उपासना, साधना नहीं है, वह धर्म मृतवत् है। (श्रोतागण के द्वारा जय-ध्वनि)
इसका प्रतीक बहुत दूर न जाकर नजदीक में ही देखें-आप वैदिक धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म में देखिए। आप मस्जिद में जाइए। देखेंगे, भीतर दीपक जलता है और बाहर में मुल्ला साहब अजान देते हैं। दीपक प्रकाश का प्रतीक है और अजान शब्द का प्रतीक है। आप ईसाइयों के गिरजाघर में जाइए। देखेंगे, वहाँ भीतर में मोमबत्ती जलती है तथा बाहर में घंटा टँगा रहता है। वह घंटा शब्द का प्रतीक है और मोमबत्ती प्रकाश का प्रतीक है। आप अपने वैदिक मन्दिरों में जाइए, भीतर ठाकुरजी की मूर्त्ति है, दीपक जलाकर आरती उतारते हैं और घड़ी-घंट बजाते हैं। यह क्या है?
‘ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिरन्तर्गतं मनः।’
(मण्डलब्राह्मणोपनिषद्, शुक्ल यजुर्वेद का)
तो अन्तर्ज्योति और नाद की सााधना; यही एक साधना है और इस साधना से मन की शुद्धि होती है। मन पवित्र होता है। सुरत की ऊर्ध्वगति होती है, वहाँ नाद की अनुभूति होती है और वह नाद आगे चलकर परम प्रभु परमात्मा से जा मिलता है। अपने भीतर का जो सूर्य है, उस सूर्य का प्रकाश भी अपने अन्दर अधिक दूर तक नहीं जाता है। उस सूर्य का प्रकाश रूप-ब्रह्माण्ड तक ही सीमित रहता है, उसके आगे आत्मप्रकाश है। इसीलिए भगवान ने कहा था-
“ न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।”
उस परमात्मधाम में सूर्य, चन्द्र, तारे कुछ भी नहीं है। यह गीताजी की बात है और कठोपनिषद् में आया है-वहाँ चन्द्र नहीं, सूर्य नहीं, तारे नहीं, फिर भी प्रकाश है।
“ न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयभग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य
भासा सर्वमिदं विभाति ।।”
अर्थात् वहाँ (उस आत्मलोक में) सूर्य प्रकाशित नहीं होता, चन्द्रमा और तारे भी नहीं चमकते और न यह विद्युत ही चमचमाती है। फिर इस अग्नि की तो बात ही क्या है? उसके प्रकाशमान होते हुए ही सब कुछ प्रकाशित होता है और उसके प्रकाश से ही यह सब कुछ भासता है। वहाँ मात्र आत्मप्रकाश ही रह जाता है। वह प्रकाश ऐसा है कि ‘परम प्रकाश रूप दिन राती। नहिं कछु चहिय दिया घृत बाती।।’ उसी प्रकाश से, अन्तःप्रकाश से सारा विश्व-ब्रह्माण्ड प्रकाशित होता है। उसी अन्तःप्रकाश और अन्तर्नाद की साधना हमलोग करें। अपने जीवन को समुज्ज्वल बनाएँ। जब अपना जीवन समुज्ज्वल होगा, तब फिर हम दूसरे के जीवन को समुज्ज्वल बना सकते हैं। जो स्वयं विद्वान होंगे, वे ही दूसरे को विद्वान बना सकते हैं। जो स्वयं विद्वान नहीं होगा, वह दूसरे को क्या विद्वान बना सकता है? यह सन्तमत की साधना सरल, सुगम, सहज और सबके करनेयोग्य है। संतों में कितनी उदारता होती है! देखिये, गुरु नानक साहब ने कहा है-
“ चहु बरणा को दे उपदेश ।
ता पण्डित को सदा आदेश ।।”
जाति-पाँति की कोई बात नहीं है। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ जितने मनुष तनधारि हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी ।
अन्तर व बाहर भक्ति कर, घट पट हटाना चाहिए ।।”
मनुष्य का शरीर होना चाहिए, नर-नारी के शरीर का कोई भेद नहीं। सबके घट-घटवासी वह प्रभु है। सब कोई कर सकते हैं। आवश्यकता है अपना पवित्र जीवन बनाने की। पवित्र जीवन के लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पंच पापों का परित्याग करना है। ईश्वर पर विश्वास रखना है। ईश्वर अपने अन्दर में मिलेंगे, इसका दृढ़ निश्चय रखना है, सत्संग करना है, ध्यान करना है, गुरु की सेवा करनी है-ये पाँच विधिकर्म हैं। हमारे गुरुदेव का तो यह प्रबल आदेश है कि परमुखापेक्षी मत बनो।
“ जीवन बिताओ स्वावलम्बी, भरम भाँड़े फोड़िकर ।
सन्तों की आज्ञा हैं ये ‘मेँहीँ, माथ धर छल छोड़िकर ।।”
अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करें। गृहस्थ-विरक्त की कोई बात नहीं है, मन विरक्त होना चाहिए। तन विरक्त है और मन संसारासक्त हो, तो किस काम का? हृदय विरक्त होना चाहिए, वेश जो भी हो। साधना करें, सफलता मिलेगी। आपलोग दूर-दूर से आये हुए हैं, अनेक कष्टों को उठाकर; आपलोगों की श्रद्धा-भक्ति देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता है। आपलोगों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ! जो निकट से आये हुए हैं, उनको भी धन्यवाद है! सब लोगों के लिए मेरी शुभकामना है और परम पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में मेरी प्रार्थना है कि आपलोगों को वे शुभ उन्नतियाँ देने की कृपा करें। (श्रोतागण के द्वारा जयघोष) पुनः स्वामी श्रीचिदानन्द मुनिराजजी महाराज और महामण्डलेश्वर श्रीअसंगानन्दजी महाराज को भी मैं धन्यवाद देता हूँ और अपना आभार प्रकट करता हूँ। मैं कृतज्ञ हूँ, इनके उपकार से उपकृत हूँ। जितना मैं कुछ कहूँ, वह थोड़ा ही होगा, इसलिए थोड़े को ही बहुत समझेंगे। (श्रोतागण के द्वारा जयघोष)।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अ0 भा0 सन्तमत-सत्संग के 86वें वार्षिक महाधिवेशन
के अवसर पर वाणप्रस्थ आश्रम (ऋषिकेश) में दिनांक 05-05-1997 ई0 को अपराह्णकालीन
सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 1997 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संसार में दो तरह की चीजें हैं-एक व्यक्त और दूसरा अव्यक्त है। व्यक्त को प्रत्यक्ष देखते हैं और अव्यक्त को नहीं देखते हैं। हमलोगों का यह स्थूल शरीर है। इसे हम देखते हैं; किन्तु इस शरीर के अंदर जो ‘हम’ रहते हैं, उसको नहीं देखते। महाराजा युधिष्ठिर ने यक्ष से पूछा था कि ‘सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?’ महाराज युधिष्ठिर ने उत्तर दिया था, ‘हम देखते हैं कि प्रतिदिन लोग मर-मरकर यमराज के घर को भर रहे हैं; किन्तु अपने को फिर भी अमर समझते हैं। यह सबसे बड़ा आश्चर्य है।’ किन्तु कम आश्चर्य नहीं है कि यह हमारी पत्नी है, यह पति है, यह हमारा पुत्र है, यह पुत्री है, यह हमारी सम्पत्ति है, यह हमारा मकान है, यह दूकान है; ये सब कुछ हम जानते हैं; लेकिन हम कौन हैं, यह नहीं जानते। जबसे जन्म लिया है और इतनी उम्र हो गयी है, कभी अपने से भेंट हुई कि हम कौन हैं? शरीर का ज्ञान है; लेकिन शरीर में रहनेवाले का ज्ञान हमको नहीं हैं ‘मूलो नास्ति, कुतो हि शाखा’ वाली बात चरितार्थ हो रही है। जहाँ मूल ही नहीं, वहाँ हम भूल में पड़े हुए हैं। इसीलिए भव-शूल सह रहे हैं। मूल में जानें कि हम कौन हैं? श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
“ वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।”
जिस तरह पुराने-पुराने वस्त्रें को छोड़कर हम शरीर पर नये-नये वस्त्रें को धारण करते हैं, उसी तरह यह जीव पुराने-पुराने शरीरों को छोड़ते हुए नये-नये शरीरों को प्राप्त करता है। जबसे हमलोगों का जन्म हुआ है और इतनी उम्र हुई है, तबसे लेकर अबतक कितने कपड़े पहने हैं और कितने कपड़े फटे हैं, किसी को याद नहीं है? किसी को याद नहीं, पर शरीर वही एक है। उसी तरह से जीव वही है; लेकिन कितने शरीरों को धारण किया और छोड़ा है, उसका कोई ठिकाना नहीं। पुराने-पुराने शरीर छूटते गये और नये-नये शरीर होते गए। होते-होते आज इस शरीर में आए हैं। यह शरीर भी नहीं रहेगा, एक-न-एक दिन छूट जाएगा। अभी जो हमारे शरीर के ऊपर वस्त्र है, वह कैसा है? जिस तरह की हमारी कमाई है, उसी के अनुकूल हमारे शरीर पर वस्त्र है। अगर हमारी आमदनी अच्छी हो जाए, तो इससे भी बढ़िया वस्त्र हम पहन सकते हैं। अगर हमारी कमाई घाटे की ओर गयी, तो इससे भी कम पैसे के कपड़े हम पहनेंगे। उसी तरह से हम अपने कर्मानुसार ही विभिन्न शरीरों को प्राप्त करते हैं या शरीर और संसार से मुक्त हो सकते हैं। यदि हमने भगवद्भजन किया और भक्ति पूरी हो गयी, तब तो परम प्रभु परमात्मा में ही मिल जाएँगे। अगर भक्ति पूरी नहीं हुई, तो फिर हमको मनुष्य का शरीर मिलेगा। यदि भक्ति छोड़कर विषयभोग में पड़े रह गए, तो फिर चौरासी लाख योनियों में जाना पड़ेगा। कबीर साहब ने कहा है-
“ कहे कबीर चेत अजहूँ, नहिं फिर चौरासी जाई ।
पाई जनम कूकर शूकर को, भोगेगा दुख भाई ।।”
कूकर-शूकर के शरीर में भी चले जाएँगे।, कोई ठिकाना नहीं। कपड़ा पहनना हमारे अधिकार की बात है-कितने बहुत धनी हैं; लेकिन वे अपनी इच्छानुसार कम पैसे के कपड़े पहनते हैं और जो उतने धनी नहीं हैं, फिर भी अच्छे कपड़े पहनते हैं। यह तो अपनी-अपनी इच्छा की बात है। लेकिन शरीररूपी कपड़े पहनने के लिए हम स्वतंत्र नहीं हैं। वह तो भगवान ही पहनाएँगे। हम जैसा कर्म करेंगे, वे वैसा शरीर देंगे। साधारण मनुष्य को कौन पूछे, अपने कर्म के अनुसार देवराज इन्द्र को भी शूकर का शरीर मिला। जब इन्द्र शूकर के शरीर में गये, तो शूकरानी मिल गयी और दो-चार बच्चे भी हो गये। देवता लोग ब्रह्मा के पास गये और कहे कि ‘स्वर्गलोक खाली है, हमारे इन्द्रदेव कहाँ गये पता नहीं!’ ब्रह्मा ने बताया कि अमुक द्वीप के किनारे वे शूकर के शरीर में रह रहे हैं। वहाँ जाकर देवताओं ने उन्हें समझाया कि आप तो देवराज इन्द्र हैं और यहाँ आकर शूकर के शरीर मे हैं, यह ठीक नहीं है। चलिए, स्वर्गलोक। कीचड़ में पड़े इन्द्र ने कहा, ‘मुझे स्वर्ग नहीं जाना है। मुझको यहीं बहुत आनंद हैं देखते हो यह हमारी शूकरानी कितनी सुन्दर है और ये बच्चे सब कितने अच्छे हैं। इनको छोड़कर मैं कहाँ जाऊँगा?’ वस्तुतः जो जिस परिस्थिति में रहता है, उसे वही आनंददायक लगता है। उसको छोड़कर वह जाना नहीं चाहता है। पुनः ब्रह्मा के पास जाकर देवताओं ने कहा, ‘इन्द्र तो आना ही नहीं चाहते।’ ब्रह्माजी ने कहा, ‘वे ऐसे नहीं आएँगे। उनके बच्चों को एक-एक कर मार दीजिए।’ देवताओं ने जब एक-एक करके उनके सभी बच्चों को मार दिया गया, तो वे रोने लगे। होते-होते फिर शूकरानी को भी मार दिया। तब तो बेचारे फूट-फूटकर रोते हुए कहने लगे कि शूकरानी रहती तो और भी बच्चे हो जाते। शूकरानी भी मर गयी, अब हम किसको देखकर जीएँगे। देवता लोग फिर ब्रह्माजी के पास गए और उन्होंने कहा कि अब भी उनका मोह नहीं छूटा है। अब क्या करें? ब्रह्माजी ने उत्तर दिया-‘अब उनको भी मार डालिये।’ देवताओं ने शूकर के शरीर को भी नष्ट कर दिया। इन्द्र अपने शरीर में आए, तब उनको बोध हुआ कि मैं कौन हूँ और कहाँ पड़ा हुआ था। फिर इन्द्र स्वर्गलोक चले गये।
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि जिस तरह का हमारा कर्म होगा, उसी के अनुकूल हमको शरीर प्राप्त होगा, इसलिए हम ऐसा कर्म करें, जिसके द्वारा भगवद्-प्राप्ति हो। बिना भगवद्-प्राप्ति के सुख नहीं, शान्ति नहीं, कल्याण नहीं है। ईश्वर-भजन करने में ही जीव का कल्याण नहीं है और कोई दूसरा उपाय नहीं है। कितना भी धन-धान्य मिलें, पैसे मिलें, पद मिले, प्रतिष्ठा मिले; कहीं भी शान्ति नहीं है। शान्ति केवल भगवद्भजन करने में ही है। इसलिए संतों ने भगवद्भजन करने का भेद बताया है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में अर्जुन को ध्यानयोग की क्रिया बतलायी है कि किस तरह से शरीर, गर्दन और मस्तक को सीधा करके बैठो। स्थिर होकर नासिका के अग्र में ध्यान करो। कैसे ध्यान करो, यह किताब में तो लिखा हुआ है; लेकिन यह भेद केवल किताब से ही ज्ञात नहीं होगा। किसी शायर ने कहा है-
“ इल्म होता किताबों से, तो मख्तबे की क्या जरूरत ?
इमल होता अंगूठे से, तो शौहर की क्या जरूरत ।।”
अतएव किसी संत सद्गुरु के पास जाकर सीखना होगा।
अर्जुन ने जिज्ञासा की कि जो क्रिया आपने बतलायी है, यदि मैं इसे करने लग जाऊँ और कहीं माया के वशीभूत होकर विषय बयार में बह जाऊँ, तो मेरा क्या परिणाम होगा? भगवान ने कहा, ‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।’ मैंने जो साधना बतलायी है, जो क्रिया बतलाई है, इस योग की क्रिया को जो कोई करता है, उसकी अधोगति नहीं होती है। शरीर छूटने के बाद वह पुण्यकर्ता को प्राप्त होनेवाले स्वर्ग-सुख को भोगता है। स्वर्ग-सुख भोगने बाद फिर संसार में आता है और किसी पवित्र श्रीमान् के घर में जन्म लेता है। फिर पूर्व संस्कार से प्रेरित होकर कर्म करने लग जाता है और कई जन्मों तक करते-करते मुझको प्राप्त कर लेता है। इस तरह मुझमें विराजनेवाली जो शांति है, उसको वह प्राप्त कर लेता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ भक्ति बीज बिनसै नहीं, जौं जुग जाय अनन्त ।
ऊँच नीच घर जनम लै, तऊ सन्त को सन्त ।।
भक्ति बीज पलटे नहीं, आय पड़े जो चोल ।
कंचन जो विष्ठा पड़े, घटे न ताको मोल ।।”
जिनके अंदर भक्ति का बीज पउ़ गया है, वे जहाँ कहीं भी जाएँगे, भगवद्भक्ति मिलेगी, सत्संग मिलेगा। फिर पूर्व जन्म के संस्कार से प्रेरित होकर भक्ति करने लग जाएँगे और करते-करते एक दिन परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त करके परम कल्याण, परम शांति, परम सुख की प्राप्ति कर लेंगे। इसलिए हमलोगों को युक्ति जानकर भगवद्भक्ति करनी चाहिए। आजकल, आजकल करके टालना नहीं चाहिए; क्योंकि जीवन का कोई ठिकाना नहीं है।
“ आज कहै मैं कल्ह भजूँगा, काल कहै फिर काल्ह ।
आज काल्ह के करत ही, औसर जासी चाल ।।”
इसलिए-
“ काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब ।
पल में परलय होयगा, बहुरि करेगा कब्ब ।।”
शुभ कर्म शीघ्र करना चाहिए। शुभस्य शीघ्रम्। भगवान शंकराचार्य ने कहा है, ‘इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है। जिस तरह कमल के पत्ते पर जल नहीं टिकता है, ढरक जाता है, जीवन वैसा ही क्षणभंगुर है।’
जिस तरह से मिट्टी का कच्चा घड़ा है, उसमें पानी अधिक देर तक टिकता, उसी तरह यह शरीर कच्चा घड़ा है, इसमें प्राण कबतक टिकेंगे? कब चले जाएँगे, ठिकाना नहीं है। इसलिए हमलोगों को चाहिए कि भगवद्भजन में मन को लगाएँ। तन से, मन से, धन से, वचन से जो कुछ भी हो सके, परोपकार करें, शुभ कर्म करें और नियमित रूप से ध्यान-भजन करें। इस तरह लौकिक और पारलौकिक; दोनों धन कमाकर हम इस संसार से जाएँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 07-11-1997 को महर्षि मेँहीँ योगाश्रम, मुरली पहाड़ी, ईशीपुर, भागलपुर में अपराह्णकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी 2005 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द, धर्मशीला माताओ, एवं भक्तिमती बहनो!
“ सुकिरत करि ले, नाम सुमिरि ले, को जानै कल की ।।
जगत में खबर नहीं पल की ।।
झूठ कपट करि माया जोरिन, बात करैं छल की ।।
पाप की पोट धरे सिर ऊपर, किस बिधि ह्वै हलकी ।।
यह मन तो है हस्ती मस्ती, काया मट्टी की ।।
साँस-साँस में नाम सुमिरि ले, अवधि घटै तन की ।।
काया अंदर हंसा बोलै, खुशियाँ कर दिल की ।।
जब यह हंसा निकरि जाहिंगे, मट्टी जंगल की ।।
काम क्रोध मद लोभ निवारो, याही बात असल की ।।
ज्ञान बैराग दया उर राखो, कहै कबीरा दिल की ।।”
भगवान श्रीकृष्ण का महावाक्य है-‘यह शरीर क्षेत्र है। इस शरीर को जाननेवाला क्षेत्रज्ञ है।’ क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का संग हो गया है। क्षेत्र अर्थात् शरीर नाशवान है। क्षेत्रज्ञ अर्थात् शरीरी अविनाशी है। विनाशी और अविनाशी; इन दोनों का संग हो गया है। विनाशी असत् है, अविनाशी सत् है। सत् और असत् का मेल अधिक दिनों तक टिकता नहीं है। संत कबीर साहब ने कहा-
“ साँचा को साँचा मिलै, अधिका जुड़ै सनेह ।
साँचा को झूठा मिलै, तड़ दै टूटै नेह ।।”
शरीर और शरीरी-दोनों का संबंध अधिक दिनों तक नहीं रहता है। शरीर और शरीरी का मिलना-बिछुड़ना कितनी बार हुआ है, इसकी गणना नहीं है। संत कबीर साहब की वाणी में आया है-
“ कहत प्राण सुनु काया बौरी, मोर तोर संग न होई ।
तोहि अस मित्र बहुत हम त्यागा, संग न लीन्हा कोई ।।”
जीव अनेकों शरीर को धारण करता और छोड़ता है। इस दृष्टि से शरीर और शरीरी का अलग-अलग विभाग हुआ। शरीर इस लोक के लिए है। इस लोक में इसका जन्म हुआ है।कुछ दिनों तक रहेगा, फिर नहीं रहेगा; लेकिन जीव कभी मरता नहीं है। जीव उसको कहते हैं, जो सदा जीवित रहता है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
“ नैनं छिन्दन्ति शस्त्रणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता, अ0 2/23)
अर्थात् इस आत्मा को कोई अस्त्र-शस्त्र काट नहीं सकता, आग जला नहीं सकती, जल भिंगा नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती। यह अजर, अमर, अविनाशी है। गो0 तुलसीदासजी महाराज की वाणी में हम कह सकते हैं-
“ ईस्वर अंस जीव अविनासी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ।।”
अर्थात् आत्मा नित्य है, चेतन है, निर्मल है और सुख की राशि है। वह इस अनित्य शरीर में है। एक-न-एक दिन यह शरीर छूटेगा। हमारा शरीर छूटेगा; लेकिन हम रहेंगे। प्रश्नोदय होता है कि हम रहेंगे, तो कहाँ रहेंगे, कैसे रहेंगे? उत्तर में निवेदन है कि हमलोगों के जो कर्म होते हैं, वे हमारे साथ रहते हैं। उनके फल हमको भोगने पड़ते हैं। उन कर्मों के अनुसार उन लोकों में हम जाकर रहेंगे और तदनुकूल फलों के भोगों को भोगेंगे। संत कबीर साहब चेतावनी देते हैं-बुरे कर्म तो करो ही नहीं; क्योंकि उसका फल दुःख होता है। अच्छे कर्मों को करो-‘सुकिरत कर ले’। जो शुभ कर्मों को करते हैं, उनकी कीर्ति फैलती है, यश फैलता है। भगवान बुद्ध ने कहा है-जो सदाचारी होते हैं, उनको पाँच चीजें मिलती हैं। संसार में उनकी कीर्ति फैलती है। उनके पैसों का सदुपयोग होता है, दुरुपयोग नहीं होता। जिस किसी सभा में उनका प्रवचन होता है या वे जो बोलते हैं, उससे लोग प्रभावित होते हैं। जब उनका शरीर छूटता है, तो सुख से शरीर से छूटता है और शरीर छूटने के बाद वे सुखमय लोक में निवास करते हैं।
इसके विपरीत जो आचरणहीन हैं, दुराचारी हैं, उनको भी पाँच चीजें मिलती हैं। वे पाँच चीजें क्या हैं? जहाँ सदाचारी की कीर्ति फैलती है, सुयश फैलता है, वहाँ आचरणहीन का, दुराचारी का अपयश फैलता है, अपकीर्ति फैलती है। जहाँ सदाचारी के धन का सदुपयोग होता है, वहाँ दुराचारी के पैसे का अपव्यय होता है। जहाँ सदाचारी के प्रवचन का प्रभाव होता है, वहाँ दुराचारी के प्रवचन-वचन का प्रभाव नहीं पड़ता। यद्यपि लोग सुनने के समय उनका प्रवचन सुन लेते हैं; किन्तु पीछे उनकी निंदा करते हैं। जहाँ सदाचारी का शरीर सुख से छूटता है, वहाँ दुराचारी का शरीर दुःख से छूटता है। सदाचारी के शरीर छूटने पर वे सुखमय लोक में जाते हैं और वहाँ सुखपूर्वक रहते हैं। दुराचारी दुःखमय लोक में जाता है और वहाँ दुःखमय जीवन जीता है। इसीलिए संत कबीर साहब कहते हैं-‘सुकिरत करि ले।’ शुभ कर्मों को करो, इससे यह लोक कल्याणमय होगा, मंगलमय होगा। इस लोक में सदा तुम रहोगे नहीं, एक-न-एक दिन शरीर छूटेगा, परलोक जाओगे। वहाँ के लिए संवल चाहिए। गुरु नानक साहब ने कहा-
“ जा मारग के गणै जाय न कोसा ।
तहाँ हरि को नाम सदा संगि तोषा ।।”
रास्ता इतना लम्बा है, जिसकी माप नहीं हो सकती। वहाँ के लिए पाथेय क्या होगा, बटखर्चा क्या चाहिए? संवल क्या चाहिए, तो गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-उस मार्ग के लिए प्रभु का नाम-भगवन्नाम पाथेय है। उसी के संबंध में संत कबीर साहब कहते हैं- ‘नाम सुमिरि ले।’ जागतिक जीवन सुखमय हो, कल्याणमय हो, कल्याणमय हो-इसके लिए नाम का सुमिरन करो, नाम का स्मरण करो। ‘स्मरण’ शब्द का अपभ्रंश ‘सुमिरन’ है। महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का श्रीमद्भगवद्गीता में वाक्य है-
‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध्य च।’
अर्थात् जागतिक कार्य-संतुलन के साथ सब समय मेरा स्मरण करो। ‘स्मरण’ यानी ‘याद’। ‘याद’ शब्द को उलटने से ‘दया’ शब्द बनता है। जो कोई प्रभु को याद करते हैं, तो वह प्रभु के दरबार तक पहुँचती है और वहाँ से उलटने पर ‘दया’ बनकर आती है। परिणामस्वरूप जिस पर प्रभु की दया हो जाए, उसको किस बात की कमी रहेगी। उसकी प्रतिकूल परिस्थिति अनुकूल परिस्थिति में परिवर्तित हो जाए-कौन-सी असंभव की बात है? नाम के स्मरण से क्या लाभ होता है? इसके उत्तर में संत कबीर साहब कहते हैं-
“ सुमिरन से सुख होत है, सुमिरन से दुख जाय ।
कह कबीर सुमिरन किये, साईं माहिं समाय ।।”
अर्थात् प्रभु के स्मरण से सुख मिलेगा, दुःख मिटेगा यानी दुःख से छुटकारा मिलेगा और परम प्रभु परमात्मा में जा मिलोगे। पुनः संत कबीर साहब कहते हैं-प्रभु का स्मरण राजा, रंक, नर-नारी आदि सभी कोई करते हैं, सभी अच्छे हैं; किन्तु सबके स्मरण करने में अंतर है अर्थात् कोई सकाम स्मरण करते हैं और कोई निष्काम स्मरण करते हैं। सकाम स्मरण के फल से निष्काम स्मरण का फल भिन्न होता है। सकाम भक्त उत्तम ठाम पाते हैं और निष्काम भक्त प्रभु का अविचल धाम पाते हैं-
“ राजा राना राव रंक, बड़ा जो सुमिरै नाम ।
कह कबीर बड्डो बड़ा, जो सुमिरै निष्काम ।।
नर नारी सब नरक है, जब लगि देह सकाम ।
कह कबीर सोइ पीव को, जो सुमिरै निष्काम ।।
सहकामी सुमिरन करै, पावै उत्तम ठाम ।
निःकामी सुमिरन करै, पावै अविचल धाम ।।”
संत कबीर साहब की ही भाँति गुरु नानकदेव जी कहते हैं-प्रभु के स्मरण से सुख मिलता है; कलि क्लेश का निःशेष होता है। प्रभु का स्मरण से गर्भवास नहीं होता, प्रभु के धाम में निवास होता है और यम-त्रस मिटता है।
“ सिमरउ सिमिरि सिमिरि सुख पावउ ।
कलि कलेश तन माहिं मिटावउ ।।
सिमरउ जासु विसंभर एके ।
नाम जप जपनत अनेके ।।
प्रभु के सिमरन गरभ न वसै ।
प्रभु के सिमरन यम दुख नसै ।।”
यह कौन-सा सुमिरन है, किस प्रकार का सुमिरन है? संत कबीर साहब ने कहते हैं-
“ जप तप संयम साधना, सब सुमिरन के माहिं ।
कबीर जानै भक्त जन, सुमिरन सम कछु नाहिं ।।”
‘सुमिरन’ के अंदर ही जप, तप, संयम और सारी साधनाएँ आ जाती हैं। लोग विविध प्रकार से जप करते हैं; जैसे वाचिक, उपांशु, श्वास और मानस; ये जप के चार प्रकार हैं। इन चार प्रकार के अतिरिक्त पाँचवें प्रकार का भी जप होता है, जिसको अजपा जप कहते हैं। ये क्रमशः एक-से-एक विशेष हैं। वाचिक जप से उपांशु जप विशेष है। उपांशु जप से श्वास जप विशेष है और श्वास जप से मानस जप विशेष है। मानस जप सब जपों में श्रेष्ठ है। कुछ लोग श्वास जप को ही ‘अजपा जप’ कहते हैं; किन्तु संतों को यह मान्य नहीं है। वे आंतरिक अनहद नाद को ‘अजपा जप’ कहते हैं। जैसा कि परमहंस लक्ष्मीपतिजी महाराज के वचन से स्पष्ट हो जाता है-
“ अनहद अपने साथ है, अजपा ताको नाम ।
अमल करो अपनाय के, अमर नाम घर ठाम ।।”
और संत कबीर साहब कहते हैं-
“ जाप अजपा हो सहज धुन परख गुरु गम धारिये ।
होत धुनि रसना बिना कर माल बिनु निरवारिये ।।”
“ अजपा सुमिरन घट विषे, दीन्हा सिरजनहार ।
ताही सूँ मन लग रहा, कहै कबीर विचार ।।
जाप मरै अजपा मरै, अनहद हू मरि जाय ।
सुरत समानी शब्द में, ताको काल न खाय ।।”
तप तीन प्रकार के होते हैं-कायिक तप, वाचिक तप और मानसिक तप। इस संदर्भ में भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में इस प्रकार कहा है-
“ देवद्विजगुरुप्राज्ञ पूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।।”
अर्थात् देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा-यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है।
“ अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायभयसनं चैव वाघ्मयं तप उच्यते ।।”
अर्थात् सत्य, प्रिय, हितकारी और उद्वेग पैदा नहीं करनेवाली वाणी बोलना और स्वाध्याय का अभ्यास करना-यह वाणी का तप कहा जाता है।
“ मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहाः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ।।”
अर्थात् मन की प्रसन्नता, शांतभाव, भगवच्चिंतन
करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अंतःकरण के भावों को भली भाँति पवित्रता-इस प्रकार यह मन संबंधी तप कहा जाता है।
“ श्रद्धया परया तप्तं तपस्तस्त्रिविधं नरै ।
अफलाकांक्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ।।”
अर्थात् फल को न चाहनेवाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किये हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक तप कहते हैं।
“ सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम ।।”
अर्थात् जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखंड से किया जाता है, वह अनिश्चित एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है।
“ मूढ ग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ।।”
अर्थात् जो तप मूढ़तापूर्वक, हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।
संयम में इन्द्रियों का संयमन और मन का संयमन, ये सारी बातें सुमिरन के अंदर हो जाती हैं। इन्द्रियों का संयम दृष्टियोग-क्रिया से और मन का संयम नादानुसंधान की क्रिया से होता है। पुनः संत कबीर साहब कहते हैं-
“ सुमिरन सुरत लगाइ कर, मुख ते कछु न बोल ।
बाहर के पट देय कर, अंतर के पट खोल ।।”
जहाँ संत कबीर साहब के वचन में हम पाते हैं-‘बाहर के पट देय कर, अंतर के पट खोल ।’ वहाँ हम अपने परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में पाते हैं-
‘बाहर के पट बंद करो हो, अंतर पट खोलो भाई ।’
उभय संतों की वाणियों में कितना साम्य है, विलक्षण ऐक्य है। ये ‘बाहर के पट’ क्या हैं, जिनको बंद करना है।
संत कबीरसाहब कहते हैं-
“ आँख कान मुख बंद कराओ,
अनहद झिंगा शब्द सुनाओ ।
दोनों तिल एक तार मिलाओ,
तब देखो गुलजारा है ।।”
इसी से मिलती-जुलती बात हम गुरु नानकदेव जी महाराज की वाणी में पाते हैं-
“ तीन बंद लगाय कर, सुन अनहद टंकोर ।
नानक सुन्न समाधि में, नहीं साँझ नहिं भोर ।।”
संत कबीर साहब और गुरु नानकदेवजी की वाणी से हमारे पूज्य गुरुदेव की वाणी में कितना सामंजस्य है, देखिये-
“ तीनों बन्द लगाइ, देखि सुनि धरि ध्वनि धारा ।
चलिय शब्द में खिचत, बजत जो विविध प्रकारा ।।”
“ झिगुर का झनकार, भँवर गुंजार हो ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, घंट शंख शहनाइ ,
आदि ध्वनि धार हो ।।11।।
तारा सह ध्वनि धार, टेम दीपक बरे ।
खुले अजब आकाश, अजब चाँदनी भरे ।।
पूर अचरजी चन्द, सहित ध्वनि कस लगे ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, जानै सोई धीर,
वीर साधन पगे ।।12।।
साधन में पगि जाइ, अतिहि गंभीर हो ।
या तन सुधि नहि रहे, धीर वर वीर सो ।।
साँझ भोर दिन रैन, कछू जानै नहीं ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, बाहर जड़वत् रहै ,
माहि चेतन सही ।।13।।”
यदि जिज्ञासा हो कि संतों ने बाहर के पटों को बंद कर अंतर के पटों को खोलने की आज्ञा दी है। बाहरी पट के तो वर्णन हो चुके, बातें समझ में आ गयीं, किन्तु अंतर के पट कौन-से हैं, उन पटों का अनावरण किस प्रकार किया जाता है तथा उनके खुलने से क्या लाभ होता है? तो इसका उत्तर हमारे परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में सुनिये-
“ घट तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे ।
कर दृष्टि अरु ध्वनि योग साधन, ये हटाना चाहिये ।।
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता ।
फिर द्वैतता नहि कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिये ।।”
अर्थात् अपने अंदर अंधकार, प्रकाश और शब्द; ये त्रयपट हैं। दृष्टियोग और नादानुसंधान द्वारा ये पट खुलते हैं। इन परदों के खुलने से मायिक सभी आवरण हट जाते हैं, प्रभु की प्राप्ति हो जाती है। इतना ही नहीं, द्वैत भाव मिटकर अद्वैतावस्था हो जाती है।
“ साधो सुमिरन भजन करो ।
मन महँ दुविधा आनहु नाहीं, सहजहिं ध्यान धरो ।।
धीरज धरि संसय नहिं राखहु, नाम भरोसे रहो ।
जगजीवन सतगुरु को भेंटो, भवजल पार तरो ।।”
संत जगजीवन साहब कहते हैं-हे साधो, हे साधक! सुमिरन और भजन करो। मन में दुविधा नहीं लाओ और सहज में ही ध्यान करो। यहाँ पर तीन बातें बतायी गयी हैं-सुमिरन, भजन और ध्यान। पहली बात है-सुमिरन यानी जप। हम मानस जप करें। दूसरी बात है-ध्यान यानी स्थूल ध्यान और सूक्ष्म ध्यान अर्थात् मानस ध्यान और दृष्टियोग। यहाँ दोनों प्रकार के ध्यान के लिए संकेत है। तीसरी बात है-भजन यानी नाम- भजन अर्थात् अंतर-नाद की उपासना। नाम-भजन अर्थात् नादानुसंधान। संत कबीर साहब के वचन में आपलोगों ने सुना-‘नाम सुमिरि ले’ यानी नाम का सुमिरन करो। नाम कहते हैं शब्द को और जिस शब्द के द्वारा किसी व्यक्ति या वस्तु की पहचान होती है, वह उसका नाम कहलाता है। जिस शब्द के द्वारा प्रभु की पहचान हो, वह प्रभु का नाम कहलाता है। उस नाम को भी हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं, जिनको हम वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक कह सकते हैं। गुरु नानकदेव जी इसी ओर इंगित करते हैं-
‘हरि जपि नाम धियाय तू, जम डरपै दुखु भाग ।’
वर्णात्मक नाम का जप होता है और ध्वन्यात्मक नाम का ध्यान होता है। जो दोनों तरह के नामों का भजन करते हैं, तो गुरु नानकदेवजी कहते हैं-उनसे यम डरता है और दुःख भाग जाता है। नाम नामी से मिलाता है। सगुण नाम से सगुण भगवान के दर्शन होते हैं; उनकी पहचान होती है। निर्गुण नाम से निर्गुण परमात्मा की पहचान होती है।
संत कबीर साहब की वाणी आपलोगों ने सुनी-‘सुकिरत करि ले, नाम सुमिरि ले, को जानै कल की ।। जगत में खबर नहीं पल की ।।’ इस वचन में उन्होंने नर-तन को नाशवान बताते हुए नाम-भजन करने के लिए कहा है। वस्तुतः मनुष्य-शरीर जितना ही सुंदर है, उतना ही वह क्षणभंगुर भी है। ठिकाना नहीं है, यह शरीर कब छूट जाएगां संत कबीर साहब चेतावनी देते हैं-‘खबर नहिं पल की।’ हम पल गिराते हैं, उतनी देर भी हमारे जीवित रहने की आशा नहीं की जा सकती। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ छन छन पल पल समय सिरावै ।
नर तन दुर्लभ फिर नहिं पावै ।।”
समय क्षण-क्षण, पल-पल बीत रहा है। काल के गाल में हमारा जीवन चला जा रहा है। आयु समाप्त होते चली जा रही है। ठिकाना नहीं, कब जीवन-लीला समाप्त हो जाए।
“ पाव पलक की गम नहिं, करै काल की साज ।
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ।।”
बेचारी तीतर चिड़िया घूमती-फिरती है, दाना चुगती है, मस्त है। बेचारी को क्या पता कि ऊपर बाज मँडरा रहा है? अचानक बाज आता है, झपट्टा मारता है और उसको लेकर चल देता है। इसी प्रकार संसार में हम दाना चुगते हैं यानी नाना भोग भोगते हैं, घूमते-फिरते हैं। पता नहीं, कब काल का झपट्टा लग जाएगा और वह हमें लेकर चला जाएगा। इसलिए संत कबीर साहब शुभ कर्मों को करने के लिए, अच्छे कर्मों को करने के लिए प्रेरणा देते हैं और कहते हैं-‘को जानै कल की।’ कल की कौन जानता है? इसलिए
“ काल करै सो आज कर, आज करै से अब्ब ।
पल में परलै होयगा, बहुरि करैगा कब्ब ।।”
इसलिए हम शीघ्रातिशीघ्र भगवद्भजन करें; जागतिक कार्यों की सँभाल करते हुए शुभ कर्मों को भी करें। अगर इस तरह हम नहीं करते हैं और झूठ बोलते हैं, कपट करते हैं, छल करते हैं, दूसरे को ठगते हैं, बोलते कुछ हैं और करते कुछ और हैं, येन-केन प्रकारेण माया-संग्रह करते हैं, तो परिणाम क्या होगा? हम पाप की गठरी सिर पर लेते हैं। इस गठरी को हलका करनेवाला कोई नहीं है। छल-कपट किसके लिए हम करते हैं, क्यों करते हैं? जरा हम सोचें कि अपने साथ में क्या लेकर हम संसार में आये थे और क्या लेकर जाएँगे? न तो कुछ लेकर हम संसार में आये थे और न कुछ लेकर संसार से जाएँगे। येन-केन-प्रकारेण हम जो कुछ संग्रह करेंगे, सब-के-सब यहीं रह जाएँगे। इसलिए ऐसा नहीं करो।
“ यह मन तो है हस्ती मस्ती, काया मट्टी की ।।
साँस-साँस में नाम सुमिरि ले, अवधि घटै तन की ।।”
यह मन मस्त गजराज के समान है। कब क्या कर डालेगा, कोई ठिकाना नहीं। इसपर अंकुश लगाकर रखो।
संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मन के मते न चालिये, मन के मते अनेक ।
जो मन पर असवार है, सो साधु कोइ एक ।।”
मन जैसा-जैसा कहे, वैसा-वैसा मत करो; सोच-समझकर करो।
“ सोच समझ बंदे मन में, क्या करना क्या करता है ।
गुण के भागी आपुहिं बनता, दोष राम पर धरता है ।।”
मन को सँभालकर रखो। संयमित मन सुखकर होता है। असंयमित मन दुःखकर होता है। सुख और दुःख देनेवाला हमारा मन ही है। हमारा मन ही हमारा शत्रु और हमारा मन ही हमारा मित्र है। अच्छे मार्ग पर लगा हुआ हमारा मन मित्र है और यह इतनी भलाई करता है, जितनी भलाई हमारे माता-पिता या मित्र वा गुरु जन कोई नहीं कर सकते। इसी प्रकार कुमार्ग पर लगा हुआ हमारा मन हमारी इतनी बुराई करता है-कर सकता है, जितनी बुराई हमारे दुश्मन भी नहीं कर सकते। इसलिए इस मन पर अंकुश लगाकर रखना चाहिए।
“ यह मन तो है हस्ती मस्ती, काया मट्टी की ।।
साँस-साँस में नाम सुमिरि ले, अवधि घटै तन की ।।”
यह मन मस्त गजराज है और यह काया मिट्टी की है। कच्ची मिट्टी का घड़ा है, इसमें पानी कब तक टिकेगा? गलते देर नहीं लगेगी, समाप्त हो जाएगी। इसलिए करो क्या? तो वे कहते हैं-‘साँस-साँस में नाम सुमिरि ले,’ श्वास आता है और जाता है। यह जीवन जबतक है, प्रति श्वास में भजन करो।
“ काया अंदर हंसा बोले, खुशियाँ कर दिल की ।
जब यह हंसा निकरी जाएँगे, मिट्टी जंगल की ।।”
जबतक इस काया के अंदर हंसा बोल रहा है, पक्षी बोल रहा है, तबतक इसकी कीमत है। जब यह पक्षी बोलना बंद कर देगा, तब मिट्टी-की-मिट्टी पड़ी रह जाएगी, चाहे कोई कितना ही बड़े-से-बड़ा वैभवशाली व्यक्ति क्यों न हो।
एक लड़की थी। अपने चिकित्सा कराने के लिए भेलोर गयी। वहाँ उसके हृदय का ऑपरेशन हुआ। डॉक्टर ने कोई यंत्र लगा दिया। वह यंत्र धीरे- धीरे आवाज करता था। उस लड़की ने डॉक्टर से कहा, ‘डॉक्टर साहब! भीतर में कुछ बोलता है।’ डॉक्टर साहब ने कहा, ‘जबतक वह बोलता है, तबतक तू बोलेगी। जब यह चुप हो जाएगा, तब तू भी चुप हो जाएगी। जबतक शरीर में प्राण है तबतक इसकी पूछ है। जिस दिन प्राण पखेरू उड़ जाएगा, कोई पूछनेवाला नहीं होगा। अभी जो इसके मालिक बने हुए हैं, उनका आदर होता है, सत्कार होता है, सब तरह की पूछ है। जब इस शरीर से जीव निकल जाएगा, लोग घृणा करने लग जाएँगे। संत सूरदासजी महाराज के शब्दों में -
‘घर के कहत सबेरो काढ़ो, भूत होय घर खइहैं ।’
जो घर का मालिक बना हुआ था, वहीं अब भूत बनकर घर को खाएगा। लोगों की दृष्टि देखिये, जीवित काल में जिस शरीर को छूकर, स्पर्श करके प्रणाम करते थे, अब वही शरीर है; किन्तु मृतक हो गया है। अब क्या होगा? घर में जबतक रहेगा, कोई खाएगा नहीं, कोई पियेगा नहीं, कोई छुएगा नहीं। क्यों? इसलिए कि वह अपवित्र हो गया। उसको यदि कोई छुएगा, तो बिना स्नान किये खाएगा नहीं। क्या हो गया, क्या था उसमें, जिससे पवित्रता थी और क्या निकल गया, जिससे अपवित्रता आ गयी? जबतक हंस है, चेतन है, तबतक पवित्र है और वह निकल गया, तो अपवित्र हो गया।
“ काम क्रोध मद लोभ निवारो, याही बात असल की । ।
ज्ञान बैराग दया मन राखो, कहै कबीरा दिल की ।।”
हमारे अंदर षट् विकार भरे पड़े हैं। इन षट् विकारों के शिकार मत होओ; इनका परिहार करो। ‘काम’ का अर्थ केवल अनंग ही नहीं है, ‘काम’ की बड़ी व्यापकता है। संत कबीर साहब ने इसका इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है-
“ काम काम सब कोइ कहै, काम न चीन्है कोय ।
जेती मन की कल्पना, काम कहावै सोय ।।”
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘कामात् क्रोधोऽभिजायते।’ अर्थात् काम से क्रोध की उत्पत्ति होती है। जबतक कामना पूरी होती रहती है, तबतक क्रोध नहीं आता। जैसे ही कामना में बाधा उत्पन्न हुई, पूरी नहीं हुई, अनुकूलता नहीं हुई, प्रतिकूलता हुई, वैसे क्रोध उत्पन्न हो जाता है। तो कहते हैं-काम से बचो, क्रोध से बचो, लोभ से बचो, अहंकार से बचो। लोग पद पाकर मद में आ जाते हैं। यह भी एक प्रकार का नशा है।
रामचरितमानस में लिखा है-
“ काम क्रोध मद लोभ ये, नाथ नरक कर पंथ ।
सब परिहरि रघुवीर ही, भजहु भजहिं जेहि संत ।।”
संत कबीर साहब ने तो कहा-
“ मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय ।
तन मद मन मद जातिमद, मायामद सब लोय ।।
विद्यामद और गुनहु मद, राजमद्द उन्मद्द ।
इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद्द ।।”
इसलिए हृदय में ज्ञान, वैराग्य और दया को धारण करो। ज्ञान में रहो; अज्ञान से बचकर रहो, हटकर रहो। ज्ञान-सम्मत काम करो; ज्ञान-सम्मत व्यवहार करो। संसार से विराग और प्रभु से अनुराग रखो। अगर संसारासक्ति रही, तो प्रभु-भक्ति नहीं होगी। जब संसार से अनासक्ति होगी, तब प्रभु में अनुरक्ति होगी और तभी शक्ति मिलेगी, जिससे भव-बंधन से मुक्ति मिलेगी। यदि हृदय में दया भाव नहीं है और कोरे ज्ञान बखान करते हो, तो परिणाम क्या होगा? सोचो। कबीर साहब कहते हैं-
“ दया भाव हृदय नहीं, ज्ञान कथे बेहद ।
ते नर नरकहिं जाहिंगे, पढ़ि सुनि साखी शब्द ।।”
इस प्रकार अपनी वाणी द्वारा संत कबीर साहब जागतिक जन को जगत में सुखमय जीवन जीने की कला सिखाते हैं और संसार से जाने के बाद जहाँ जाएँगे, वहाँ सुख से जीवन बीते-वह भी बताते हैं। तात्पर्य यह कि हमलोगों को चाहिए कि इस जग-व्यवहार में दया, क्षमा, संतोष धारण कर सच्चाई का व्यवहार करें और झूठ, कपट, छल-चतुराई आदि दुर्गुणों से दूर रहें। साथ ही अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करें। इस भाँति भगवद्भजन करते हुए हमारा यह लोक भी कल्याणमय होगा और परलोक भी। इतना कहकर अपने प्रवचन में विराम देता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन मास-ध्यान साधना के अवसर पर डिहरी-ऑन-सोन में दिनांक 16-11-1997 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मार्च 1998 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
परमात्मा ने सृष्टि की है। सृष्टि विषमता में होती है़; समता में नहीं। जब रज, सत् और तम; ये तीनों गुण सम रहते हैं, तब सृष्टि नहीं होती। इनमें जब विषमता होती है यानी न्यूनाधिकता होती है, तब सृष्टि होती है। इसलिए सृष्टि सदा एक-सी नहीं रहती, बदलती रहती है। संसार बदलता रहता है। संसार में हमारा शरीर भी एक समान नहीं रहता। बचपन में कैसा था, किशोरावस्था में कैसा हुआ, युवावस्था में कैसा रहता है और बुढ़ापे में कैसा हो जाता है। परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन विनाश की ओर ले जाता है। एक दिन यह शरीर विनष्ट हो जाता है।
किसी चीज को देखिये; जो चीज बनी है, एक-न-एक दिन वह बिगड़ती है। पूर्व काल में बड़े-बड़े राजा महाराज आदि हुए, आज उनका नामोनिशान नहीं है। किसी दिन जो गगनचुंबी अट्टालिका थी, आज उसका खंडहर है। किसी का वह भी नहीं है, मिट्टी बन गया है। वस्तुतः यह संसार परिवर्तनशील और विनाशी है।
संसार में हम देखते हैं कि दिन रहता है, रात भी होती है। सदा रात-ही-रात नहीं रहती, दिन भी होता है। सदा दिन-ही-दिन नहीं रहता, रात भी होती है। जिस तरह सदा दिन-ही-दिन नहीं रहता, उसी तरह सदा रात-ही-रात नहीं रहती। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता है। जिस तरह यह परिवर्तन होता रहता है, उसी तरह सुख और दुःख में भी परिवर्तन होता रहता है। जब हमारे सामने इतिहास आते हैं अथवा पौराणिक कथाएँ आती हैं, तो पता चलता है कि सदा सबका जीवन एक-सा नहीं बीता अथवा किसी एक का भी जीवन एकरस नहीं रहा।
राजा हरिश्चन्द्र बहुत बड़े सत्यवादी थे। सत्यवादी होने के कारण आज भी उनका नाम अमर है। एक रात उन्होंने स्वप्न देखा है कि मेरे यहाँ विश्वामित्र मुनिजी आए हुए हैं और उनको मैंने अपना राज-पाट, धन-दौलत-सब कुछ दान में दे दिया है। नींद टूटने पर दूसरे दिन वे श्रीविश्वामित्र मुनि को प्रत्यक्ष अपने दरबार में देखते हैं। विश्वामित्रजी कहते हैं-‘तुमने अपना राज-पाट, धन-दौलत-सब कुछ मुझे दान दे दिया है। यह धन-दौलत, राज-पाट सब मेरा है।’ राजा हरिश्चन्द्र सत्यवादी थे। उन्होंने मुनिजी की बात सहज स्वीकार करते हुए कहा, ‘महाराज! राज-पाट, धन-दौलत स्वीकार कीजिए।’ विश्वामित्रजी ने कहा, ‘कोई भी दान बिना दक्षिणा के फलीभूत नहीं होता। राजपाट, धन-दौलत तो तुमने दान में दे दी; किन्तु बिना दक्षिणा के दान किस काम का!’ राजा हरिश्चन्द्र ने कहा, ‘ठीक है महाराज! आपकी दक्षिणा खजाने से द्रव्य निकालकर चुका देता हूँ।’ विश्वामित्र मुनि ने कहा, ‘राजपाट, धन-दौलत-सब मेरा हो गया, तो खजाना तुम्हारा कैसे रह गया? सब मेरा है।’ हरिश्चन्द्र कहते हैं, ‘मेरे पास तो अब कुछ भी बाकी नहीं है, जो आपको दक्षिणा के रूप में दे सकूँ।’ विश्वामित्र मुनिजी ने कहा, ‘दक्षिणा-विहीन दान में स्वीकार नहीं करता। तुम अपनी धन-दौलत, राज-पाट सब रखो; मैं चला। इतना कहकर वे चलने लगते हैं।’ बेचारे हरिश्चन्द्र क्या करते! उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, ‘मुनिवर! आप दान स्वीकार करें। मैं अपने शरीर को बेचकर आपकी दक्षिणा चुका दूँगा।’ हरिश्चन्द्र स्वयं, उनकी पत्नी और उसके पुत्र-ये तीनों राजपाट छोड़कर निकल जाते हैं और काशी में जाकर कहते हैं, ‘कोई हमको मोल ले लो।’ लेकिन उनको मोल लेनेवाला वहाँ कोई नहीं। इतने में एक डोम और एक ब्राह्मण वहाँ आते हैं। हरिश्चन्द्र ब्राह्मण के हाथ अपनी पत्नी और पुत्र को बेच देते हैं और स्वयं डोम के हाथ बिककर विश्वामित्र मुनिजी की दक्षिणा चुकाते हैं।
प्रभु की लीला विचित्र है। हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता का परीक्षण हो रहा है कि कहाँ तक ये अपने सत्य धर्म पर दृढ़ रहते हैं। हरिश्चन्द्र की पत्नी को ब्राह्मण ने पूजा के लिए फूल तोड़कर लाने का काम दिया था। हरिश्चन्द्र की पत्नी का नाम शैव्या और पुत्र का नाम रोहिताश्व था। शैव्या ने रोहिताश्व से कहा, ‘बेटा! जाओ, ब्राह्मण पूजा करेंगे, फुलवाड़ी से कुछ फूल तोड़कर ले आओ।’ माता की आज्ञा शिरोधार्य कर रोहिताश्व फूल तोड़ने के लिए फुलवाड़ी जाता है। वहाँ उसको साँप डँस लेता है, वह वहीं मर जाता है। शैव्या रोहिताश्व के आने की प्रतीक्षा करती है। देर होने पर सोचती है कि अभी तक लड़का क्यों नहीं आया? बहुत देर हो रही है। उसकी खोज में वह स्वयं फुलवाड़ी जाती है। वहाँ वह देखती है कि उसका पुत्र मृत होकर पृथ्वी पर पड़ा हुआ है।
विचारणीय विषय है कि जिसका राजपाट, धन-दौलत-सब कुछ चला गया हो, जिसको पति का वियोग हो-पति कहाँ हैं, पता नहीं और पुत्र की मृत्यु हो गयी हो, उस नारी बेचारी की क्या हालत हुई होगी! जिस किसी के साथ घटना घटती है, उसकी मनःस्थिति का पता उसी को चलता है। कहावत है-‘विपत्ति अकेले नहीं आती, साथ में औरों को भी लाती है। विधि के विधान में व्यवधान कौन डाल सकता है! कैसी विडम्बना है! राज्यहीन, पति-वियोग और पुत्र-शोक। विपत्ति पर विपत्ति आती गयी। मानो विपत्ति का पहाड़ ही उसपर टूट पड़ा। बेचारी क्या कर सकती थी? अपने हृदय को पत्थर बना मृत पुत्र को गोद में लेकर श्मशान घाट जाती है उसकी अन्त्येष्टि क्रिया हेतु ।
जिस डोम के हाथ राजा हरिश्चन्द्र बिके थे, उसने उसको काम दिया था कि श्मशानघाट पर तुम जाओ, वहीं तुम रहना, जो मुर्दा जलाने के लिए आवे, उनसे कर (Tax) लेना। बिना कर लिए लाश जलाने नहीं देना। जब शैव्या अपने मृत पुत्र को लेकर श्मशान घाट जाती है, तो देखती है कि उसके पति ही श्मशान घाट की चौकीदारी कर रहे हैं। शैव्या अपने मृत पुत्र की दाह क्रिया वहाँ करना चाहती है। हरिश्चन्द्र कहते हैं, ‘लाश जलाने के लिए कर रूप में पैसे दो।’ शैव्या कहती है, ‘आप मुझे पहचानते नहीं, आप मेरे स्वामी हैं, मैं आपकी पत्नी हूँ और यह आपका मृत पुत्र रोहिताश्व है। आपने ही मुझे रोहिताश्व के साथ बेच दिया था। पुत्र-सहित मेरी बिक्री करके जो पैसे आपको मिले थे, उन्हें आपने विश्वामित्र मुनि को दक्षिणा के रूप में दिया था। मेरे पास अब है ही क्या, जो कर रूप में आपको दूँ। कर के पैसे कहाँ से लाऊँ?’ शैव्या की बातों पर अन्यमनस्क हो हरिश्चन्द्र ध्यान नहीं देते हैं और कहते हैं, ‘मेरे स्वामी का आदेश है कि बिना कर लिये लाश जलाने नहीं देना। इसलिए जबतक कर के पैसे तुम नहीं दोगी, मैं लाश जलाने नहीं दूँगा। यदि तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं, तो कर के रूप में कफन के कपड़े ही दे दो।’ शैव्या कहती है, ‘मेरे पास कफन का कपड़ा भी नहीं है।’ हरिश्चन्द्र कहते हैं, ‘तब तुम यहाँ लाश नहीं जला सकती।’ बेचारी शैव्या क्या करती, कर चुकाने के लिए अपनी साड़ी का आँचल फाड़ती है। जब साड़ी फाड़कर वह हरिश्चन्द्र को देना चाहती है, तो भगवान प्रकट हो जाते हैं और कहते हैं, ‘हरिश्चन्द्र! मैं तुम्हारी सत्य की परीक्षा ले रहा था। तुमने सत्य का पालन करके परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त की।’ भगवान आशीर्वाद देकर रोहिताश्व को जीवित कर देते हैं और कहते हैं, ‘हरिश्चन्द्र! तुम्हारा राजपाट, धन-दौलत, खजाना, सब कुछ सुरक्षित है, जाओ राज्य का सुखोपभोग करो। शरीर छूटने के बाद स्वर्ग-सुख का उपभोग करना।’
यह घटना बताती है कि इतने प्रतापी और सत्यवादी राजा को भी वह दिन देखना पड़ा, जिसकी कल्पना उन्होंने स्वप्न में भी नहीं की होगी। यह तो सत्ययुग की बात हुई, त्रेतायुग की बात सुनिये।
भगवान श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते थे। वे जब इस संसार में नररूप में आये, तो उन्होंने नर-लीला करके दिखलाया कि संसार दुःखालय है। राजा दशरथ भगवान श्रीराम को युवराजपद पर प्रतिष्ठित करना चाहते थे; किन्तु कैकई के कारण उनको सीता और लक्ष्मण-सहित वनगमन करना पड़ा। अयोध्या में राजा दशरथ का मरण होता है और जंगल में लंकापति रावण के द्वारा सीताजी का हरण होता है। रावण श्रीसीताजी को ले जाकर लंका की अशोक वाटिका में रखता है। वहाँ उनका कोई सहायक नहीं है। वे राजकुमारी जनकदुलारी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की प्राणप्यारी थी। पति-वियोग से वे दुःखी थीं। उसपर भी रावण प्रतिदिन उनको विविध भाँति के त्रस दिखलाता था। वहाँ वे अकेली थीं। कहाँ भारत और कहाँ लंका। वहाँ वे रात-दिन रोती-बिलखती हुई जीवन व्यतीत करती थीं। फिर भी अपने पातिव्रत्य धर्म पर दृढ़ रहीं। अंत में भगवान श्रीराम दुष्ट रावण का संहार कर सीताजी का उद्धार करते हैं। पश्चात् वे ही सीताजी भगवान श्रीराम के साथ पुष्पक विमान पर विचरण करती हैं। लंका से अयोध्या आने पर भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक होता है। सीताजी उनकी बायीं ओर विराजती हैं और राज्य-सुखोपभोग करती हैं।
विधि का विधान में व्यवधान कौन डाल सकता? गर्भवती सीताजी का वनवास होता है। वहाँ उनके दुःख और क्रन्दन का क्या ठिकाना? प्रथम बार के वनवास में तो उनके पति और देवर लक्ष्मण साथ थे। इस बार कोई नहीं। वे ही देवर लक्ष्मण उनको घनघोर जंगल में पहुँचाते हैं, जहाँ उनको कोई देखनेवाला नहीं। वहाँ निराश्रिता सीताजी को महर्षि वाल्मीकि अपने आश्रम में आश्रय देते हैं। वहीं लव-कुश का जन्म होता है।
अब द्वापर युग की बात सुनिये। महाराज युधिष्ठिर को भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन होते थे। इतना ही नहीं, भगवान श्रीकृष्ण उनके सतत सत्सहायक भी थे। यदि भगवान श्रीकृष्ण नहीं होते, तो पाण्डव किस रसातल को कब चले गये होते, ठिकाना नहीं। फिर भी उन भगवान की देख-रेख में ही उनका राजपाट, धन-दौलत-सब कुछ छिन गया। यहाँ तक कि युधिष्ठिर महाराज अपनी पत्नी द्रौपदी को भी जुआ में हारकर दर-दर के भिखारी बन गये। वन-वन की उन्होंने खाक छानी। जो इतने बड़े महाराजा थे, जिनके सामने सैकड़ों नौकर-चाकर, दास-दासियाँ, सेवक आदि सेवा में हाथ जोड़े खड़े रहते थे, वे ही महाराजा युधिष्ठिर दूसरे राजा के यहाँ वेश बदलकर बेचारे बनकर जाते हैं और पराधीनता स्वीकार करके रहते हैं। जिस रानी द्रौपदी के पीछे कितनी ही दासियाँ सेवारत रहती थीं, उसी द्रौपदी को राजा विराट के अंतःपुर में दासी बनकर रहना पड़ा। सदा दुःख का समय नहीं रहता। भगवान श्रीकृष्ण की अनुकम्पा से महाराजा युधिष्ठिर को पुनः राज्य मिला और द्रौपदी महारानी हुई।
सत्ययुग, त्रेता, द्वापर की घटना तो अपने सुन ली। कलियुग के लिए तो कहना ही क्या, जिसके राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, उनको निरस्त्र ने परास्त कर दिया और उनका सूर्य अस्त हो गया। भारत की स्वतंत्रता के लिए कितने बड़े-बड़े व्यक्तियों को किस तरह के दुःख उठाने पड़े! स्वतंत्रता मिलने के बाद जब भारत का विभाजन हुआ, उस समय लोगों को कैसे- कैसे दिन देखने पड़े, कहने की आवश्यकता नहीं। जगत का ताण्डव नृत्य देखते हुए मानव-कल्याणार्थ संत सूरदासजी महाराज ने कहा-
“ ताते सेइये यदुराई ।
सम्पति विपति विपति सौं सम्पति, देह धरे को यहै सुभाई ।।
तरुवर फूलै फलै परिहरै, अपने कालहिं पाई ।
सरवर नीर भरै पुनि उमडै़, सूखे खेह उड़ाई ।।
द्वितिय चन्द्र बाढ़त ही बाढ़े, घटत घटत घटि जाई ।
सूरदास सम्पदा आपदा, जिनि कोऊ पतिआई ।।”
संत सूरदासजी महाराज ने अपनी वाणी में उपमान प्रमाण द्वारा इस विषय का प्रतिपादन किया है कि जागतिक जीवन एकरस नहीं रहता, उसमें विषमता आती है। इसलिए जागतिक किसी चीज पर विश्वास नहीं करो कि वह सदा एकरस रहेगी। देखो, जैसे सम्पत्ति आती है, वैसे ही विपत्ति भी आती है। सम्पत्ति सदा रहती नहीं, चली जाती है; वैसे ही विपत्ति भी आती है, सदा रहती नहीं, चली जाती है। इस प्रकार परिवर्तन होता रहता है। जैसे समय पाकर वृक्ष फूलता और फलता है, वह फल-फूल से लदा वृक्ष देखने में बहुत सुन्दर लगता है। उससे दूसरों को उपकार भी होता है; लेकिन फल-फूल से लदा वह सुन्दर वृक्ष सदा एक-सा रहता नहीं; पतझड़ हो जाता है। पहले फूल झड़ जाते हैं, फल रहते हैं; किन्तु पीछे वे फल भी झड़ जाते हैं। समय आता है, नव पल्लव निकलते हैं, फिर फूल लगते हैं और फल भी लगते हैं। इस प्रकार वृक्ष के जीवन में फल-फूल लगते और झड़ते रहते हैं। इसी प्रकार मानव-जीवन में सम्पत्ति और विपत्ति आती-जाती रहती है। इसलिए इसकी चिंता नहीं करो, प्रभु की भक्ति करो। पुनः कहते हैं कि जब श्रावण-भादो के महीने आते हैं, तो छोटी नदी भी जल भरकर उमड़कर इठलाती हुई चलती है। जब वैशाख और जेठ के महीने आते हैं, तो उसी नदी में धूल उड़ने लग जाती है। शुक्ल पक्ष की द्वितीया का चन्द्रमा बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा में पूरा हो जाता है। सारी रात प्रकाशपूर्ण रहती है; लेकिन वह पूर्णमासी का चन्द्रमा सदा नहीं रहता। कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से शनैः शनैः घटना आरंभ होता है और घटते-घटते एक दिन अमावस्या की रात आ जाती है और सारी रात अंधकारमय हो जाती है। इस प्रकार देखा जाता है कि जहाँ पूर्णिमा की रात में सारी रात प्रकाश- ही-प्रकाश रहता है, वहाँ अमावस्या की रात में अंधकार-ही-अंधकार हो जाता है।
इसी भाँति मानव-जीवन में अंधकार और प्रकाश, सुख और दुःख, हानि और लाभ आते-जाते ही रहते हैं। जिस तरह सुख और दुःख आते-जाते रहते हैं, उसी तरह सम्पत्ति और विपत्ति आती-जाती रहती है, इसका विश्वास नहीं करो। सम्पत्ति आने पर विलासी मत बनो और विपत्ति आने पर उदासी मत लाओ। प्रभु-विश्वासी बनकर रहो। जागतिक पद, पैसे, प्रतिष्ठा, वस्तु, व्यक्ति आदि सभी आने-जानेवाले हैं। एक परम प्रभु परमात्मा ही हैं, जो न कभी आता है, न जाता है, सतत एकरस रहता है, उसका भजन करो। उस परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति में दुःख तो होता ही नहीं, सुख-ही-सुख होता है और निरंतर बना रहता है। एक बार मिलने के बाद फिर कभी बिछुड़न नहीं होती। जागतिक जितने संबंध हैं, सब मिलने और बिछुड़नेवाले हैं। जो जुड़ता है, वह टूटता है- जो मिलता है, वह बिछुड़ता है। प्रभु से एक बार मेल हो जाने के बाद फिर कभी बेमेल होने का प्रश्न नहीं उठता। एक बार उनसे योग हो जाने के बाद फिर उनसे कभी वियोग होने की संभावना ही नहीं रहती अर्थात् वियोग होता ही नहीं।
उस प्रभु की भक्ति करने के लिए घर-वार, रोजगार, परिवार, छोड़ने की जरूरत नहीं। घर, वार, रोजगार और परिवार में रहिये और भजन कीजिये। जैसे अपने दैनन्दिन कार्य समय बाँट-बाँटकर करते हैं, उसी तरह दैनन्दिन कार्यों में भगवद्भजन को भी जोड़ दीजिये और समय-समय पर कीजिए। संत चरणदासजी के वचन में आया है-
“ दिन को हरि सुमिरन करो, रैनि जागि कर ध्यान ।
भूख राखि भोजन करो, तजि सोवन को बान ।।
चारि पहर नहिं जगि सकै, आधि रात सूँ जाग ।
ध्यान करो जप हीं करो, भजन करन कूँ लाग ।।
जो नहिं सरधा दोपहर, पिछले पहरे चेत ।
उठ बैठो रटना रटो, प्रभु सूँ लावहु हेत ।।
जागै ना पिछले पहर, करै न गुरु मत जाप ।
मुँह फारे सोवत रहै, ताकूँ लागै पाप ।।”
संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-दिन में काम-धंधे में लगे रहते हुए मन से प्रभु का नाम लेते रहो तथा रात में जगकर ध्यान करो। लेकिन रात में जगकर ध्यान कौन कर सकते हैं? खूब ठूँस-ठूँसकर भोजन करने से पड़े रहने का मन करेगा, इसलिए संत चरणदास जी महाराज कहते हैं-‘भूख राखि भोजन करो’ पुनः उन संत के मन में होता है कि दिन-भर कार्य करने के कारण थके रहने से लोग चार पहर जग नहीं सकेंगे, तब कहते हैं-‘आधी रात सूँ जाग।’ फिर मन में सोचते हैं-आदमी सारा दिन तो जागता ही है और रात का एक पहर खाने-पीने में ही बीत जाता है। फिर एक पहर ही बचता है, उसमें पूरा आराम नहीं ले सकेगा। तो कहते हैं-
‘जो नहिं सरधा दोपहर, पिछले पहरे चेत ।’
संत कितने दयालु होते हैं, वे कहते हैं-चार पहर नहीं जग सको, तो दो पहर जगो। दो पहर भी नहीं जग सकते हो, तो चौथे पहर में जगो। उस चौथे पहर को कहते हैं-ब्रह्ममुहूर्त अर्थात् ब्रह्मचिंतन का समय। इस समय मस्तिष्क शांत रहता है। चतुर्दिक वातावरण शांत रहता है। दिन भर की जो थकावट होती है, वह सो जाने पर दूर हो जाती है। शरीर स्वस्थ एवं हलका मालूम होता है। यदि उस समय शौचादि की आदत हो, तो उनसे निवृत्त होकर कुल्ली कर लो; हाथ-पैर-मुँह धो लो। आँख धो लो। आलस्य छूट जाएगा। उस समय बैठकर गुरु की बतायी विधि से ध्यानाभ्यास करो। प्रभु का नाम लो। प्रभु का स्मरण करो। पहले मानस जप करो, फिर मानस ध्यान करो। तत्पश्चात् सूक्ष्म ध्यान में दृष्टियोग और नादा- नुसंधान करो। जिसको जैसी जानकारी है, उनके अनुकूल करो। इसके पश्चात् संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-
“ जागै ना पिछले पहर, करै न गुरु मत जाप ।
मुँह फारे सोवत रहै, ताकूँ लागै पाप ।।”
ये रात्रि के चौथे पहर जगकर भगवद्भजन करने का आदेश देते हैं। अगर इसमें जाकर भजन नहीं करते हैं, तो पाप लगेगा। पाप का फल दुःखमय होता है। दुःख में कोई जाना व रहना चाहता नहीं। सब-के-सब सुख चाहते हैं। इसलिए चाहिए कि पाप नहीं करें। बैठकर भजन करें। प्रभु-चिंतन करें। हमारे यहाँ वैदिक धर्म में त्रिकाल संध्या है। ब्रह्ममुहूर्त में करें, दिन में स्नान के बाद करें और सायं काल करें। यही त्रिकाल संध्या है। इससे हमारा यह लोक बनेगा और परलोक भी बनेगा। दुनियादारी का काम जीवन-यापन के लिए है, वह भी करना है और शरीर छूटने के बाद भी हमारा जीवन सुखमय हो, इसके लिए भगवद्भजन करना है। इस तरह यह लोक भी बनेगा और परलोक भी बनेगा। दोनों जगह हमारा जीवन सुखमय होगा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन रानेश्वर, दुमका में दिनांक 02-01-1998 ई0 को अपराह्णकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 1998 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
किसी समय भगवान शंकर अपने आसन पर आसीन थे। उसी समय ब्रह्माजी उनके निकट उपनीत हुए। भगवान शंकर ने ब्रह्माजी को आदर के साथ बिठाया और स्वागत-सत्कार के पश्चात् उनसे उनके आगमन का कारण पूछा। ब्रह्माजी ने कहा-हे शंकर! संसार के लोग दैहिक, दैविक और भौतिक; इन त्रितापों से संतप्त होते रहते हैं। इनसे मुक्त होने का सरल उपाय क्या है? भगवान शंकर ने उत्तर दिया-
“ योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।।”
हे ब्रह्मा! योगहीन ज्ञान मोक्षप्रद भला कैसे हो सकता है? उसी तरह ज्ञानरहित योग भी मोक्ष-कार्य में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए मुमुक्षु को ज्ञान और योग; दोनों का अभ्यास दृढ़ता के साथ करना चाहिए।
भगवान बुद्ध से भी किसी ने इस संबंध में पूछा था, तो उन्होंने भी यही उत्तर दिया-
“ नत्थि झानं अपञ्ञस्स पञ्ञा नत्थि अझायतो ।
यम्हि झानं च पञ्ञा च स वे निब्बान सन्तिके ।।”
ज्ञान के बिना ध्यान नहीं, ध्यान के बिना ज्ञान नहीं। जो ज्ञान और ध्यान दोनों रखते हैं, निर्वाण के समीप हैं।
किसी ने गोस्वामी तुलसीदासजी से पूछा कि इस विषय में आपका क्या विचार है? वे कहते हैं-
“ जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू ।
जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ।।”
अर्थात् वह योग कुयोग है और ज्ञान अज्ञान है, जहाँ राम के प्रेम की प्रधानता नहीं है। योग भी चाहिए, ज्ञान भी चाहिए और राम में प्रेम की प्रधानता भी चाहिए। इसलिए ज्ञान, योग और भक्ति; इन तीनों की आवश्यकता है। इन तीनों में से किसी एक को हटा दीजिए तो पूर्णता नहीं आएगी। जैसे एक पक्षी के पर, पूँछ और पग; ये तीनों चीजें होती हैं, तब वह आकाश में उड़ सकता है। इन तीनों में से किसी एक को हटा दीजिए तो वह पक्षी आकाश में उड़ नहीं सकता।
जिस तरह इस भौतिक जगत में एक पक्षी को उड़ने के लिए इन तीनों चीजों की आवश्यकता है, उसी तरह अध्यात्म-जगत में गमन करने के लिए ज्ञान, योग और भक्ति; ये तीनों अनिवार्य हैं। इन तीनों में से किसी की कमी होने से वह आगे नहीं बढ़ सकता। हलवा बनाते समय उसमें आटा, चीनी और घी डालते हैं। इन तीनों में से किसी की भी कमी होने से हलवा ठीक नहीं बनेगा। तीनों की मात्र भी निश्चित होती है, तभी हलवा अच्छा बनता है। अवश्य ही किसी को मीठा अधिक पसंद है, तो वह चीनी की मात्र बढ़ा देता है। किसी को कम मीठा पसंद है, तो वह चीनी की मात्र घटा देता है, लेकिन चाहिए ये तीनों ही। उसी तरह से ज्ञान, योग और भक्ति; ये तीनों आवश्यक हैं। अवश्य ही कोई ज्ञान की प्रधानता देते हैं, कोई योग की प्रधानता देते हैं और कोई भक्ति की प्रधानता देते हैं।
आचार्य विनोवा भावेजी के लिए कहा जाता है कि उनके दादाजी को मिठाई खाने का बड़ा शौक था। भावेजी की दादीजी उनको मिठाई बनाकर दिया करती थीं। जब-जब वे मिठाई बनाकर देती थीं, उनके दादाजी कहा करते थे-‘मिठाई तो अच्छी बनी है, लेकिन थोड़ी चीनी की मात्र बढ़ा देती, तो अच्छा रहता।’ उनकी दादीजी चीनी की मात्र और बढ़ा देतीं। दूसरे दिन जब भावेजी के दादाजी पुनः मिठाई खाते तो पुनः कहते-‘हाँ, कल से तो मिठाई आज अच्छी बनी है, लेकिन थोड़ी चीनी की मात्र और बढ़ा दो, तो और अच्छा लगेगा।’ इस पर उनकी दादीजी चीनी की मात्र और बढ़ा देतीं। इस तरह ये जितनी चीनी की मात्र बढ़ाती जातीं, हर बार वे कहते-‘चीनी की मात्र कुछ बढ़़ा देती तो और अच्छा रहता।’ एक दिन उनकी दादीजी ने मात्र चीनी की ही मिठाई बनाकर उनको खाने के लिए दिया। उस दिन जब उन्होंने मिठाई खाई, तो कहा-‘सब दिन से आज की मिठाई अच्छी बनी है, लेकिन फिर भी तुमने थोड़ी-सी कंजूसी की है। थोड़ी और चीनी मिला देती, तो क्या होता!’ तब भावेजी की दादीजी ने कहा-‘आज तो सारी मिठाई सिर्फ चीनी-ही-चीनी की बनी है, अन्न तो इसमें है ही नहीं, अब इसमें और चीनी कैसे मिलाऊँ? आप कहते हैं कि मैंने कंजूसी की है!’
तात्पर्य यह है कि किसी को अधिक मीठा पसंद होता है तो किसी को कम मीठा अच्छा लगता है। उसी तरह कोई योग पर जोर देते हैं, कोई ज्ञान पर जोर देते हैं और कोई भक्ति पर जोर देते हैं, लेकिन तीनों का सामंजस्य चाहिए। ज्ञान कहते हैं जानने को। जबतक हम जानेंगे नहीं, तो करेंगे क्या? हमें कुछ करना है, तो बिना जाने कैसे करेंगे? हमको चलना है, लेकिन रास्ता मालूम नहीं कि किधर जाना है, कहाँ जाना है, तो कैसे जाएँगे? इसलिए आरंभ में कुछ ज्ञान का होना आवश्यक है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
“ जाने बिनु न होइ परतीती ।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ।।
प्रीति बिना नहीं भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेस जल कै चिकनाई ।।”
जबतक हम किन्हीं को जानते नहीं हैं, तबतक हम उनका सत्कार नहीं करते। कोई व्यक्ति किस श्रेणी के हैं, जबतक हमारे अन्दर यह ज्ञान नहीं आएगा, जानकारी नहीं आएगी, तबतक हम उस श्रेणी का सत्कार नहीं कर सकते हैं। जब हम जान लेते हैं कि ये अच्छे हैं, तब हमारा उनपर विश्वास हो जाता है। जिनपर हमारा विश्वास नहीं होगा, तो उनसे हमारा प्रेम नहीं होगा और बिना प्रेम की जो भक्ति होती है, सेवा होती है, वह उसी तरह की होती है, जिस तरह जल की चिकनाई अर्थात् वह टिकाऊ नहीं होती है। तेल-घी की चिकनाई तो टिकती है, लेकिन पानी की चिकनाई लगाकर देखिए, पानी सूख गया, तो चिकनाई खतम।
इसलिए जब कोई अध्यात्म-पथ पर पथिक बनकर गमन करना चाहते हैं, तो उन्हें चाहिए की पहले कुछ जानें। वह जानना क्या है? हमें ईश्वर को पाना है, उनकी भक्ति करनी है, उनके पास चलना है, इसलिए पहले हम ईश्वर के स्वरूप के संबंध में जानकारी प्राप्त करें। यह है ज्ञान। पहले होता है परोक्ष ज्ञान, उसके बाद होता है अपरोक्ष ज्ञान। ज्ञान को चार भागों में विभक्त किया गया है-
1- श्रवण ज्ञान, 2- मनन ज्ञान, 3- निदिध्यासन ज्ञान और 4- अनुभव ज्ञान। श्रवण ज्ञान उस ज्ञान को कहते हैं, जो ज्ञान सुनकर या पढ़कर होता है। जो सुना है या जो अध्ययन किया है, उसपर जब हम मनन करने लगते हैं कि वह बात कैसी थी, सही थी या गलत थी, मेरे हित की थी या अहित की, तो वह मनन ज्ञान कहलाता है। जब विचार करके या मनन करके हम निर्णय कर लेते हैं और उसपर चलने लगते हैं या अभ्यास करने लगते हैं, तो वह निदिध्यासन ज्ञान कहलाता है। चलते-चलते जब रास्ता तय हो जाता है, तब जो ज्ञान होता है, वह अनुभव ज्ञान कहलाता है।
श्रवण ज्ञान को सामान्य अग्नि के समान, मनन ज्ञान को बिजली के समान, निदिध्यासन ज्ञान को बड़वानल के समान और अनुभव ज्ञान को महाप्रलय की अग्नि के समान कहा गया है। हमने जो सुना या हमने जो अध्ययन किया, वह सामान्य ज्ञान सामान्य अग्नि के समान है। सामान्य अग्नि थोड़ी-सी वर्षा हुई कि बुझ जाएगी। इसी तरह जो थोड़ा सुना, समझा या पढ़ा है, अगर उसी बात को कोई दूसरी तरह से समझा देता है, तो वह अपनी बात को भूल जाता है और दूसरे की बात को पकड़ लेता है कि यही बात ठीक है, लेकिन जब हम मनन करने लग जाते हैं कि अमुक जगह मैंने यह बात सुनी थी या अमुक पुस्तक में मैंने यह बात पढ़ी थी, तो उस ज्ञान में थोड़ी दृढ़ता आती है। लेकिन वह दृढ़ता कैसी होती है? वह बिजली के समान होती है; क्योंकि सामान्य अग्नि को तो सामान्य वर्षा-जल बुझा देता है, लेकिन बिजली सामान्य वर्षा-जल से नहीं बुझती, बल्कि उसपर पानी असर नहीं करता है, लेकिन वह बिजली अधिक देर तक नहीं टिकती है। सामान्य अग्नि से बिजली विशेष है, तेज है, लेकिन टिकाऊ नहीं है। उसी तरह हमारा मनन ज्ञान भी टिकाऊ नहीं होता, बल्कि कुछ समय तक रहकर फिर परिवर्तित हो जाता है।
एक जगह द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि सब वादों का सम्मेलन हुआ। सभी मतों के विद्वान लोग वहाँ एकत्र हुए और सबने अपने-अपने प्रवचन दिए। सबों के प्रवचन में से दो के प्रवचन बड़े प्रभावशाली रहे-एक अद्वैतवादी का, दूसरा द्वैतवादी का। इनके प्रवचनों से लोग बड़े प्रभावित हुए। लोग ही प्रभावित नहीं हुए, बल्कि ये दोनों भी एक-दूसरे से प्रभावित हो गए। अद्वैतवादी ने जो अद्वैतवाद की स्थापना की, उससे द्वैतवादी प्रभावित हो गया कि हाँ, अद्वैतवाद ही ठीक है और द्वैतवादी ने जो द्वैतवाद का प्रतिपादन किया, तो अद्वैतवादी के मन में हो गया कि द्वैतवाद ही ठीक है। फलतः जो अद्वैतवादी था, वह द्वैतवादी बन गया और जो द्वैतवादी था, वह अद्वैतवादी बन गया। तो यह श्रवण और मनन ज्ञान का परिणाम है। इसमें परिवर्त्तन होता रहता है, लेकिन निदिध्यासन ज्ञान इनसे विशेष है। जैसा हमने सुना-समझा, उसके अनुकूल हम अभ्यास करने लग गए। जैसे-हमने किताब में पढ़ा कि ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैसें हैं। दोनों की निश्चित मात्र मिलाई जाए, तो जल हो जाएगा। पढ़कर हमने चिन्तन किया और अब हम प्रयोगशाला में गए। वहाँ हमने पहचाना कि यह ऑक्सीजन है और यह हाइड्रोजन है। अब दोनों को हम मिलाने लग गए। जिस समय तक हम मिलाते हैं, उस समय तक अभ्यास चल रहा है अर्थात् उस समय निदिध्यासन ज्ञान हो रहा है। जब मिला दिया और जल बन गया, तो प्रत्यक्ष ज्ञान हो गया कि दोनों को मिलाने से जल होता है। यही है अनुभव ज्ञान। उसी तरह से ईश्वर के संबंध में पहले हमने सुना-समझा, फिर उसे पाने के लिए हम अग्रसर हुए। चलते-चलते जिस दिन प्रभु की प्रत्यक्षता हो जाएगी, उस दिन अनुभव ज्ञान हो जाएगा।
अभ्यास के समय जो ज्ञान है, वह बड़वानल के समान है। बड़वानल समुद्र के जल को वाष्प बनाकर उसे मर्यादित रखता है, लेकिन समस्त जल को शोषित कर ले, बड़वानल में वह क्षमता नहीं है। जिस तरह बड़वानल समुद्र को मर्यादित रखता है, उसी तरह साधनारत साधक संसार में मर्यादित ढंग से रहता है और साधना करके जब वह परिपक्व हो जाता है, साधक से संत बन जाता है, तब उसका अनुभव ज्ञान द्वैत-प्रपंच को जलानेवाली महाप्रलय की अग्नि के समान हो जाता है, जो परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करा देता है। यह है अनुभव ज्ञान की महिमा।
संत सुन्दरदासजी महाराज ने बड़ी अच्छी उपमा दी है कि ये चारो ज्ञान किस तरह के हैं-
“ भोजन की बात सुनि, मन में मुदित भयो ।
मुख में परे जौं लौं, मेलिये न ग्रास है ।।
सकल सामग्री आनि, पाक कूँ करन लागो ।
मनन करत कब, जिमहुँ ये आस है ।।
पाक जब भयो तब, है भोजन करन बैठो ।
मुख में मेलत जाइ, सोई निदिधयास है ।।
भोजन पूरन करि, तृपत भयो है जब ।
सुन्दर साक्षातकार, अनुभव प्रकास है ।।”
अर्थात् हम सुनते हैं कि भोजन करने से तृप्ति होती है, शरीर में बल होता है, पर यदि हम भूखे हैं तो सुनने से ही हमारी भूख मिट गई, ऐसी बात नहीं है। कबीर साहब ने कहा-
‘बातों के पकवान से, धापा नाहीं होय ।’
रसगुल्ला, पूड़ी, भात-दाल, मेवा-मिष्ठान्न इत्यादि कितना भी कहिए, पेट नहीं भरेगा और न ही स्वाद मिलेगा। यह है श्रवण ज्ञान। चावल, दाल, सब्जी, मसाला, घी आदि सब ले आए; अब रसोई बनाने लग गए। अब जो रसोई बनाने लग गए तब मनन करने लगते हैं कि कब रसोई बनेगी, तो हम खाएँगे। अभी भी सामग्री ही है, मुख में दिया ही नहीं है, स्वाद नहीं मिला है, पर उसके बारे में सोचते हैं। यह है मनन ज्ञान। अब जब रसोई बनकर तैयार हो गई और भूखे तो थे ही, हम खाने लग गए, तो पता चल गया कि भोजन करने से कैसा होता है। यह है निदिध्यासन। दो-चार कौर खाया, तो पता चल गया स्वाद कैसा है-सब्जी का स्वाद कैसा, मिठाई का स्वाद कैसा और नमकीन का स्वाद कैसा होता है। जब स्वाद मालूम पड़ने लग गया, तो थोड़ा-थोड़ा अनुभव भी होने लगा। अब जब खाते-खाते सम्पूर्ण पेट भर गया, तब कहते हैं कि पूर्णता हो गई, अब खाने को कुछ नहीं चाहिए। उसी तरह जब साधना करने लगते हैं, तो साधना में अनुभूतियाँ आरम्भ होती हैं। साधना करते-करते जब सुनिष्पन्न हो जाते हैं, तो हम पूर्ण हो जाते हैं। जिस तरह पूर्ण भोजन करने से भूखे व्यक्ति को शरीर में पूरा बल मिल जाता है, पूरी तृप्ति मिल जाती है, तुष्टि हो जाती है, उसी तरह साधक जब साधना में परिपक्व हो जाता है, तो वह आत्मबल से सुसम्पन्न हो जाता है, तृप्ति मिल जाती है। तुष्टि हो जाती है, शान्ति मिल जाती है। उन्हीं शान्ति-प्राप्त पुरुष को, जिन्होंने परम प्रभु परमात्मा का प्रत्यक्षीकरण कर लिया है, संत कहते हैं। वैसे तो भगवा वस्त्रधारी जितने होते हैं, उन्हें हम कहते हैं-‘संतजी प्रणाम।’ संतजी कहकर प्रणाम कर लेते हैं, यह बात दूसरी है, लेकिन भगवा वस्त्र पहनने से ही संत नहीं हो जाते, जिन्होंने अनुभव ज्ञान प्राप्त कर लिया, वास्तव में वे संत होते हैं। महोपनिषद् में आया है-
“ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।”
उस परे-से-परे (परमात्मा) को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि (गाँठ-गिरह) खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
जिनके हृदय की ग्रन्थि विच्छिन्न हो गई है अर्थात् जड़-चेतन की ग्रन्थि अलग-अलग हो गई है, वे ही संत हैं। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने लिखा-
“ जड़ चेतनहि ग्रन्थि पड़ि गई ।
जदपि मृषा छूटत कठिनई ।।”
जिनकी जड़-चेतन की ग्रन्थि खुल जाती है, उनके सभी संशय विनष्ट हो जाते हैं। उनका कर्म उनके लिए बंधन नहीं रह जाता है और उनकी दृष्टि परे-से-परे तक अर्थात् परमात्मा तक पहुँच जाती है, ऐसे महापुरुष ही संत कहलाते हैं। जबतक इस पद को कोई प्राप्त नहीं कर ले, तबतक वे भले ही साधु, महात्मा, योगी आदि कहला सकते हैं, लेकिन संत नहीं कहला सकते। संत कहलाने का अधिकारी तभी होगा, जब वह परम प्रभु परमात्मा का साक्षात्कार कर ले। यह है अनुभव ज्ञान। जब अनुभव ज्ञान हो जाता है, तब ज्ञान की पराकाष्ठा हो जाती है। योग के आठ अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। यम के भी पाँच भाग हैं और नियम के भी पाँच भाग हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह-ये हैं यम। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान-ये नियम हैं।
सबसे पहली बात है सत्य। कैसा सत्य? मन, वचन और कर्म से सत्य का आचरण होना चाहिए। मन में कुछ और मुख में कुछ, यह सत्य नहीं है। सत्य के बाहर और भीतर में एकता होती है।
“ साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हृदय साँच है, ताके हृदय आप ।।”
यह सत्य सर्वोत्कृष्ट धर्म है। जो आदमी सच्चा है, उसपर सभी विश्वास करते हैं और जो कोई अपनी बात बदलते रहते हैं, वे झूठे कहलाते हैं, उसपर कोई विश्वास नहीं करते। नानक साहब ने कहा है-साचे सचिआर विटहु कुरबाणु। परमात्मा ही सत्य है, उसपर अपने को न्योछावर करो। कबीर साहब का वचन है-
“ साँचे स्त्राप न लागई, साँचे काल न खाय ।
साँचे को साँचा मिलै, साँचे माहिं समाय ।।”
अगर कोई साँचा है और उसे कोई शाप भी देता है, तो वह शाप उसे नहीं लगता। साँचे को काल भी नहीं खा सकता है। हमारे गुरुदेव के वचन में भी आया है-
‘सत् वरत में दृढ़ आप हो कोई शाप क्या करै ।’
अगर कोई सत्यव्रती है तो शाप भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
अर्जुन इन्द्रलोक गया हुआ था। वहाँ देवगण बैठे हुए थे और उर्वशी नृत्य कर रही थी। सब लोगों के साथ अर्जुन भी देख रहा था। अर्जुन इन्द्रपुत्र होने के कारण देवगुणों से सम्पन्न था। इन्द्र ने कई बार इन्द्रलोक में अर्जुन की प्रशंसा की थी। उर्वशी ने भी अर्जुन की प्रशंसा सुन रखी थी। संयोगवश जब उर्वशी को मालूम हुआ कि अर्जुन यमलोक से यहाँ आए हुए हैं, तो वह उसकी ओर आकृष्ट हो गई। नृत्य समाप्त हुआ। सभी लोग अपने-अपने विश्रामालय में जाकर सो गए। तब उर्वशी अर्जुन के कमरे में गई। अर्जुन ने जब नूपुर की आवाज सुनी, तो पूछा-‘कौन?’ उर्वशी ने कहा-‘मैं हूँ उर्वशी।’ अर्जुन ने पूछा-‘इस समय तुम्हारे यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?’ उर्वशी अपने मन की व्यथा कहने लगी-‘मैंने तुम्हारे गुणों को सुन रखा है। मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे समान ही मेरे गुणवान पुत्र हों। इसलिए मैं तुम्हारे पास आई हूँ।’ अर्जुन ने कहा-क्या यह संभव हो सकता है? फिर ऐसा देखा जाता है-
“ होय भलो को पूत बुरो, भलो बुरो ते होय ।
दीपक ते काजल परे, कमल कीच ते होय ।।”
ऐसा देखा जाता है कि अच्छे व्यक्ति के पुत्र भी बुरे हो जाते हैं और बुरे व्यक्ति के भी अच्छे पुत्र हो जाते हैं। पुलस्त्य ऋषि थे और विश्वश्रवा मुनि थे। इनके वंश में उत्पन्न हुआ रावण-राक्षस हो गया। अच्छे परिवार में जन्म लेने के बाद भी अपनी बुद्धि, अपने चरित्र और अपने कर्म के कारण रावण राक्षस हो गया। हिरण्यकश्यप राक्षस था और उसका लड़का प्रीांद भक्त हो गया। दीपक से सभी ओर प्रकाश फैलता है, लेकिन उससे काजल ही निकलता है और कमल जैसा सुन्दर फूल कीचड़ से उत्पन्न होता है। तो तुम जो चाहती हो कि मेरे समान पुत्र हो, तो भला मेरे समान कैसे हो सकता है? कभी-कभी ऐसा भी होता है कि न लड़का पैदा होता है, न लड़की; तब भी तुम्हारी कामना पूरी नहीं होगी। अगर कहीं तेरे-मेरे संयोग से लड़की हो, लड़का नहीं हो, तब भी तेरी कामना पूरी नहीं होगी। अगर तुम चाहती हो कि मेरे समान ही पुत्र हो, तो आज से मैं ही तुम्हारा पुत्र हुआ, तुम मेरी माँ। उर्वशी की मनसा कुछ और ही थी। उसने शाप दे दिया कि पुरुष होकर भी तुमने मेरी वासना पूरी नहीं की, इसलिए मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि एक वर्ष तक तुम नपुंसक बने रहोगे। उर्वशी ने तो शाप दे दिया, लेिकन वह शाप न होकर आशीर्वाद हो गया। अगर अर्जुन नपुंसक नहीं होता, तो एक वर्ष तक अज्ञातवास के समय राजा विराट के यहाँ नपुंसक बनकर जो रह रहा था, वह नहीं रह सकता।
इसलिए सबसे पहली चीज है-सत्य को ग्रहण करना। हमारा धर्मशास्त्र कहता है-
‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।’
सत्य ही बोलो, लेकिन वह सत्य प्रिय भी हो। कबीर साहब ने कहा-
‘साधु ऐसा चाहिए साँची कहे बनाय ।’
हमारे गुरुदेव कहते हैं-
‘सत्य सुहाता वचन कहिए, चोरी तजि दीजै ।’
हमारा वचन सत्य हो, लेकिन कटु हो, तो यह ठीक नहीं है। सत्य हो और प्रिय हो।
दो साधु दोपहर के समय साथ-साथ कहीं जा रहे थे। दोनों को प्यास लगी। वे पेड़ के नीचे बैठ गए। एक ने कहा-‘हम यहीं बैठते हैं, तुम पानी पीकर आओ।’ वह समीप ही एक कुएँ के पास गया। उसने देखा कि एक माताजी कुएँ से पानी भर रही है। उसने कहा-‘माताजी! प्यास लगी है, जल पिला दीजिए।’ माई ने उसे जल पिला दिया। जल पीकर वह आ गया। अब दूसरा साधु जल पीने गया। वह वहाँ जाकर उसी माई से कहा-‘बाप की बीबी, पानी पिलाओ।’ इतना सुनना था कि जिस रस्सी से वह पानी भर रही थी, उसने उसी से पीटना शुरू कर दिया और कहा-‘तुमको बात करने का सहूर ही नहीं है। तुम्हें पानी नहीं, पिटाई मिलेगी।’ अरे, बाप की बीबी तो माँ होती ही है, पर वाणी में शिष्टाचार होना चाहिए, प्रियता होनी चाहिए। एक ने ‘माताजी’ कहा, तो पानी पीकर आ गया और दूसरे ने ‘बाप की बीबी’ कहा, तो पानी की जगह मार खाकर आ गया। बात तो सत्य है, लेकिन कहने-कहने में भेद है।
हमें जीवन के हर क्षेत्र में सत्य को ग्रहण करना चाहिए। वस्तुतः सत्य तत्त्व परमात्मा है और उसका अंश जीवात्मा भी सत्य है। सत्य का पालन करने से ही सत्य-स्वरूप सर्वेश्वर का साक्षात्कार हो सकता है। असत्य का व्यवहार करके कोई सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता है।
‘अहिंसा’ पातंजल अष्टांग-योग के अन्तर्गत यम का दूसरा अंग है। मन, वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देना अहिंसा है। जो अहिंसा में प्रतिष्ठित होते हैं, उनका साथ पाकर हिंसक जानवर भी हिंसा छोड़ देता है। बंगाल में एक संत हुए चैतन्य महाप्रभु। वे हरि-कीर्तन करते हुए मग्न होकर चलते थे। जिस जंगल से होकर वे गुजरते थे, उस जंगल के बाघ-भालू भी उनके कीर्तन सुनते हुए पीछे-पीछे चलने लगते थे। जो अहिंसा में प्रतिष्ठित रहते हैं, उनके वैर-भाव मिट जाते हैं।
एक समय भगवान बुद्ध को गर्म पानी की आवश्यकता पड़ी। उन्होंने अपने किसी शिष्य से गर्म पानी लाने के लिए कहा। शिष्य चौके में चूल्हा जलाकर गर्म पानी करने गया, तो देखा कि चूल्हे में ही साँप बैठा हुआ है। उसने भगवान बुद्ध से जाकर कहा-‘भगवन्! चूल्हा जलावें तो कैसे? उसमें तो साँप बैठा हुआ है।’ भगवान बुद्ध ने जाकर साँप को देखा और हाथ से उठाकर उसको अलग कर दिया। साँप निश्चेष्ट पड़ा रहा, भगवान का कुछ अहित नहीं किया। क्यों? इसलिए कि वे अहिंसा में प्रतिष्ठित थे। ‘अहिंसा परमो धर्मः’-अहिंसा परम धर्म है।
झारखंड में गोड्डा नामक एक जिला है। वहाँ संतमत के बहुत-से अनुयायी हैं। एक सत्संगी परिवार में दो लड़कियाँ थीं। वे घर के पीछे छोटी-सी झोपड़ी बनाकर उसे साफ-सुथरा करके वहीं बैठकर साधना करती थीं। एक दिन दोनों बैठकर ध्यान कर रही थीं। उसी समय एक के शरीर पर ऊपर से साँप गिरा और धीरे-धीरे दूर चला गया। उसने कोई परवाह नहीं की। दूसरा साँप भी गिरा, पर वह उसी तरह साधना करती रही। फिर तीसरा, चौथा-क्रम-क्रम से उसके ऊपर सात साँप गिरे, फिर भी वह लड़की प्रेम से ध्यान करती रही। साँप ने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा। जब व्यक्ति अहिंसक होकर ध्यान में प्रतिष्ठित होता है, तो हिंसक जीव-जन्तु भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ता।
भगवान बुद्ध कहीं जा रहे थे। उन दिनों बहुत हिंसा होती थीं। लोग यज्ञ के नाम पर बहुत बलिदान किया करते थे। एक गड़ेरिया कई भेड़ों को कहीं ले जा रहा था। एक भेड़ा लँगड़ाता हुआ चल रहा था। भगवान बुद्ध ने गड़ेरिये से पूछा-‘कहाँ जा रहे हो?’ गडे़रिया बोला-‘राजा यज्ञ कर रहे हैं, उसी में भेड़ों का बलिदान दिया जाएगा, वहीं जा रहा हूँ।’ जो लँगड़ा भेड़ा था, उस बेचारे से नहीं चला जा रहा था। उसे देखकर भगवान बुद्ध ने उसे अपने कंधे पर ले लिया और फिर गड़ेरिये से पूछा-‘क्या राजा इतने भेड़ों का बलिदान करेंगे?’ गड़ेरिया ने कहा-‘हाँ।’ भगवान बुद्ध ने कहा-‘चलो, मैं भी राजा के पास चलता हूँ।’ कंधे पर भेड़ा को लेकर वे राजा के यहाँ पहुँचे। गड़ेरिया भी सभी भेड़ों के साथ वहाँ पहुँच गया। राजा भगवान बुद्ध के दिव्य चेहरे और भव्य रूप को देखने लगा। फिर उसने उनके कंधे पर भेड़ा को देखकर उनसे पूछा-‘यह क्या है?’ भगवान तपस्वी तो थे ही, राजपुत्र होने के कारण राजनीति में भी निपुण थे। उन्होंने कहा-‘इतने भेड़ों का तुम बलिदान करोगे! क्या एक जीव बचाने की शक्ति तुममें है? तुमने अबतक न जाने कितने जीवों की हत्या की है। अब कितना पाप बटोरना चाहते हो? यह भेड़ा बेचारा लँगड़ा है, चल भी नहीं पा रहा है। देखो, मैं इसे कंधे पर उठाकर लाया हूँ। अब तुम पापों को छोड़ो।’ भगवान बुद्ध के वचनों का राजा पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसी दिन से उसने बलिदान करना छोड़ दिया।
जो अहिंसक हो जाता है, उसके वचन का लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ता है।
अस्तेय का अर्थ है-चोरी नहीं करना। प्रभु ने हमें जो दिया है, हम उसी में संतोष करें। दूसरे की चीज बिना पूछे नहीं लें। चोरी तन से होती है, मन से होती है और वचन से भी होती है। तीनों प्रकार की चोरी से हमें बचना चाहिए।
ब्रह्मचर्य-पालन की भी बड़ी महिमा है। आप कहेंगे कि गृहस्थ आश्रम में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन कैसे कर सकते हैं? जो साधु-संन्यासी होंगे, वे ही ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते हैं, ऐसी बात नहीं। गृहस्थ भी ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते हैं। एक होता है खण्ड ब्रह्मचारी और दूसरा होता है अखण्ड ब्रह्मचारी। जिसका शुक्र कहीं भी, किसी भी प्रकार से क्षय नहीं हुआ है, वह है अखण्ड ब्रह्मचारी और मात्र संतान उत्पत्ति-निमित्त जिसका शुक्र क्षय होता है, उसके अतिरिक्त नहीं, वह है खण्ड ब्रह्मचारी। इस तरह जो संयम रखते हुए एक पत्नीव्रत धर्म का पालन करते हैं, वे भी ब्रह्मचर्य-पालन करते हैं। ये हैं पाँच यम।
नियम भी पाँच हैं-शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान। शौच का अर्थ है-शुच्याचार= शुचि+आचार। हमारा तन, मन और आचरण पवित्र होना चाहिए। इसके अन्तर्गत छोटी-छोटी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए। हम शौच जाते हैं, तो हाथ को धोए बिना ही शरीर और कपड़े का स्पर्श करते हैं। हाथ धोए बिना ही मंजन करने लगते हैं। यह शुच्याचार नहीं है। शौच जाकर जबतक हाथ धोएँ नहीं, और काम नहीं करें। लोग घर की सफाई करते हैं और कचरे को घर के अगल-बगल या सड़क पर डाल देते हैं, यह भी ठीक नहीं है। हमें तन, मन और वचन; सभी तरह से पवित्र होना चाहिए, लेकिन हमारी पवित्रता वास्तविक रूप में होनी चाहिए, न कि दिखावट के लिए।
एक पंडितजी थे। वे किसी दूसरे की बनाई हुई रसोई नहीं खाते थे, स्वपाकी थे। भोजन की सारी चीजें एकत्रित कर लेते थे, तब चौका लगाते थे। उसमें दूसरा कोई व्यक्ति नहीं जा सकता था। वे दाहिने हाथ से ही रसोई बनाते थे। रसोई बनाते समय बाएँ हाथ को चौके से बाहर रखते थे। एक बार संयोग से एक यजमान के यहाँ पहुँच गए। यजमान ने चौका लगा दिया और जितनी सामग्री थी, सब लाकर उनके पास रख दी। वे रसोई बनाने लग गए। उन्होंने अपना बायाँ हाथ चौका से बाहर निकाल रखा था। केवल दाहिने हाथ से ही सब चीजों को उलट-पुलट कर रहे थे। उस यजमान ने पूछा-‘पंडितजी! आप एक ही हाथ से काम कर रहे हैं और बाएँ हाथ को बाहर रखे हुए हैं। ऐसा क्यों?’ पंडितजी बिगड़ गए और कहने लगे-‘तू क्या जानेगा, बायाँ हाथ क्यों बाहर रखा हुआ है? जानते नहीं, बायाँ हाथ कहाँ-कहाँ जाता है?’ यजमान बोले-‘पंडितजी! बायाँ हाथ जहाँ-जहाँ जाता है, वे तो चौके पर ही हैं। बेचारे बाएँ हाथ ने क्या बिगाड़ा है!’ पंडितजी लज्जित हो गए। यह दिखावटी शुच्याचार है। पवित्रता का दिखावा मात्र है।
संतोष का अर्थ है-जो हमारी कमाई है, हम उसी में संतुष्ट रहें। कबीर साहब ने कहा है-
“ साईं इतना दीजिये, जामें कुटुम्ब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय ।।
कबीर साईं मुझको, सूखी रोटी देय ।
चुपड़ी माँगत मैं डरूँ, रूखी छिन न लेय ।।”
साधु को तो संतोषी होना ही चाहिए, गृहस्थों को भी संतोषी होना चाहिए।
“ कबीर चालै हाट को,कहै न कोइ पतियाय ।
पाँच टके का दोपटा, सात टके को जाय ।।”
कबीर साहब करघे का ताना-बाना का काम किया करते थे। उसी से वे अपना जीवन-यापन करते थे।
रविदासजी एक संत हुए। वे जूता बनाते और बेचते थे। एक बार उनके घर भगवान आ गए। उनके घर की छावनी से पानी चू रहा था। भगवान को दया आ गई। उन्होंने कहा-‘रविदास! अरे, इस टूटी-सी झोपड़ी में क्यों रहते हो? यह लो, मैं पारस देता हूँ, जिस लोहे से लगाओगे, सोना हो जाएगा। खूब बढ़िया घर बना लेना और सुख से रहना, उसमें बैठकर भजन करना। यदि तुमको इस पारस पर विश्वास नहीं होता है, तो लाओ, मैं इसका चमत्कार दिखला देता हूँ।’ रविदासजी के पास जूते सिलाई करने के जो टकुवे थे, उनमें से एक टकुवा भगवान को दिया। भगवान ने उसे लेकर पारस से स्पर्श करा दिया, तो वह सोने का बन गया। भगवान ने कहा-‘देख लिया, अब जितना सोना बनाना चाहते हो, बना लेना।’ रविदासजी ने कहा-‘हमारे पास जो टकुवा था, आपने उसको सोने का बना दिया। सोने के टकुवे से तो सिलाई नहीं होगी। यह आपने क्या किया? लाभ की जगह घाटा ही दे दिया।’ भगवान चले गए और रविदासजी ने टकुवा के साथ पारस को भी छप्पर में खोंसकर रख दिया। कुछ दिनों के बाद भगवान फिर आए और कहा-‘रविदास! क्या तुम्हारी झोपड़ी इसी तरह टूटी-फूटी रहेगी?’ रविदास कहने लगे-‘क्या करें? जो आमदनी होती है, उसी में खाते-पीते और मस्त रहते हैं।’ भगवान बोले-‘अरे! अब तुम्हें क्या कमी है। मैं तो तुम्हें पारस देकर गया था।’ रविदासजी ने कहा-‘मैंने तो टकुवा को खोंसकर झोपड़ी में रख दिया था। पारस भी उसी में फँसा हुआ पड़ा होगा।’ कितने बड़े संतोषी थे वे!
शरीर, मन और इन्द्रियों को संयम में रखना और शुभ कार्यों के लिए कष्ट सहना ही तप है।
स्वाध्याय का अर्थ है-अच्छे ग्रंथों का अध्ययन करना, सद्ग्रंथों का अध्ययन करना। अध्ययन करने से मन पर उसका प्रभाव पड़ता है। जिस तरह का ग्रंथ हम पढ़ेंगे, मन पर उसी तरह का प्रभाव पड़ेगा। सद्ग्रंथों को पढ़ेंगे, सद्विचारों को पढ़ेंगे, तो मन पर सद्प्रभाव पड़ेगा और हमारा विचार सच्चा और पवित्र होगा। विचार पवित्र होगा, तो आचरण भी पवित्र होगा। इसलिए सद्ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिए।
ईश्वर-प्रणिधान=ईश्वर में चित्त लगाना। सतत ईश्वर का चिन्तन करना चाहिए। काम करते समय भी हम ऐसा कर सकते हैं।
जो यम और नियम का पालन करते हैं, तो उनकी आसन-सिद्धि होती है। आसन-सिद्धि का अर्थ है, जिस आसन पर बैठ गए, तो देर तक अचल और स्थिर होकर बैठे ही रहें। ऐसा नहीं कि कभी बायाँ पैर नीचे किया, तो कभी दायाँ पैर। कभी हाथ इधर किया, तो कभी उधर। यह आसन सिद्धि नहीं है। इसलिए संत सूरदासजी महाराज ने कहा है-
“ आसन दृढ़ आहार दृढ़, भजन नेम दृढ़ होय ।
तौ प्राणी पावै कछुक, नहिं तो रहै विषय रस मोय ।।”
आसन की दृढ़ता चाहिए। बैठे चूत, निकले सूत। सूता काटने के लिए बैठिए, जितनी अधिक देर बैठेंगे, सूता उतना अधिक कटेगा। उसी तरह जितनी अधिक देर तक आप ध्यान करेंगे, उतना अधिक आपका आसन बनेगा। जब अधिक देर बैठने की आदत डालेंगे, तभी अधिक देर बैठ सकेंगे। प्रयास नहीं करेंगे, आदत नहीं डालेंगे, तब कैसे होगा? आसन-सिद्धि का खान-पान से भी संबंध है। जैसा हम आहार करेंगे, आहार के साथ हमारा आसन बनेगा। अब देखिए-आप सब दिन अपने घर में सामान्य भोजन करते हैं। सामान्य भोजन करके तो आप रोजगार के लिए जहाँ जाना चाहते हैं, चले जाते हैं और वहाँ जाकर काम भी करते हैं। भोजन किया और काम पर चले, लेकिन जब आप बारात में जाते हैं या मेहमानी करने जाते हैं, तब आप अनेक प्रकार के भोजन का आनन्द लेते हुए खाना खाते चले जाते हैं। तब क्या होता है? तब कोई काम नहीं सूझता, तकिया पर माथा टेककर लेटने का मन होता है। ऐसा क्यों? खाना तो घर पर भी खाते हैं और खाना वहाँ भी खाए, परन्तु भोजन का संतुलन ठीक नहीं रहा। इसलिए गोरखनाथजी की वाणी में है-
“ धाये न खाइबा, भूखे न मरिबा ।
अहिनिसि लेबा ब्रह्म अगिनि का भेवं ।।”
आपके अन्दर में जो ब्रह्मज्योति जल रही है, जो प्रकाश हो रहा है, उस प्रकाश को आप कैसे देखेंगे? तो कहते हैं, ‘धाये न खाइबा’-ठूँस-ठूँसकर मत खाओ और ‘भूखे न मरिबा’-भूखे भी मत रहो, तब ब्रह्मज्योति जगेगी। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता के छठे अध्याय में कहा है कि जो ठूँस-ठूँसकर खाता है, उसका यह योग सिद्ध नहीं होगा। जो बिल्कुल भूखा रहता है, उसका भी यह योग सिद्ध नहीं होगा। जो कभी सोता नहीं, उसका भी यह योग सिद्ध नहीं होगा और जो सोता ही रहता है, उसका भी योग सिद्ध नहीं होगा। ‘युक्ताहार विहारस्य’-आहार-विहार का संतुलन रहना चाहिए। जैसा आहार वैसी डकार।
“ जैसा अन्न-जल खाइये, वैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, वैसी वाणी होय ।।
मन भावै सो खावता, इन्द्री केरे स्वाद ।
नाक तलक पूरण करे, कौन कहे परसाद ।।
खुश खाना है खीचड़ी, माहिं पड़ा टुक लोन ।
मांस पराया खायकर, गला कटावै कौन ।।”
आसन की दृढ़ता के लिए आहार की दृढ़ता होनी चाहिए। मांस-मदिरा आदि तमोगुणी आहार ग्रहण नहीं करें। आहार सात्त्विक और संयमित होगा, तब आसन की सिद्धि होगी।
प्राणायाम द्वारा प्राण का आयाम अर्थात् प्राण का व्यायाम किया जाता है। रेचक, पूरक, कुम्भक की क्रिया की जाती है। श्वास-निरोध किया जाता है। श्वास छोड़ा जाता है और खींचा जाता है, लेकिन यह क्रिया सापद है, सर्वसाधारण के लिए नहीं है। यह हठयोग में आता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में ध्यानयोग बतलाया है और वह ध्यानयोग सबके लिए सरल, सुखद और सुगम है। यह निरापद भी है। नर-नारी, बच्चे-बूढ़े; सबके करनेयोग्य है।
प्रत्याहार=प्रति+आहार। हमलोग ध्यान-पूजा करने के लिए बैठते हैं, तो मन भागता है और उसको हम समेटते हैं। पुनः मन भागता है, हम समेटते हैं; इसी का नाम प्रत्याहार है। बारम्बार प्रत्याहार करते-करते तब होती है धारणा। धारणा का अर्थ है-मन का अल्प टिकाव। मन भागता है, समेटते हैं, फिर भागता है, समेटते हैं। अल्प टिकता है, फिर भागता है, उसको कहते हैं धारणा। और वही धारणा जब अधिक देर तक होने लग जाती है, तब उसकी संज्ञा हो जाती है ‘ध्यान’। जीव-पीव का एकत्रीकरण हो जाता है, मिलन हो जाता है। तब समाधि लग जाती है। समाधि में बाहर का ज्ञान लुप्त हो जाता है और परमात्मा से एकता हो जाती है।
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-ये योग के आठ अंग और ज्ञान के चार अंग-श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव-ज्ञान आपलोगों को बतलाया गया। इनका अभ्यास कीजिए। साथ ही जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य कीजिए। इसी से आपका लोक और परलोक कल्याणमय होगा।
(श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 09-01-1998 को नागपुर, महाराष्ट्र में प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, नवम्बर 2005 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
मुझ अज्ञ अकिंचन का आप जिन विज्ञ सज्जनों ने स्वागत और अभिनन्दन किया है, उन सभी सज्जनों का सादर अभिवन्दन करते हुए मैं हार्दिक धन्यवाद ज्ञापन करता हूँ।
हमलोगों का अहोभाग्य है कि देवघर जो शिव-नगरी है, उसके शिव-मंदिर के प्रांगण में हमलोग भगवत्-चर्चा-सत्संग करने के लिए एकत्र हुए हैं। आप जिन विद्वान्, ज्ञानवान् पण्डा महाशयगण ने हमलोगों को यह शुभ अवसर प्रदान किया है, उनके हम आभारी हैं और उनके प्रति आभार प्रकट करते हैं। ‘शिव-नगरी’ के सन्दर्भ में गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
‘शिवनगरी में आसन अवधू अगम अपारी।’
इस शिव-नगरी में भगवान शिव के उपदेशों को सुनाऊँ, यही समीचीन मालूम पड़ता है। रामचरितमानस में भवेश ने भवानी से कहा है-
“ गिरिजा सन्त समागम, सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होइ सो, गावहिं वेद पुरान ।।”
-गो0 तुलसीदासजी महाराज
योगशिखोपनिषद् जो कृष्ण यजुर्वेद का अंश है, में भगवान शंकर और ब्रह्माजी का संवाद है-बालपन में किसी समय षडानन और गजानन अपने प्रांगण में बाल-क्रीड़ा कर रहे थे, उसी समय श्री पंचाननजी के निकट श्रीचतुराननजी उपनीत हुए। उमापति ने प्रजापति का सादर सत्कार करके उनके पधारने का प्रयोजन पूछा। ब्रह्माजी ने उत्तर दिया-‘हे पाणिशूल! संसार के सभी प्राणी त्रिताप-तापित हो आकुल-व्याकुल हो रहे हैं। उनके त्रिशूल को निर्मूल करने का यदि कोई निर्भूल उपाय, हो तो आप कृपा करके बतलाने का कष्ट करें।’ तब भवेश ने कहा-‘हे अज! भवफन्दन-हेतु कोई योग का अवलम्बन बतलाते हैं और कोई ज्ञान का सम्मान करके उसको स्थान देते हैं; किन्तु मेरे विचार में-
“ योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।।”
अर्थात्-योगहीन ज्ञान मोक्षप्रद भला कैसे हो सकता है? उसी तरह ज्ञान-रहित योग भी मोक्ष-कार्य में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए ज्ञान और योग; दोनों का अभ्यास दृढ़ता के साथ मुमुक्षु को करना चाहिए। बौद्धधर्म को ‘धम्मपद’ नाम्नी पुस्तक में भी हम प्रायः इसी प्रकार की बातें पाते हैं-
“ नत्थि ज्ञानं अपञ्ञस्य पञ्ञा नत्थि अझायतो ।
यम्हि ज्ञानञ्ञ पञ्ञा च स वे निब्बाण सन्तिके ।।”
-भिक्खुवग्गो
अर्थात्-प्रज्ञाविहीन को ध्यान नहीं होता है, ध्यान न करनेवाले को प्रज्ञा नहीं हो सकती। जिसमें ज्ञान और ध्यान; दोनों हैं, वही निर्वाण के समीप है। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ धर्म से विरति योग ते ज्ञाना ।
ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना।।”
-रामचरितमानस
योगशास्त्र में योग के आठ अंग बतलाये गये हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। वेदांतशास्त्र में ज्ञान को चार भागों में विभक्त किया गया है-श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव।
यौगिक साधनाओं में योग को यदि प्राणायाम तक और ज्ञान को श्रवण, अध्ययन, मनन और वाचक तक ही सीमित रखा जाए, तो इस विचार से गोस्वामीजी सहमत नहीं हैं। ऐसे योग और ज्ञान के संबंध में उनका कथन है-
“ योग कुयोग ज्ञान अज्ञानी, जहँ नहिं राम प्रेम प्रधानु।”
अर्थात्-वह योग कुयोग है और वह ज्ञान अज्ञान है, जिसमें राम-प्रेम अर्थात् राम-भक्ति की प्रधानता न हो। गोस्वामीजी की दृष्टि में ज्ञान, योग और भक्ति; तीनों का समन्वय होना चाहिए।
जैसे बाह्याकाश में उड़ने के लिए पक्षी को पर, पग और पूँछ-ये तीनों आवश्यक होते हैं, उसी तरह अन्तराकाश में गमन करने के लिए मुमुक्षु के पक्ष में ज्ञान, योग और भक्ति-ये तीनों अत्यन्त अपेक्षित हैं।
आटा, चीनी और घृत; इन तीनों के सम्मिश्रण से हलुआ बनता है। यदि कोई केवल आटा खाय अथवा कोई केवल चीनी खाय या कोई केवल घृत पान करे, तो कैसा होगा? किन्तु तीनों को एक साथ परिपक्व करके खाने से कितना अच्छा होगा? स्वाद लगेगा, तृप्ति होगी और बल भी मिलेगा। इसी प्रकार ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति करने से हरि-रस मिलेगा, शांति मिलेगा, और आत्मबल मिलेगा।
भगवान श्रीकृष्ण को ‘योगेश्वर’ और भगवान शंकर को ‘योगीश्वर’ कहा गया है। योग करनेवाले योगी होते हैं। योगियों के जो ईश्वर होते हैं, वे ‘योगीश्वर’ कहलाते हैं। भगवान शंकर योग के आठो अंगों में निष्णात थे। योग का आठवाँ अंग समाधि होता है। रामचरितमानस साक्षी है कि भगवान शंकर अपने सहज स्वरूप का संवरण कर अखण्ड समाधि में स्थित हो गये थे।
“ तब सिव सहज स्वरूप सम्हारा ।
लागि समाधि अखण्ड अपारा ।।”
समाधि के पूर्व की साधना में दृष्टियोग द्वारा उन्होंने अपने तीसरे नेत्र का उन्मेष करके कामदेव को भस्म किया था-
“ तब सिव तीसर नयन उघारा ।
चितवत काम भयउ जरि छारा ।।”
-रामचरितमानस
ऐसा कहा जाता है कि सर्वप्रथम भगवान रुद्र ने ही तीसरी आँख का उद्घाटन किया था, जिस कारण उस तीसरे नेत्र को रुद्राक्ष और शिवनेत्र कहकर अभिहित किया गया। जो शिवनेत्र को प्राप्त करते हैं, वे शिवनगरी में निवास करते हैं और वे ही अलख अगम अपार प्रभु को पाते हैं।
हमलोग भगवान शंकर की संतान हैं। पिता को तीन आँखें और पुत्र को दो ही आँखें, यह कब सम्भव है? ऐसा कदापि नहीं हो सकता। हमलोगों को भी तीन आँखें हैं-अंतर मात्र इतना ही है कि उनकी तीसरी आँख खुली थी और हमारी बंद है। भगवान शंभु ने जिस साधना वा प्रक्रिया द्वारा विमल विलोचन का विमोचन करके ‘त्रिलोचन’ की संज्ञा पायी, उसको शाम्भवी मुद्रा कहते हैं। जब दृष्टि-धारें इड़ा-पिंगला से सिमटकर सुषुम्ना में प्रतिष्ठित होती हैं, तब उस नेत्र की प्राप्ति होती है। इस सुषुम्ना की विलक्षण महिमा की भूरि-भूरि प्रशंसा भगवान महेश्वर ने विरंचि के समक्ष इस भाँति की थी। योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
“ सुषुम्नायां यदा योगी क्षणैकमपि तिष्ठति ।
सुषुम्नायां यदा योगी क्षणाधार्मपि तिष्ठति ।।38।।
सुषुम्नायां यदा योगी सुलग्नो लवणाम्बुबत् ।
सुषुम्नायां यदा योगी लीयते क्षीरनीरवत् ।।39।।
भिद्यते च तदा ग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते परमाकाशे ते यान्ति परमां गतिम्।।40।।”
अर्थात्-सुषुम्ना में जब योगी एक क्षण भी ठहरता है, सुषुम्ना में जब योगी आधा क्षण भी ठहरता है, सुषुम्ना में जब योगी पानी और नमक के समान मिल जाता है, सुषुम्ना में जब योगी दूध और पानी के समान मिल जाता है, तब (उसकी) ग्रंथि (गिरह-गाँठ) टूट जाती है, (उसके) सम्पूर्ण संशयों का नाश हो जाता है और वह परमाकाश में विलाकर परम गति को प्राप्त होता है।।38-40।।
“ गंगायां सागरे स्नात्वा नत्वा च मणिकर्णिकाम् ।
मध्यनाड़ीविचारस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।41।।”
अर्थात्-गंगासागर में स्नान कर मणि-कर्णिका को प्रणाम करना (इसका जो फल होता है, वह) मध्य नाड़ी (सुषुम्ना) के विचार के (फल के) सोलहवें अंश के भी बराबर नहीं है।।41।।
“ अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च ।
सुषुम्ना ध्यानयोगस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।43।।”
अर्थात्-हजारों अश्वमेघ और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ सुषुम्ना-ध्यानयोग का सोलहवाँ भाग ही नहीं है।।43।।
“ सुषुम्नायां सदा गोष्ठीं यः कश्चित्कुरुते नरः ।
स मुक्तः सर्वपापेभ्यो निःश्रेयसमवाप्नुयात् ।।44।।”
अर्थात्-जो नर सुषुम्ना में सदा सभा करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर सच्चा कल्याण पाता है।
“ सुषुम्नैव परं तीर्थं सुषुम्नैव परो जपः।
सुषुम्नैव परं ध्यानं सुषुम्नैव परा गतिः।।45।।”
अर्थात्-सुषुम्ना ही प्रधान तीर्थ है, सुषुम्ना ही प्रधान जप है, सुषुम्ना ही प्रधान ध्यान है और सुषुम्ना ही परा (ऊँची) गति है।।45।।
“ अनेक यज्ञदानानि व्रतानि नियमास्तथा ।
सुषुम्नाध्यानलेशस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।46।।”
अर्थात्-अनेक यज्ञ, दान, व्रत और नियम; स्वल्पमात्र सुषुम्ना-ध्यान के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है।
कतिपय सज्जन मूलाधार चक्र से साधना का आरम्भ करके आज्ञाचक्र-छठे चक्र-सुषुम्ना में पहुँचते हैं। इसी देवघर के बावन-बिगहा स्थान में एक महात्मा रहते थे, जिनका नाम योगी पंचानन भट्टाचार्य था। उनका वचन है-
“ मूलाधार बधि पंच चक्र भेदी
आज्ञाचक्रे यदि थाक निरबधि ।
देखिवे से निधि जाबे भव
व्याधि भासिबे आनन्द सागरे ।।”
शिव-संहिता में लिखा है-मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा; इन षट्चक्रों का उपदेश भगवान शिव ने पार्वतीजी को देकर कहा था-
“ यानि यानि हि प्रोक्तानि पंच पप्रे फलानि वै ।
तानि सर्वाणि सुतरामेतज्ज्ञानाद् भवन्ति हि ।।”
अर्थात्-पंच पप्रों का जो-जो फल पहले कहा, सो समस्त फल आपही इस आज्ञाकमल के ध्यान से प्राप्त हो जाएगा।
रामचरितमानस के अध्ययन-मनन से यह सिद्ध होता है कि भगवान श्रीराम और भगवान शंकर के परस्पर का संबंध अद्भुत था। भगवान श्रीराम भगवान शंकर की पूजा करते थे और भगवान शंकर भगवान श्रीराम को अपना इष्ट मानकर प्रणाम करते थे। रामचरितमानस में इसकी इस भाँति चर्चा है।
सीताहरण के पश्चात् उनकी खोज में जब भगवान श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ अरण्य में भ्रमण कर रहे थे, उसी अरण्य की दूसरी ओर से भगवान शंकर सतीजी के साथ जा रहे थे।
भगवान शंकर की दृष्टि भगवान राम पर पड़ी। अनुकूल समय नहीं होने के कारण भगवान श्रीराम के निकट नहीं आकर भगवान शंकर ने दूर से ही उनको प्रणाम कर लिया। भगवान शंकर से सतीजी पूछती हैं कि आपने किनको प्रणाम किया? भगवान शंकर ने उत्तर दिया-‘देखती हो; भगवान श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ जा रहे हैं। उन्हीं राम भगवान को मैंने प्रणाम किया है।’ सतीजी पूछती हैं-ये तो राजा दशरथ के सुपुत्र राम हैं, ये ब्रह्म कैसे हो सकते हैं? यदि ये ब्रह्म हैं, तो नारी-विरह में इतने आकुल-व्याकुल क्यों हो रहे हैं? इनकी महिमा सुनकर और चरित्र देखकर मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है।
“ जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि, नारि विरह मति भोरि ।
देखि चरित महिमा सुनत, भ्रमति बुद्धि अति मोरि ।।”
भगवान शंकर ने सतीजी को विविध भाँति से समझाने की चेष्टा की; किन्तु सभी प्रयास व्यर्थ सिद्ध हुए। अंत में भगवान शंकर ने कहा-‘अगर मेरी बात पर तुमको विश्वास नहीं है, तो स्वयं जाकर परीक्षा क्यों नहीं ले लेती। जबतक तुम लौटकर नहीं आ जाती, मैं इसी वृक्ष के नीचे बैठता हूँ, तुम जाओ।’ ऐसा कहकर भगवान शंकर वहीं बैठ गये और सतीजी चलीं भगवान श्रीराम की परीक्षा लेने। सतीजी मन में सोचने लगीं, परीक्षा किस तरह ली जाय? एकाएक उनके मन में आया, श्रीसीताजी की खोज में श्रीराम जा रहे हैं, क्यों नहीं सीताजी का रूप धारण करके मैं वहाँ बैठ जाऊँ, जिस मार्ग से वे जायेंगे। यदि वे मुझे पहचान जायेंगे, तो मैं समझूँगी कि ये भगवन्त हैं, अन्यथा समझूँगी-कोई नर है, पर अति बलवन्त है।
“ सीता छवि धरकर वन में चलकर करूँ परीक्षा आज ।
जौं पहिचान गये तो मैं समझूँगी हैं भगवन्त ।
नहीं तो समझूँ कोई नर है पर है अति बलवन्त ।।”
अपने विचारानुसार सतीजी ने वैसा ही किया। अर्थात् सीता का रूप धारण करके उस पथ में बैठ गयीं, जिस होकर भगवान राम जानेवाले थे। भगवान श्रीराम सीताजी के निकट पहुँचते हैं और उनसे पूछते हैं-‘आप यहाँ अकेली बैठी हैं, भगवान शंकर कहाँ हैं?’ अपनी हार के कारण लज्जा के मारे बेचारी सतीजी आँखें बंद कर लेती हैं। आँखें बंद करने पर वे अपने अंदर सीता, राम और लक्ष्मण-तीनों को देखती हैं। आँखें खोलने पर उनको अपने सामने बाहर में भी वे ही तीनों मूत्तियाँ दीखती है। अब तो सतीजी को न तो आँखें बंद करने से बनता है और न आँखें खोलने से ही। पुनः आँखें बंद करने पर श्रीसीता, राम और लक्ष्मण को पाती हैं। पश्चात् आँखें खोलने पर किन्हीं को नहीं देखती हैं। जो परीक्षक बनकर गयी थीं, अब वे परीक्षार्थी बनकर खिन्न मन से भगवान शंकर के पास लौटीं। अन्तर-ध्यान द्वारा भगवान शिव ने जान लिया कि सती ने सीता का रूप धारण किया। भगवान शंकर ने सोचा कि सती ने मेरे इष्ट राम की पत्नी का रूप धारण किया, अतएव अब उसको पत्नी के रूप में कैसे वरण करूँगा? ऐसा सोचकर उन्होंने मन-ही-मन उनसे भार्या का संबंध विच्छेद कर लिया।
इस प्रसंग से यह स्पष्ट है कि भगवान शंकर भगवान श्रीराम को अपना इष्ट मानते थे। रामचरित- मानस के ही लंकाकाण्ड में दूसरा प्रसंग इस प्रकार है कि ससैन्य लंका जाने के लिए जब भगवान श्रीराम ने शत योजन समुद्र सेतु का निर्माण करवाया, तब वहाँ उन्होंने शिवलिंग की स्थापना करके उनकी विधिवत् पूजा की थी।
“ लिंग थापि विधिवत करि पूजा ।
सिव समान प्रिय मोहि न दूजा ।।”
रामचरितमानस के ही उत्तरकाण्ड में अपनी प्रजा को उपदेश देते हुए भगवान श्रीराम ने स्पष्ट कहा-कोई भी व्यक्ति शंकर-भजन किए बिना मेरी भक्ति नहीं पा सकता।
“ औरउ एक गुपुत मत, सबहिं कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।।”
विचारणीय विषय है कि भगवान शंकर ने प्रकट-पूजन को प्रायः सर्वसाधारण जानते हैं; किन्तु गुप्त मत क्या है, जिससे भगवान शंकर का भजन करने से भगवान राम की भक्ति हो जाएगी? यदि भगवान शंकर के मुख से ही इसका समाधान हो जाता, तो कितना अच्छा होता। निवेदन है कि इसके उत्तर में भगवान शंकर ने योगशिखोपनिषद् में इसका बड़ा ही विलक्षण स्पष्टीकरण किया है। इसके प्रथम अध्याय में है-
“ विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
अर्थात्-विन्दु-नाद महालिंग है और शिव-शक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
इसी योगशिखोपनिषद् के पंचम अध्याय में लिखा है-
“ विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
अर्थात्-विन्दुनादरूप जो महालिंग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु मंदिर (ठाकुरबाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
योगशिखोपनिषद् के इन दोनों श्लोकों से यह स्पष्ट हो जाता है कि विन्दु और नाद की उपासना करनेवाले शिव-भक्त होते हैं और वे ही विष्णु (राम) के भी भक्त भी होते हैं। भगवान शंकर और भगवान विष्णु; दोनों ही हमारे शरीर में नादरूप से प्रतिष्ठित हैं।
ज्ञातव्य है कि प्रत्येक इष्ट के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य और आत्म-स्वरूप होते हैं। भक्त जबतक अपने इष्ट के आत्म-स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान लाभ नहीं कर लेता, तबतक परम कल्याण नहीं होता। अतएव प्रत्येक उपासक का पुनीत कर्त्तव्य है कि अपने इष्ट के स्थूल सगुण साकार रूप से उपासना का आरम्भ करके उनके आत्म-स्वरूप का प्रत्यीक्षकरण करके परम कल्याण के भागी बनें।
इसी भाँति भूत-भावन भगवान के भक्त के लिए भी अपेक्षित है कि वे उनके स्थूल सगुण साकार से भक्ति का आरंभ करके उनके निर्गुण निराकार स्वरूप तक पहुँचें। रामचरितमानस में उनके स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है-
“ नमामीशमीशान निर्वाण रूपम्,
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम् ।
निजं (अजं) निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहम्,
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ।।
निराकारमोंकार मूलं तुरीयम्,
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् । करालं महाकाल कालं कृपालम्,
गुणागार संसार पारं नतोऽहम् ।।
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशम्,
अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम् ।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी,
सदा सज्जनानन्द दाता पुरारी ।।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी,
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ।।
न यावत उमानाथ पादारविन्दं,
भजंतीह लोके परे वा नराणां ।।
न तावत्सुखं शान्ति संताप नाशम्,
प्रसीद प्रभो सर्व भूताधिवासं ।।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां,
नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ।।
जरा जन्म दुःखौघतातप्यमानं,
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ।।”
श्लोक: रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शंभुः प्रसीदति ।।
भव की भक्ति किये बिना भव से मुक्ति नहीं मिल सकती। अतएव आवश्यकता है क्रियावान शुद्धाचारी संत सद्गुरु की शरण जाकर तथा उनसे सद्युक्ति पाकर सदाचार-समन्वित हो अंतस्साधना करने की। महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिशा की ओर इंगित करते हुए कहा है-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
अर्थात् उन तत्ववेत्ता के पास जाओ, उन्हें प्रणाम करो, उनसे नम्रतापूर्वक जिज्ञासा करो, उनकी सेवा करो, वे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
संत कबीर साहब ने इसी विषय को प्रकारान्तर से कहा है। आपलोगों को उनकी वाणी समझ में उलटी आ सकता है; किन्तु यथार्थ में सुलटी है।
“ पाप करे बिनु गति नहीं, पाप करे तो चैन ।
कहै कबीर विचारि के, पाप करो दिन रैन ।।”
‘पाप करे’ वाक्य में चार अक्षर हैं। साखी के प्रथम अक्षर ‘पा’ को एक ओर कीजिए और बाकी तीन अक्षरों को ‘पकरे’ को दूसरी ओर। अब इस साखी को इस तरह पढ़िये-
“ पा पकरे बिनु गति नहीं, पा पकरे तो चैन ।
कहै कबीर विचारि कै, पा पकरो दिन रैन ।।”
अर्थात् संत सद्गुरु के चरण ग्रहण किये बिना मुक्ति नहीं मिल सकती है। संतों के चरण पकड़े बिना कल्याण नहीं हो सकता। इसलिए संत कबीर साहब विचारकर कहते हैं कि दिन-रैन-दिन-रात संत सद्गुरु की चरण-शरण में रहो।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन झारखण्ड राज्यान्तर्गत देवघर शिवमंदिर के प्रांगण
में दिनांक 28-01-1998 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अप्रैल 1998 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात है कि यह किशनगंज जिला संतमत-सत्संग का पंचम वार्षिक अधिवेशन है। यह पंचम अधिवेशन किसलिए है? यह क्या बतलाता है? यह पंचम वार्षिक अधिवेशन बतलाता है कि हमलोगों का यह शरीर पाँच तत्त्वों-मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना हुआ है।
मिट्टी या पृथ्वी का गुण गंध है; जल का गुण रस है; अग्नि का गुण रूप है; वायु का गुण स्पर्श है और आकाश का गुण शब्द है। इन पाँचो गुणों को ग्रहण करने के लिए हमारे शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। गंध को नासिका से ग्रहण करते हैं। रस को जिभ्या से ग्रहण करते हैं। रूप को आँख से ग्रहण करते हैं। शब्द को कान से ग्रहण करते हैं और स्पर्श का ज्ञान त्वचा से करते हैं। ये पंच ज्ञानेन्द्रियाँ इन पंच विषयों के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानती हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त हमारे शरीर में पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी हैं। वे हैं-हाथ, पैर, मुँह, गुदा और लिंग। हाथ से पकड़ने का, पैर से चलने का, मुँह से बोलने का, गुदा से मल विसर्जन का और उपस्थ (लिंग) से मूत्र-विसर्जन का काम होता है। पंच कर्मेन्द्रियों का पंच ज्ञानेन्द्रियों से घनिष्ठ संबंध है।
“ मुख से श्रवण कहत एक सुनई ।
त्वचा पाणि स्पर्शइ गुणई ।।
रसन उपस्थ भोग दोउ चाहै ।
गुदा नासिका नेह निवाहै ।।
नैन चरण ले प्रीति रहावै ।
नैन फँसे पद ले पहुँचावै ।।”
मुँह कर्मेन्द्रिय है और कान ज्ञानेन्द्रिय। मुँह के शब्द का कान से संबंध है अर्थात् हम कान से जो सुनते हैं, वही मुँह से बोलते हैं। जो कभी कान ने सुना नहीं, वह मुँह से बोलेंगे नहीं। जैसे जो विद्यार्थी स्कूल के मास्टर के मुँह से अंग्रेजी का । ठ ब् क् आदि अपने कान से सुनता है, वह मुँह से भी वही उच्चारण करता है। मदरसे में बच्चे मौलबी साहब से अलिफ, बे, पे, ते---कान से सुनते हैं, तो मुँह से भी वही बोलते हैं। इसी प्रकार विद्यालय में जो छात्र अध्यापक से अ, आ, इ, ई आदि कान से सुनते हैं, तो वे मुँह से भी वही कहते हैं। जिस भाषा की बोली बच्चा कान से सुनता है, वह मुँह से भी वही भाषा बोलता है। घर में बच्चे राम-राम, शिव-शिव, वाह गुरु आदि सुनते हैं, तो वे मुँह से भी वही बोलते हैं। इसी तरह जिस परिवार के बच्चे अल्लाह अथवा गॉड कान से सुनते हैं, तो मुँह से वे वही बोलते भी हैं। जिस-जिस भाषा की जानकारी हम कान से करते हैं, उस-उस भाषा की बोली हम मुँह से बोलते हैं। कर्मेन्द्रियाँ से ज्ञानेन्द्रियाँ विशेष होती हैं। जो कोई कान से सिनेमा के जिस गाने को सुनेगा, वह मुँह से भी वही गाना गायेगा। जो कोई कान से राम-नाम वा भगवद्भजन सुनता है, उसके मुँह से वही भगन्नाम निकलता है। जो अपने कान से अश्लील बातें नहीं सुनते, उनके मुँह से भी कभी अश्लील बातें नहीं निकलतीं। अच्छी-अच्छी बातें सुनेंगे, तो मुँह से भी अच्छी-अच्छी बातें बोलेंगे। प्रायः देखा जाता है कि जो बच्चा बहरा होता है, वह गूँगा भी होता है। कान और मुँह का घनिष्ठ संबंध है। त्वचा अथवा चमड़े से हाथ का संबंध है। त्वचा जितना ठंढा-गर्म सह सकती है, हाथ भी सह सकता है। जो अपनी ज्ञानेन्द्रियों को काबू में कर सकते हैं, वे अपनी कर्मेन्द्रियों को भी वश में कर सकते हैं। रसना से उपस्थ इन्द्रिय का संबंध है। नासिका ज्ञानेन्द्रिय का गुदा कर्मेन्द्रिय से संबंध है। गुदा कर्मेन्द्रिय वायु त्याग करने की है और नासिका ज्ञानेन्द्रिय वायु ग्रहण करने की। गुदा के द्वारा वायु निकलती है। इसको अपान वायु कहते हैं। जो वायु नासिका के द्वारा हम ग्रहण करते हैं, वह प्राणवायु है। प्राणवायु ग्रहण नहीं करेंगे, तो अपान वायु निकलेगी नहीं। आँख ज्ञानेन्द्रिय का पैर कर्मेन्द्रिय से संबंध है। जहाँ हमारी आँख गड़ जाती है, पैर वहाँ पहुँच जाता है। सिनेमा के चित्र पर हमारी आँख गड़ जाती है, तो सिनेमा पैर सिनेमा-हॉल में पहुँच जाता है। अगर हमारी आँख सत्संग के विज्ञापन पर ठहर जाती है, तो हमारा पैर सत्संग-स्थल में पहुँच जाएगा। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ मन पाँचों के वश पड़ा, मन के वश नहिं पाँच ।
अपने अपने स्वाद में, सभी नचावै नाच ।।”
वस्तुतः ये पंच विषय विषवत् हैं। किसी कवि ने कितना अच्छा कहा है-
“ मृग मीन भृंग पतंग कुंजर, एक दोष विनाशहीं ।
पंच दोष असाध्य जामें, ताकी केतिक आशहीं ।।”
इस संदर्भ में एक सत्संगी साधक की सुभाषित वाणी भी कितनी हृदयस्पर्शी है-
“ जब मातंग पतंग भृंग सारंग और झष ।
त्वचा विलोचन जीभ श्रवण नासिका के विवश ।।
स्पर्श रूप रस शब्द गंध क्रमशः इनमें फँस ।
शोक लोक परलोक नाश कर पाते अपयश ।।”
“ हो कितनी दुर्गति तब तहाँ पाँच पाँच हो जब जहाँ ।
हो ‘श्रीपति’ सद्गति कब कहाँ पाँच पाँच हो जब जहाँ ।।”
वराहोपनिषद् में आया है-‘पंचभूतात्मको देहः पंचमंडलपूरितः।’
यह शरीर पाँच भूतों से बना है और इसमें पाँच मंडल हैं। इस शरीर में पाँच प्राण प्रतिष्ठित हैं। वे हैं-प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। इन पाँचो के अतिरिक्त पाँच प्रकार की वायु और हैं; यथा नाग, कूर्म्म, कृकर, देवदत्त तथा धनंजय। ज्ञानसंकलिनी तंत्र में इसकी विस्तृत व्याख्या है-
“ हृदि प्राणः स्थितो वायुरपानो गुदसंस्थितः ।
समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमाश्रितः ।। 70।।
व्यानः सर्व्वगतो देहे सर्व्वगात्रेषु संस्थितः ।
नाग उर्द्धगतो वायुः कूर्म्मस्तीर्थानि संस्थितः ।। 71।।
कृकरः क्षोभिते चैव देवदत्तोऽपि जृम्भणे ।
धनंजयो नादघोषे निविशेचैव साम्यति ।। 72।।”
अर्थ-प्राण हृदय में, अपान गुदा में, समान नाभि में, उदान कण्ठ में और व्यान नाम का वायु सब शरीर में है। नाग नामक वायु उर्द्धगत है, कूर्म्म नामक वायु तीर्थाश्रित है, कृकर नामक वायु क्षोभनस्थ है और देवदत्त वायु जृम्भणस्थ तथा धनञ्जय नामक वायु नादघोष में प्रवेश करके साम्य होकर रहता है।
आज्ञाचक्र के नीचे पाँच चक्र हैं-विशुद्ध, अनाहत, मणिपूरक, स्वाधिष्ठान और मूलाधार। इन चक्रों में पंचदेवों की भावना की जाती है; यथा-कंठ में सरस्वती की, हृदय में शिव की, नाभि में विष्णु की, लिंग में ब्रह्मा की और गुदा में गणेश की।
मंडलब्राह्मणोपनिषद् में पाँच आकाश की चर्चा आयी है; यथा-आकाश, पराकाश, महाकाश, सूर्याकाश और परमाकाश। बाहर और अंदर जो अंधकारमय हो, वह आकाश है। बाहर और अंदर जो कालाग्नि के समान हो, उसे पराकाश कहते हैं। बाहर और अंदर अपरिमित तेज के समान तत्त्व को महाकाश कहते हैं। अंदर और बाहर सूर्य के समान चमक जिसमें हैं, उसे सूर्याकाश कहते हैं। अकथनीय सर्वव्यापक सर्वोत्तम आनंदज्योति को परमाकाश कहते हैं।
पाँच तत्त्वों के इस शरीर में पाँच कोष हैं-अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय; यथा-
“ अन्नमयकोश सो तौ, पिण्ड है प्रकट यह ।
प्राणमयकोश पंच, वायु ही बखानिये ।।
मनोमयकोश पंच, कर्म इन्द्रि है प्रसिद्ध ।
पंच ज्ञान इन्द्रिय, विज्ञानमय जानिये ।।
जाग्रते स्वप्न विषे, कहिये चत्वार कोश ।
सुषुपति माँहि कोश, आनन्दमय मानिये ।।
पंचकोश आतमा को, जीव नाम कहियत ।
सुन्दर शांकर-भाष्य, सांख्य ये बखानिये ।।”
(संत सुन्दरदासजी)
इसमें पाँच अवस्थाएँ होती हैं-जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत। मंडलब्राह्मणोपनिषद् में आया है-
‘पञ्चावस्थाः जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयतुरीयातीताः।’
यह शरीर एक ही नहीं है; स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य-ये पाँच शरीर हैं। स्थूल के पूर्व सूक्ष्म, सूक्ष्म के पूर्व कारण, कारण के पूर्व महाकारण और महाकारण के पूर्व कैवल्य शरीर है। उदाहरणार्थ हमारे सामने वट का एक विशाल वृक्ष है। यह वृक्ष कैसे हुआ? इसका पूर्व रूप अंकुर था। अंकुर के पहले बीज था। विशाल वृक्ष स्थूल, अंकुर सूक्ष्म और बीज कारण हुआ। एक वृक्ष का कारण उसका एक बीज हुआ। इस दृष्टि से असंख्य वृक्षों के कारण असंख्य बीज हुए। उन बीजों की खानि या भण्डार को महाकारण कहते हैं। कोई भी बीज सजीव रहने पर ही उससे अंकुर निकलता है। निर्जीव बीज से अंकुर नहीं निकलता। यह जीव ही चेतन है।
कुम्हार मिट्टी का बर्तन बनाता है। एक बर्तन के लिए जितनी मिट्टी लगती है, उतनी मिट्टी उस बर्तन का कारण होती है; किन्तु संसार में उतनी ही मिट्टी नहीं है, बहुत मिट्टी है। जिस भंडार से एक बर्तन के लिए मिट्टी निकाली गयी, उस मिट्टी के भंडार को महाकारण कहते हैं। इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण; ये चार जड़ शरीर हुए। इन चारो के अतिरिक्त पाँचवाँ शरीर भी है, जो जड़ नहीं, चेतन है। वही कैवल्य कहलाता है।
स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर है। स्थूल शरीर को देखने के लिए स्थूल दृष्टि होती है। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर के लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है। सत जन कहते हैं-सूक्ष्म लोक में सूक्ष्म शरीर से पहुँचोगे, स्थूल से नहीं।
हमलोगों के घरों में किसी की मृत्यु के उपरांत श्राद्ध क्रिया होती है। श्राद्ध क्रिया कहते हैं-श्रद्धा से की जानेवाली क्रिया को। यह प्रामाणिक वा निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह बात कहाँ तक सही है। वेदान्त ज्ञान-अध्यात्म-ज्ञान यह बतलाता है कि ‘स्थूल शरीर छूट गया।’ शरीर में रहनेवाला कहीं चला गया। जहाँ कहीं भी वह गया, वहाँ वह सुख से, शांति से रहे, कल्याणपूर्वक रहे, इसीलिए श्राद्ध क्रिया की जाती है।
आपलोगों ने पौराणिक कथा पढ़ी-सुनी होगी। शाल्व देश के राजा द्युमत्सेन पर दूसरे राजा ने चढ़ाई की। युद्धोपरान्त पराजित राजा वेश बदलकर भाग गया। राजा के साथ में उसकी पत्नी और एक पुत्र था। राजसी वेश में रहने से पकड़े जाने के भय से वह छप्र वेश- गरीबी वेश में जंगल के किनारे रहता था। उसका पुत्र जंगल से लकड़ी काटकर बाजार में ले जाकर बेचता। उसी से उन सबकी जीविका चलती। राज-पाट, धन-दौलत चले जाने के कारण चिंता से राजा-रानी दोनों अंधे-अंधी हो गये। लड़के का नाम सत्यवान था। उसका विवाह सावित्री नाम की राजकुमारी से हुआ। सत्यवान चरित्रवान और विचारवान था। सावित्री पतिव्रता थी और ध्यान-साधना भी करती थी, जिससे उसका आत्मबल बढ़ा हुआ था। राजपरिवार से लालित-पालित सावित्री पतिगृह में गरीबी जीवन बिताती। किन्तु सास-ससुर या पति से कभी किसी प्रकार की माँग नहीं करती। सावित्री को उसके विवाह के पूर्व ही नारदजी ने बता दिया था कि तुम्हारा पति अल्पायु है। इतने दिनों के बाद अमुक महीने की अमुक तिथि में उसका शरीर छूट जाएगा। सावित्री मन-ही-मन सोचती-सास-ससुर और पतिदेव का राजपाट, धन-दौलत-सब चले जाने के कारण उन सबको दुःख-ही-दुःख है। यदि उन सबको पति के अल्पायु होने की बात कह दी जाए, तो वे लोग और भी अधिक दुःखी जो जाएँगे। ऐसा सोचकर उसने इस बात की जानकारी अपने पति को भी नहीं दी। नारदजी ने उसके पति की मृत्यु का समय बतलाया था, उसको याद था। इस कारण समय आने पर उस दिन उसने अपने पति से कहा, ‘पतिदेव! आज मेरी इच्छा आपके साथ जंगल देखने की है। आपकी क्या आज्ञा है?’ सत्यवान ने उत्तर दिया कि इस संबंध में मैं क्या कहूँ? अपने सास-ससुरजी से आज्ञा माँगो।’ सावित्री अपनी सास से प्रार्थना करती है, ‘माताजी! आज मेरी इच्छा पतिदेव के साथ जंगल देखने की है। आपकी क्या आज्ञा है?’ उसकी सास सोचती है कि बहू जंगल देखने की इच्छा करती है, वह भी अपने पति के साथ। अतएव आज्ञा दे देनी चाहिए। फिर भी शिष्टाचार-निर्वहण हेतु वह अपने पति से पूछकर सावित्री को स्वीकृति प्रदान करती है। सावित्री सत्यवान के साथ जंगल जाती है। सत्यवान वृक्ष के ऊपर चढ़कर लकड़ी काटने लगता है। एकाएक ऊपर से वह कहता है, ‘देवि! मेरे सिर में दर्द हो रहा है।’ सावित्री समझ गयी कि पतिदेव का अंतिम समय निकट आ गया है। वह कहती है, ‘पतिदेव! आप वृक्ष से शीघ्र नीचे चले आइए।’ सत्यवान नीचे उतर आता है। कहता है, ‘सिर में भयानक दर्द हो रहा है। चैन नहीं मालूम पड़ रहा है।’ सावित्री कहती है, ‘पतिदेव! आप आराम करें।’ सत्यवान सावित्री की जाँघ पर सिर रखकर सो जाता है। सोता है, तो वह ऐसा सोता है कि चिरनिन्द्रा में चला जाता है। उसकी जीवन-लीला समाप्त हो जाती है। नारदजी ने सावित्री को अंतस्साधना बतलायी थी। वह नियमित रूप से साधना करती थी। इस कारण उसके शरीर से तेज निकलता था। यमदूत आता है सत्यवान के शरीर से प्राण निकालकर ले जाने के लिए। पतिव्रता नारी के तेज के कारण यमदूत उसके पास जा नहीं सका। यमराज के पास लौट गया और उनसे कहा, ‘पतिव्रता नारी के तेज में प्रवेश करने की क्षमता मुझमे नहीं है।’ यमराज स्वयं वहाँ जाते हैं और सत्यवान के स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर यानी लिंग शरीर को निकालकर चलते हैं। सावित्री उनके साथ-साथ जाती है। यमराज पूछते हैं, ‘बेटी! मेरे साथ कहाँ आ रही हो? इनकी आयु पूरी हो गयी। इनको लेकर मैं जाता हूँ, तुम वापस जाओ। अगर तुम कुछ माँगना चाहती हो, तो पति को जिलाने के अतिरिक्त अन्य कोई वर माँग लो।’ सावित्री कहती है, ‘अगर मुझे वर देना चाहते हैं, तो यह वर दीजिए कि मुझे सौ पुत्र हों, जिनको सोने के कटोरे में दूध-भात खाते हुए मेरे सास-ससुर देखें।’ यमराज ‘एवमस्तु’ कहकर आगे बढ़ जाते हैं। फिर भी सावित्री उनका साथ नहीं छोड़ती है, पीछे-पीछे जाने लगती है। यमराज पुनः पूछते हैं, ‘बेटी! अब क्यों आ रही हो? अच्छा, एक वरदान और माँग लो।’ सावित्री कहती है, ‘देव! आप दूसरा वरदान यह दीजिए कि आपका वचन सत्य हो।’ यमराज कहते हैं, ‘मेरा वचन मिथ्या हो, ऐसा हो नहीं सकता।’ सावित्री कहती है, ‘सौ पुत्रें का वरदान आपने दिया है और मेरे पतिदेव को लिये चले जा रहे हैं। आपका वचन सत्य हो, यह कैसे संभव है?’ यमराज ने कहा, ‘बेटी! तुम जीत गयी, मैं हार गया। तुमने एक ही वरदान में सब कुछ माँग लिया। अच्छा, तुम्हारे पति को मैं जीवित कर देता हूँ।’ ऐसा कहकर यमराज ने सत्यवान के स्थूल शरीर में उसके सूक्ष्म शरीर को प्रविष्ट करा दिया। सत्यवान जीवित हो उठा। वह आँखें खोलता है और अपनी पत्नी से कहता है, ‘देवि! आज मुझे बड़ी गहरी नींद आयी।’ सावित्री ने कहा, ‘देव! आपकी आज की जैसी नींद आपके दुश्मन को भी नहीं आवे।’ फिर होता क्या है? सौ पुत्रें का सोने के कटोरे में दूध-भात खाना-एक साधारण लकड़हारे की आय से कब संभव था? प्रभु की अनुकम्पा से सत्यवान की कुटुम्बी-इष्ट-मित्र, सुहृद जन आते हैं और उनसे कहते हैं कि हमलोग आपका साथ देते हैं। चलिये, उस राजा के साथ युद्ध करें, जिसने आपका राज्य लिया है। सभी मिलकर उस राजा से युद्ध करते हैं। वह राजा हार जाता है और सत्यवान को राज्य वापस मिल जाता है। इनके सौ पुत्र हो जाते हैं और अंधे-अंधी को आँखें हो जाती हैं।
इस कथा से कतिपय बातों की शिक्षाएँ मिलती हैं। जो नारी पातिव्रत्य धर्म का पालन करती हैं और साधन-भजन भी करती है, वह दिव्य शक्ति से सम्पन्न हो जाती है। वह अपने गये राज्य को, वैभव को वापस करा सकती है। मृत पति को जीवित करा सकती है। सौ पुत्रें की माता भी बन सकती है और नेत्रहीनों को नेत्र प्रदान करा सकती हैं। इसलिए प्रत्येक नारी का धर्म है कि वह पातिव्रत्य धर्म का पालन करे और भगवद्भजन भी करे। साथ ही नर का भी पुनीत कर्तव्य है कि वह एकपत्नीव्रत धर्म धारण करते हुए भगवद्भजन करे। इस कथा से यह बात विदित होती है कि स्थूल शरीर के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीर भी होता है। जैसे बिना बीज के अंकुर और बिना अंकुर के वृक्ष नहीं हो सकता, उसी प्रकार बिना कारण के सूक्ष्म और बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं होता।
विवेक-विलोचन के अवलोकन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि हमलोगों का मात्र स्थूल शरीर ही नहीं है, स्थूल-सूक्ष्मादि भेद से पाँच शरीर हैं-
“ स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण, कैवल्यहु के पार ।
सुष्मन तिल हो पिल तन भीतर, होंगे सबसे न्यार ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
पाँचो शरीरों को पार करने पर परम प्रभु परमात्मा से एकता होती है। एक-एक शरीर का एक-एक केन्द्र है। इस दृष्टि से पाँच शरीरों के पाँच केन्द्र हैं। पाँचों केन्द्रों के पाँच नौबत बाजे बजते हैं। उन बाजाओं की ध्वनियों को अंतस्साधना द्वारा साधक सुनते हैं। पाँचवीं नौबत की ध्वनि सार-शब्द है। उसको ॐ, स्फोट, उद्गीथ, प्रणव आदि शब्दों से अभिहित करते हैं। उसी के द्वारा परम प्रभु परमात्मा तक पहुँचा जाता है। जिन भाग्यवान पर गुरु की अनुकम्पा होती है, वे उस शब्द को पकड़कर प्रभु को पाते हैं।
“ पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजैं ।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’, तहँ पहुँचि खोजना ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
“ पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
सो मंदिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग ।।”
(संत कबीर साहब)
“ घरि महि घरु देखाइ देइ, सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
पंच सबदु धुनिकार धुनि, तहँ बाजै सबदु निसाणु ।।”
(गुरु नानक साहब)
पाँच शरीरों के पाँच केन्द्रीय शब्दों वा पाँच नौबतों का स्पष्टीकरण हम पूज्यपाद गुरुदेव की वाणी में पाते हैं, जो इस प्रकार है-
“ पाँच नौबत बिरतन्त कहौं सुनि लीजिये ।
भेदी भक्त विचारि सुरत रत कीजिये ।।
स्थूल सूक्ष्म सन्धि विन्दु पर परथम बाजई ।
दूसर कारण सूक्ष्म सन्धि पर नौबत गाजई ।।
जड़ प्रकृति अरु विकृति सन्धि जोइ जानिये ।
महाकारण अरु कारण सन्धि सोइ मानिये ।।
तिसरि नौबत यहि सन्धि पर सब छन बाजती ।
महाकारण कैवल्य की सन्धि विराजती ।।
शुद्ध चेतन जड़ प्रकृति सन्धि यहि है सही ।
यहँ की धुनि को चौथि नौबत हम गुनि कही ।।
निर्मल चेतन केन्द्र और ऊपर अहै ।
परा प्रकृति कर केन्द्र सोइ अस बुधि कहै ।।
अत्यन्त अचरज अनुपम यहँ से बाजती ।
पंचम नौबत ‘मेँहीँ’ संसृति विसरावती ।।”
इस देव-दुर्लभ मनुष्य-शरीर में हम प्रभु को पाकर दैहिक, दैविक एवं भौतिक त्रय तापों से-सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त हो सकते हैं। पाँच तत्त्वों से बना यह पाँचभौतिक शरीर पंच निषिद्ध कर्मों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से बचने के लिए है और पंच विधि कर्मों को करने के लिए है। ये पंच विधि कर्म हैं-एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्तर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास; साथ ही जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र जीविकोपार्जन अवश्य करना चाहिए।
पंच तत्त्वों के इस शरीर में जीवात्मा और परम प्रभु परमात्मा-दोनों का निवास है। उस परम प्रभु परमात्मा को हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं, उसकी साधना-पद्धति, संयम आदि बातों की जानकारी इस सत्संग के द्वारा क्रम-क्रम से करायी जाएगी।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत किशनगंज जिला के पाँचवें जिलाधिवेशन, धनीफुलसरा टोला चैनपुर में दिनांक 14-04-1998 ई0 को प्रातःकालीन
सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून 1998 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
यह वेदान्त-सत्संग-भवन है। इसमें ‘योग’ का भी संयोग किया गया है। वेदान्त के साथ यदि योग का संयोग हो, तो लोग नीरोग न हों-इसमें संशय का स्थान कहाँ है? और तभी हमारा यह मन जो कुमन बना है, सुमन बनेगा और सुमन हो प्रभु-चरणों में समर्पित हो अमन होगा, फिर तो अमन-चैन की वंशी बजेगी ही। श्रीशिवनारायण बाबू झुनझुनवाला ने मंगलाचरण में ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय और मृत्योर्मा अमृतगमय’ की बातें कहीं; बड़ी अच्छी लगीं। वेदान्त-सत्संग का यह चतुर्थ वार्षिक अधिवेशन है। यह ‘चतुर्थ’ शब्द किस ओर इंगित करता है? ‘चतुर्थ’ के संबंध में गोस्वामीजी के शब्दों में सुनिए। उन्होंने ‘विनय-पत्रिका’ में लिखा है-
“ चौथ चारि परिहरहु, बुद्धि मन चित्त अहंकार ।
विमल विचार परम पद, निज सुख सहज उदार ।।”
अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार; इन चारो को छोड़ दो, तो पवित्र विचार, मोक्ष और आत्मानन्द का स्वाभाविक उदार सुख प्राप्त होगा। कहने का तात्पर्य यह कि चौथी अवस्था में जाने के लिए यह चौथा वार्षिक समारोह संकेत कर रहा है। इस चौथी अवस्था में हम जाएँगे कैसे? इस संबंध में गोस्वामीजी क्या कहते हैं, सुनिए-
“ तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनन्त ।।”
अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; इन तीनों अवस्थाओं को छोड़कर भगवान का भजन करो। वे (भगवान) मन, कर्म और वचन को प्रत्यक्ष नहीं होनेवाले व्यापक, व्याप्य और अनन्तस्वरूपी हैं। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; इन तीनों अवस्थाओं में हम प्रतिदिन आते-जाते ही रहते हैं। इन तीन अवस्थाओं को जबतक हम पार नहीं करेंगे, चौथी अवस्था में नहीं जा सकेंगे। तबतक ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ नहीं होगा, ‘असतो मा सद्गमय’ नहीं होगा और न ‘मृत्योर्मा अमृतगमय’ ही होगा। ऋषियों ने कितनी क्रमबद्धता से हमारे सामने ये तीनों बातें रखी हैं-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्मा अमृतगमय’। जरा ध्यान दीजिए-एक ओर तम, असत् और मृत्यु है और दूसरी ओर उसका उल्टा ज्योति, सत् और अमृत है। जबतक हम तम में रहेंगे, तबतक असत् में और मृत्यु-मुख में रहेंगे और जिस दिन हम तम से ज्योति में जाएँगे, उस दिन हम असत् से सत् में चले जाएँगे और उसी दिन हम मृत्यु के मुख से छूटकर अमृतत्व का लाभ करेंगे। यह कैसे होगा? यह तबतक संभव नहीं, जबतक कि हम तीन अवस्थाओं से छूटकर चौथी अवस्था में न चले जाएँ। बिना यौगिक साधना के हम चौथी अवस्था में नहीं जा सकते।
वेदान्त-ज्ञान क्या बतलाता है? ‘वेद’ और ‘अन्त’ से ‘वेदान्त’ शब्द बना है। ‘वेद’ कहते हैं ज्ञान को। ‘वेदान्त’ शब्द का अर्थ होता है-ज्ञान का अंत। ज्ञान का अन्त कहाँ होता है तथा उसका आरम्भ कहाँ से होता है? ज्ञानियों ने ज्ञान को चार भागों में विभक्त किया है-श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव। ज्ञान की परिसमाप्ति होती है, अनुभव में। आरम्भ है श्रवण से। चाहे श्रवण कीजिए या अध्ययन। प्राचीन काल में लोग श्रवण करके अपने स्मृति-पटल पर अटल कर रख लेते थे। इसलिए वेद का पूर्व नाम श्रुति है। कालान्तर में लोगों का मस्तिष्क कमजोर हुआ, दुर्बलता आयी। उस ज्ञान को अक्षरों में बाँधकर पुस्तक का रूप दिया गया, तब उसकी संज्ञा ‘वेद’ की हुई। हम जो कुछ सुनें या अध्ययन करें, उसका मनन करें, उसको आचरण में उतारें।
एक राजा के दरबार में कोई कलाकार तीन मूर्तियाँ लेकर आया। राजा ने पूछा-तीनों मूर्तियों की क्या-क्या कीमत है? कलाकार ने उत्तर दिया-इस पहली मूर्ति की कीमत कोई दे नहीं सकता, यह अनमोल है। दूसरी मूर्ति की कीमत एक कौड़ी है और तीसरी मूर्ति अनमोल है अर्थात््् इसकी कुछ भी कीमत नहीं है। राजा ने मूर्तियों को अच्छी तरह देखा-भला; किन्तु उसकी समझ में बात आयी नहीं। राजा ने मंत्री को बुलाकर उन मूर्तियों को दिखलाते हुए पूछा-इन तीनों मूर्तियों की कीमत तीन तरह की क्यों है? मंत्री ने द्रव्य की दृष्टि से देखा, तीनों का द्रव्य एक था। वजन की दृष्टि से देखने पर तीनों के वजन एक-से थे। कला की दृष्टि से देखने पर तीनों की कला एक-सी थी। मंत्री भी घबराया। सोचने लगा-तीनों के द्रव्यों में उन्नीस-बीस होता अथवा तीनों के वजन में उन्नीस-बीस होता अथवा बनावट में उन्नीस-बीस होता, तो मूल्य में उन्नीस-बीस होता; किन्तु तीनों मूर्तियाँ सब प्रकार से समान होने पर भी मूल्य में अन्तर क्यों? आखिर, मंत्री तो मंत्री ही होते हैं। मंत्री की मंत्रणा से राजा राज्य चलाते हैं। मंत्री के मस्तिष्क में एक विचार आया। उसने हाथ में एक सींकी लेकर पहली मूर्ति के एक कान में डाली। वह सींकी मूर्ति के कान से जाकर हृदय तक पहुँच गई। दूसरी मूर्ति के कान में जब सींकी डाली, तो वह सींकी उस मूर्ति के मुँह से निकल गई। तीसरी मूर्ति के एक कान में जब सींकी डाली गई, तो वह सींकी मूर्ति के दूसरे कान से निकल गई। मंत्री ने कहा-राजन्! तीनों मूर्तियों की कीमत सही-सही है अर्थात् एक आदमी ऐसा होता है कि वह जो कुछ कान से सुनता है, उसको हृदयंगम करता है यानी अपने आचरण में उतारता है; उसकी कीमत कौन दे सकता है? दूसरे प्रकार का व्यक्ति ऐसा होता है कि वह जो कुछ सुनता है, उसको याद रखता है और समय आने पर मुँह से कुछ कहता भी है, उसकी कीमत एक कौड़ी है; लेकिन जो एक कान से सुनता है और दूसरे कान से निकाल देता है, उसकी क्या कीमत होगी अर्थात् कुछ भी नहीं। (सद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
वेदान्त-ज्ञान बतलाता है कि श्रवण से जो ज्ञान हो, उसका मनन करो। श्रवण-मनन से निर्णीत ज्ञान को अपने आचरण में उतारो, अभ्यास में लाओ। अभ्यासी अभ्यास करते-करते शनैः शनैः उसमें अभ्यस्त होता जाता है और निदिध्यासन के अन्त में अनुभव ज्ञान होता है।
जैसे आत्मा के संबंध में हम सुनते हैं कि वह अजर है, अमर है, अविनाशी है, निर्विकार है आदि। श्रवण के पश्चात् उस पर हम मनन करें। मननोपरान्त उस आत्मा का साक्षात्कार कैसे होगा-इसके लिए हम साधना करें। यही साधना है निदिध्यासन। और साधना करके जब हम आत्मसाक्षात्कार कर लेते हैं, वह होता है अनुभव। यही है अनुभव ज्ञान। ‘अनु’ का अर्थ होता है पीछे; ‘भव’ का अर्थ होता है-उत्पन्न। अनुभव ज्ञान उसको कहते हैं, जो सबसे पीछे उत्पन्न होता है। उसके बाद और कोई ज्ञान बाकी नहीं रह जाता। संत सुन्दरदासजी महाराज ने इन चारो प्रकार के ज्ञान की व्याख्या इस भाँति की है-
“ भोजन को नाम सुनि मन में मुदित भयो ,
मुख में न पड़े जौं लौं मेलिये न ग्रास है ।
सकल सामग्री आनि पाक कूँ करन लाग्यो ,
मनन करत कब जीमहुँ यह आस है ।।
रसोई भयो है भोजन करन लाग्यो ,
मुख में मेलत जाइ सोई निदिधयास है ।
भोजन सम्पूर्ण भयो तृप्त भयो है मन ,
सुन्दर साक्षात्कार अनुभव प्रकाश है ।।”
उदाहरणार्थ-सुना कि भोजन करने से पेट भरता है, बल बढ़ता है और तृप्ति होती है, किन्तु केवल सुनने से ही न तो पेट भरता है, न बल बढ़ता है और तृप्ति होती है। भोजन की विशेषता सुनने से मन में प्रसन्नता तो हुई, लेकिन जबतक मुँह में कौर नहीं जाए, एक ग्रास भी भोजन नहीं किया जाए, तबतक उसका कुछ परिणाम नहीं निकलता। जब आटा, चावल, दाल, घृत, नमक, तेल, हल्दी, मिर्च-मसाला आदि लाकर रसोई बनाने लगते हैं और जबतक रसोई बनकर तैयार नहीं हो जाती, तबतक मनन करते रहते हैं कि रसोई बनेगी, तब भोजन करेंगे। जब रसोई बनकर तैयार हो गई, तब मुँह में एक-एक कौर डालने लग गए। चावल डाला-कैसा स्वाद होता है? दाल डाली-कैसा स्वाद होता है? सब्जी डाली-कैसा स्वाद होता है? एक-एक ग्रास करके खाते गए, स्वाद मिलता गया। जैसे-जैसे भोजन करते गए, वैसे-वैसे मालूम होता गया। अब एक चौथाई पेट भरा, अब आधा पेट भरा, अब तीन- चौथाई हुआ और अब पूर्ण हो गया; अब नहीं चाहिए। जबतक भोजन करते हैं, पूर्ण नहीं होता है, तबतक के ज्ञान को निदिध्यास ज्ञान कहते हैं। इसी भाँति साधना कर रहे हैं, प्रगति हो रही है, आगे बढ़ रहे हैं। तीन अवस्थाओं को पार करके चौथी अवस्था में जा रहे हैं। चौथी अवस्था का बहुत लम्बा क्षेत्र है। उसमें हम क्रमशः आगे बढ़ते चले जा रहे हैं। उस मार्ग के दृश्यादृश्य का ज्ञान हो रहा है कि कहाँ-कहाँ क्या-क्या है। जबतक साधना करते रहते हैं, उस समय जो ज्ञान होता है, वह निदिध्यास ज्ञान कहलाता है। इस प्रकार साधना करते-करते जब चौथी अवस्था को भी पार कर जाते हैं, तब पूर्ण ज्ञान होता है। वही पूर्ण ज्ञान आत्मज्ञान कहलाता है। वहाँ अनुभव होता है। अब कुछ जानने के लिए बाकी नहीं रह जाता। जबतक हम श्रवण ज्ञान में, मनन ज्ञान में, निदिध्यास ज्ञान में रहते हैं, तबतक ज्ञान की पूर्णता नहीं होती। ज्ञान की पूर्णता होती है अनुभव में।
एक स्थान पर द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, त्रैत आदि वादवालों की एक सभा हुई। उसमें उन सबके क्रम-क्रम से प्रवचन हुए। उन सब प्रवचनकर्ताओं में से दो सज्जनों-अद्वैतवादी और द्वैतवादी के प्रवचन बड़े प्रभावशाली हुए। अद्वैतवादी के प्रवचन से द्वैतवादी और द्वैतवादी के प्रवचन से अद्वैतवादी प्रभावित हो गए। परिणामतः द्वैतवादी ने अद्वैतवाद को स्वीकार किया और अद्वैतवादी ने द्वैतवाद को। मतलब क्या हुआ? जबतक कोई श्रवण-मनन में रहते हैं, तो वे द्वैती से अद्वैती भी हो सकते हैं और अद्वैती से द्वैती भी अर्थात् अपने विचार में परिवर्तन ला सकते हैं। जब निदिध्यासन करके उस सत्य का साक्षात्कार कर लिया जाता है, तब डगमगाने का प्रश्न नहीं रह जाता है।
वेदान्त-ज्ञान में बतलाया गया है-श्रवण ज्ञान सामान्य अग्नि के समान होता है। मनन ज्ञान बिजली के समान होता है। निदिध्यासन ज्ञान बड़वानल के समान होता है। सामान्य अग्नि थोड़ी-सी वर्षा होगी, बुझ जाएगी। उदाहरणार्थ-किसी ने कुछ कहा, उसका हमने श्रवण किया, वह ज्ञान हमारे अन्दर में है। यदि उस व्यक्ति से किसी अन्य व्यक्ति ने कुछ विशेष प्रकार की बातें समझा दीं, तो हममें परिवर्त्तन आ जाता है, लेकिन उस ज्ञान का जिसने मनन कर लिया है, तो उसका ज्ञान बिजली के समान हो जाता है, वह सामान्य जल से नहीं बुझ सकता, लेकिन बिजली स्थिर रहती नहीं है, उसी तरह मनन ज्ञान स्थिर रहता नहीं है। जब साधना करते हैं, साधनाकालिक ज्ञान बड़वानल के समान होता है। वह समुद्र के जल को मर्यादित रखता है, किन्तु उसमें इतनी क्षमता नहीं होती कि वह समुद्र के समस्त जल का शोषण कर सके। इसी तरह जो निदिध्यास ज्ञान में रहते हैं, वे माया में मर्यादित ढंग से रहते हैं, लेकिन उस ज्ञान में वह क्षमता नहीं है कि मायारूपी समस्त जल का शोषण कर ले। जब कोई साधना में सुनिष्पन्न होकर अनुभव ज्ञान कर लेते हैं, तो वह ज्ञान महाप्रलय की अग्नि के समान होने के कारण द्वैत-प्रपंच को जलाकर भस्मीभूत कर देता है। वेदान्त-ज्ञान बतलाता है कि केवल श्रवण-मनन ज्ञान में ही नहीं रह जाओ, आगे भी बढ़ो अर्थात् निदिध्यासन करके अनुभव भी प्राप्त करो। यह तो वेदान्त के विषय में कुछ कहा। ‘ध्यानयोग’ के विषय में भी कुछ कहने के लिए मुझसे कहा गया है। मुझसे ध्यानयोग पर कहने के लिए आग्रह किया गया है। अतएव समासरूप में ‘योग’ पर प्रकाश डालकर पश्चात् ‘ध्यान’ के विषय में कहना चाहूँगा। भगवान श्रीकृष्ण ने ‘योग’ की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं; यथा-‘योगः कर्मसु कौशलम्’। ‘समत्वं योग उच्यते’ आदि। महर्षि पतंजलि ने चित्तवृत्ति-निरोध को योग कहा है।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया। गीता के अठारहो अध्यायों में अठारह प्रकार के योगों का वर्णन है। इतना ही नहीं, इन योगों के अतिरिक्त उसमें और भी प्रकार के योगों का समावेश है।
योग के आठ अंग हैं। योग का सातवाँ अंग ध्यान है। जैसे यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। यम के पाँच भेद हैं-सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। नियम के भी पाँच प्रकार हैं-शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान। यम-नियम के बाद आसन-सिद्धि है। जबतक कोई यम-नियम का पालन नहीं करेगा, आसन-सिद्धि नहीं आएगी। जबतक आसन-सिद्धि नहीं आएगी, प्राणायाम में सफलता नहीं मिल सकती। इस प्रकार इसमें क्रमबद्धता है। यम-नियम का जो कोई पालन करेगा, उसको आसन-सिद्धि होगी। आसन-सिद्धि के बाद जब वह प्राणायाम करेगा, तो उसमें उसको सफलता मिलेगी, लेकिन इतने में ही योग का अंत नहीं हो जाता। प्राणायाम के बाद प्रत्याहार होता है। प्रत्याहार के बाद धारणा और धारणा के बाद ध्यान होता है। हम भजन-पूजन में मन लगाना चाहते हैं, मन लगता नहीं, भागता है। बैठते हैं पूजा करने के लिए ध्यान करने के लिए; लेकिन जरा मन से पूछ लो, तो कितनी देर तुम्हारे मन ने ध्यान किया? जिस लक्ष्य पर तुम अपने को लगा रहे थे, कितनी देर तक उस लक्ष्य पर तुम्हारा मन टिका रहा? मन कहाँ-कहाँ भागता है, कहाँ-कहाँ चक्कर काटता है, ठिकाना नहीं। तन को तो हम पूजा-घर की कोठरी में बंद करके रख लेते हैं; किन्तु क्या मन को भी बंद करके रखते हैं? मन तो इंग्लैंड, अमेरिका, रूस, जापान आदि न जाने कहाँ-कहाँ चक्कर काटता रहता है। संत सुन्दरदासजी ने कहा है-
“ पल ही में मरि जाय पल ही में जीवत है ।
पल ही में पर हाथ देखत बिकानो है ।।
पल ही में फिरत नौ खण्डहू ब्रह्माण्ड सब ।
देख्यो अनदेख्यो सो तो या तो नहिं छानो है ।।
जातो नहिं जानियत आवतौ न दीसै कछु ।
ऐसी बलाय अब तासो पड़यो पानो है ।।
सुन्दर कहत याकी गतिहू न लखि पड़ै ।
मन की प्रतीत कोउ करै सो दिवानो है ।।”
संत पलटू साहब के वचन में आया है-हमारा मन इतना तीव्रगामी है कि इसके सामने कोई सवारी इससे अधिक नहीं चल सकती।
“ मन नहीं पकड़ा जाय बहादुर ज्वान है ।
करत रहै खुरखुन्द बड़ा शैतान है ।।
ऐसा यार हरीफ बसै इस हलक में ।
अरे हाँ रे पलटू उड़ता कोस हजार
पंख बिनु पलक में।।”
आज के भौतिक विज्ञान के विकास में चाहे जितने प्रकार के यानों का निर्माण क्यों न हो गया हो, मन की गति के सामने सभी न्यून हैं। दुर्दान्त मन के संदर्भ में संत कबीर साहब ने कहा है-
“ साधो यह मन है बड़ जालिम ।
जिसको मन से पला पड़ा है, तिसही होगा मालिम।।”
एक दिन चीनी ने अपनी सहेली से कहा-बहन! देखो, मैं कितनी गोरी हूँ? जरा तोड़कर देखो-मैं बाहर-भीतर एक-सी उजली हूँ। मेरा बाहर-भीतर; दोनों साफ है। सहेली ने उत्तर दिया-बहनजी! अपने को तो सब अच्छा-ही-अच्छा कहते-समझते हैं। अपने को बुरा कौन कहता है? चीनी ने पूछा-अच्छा, तो तुम दिखला दो मुझमें क्या खोट है? सहेली ने पूछा-देखोगी, तुममें क्या खोट है? चीनी ने कहा-हाँ, दिखलाओ। सहेली ने उस चीनी को पानी में घोल दिया, चूल्हे पर चढ़ा दिया और नीचे से आँच देना शुरू किया। जैसे आँच देना आरंभ हुआ, तो धीरे- धीरे मैल उबल-उबलकर बाहर निकलने लगी। सहेली ने छलनी से मैल को छानकर दिखाते हुए कहा-देखो बहन! तुम अपने को बाहर-भीतर साफ कहती थी। यह मैल कहाँ से आ गई? ऐसे ही हम अपने को बहुत ठीक समझ रहे हैं; लेकिन जब ध्यानाभ्यास करने के लिए हम बैठते हैं और साधना की आँच लगती है, तब मन के विकार निकलते दीखते हैं। इसलिए संत कबीर साहब ने कहा-
‘जिसको मन से पला पड़ा है, तिसही होगा मालिम ।’
उन्होंने ऐसा भी कहा है-
“ बाजीगर का बानरा, यह मन ऐसा जान ।
जीति लेइ तो खेल है, नातर गाहक जान ।।”
यह मन बंदर के समान है। मदारी बंदर को नचाता है, तमाशा दिखलाता है। बंदर ठीक-ठीक तमाशा दिखलाता है, तो कुछ पैसे मिल जाते हैं, जिससे मदारी की अपनी जीविका चलती है और वह बंदर को भी खिलाता है। वही बंदर यदि किसी की साड़ी पकड़कर खींचे अथवा किसी को दाँत काटे वा नोचने लग जाए, तब क्या होगा? बंदर पर तो लाठी पड़ेगी ही, मदारी पर भी प्रहार होगा। उसी बंदर की तरह हमारा मन है। इस मन को कैसे जीतोगे? जबतक निदिध्यासन नहीं करोगे, नहीं जीत सकोगे। साधन करते समय प्रत्याहार में हारो मत। ‘प्रत्याहार’ का क्या अर्थ होता है? प्रति+आहार=प्रत्याहार। जो भाव उत्पन्न हो, उसको खा जाओे। यदि तुम उसको नहीं खाओगे, तो तुमको ही वह खा जाएगा। ध्यानाभ्यास करने के समय मन ऐसा-ऐसा हवाई महल बनाता है, क्या कहा जाए? बैठा है कहाँ और कहाँ-कहाँ चक्कर लगाता है, क्या-क्या करता है-ठिकाना नहीं। इसलिए संतगण कहते हैं-पहले प्रत्याहार करो। जैसे आहार करते हैं, उसी प्रकार उसको खाते जाओ। साधनाकाल में मन में जो-जो भाव उत्पन्न हो, उसको तत्क्षण खा जाओ। फिर भी मन में कुछ आवे, अविलम्ब उसको खा जाओ। तात्पर्य यह कि जितना आता जाए, सबको खाते चले जाओ। अगर ऐसा नहीं करोगे, तो बैठोगे जप करने के लिए और किसी से गप करने लग जाओगे। गप करते-करते ही समय समाप्त हो जाएगा। इसलिए प्रत्याहार में हारो मत। जो प्रत्याहार में हार जाएगा, उसकी जीत कभी नहीं होगी। यह अच्छी तरह समझ लो कि मन जड़ है और हम अजर, अमर, अविनाशी, सब सुख-राशि हैं। गोस्वामीजी के शब्दों में कह सकेंगे-
“ ईश्वर अंस जीव अविनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ।।
सो मायाबस भयेउ गुसाईं ।
बँधेउ कीर मरकट की नाईं ।।”
गोस्वामीजी की भावना को संत कबीर साहब की भाषा में सुनिए-
“ भैया कोइ न पतियाय ।
बघवा के बचवा बिलइया लिय जाय ।।”
बाघ के बच्चे को बिल्ली लेकर भाग रही है। इस बात पर कौन विश्वास करेगा? जीवात्मा ईश्वर का अभिन्न अंश है। आत्मा अजर है, अमर है, अविनाशी है। यह माया के फेर में पड़ा हुआ है।
“ मन तोहि नाच नचावै माया ।
आसा डोरि लगाय गले बिच नट जिमि कपिहिं नचाया ।
नावत सीस फिरै सबहीं को नाम सुरत बिसराया ।।
नाम हेतु तू कबहुँ न नाचै जो सिरजल तेरी काया ।
काम हेतु तू निशिदिन नाचै क्यों तू भरम भुलाया ।।”
हम चेतन हैं और मन है जड़। जड़-चेतन की लड़ाई चल रही है। एक-न-एक दिन मन की हार और चेतन की जीत होगी। यह सुनिश्चित है।
साधना की सफलता में दो बड़े विघ्न होते हैं-एक है आलस्य और दूसरा है गुनावन। कितने लोग तो ध्यानाभ्यास करने के लिए बैठते हैं और बैठे-बैठे सो जाते हैं। ध्यानाभ्यास करते समय सजग होकर रहना चाहिए। जो लक्ष्य है, उस पर अपने को लगाकर रखो, तो नींद नहीं आएगी। इतिहास बतलाता है कि खैबर-बोलन घाटियाँ पार करके आर्य भारत आए थे। आध्यात्मिक आर्य-देश हमारे भीतर है। जबतक आलस्य और संकल्प-विकल्परूपी खैबर-बोलन घाटियाँ हम पार नहीं करेंगे, आर्यदेश नहीं पहुँच सकेंगे। प्रमादी साधक का बहुत समय संकल्प-विकल्प में या नींद में ही बीत जाता है। इन दोनों घाटियों को पार करो, तब आर्य-देश में जाओगे। वह आर्य-देश क्या है? आँखें बन्द करने पर अंधकार देखते हो, यह अनार्य-देश है, अज्ञानता का देश है। तुम्हारे अंदर प्रकाश हो, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ हो, तब समझो कि आर्य-देश है अर्थात् ज्ञान का देश है। अंधकार में अज्ञानता रहती है। प्रकाश में ज्ञान होता है। उदाहरणार्थ-जैसे अभी हमलोग यहाँ प्रकाश में बैठे हैं, तो सभी एक-दूसरे को देख रहे हैं। यदि अभी अँधेरा छा जाए, तो कोई किसी को नहीं देख सकते। तब उस समय कौन भीतर आए और कौन भीतर से बाहर चले गए-पता नहीं लगेगा। तात्पर्य यह कि अंधकार अज्ञानता का और प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है। यह तो बाहर की बात हुई। ठीक इसी तरह जब हम आँखें बंद करके देखते हैं, तो अंधकार मालूम होता है। जबतक तम है, तबतक यम है। जब हम तम से निकलकर प्रकाश में जाएँगे, तब हम यम के जाल से निकलेंगे, अन्यथा कोई शक्ति नहीं कि हम अंधकार में रहें और यमजाल से मुक्त रहें। अन्तःप्रकाश पाने पर ही हम यम के फन्दे से छूट सकते हैं। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ घर घर दीपक बरै, लखै नहिं अंध है ।
लखत लखत लखि पड़े, कटै यम फन्द है ।।”
बिना सूक्ष्म-ध्यान किए प्रकाश पाना संभव नहीं। अपने को अंधकार से निकालो। यह होगा कैसे? प्रत्याहार के बाद है धारणा। धारणा कहते हैं अल्प टिकाव को। जो मन पहले भागता था, उसको समेटते थे। इस प्रकार मन के बार-बार का भागना और उसको बार-बार समेटना प्रत्याहार कहलाता है। निरंतर प्रत्याहार करते-करते थोड़ी देर के लिए मन रुकता है, फिर भागता है। यह थोड़ी देर का रुकना है धारणा और यही धारणा जब देर तक होने लगती है, तब होता है ध्यान। मात्र स्थूल सगुण साकार ध्यान ही ध्यान नहीं है। ज्ञानसंकलिनी तंत्र में लिखा है-
“ न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्यगतं मनः ।
तस्य ध्यानप्रसादेन सौख्यं मोक्षं न संशयः ।।”
अर्थात् ध्यान को ध्यान नहीं कहते हैं, शून्यगत मन को ही ध्यान कहते हैं।
किसी ने मीराबाई से पूछा था कि हमलोग जो ध्यानाभ्यास करने के लिए बैठते हैं, तो पता नहीं, मन कहाँ-कहाँ चक्कर काटता है। तुमने कौन-सी साधना की, कैसी साधना की कि तुम्हारा मन काबू में आ गया। मीराबाई ने उत्तर दिया-
‘मीरा मन मानी सुरत सैल असमानी ।’
सुरत से आसमान की सैर की, तब मीरा का मन मान गया। विचारणीय विषय है-मीराबाई किस सवारी से आसमान की सैर करती थी? हेलीकॉप्टर से या वायुयान से या रॉकेट से? परम भक्तिन मीराबाई की यात्र बाह्याकाश की नहीं, अन्तराकाश की थी। उनका यान विन्दु और नाद था।
“ विन्दु नाद अगुआइ, तुमहिं ले जायेंगे ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ ज्योति मण्डल
सह नाद की सैर दिखायेंगे ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
शून्य का गुण शब्द होता है, जिससे मन वश में होता है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ शून्य ध्यान सबके मन माना ।
तुम बैठो आतम स्थाना ।।”
जबतक शून्य-ध्यान नहीं होगा, मन पूर्णरूपेण वश में नहीं होगा। परिणामतः आत्मस्थ होना संभव नहीं है।
ध्यान की विविध विधियाँ हैं, पद्धतियाँ हैं, प्रकार हैं। आरंभ में स्थूल सगुण साकार का ध्यान होता है। पश्चात् सूक्ष्म सगुण साकार-ध्यान होता है, तत्पश्चात् सूक्ष्मतर सगुण निराकार का ध्यान होता है और अन्त में सूक्ष्मतम निर्गुण निराकार का ध्यान होता है। इस प्र्रकार सीढ़ी-दर-सीढ़ी इसकी क्रमबद्धता है। जब हम ध्यान करने के लिए बैठते हैं, तो पहले स्थूल सगुण साकार का ध्यान करते हैं। क्यों? इसलिए कि जैसे जबतक कोई पहले मोटे-मोटे अक्षरों को नहीं लिख लेता, महीन अक्षर लिखने की योग्यता नहीं होती। उसी तरह जबतक कोई मोटी उपासना नहीं कर लेता, सूक्ष्म उपासना करने की क्षमता नहीं आती। माताएँ चौके में रोटी बनाने के लिए जाती हैं, सबसे पहले दिन की कैसी रोटी बनती है-मोटी रोटी बनती है या पतली? पहले दिन की जो रोटी होगी, वह टेढ़ी-मेढ़ी होगी, मोटी होगी, कच्ची रोटी होगी, संभवतः जल भी जाएगी और वे ही जब प्रतिदिन बनाने लगती हैं, तब वह रोटी मोटी नहीं होती, अब वह रोटी से हो गया फलका, भारी से हल्का। इसलिए कहा गया है-
“ करत करत अभ्यास तें, जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत जात तें, सिल पर पड़त निसान ।।”
और भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।’
ध्यान करने का अभ्यास करो और विराग भी रखो। ध्यान किसको कहते हैं?
‘ध्यानं निर्विषयं मनः ।’
हमारा मन निर्विषय हो जाए-यह ध्यान है। हमारा मन विषयों को ग्रहण करता है। हमारा मन इन्द्रियों को प्रेरित करता है, तब इन्द्रियाँ काम करती हैं। मन जो चाहेगा, हमारी इन्द्रियाँ वही करेंगी। जैसे हमारे सामने भोजन की थाली परोसी हुई है। भोजन की पचीस प्रकार की सामग्रियाँ हमारे सामने हैं। उन पचीसों में मन जिसको पसन्द करेगा, हाथ उसी पर जाएगा। पेड़ा है, रसगुल्ला है, टिकड़ी है, बर्फी है, गुलजामुन है, भात है, दाल है, साग है-आदि सब हैं। मन कहता है-पहले टिकड़ी खाकर देखो, तो चौबीस चीजें छूट जाएँगी, हाथ जाएगा टिकड़ी पर। हाथ ने टिकड़ी उठा ली। अब मुँह में देना चाह ही रहे हैं कि मन ने कहा-पहले टिकड़ी नहीं, पहले रसगुल्ला खाकर देखो। ऐसी स्थिति में टिकड़ी छोड़कर रसगुल्ला उठाकर खाना आरंभ कर देंगे। कठोपनिषद् में लिखा है-यम ने नचिकेता से कहा था-‘इन्द्रियाणां मनो नाथो।’ अर्थात् इन्द्रियों का नाथ मन है। यह मन कैसे वश में होगा? इसी के लिए शम, दम की साधना की जाती है। इन्द्रिय-निग्रह के लिए दम की साधना है और मनोनिग्रह के लिए शम की। जबतक दम और शम की साधना कोई नहीं करेगा, तबतक इन्द्रिय-निग्रह और मनोनिग्रह नहीं हो सकता है। हमारी आँख जहाँ काम करती है, हमारा मन वहाँ पर रहता है। जबतक हमारी आँख काम करती है, तबतक हमारा मन काम करता है। जब हमारा नेत्र काम करना बंद कर देता है, तब हमारा मन भी काम करना बंद कर देता है। जैसे हम अखबार पढ़ रहे हैं या कोई पुस्तक पढ़ रहे हैं। देख रहे हैं कि उसमें क्या लिखा है और जब निद्रा देवी आती है, तो आँखें बंद हो जाती हैं, तब क्या पढ़ रहे हैं-कुछ पता नहीं। इससे निष्कर्ष निकला कि आँखों के काम करने पर मन काम करता है और आँखों का काम बंद होने पर मन का काम भी बंद हो जाता है। अखबार अथवा पुस्तक हमारे सामने टेबुल पर रहने पर भी आँखें बंद होने पर हम उससे बेखबर हो जाते हैं। कुछ ही देर में यदि हमारी आँखें खुल जाती हैं-हम जग जाते हैं, तो हमारा मन भी काम करना प्रारंभ कर देता है अर्थात् हम पढ़ने लग जाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश ध्यान के लिए है। ध्यान कैसे करना है, उसके लिए वे बतलाते हैं-
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को देखने की कला बतलायी। श्रीमद्भगवद्गीता में जिसको ‘संप्रेक्ष्य’ कहा गया है, उसी को जैनधर्म में ‘प्रेक्षा ध्यान’ कहते हैं। जाबालदर्शनोपनिषद् में आया है-‘पश्येन्नेत्रभ्यां सुसमाहितः।’ पश्येन् (पश्येत्)=देखे। उपनिषद् में पश्येन् ध्यान बतलाया गया है और बौद्धधर्म में ‘विपश्यना’ कहा गया है। चाहे पश्येन कहिए, विपश्येन कहिए, प्रेक्षा कहिए, सम्पेक्ष्य कहिए, वस्तु एक ही है, लेकिन-
“ भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रंथ से ।
है असंभव समझ लो किसी संत से ।।”
यदि कोई बतानेवाला आचार्य नहीं है, तो जो कोई अपने मन से करेंगे अथवा करते हैं, तो उसका परिणाम बुरा भी हो सकता है, लाभ की जगह हानि भी हो सकती है; यथा-एक वृद्ध सेठजी थे। उनके जीवन का अंतिम समय आ गया था। उनकी बोली बंद हो गई थी। गला अवरुद्ध हो गया था। अब वे अपने पुत्र को अपने मन की बात कहें, तो कैसे? उन्होंने एक कागज पर लिखा-‘बेटा! मेरा अंतिम समय है। तुमको अंतिम उपदेश दे रहा हूँ-अपने घर से दूकान तक ठंढे-ठंढे जाना और ठंढे-ठंढे आना। बेटा! स्वादिष्ट भोजन करना और लहना लगाकर तगादा नहीं करना।’ सेठजी का शरीर छूट गया। लड़के ने अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर घर से लेकर दूकान तक, जिसकी चार किलोमीटर की दूरी थी, छत बनवायी; क्योंकि पिताजी के आज्ञानुसार घर से दूकान तक ठंढे-ठंढे जाना और ठंढे-ठंढे आना था। छत पिटवाने में ही कई करोड़ रुपये लग गए। स्वादिष्ट भोजन करने के लिए उत्तमोत्तम चीजें बनवाकर, मँगवाकर प्रतिदिन खाने लगा और जो कोई कर्ज माँगने के लिए आया, उसको देता चला गया; किन्तु दी हुई रकम की कर्जदार से कभी फिरौती की माँग नहीं की; क्योंकि लहना लगाकर तगादा नहीं करना था। धीरे-धीरे सेठ-पुत्र की हालत पतली होती गई। यहाँ तक कि खाने-पीने के लिए वह दाने-दाने का मुहताज हो गया। अब वह करे तो क्या? विवश होकर एक दिन वह अपने पिताजी के समय के मुनीम के पास जाता है और कहता है-‘मुनीमजी! मेरी आर्थिक दशा बड़ी दयनीय हो गई है, आप मुझ पर कृपा करें।’ मुनीमजी ने आश्चर्यित होकर पूछा-‘अरे! तुम्हारे पिताजी ने तो अतुल सम्पत्ति का अर्जन किया था, फिर तुम्हारी आर्थिक दशा दयनीय क्यों हो गयी?’ सेठ-पुत्र ने उत्तर दिया-‘क्या बतलाऊँ! पिताजी की जैसी आज्ञा हुई थी, उससे भिन्न मैंने कुछ किया नहीं, फिर भी पता नहीं, मेरी यह दीन दशा क्यों हुई?
मानस में लिखा है-
“ गुरु पितु मातु स्वामी सिख पाले ।
चलइ कुमग पग परइ न खाले ।।”
अर्थात् गुरु, पिता, माता और स्वामी की आज्ञा में चलने से कभी पैर में छाला नहीं पड़ता अर्थात् किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता। उन्हीं पिताश्री की आज्ञा के अनुकूल मैं चला हूँ।’ मुनीमजी ने पूछा-‘तुम्हारे पिताजी ने क्या आज्ञा दी थी?’ सेठ-पुत्र ने उत्तर दिया-‘अन्त समय में मुँह से वे कुछ बोल नहीं सके; क्योंकि उनका गला अवरुद्ध हो गया था। उन्होंने कागज पर लिख दिया था-बेटा! अपने घर से दूकान ठंढे-ठंढे जाना और ठंढे-ठंढे आना। स्वादिष्ट भोजन करना और लहना लगाकर तगादा नहीं करना।’ मुनीमजी ने पूछा-‘तुमने क्या किया?’ सेठ-पुत्र ने उत्तर दिया-‘लिखा था-ठंढे-ठंढे जाना और ठंढे-ठंढे आना, तो मैंने घर से लेकर दूकान तक छत बनवा दी। अब ठंढे-ठंढे जाता हूँ और ठंढे-ठंढे आता हूँ। और मुनीमजी! स्वादिष्ट भोजन बनाने में तो खर्च पड़ता ही है। उसमें प्रतिदिन पैसे खर्च होते गए। पिताजी की यह भी आज्ञा थी कि लहना लगाकर तगादा नहीं करना, तो मेरे पास जो कोई कर्ज माँगने के लिए आया, उन सबको मैं देता गया। मैंने पैसे वापस किसी से माँगे नहीं, किसी ने वापस किए नहीं।’ मुनीम ने कहा-‘बेटा! तुमने अपने पूज्य पिजाजी की बातें समझी नहीं। उनके कहने का अर्थ कुछ और था। सुनो! घर से दूकान तक ठंढे-ठंढे जाने और ठंढे-ठंढे आने का यह अभिप्राय है कि घर से सबेरे दूकान पर जाना, दिनभर दूकान पर रहना और शाम होने पर घर लौटकर आना। यह है ठंढ़े-ठंढे जाना और ठंढे-ठंढे आना। स्वादिष्ट भोजन करने का मतलब है-खूब भूख लगने पर भोजन करना। अगर भूख नहीं है, तो उत्तम-से-उत्तम स्वादिष्ट भोजन में भी स्वाद नहीं लगेगा और भूख लगने पर सत्तू, भूँजा-जो भी खाओगे, मीठा लगेगा। लहना लगाकर तगादा नहीं करने का अर्थ-भाव यह है कि ऐसे आदमी को कर्ज दो, जो कि बिना तगादा किए वापस कर दे।
इसी तरह संतों ने, भगवन्तों ने आत्मकल्याण की सारी बातें कह दी हैं, किताबों में सारी बातें लिख दी हैं, लेकिन जबतक हम मुनीमरूपी संत सद्गुरु के पास नहीं जाएँगे, तबतक यथार्थ ज्ञान का पता नहीं चलेगा। इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण का यह स्पष्ट संकेत है-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
तत्त्वज्ञान सीखने के लिए तत्त्वदर्शी के पास जाओ। उनको सादर प्रणाम करो। सेवा करो, तत्पश्चात् जिज्ञासा करो। वे तुम्हारी जिज्ञासा पूर्ण करेंगे।
जरा सोचो, सीखना क्या है? मैट्रिक पास करने के बाद विद्यार्थी स्वयं सोचता है-निर्णय लेता है। आर्ट्स सीखना है, कॉमर्स सीखना है या साइन्स सीखना है। विचारो, यदि तुमको आर्ट्स सीखना है और तुम जाओगे साइन्स के प्रोफेसर के पास, तो वे तुमको क्या सिखाएँगे? अथवा यदि सीखना है कॉमर्स और जाओगे आर्ट्स-प्रोफेसर के पास, तो वे क्या सिखावेंगे अथवा यदि तुमको साइन्स सीखना है और तुम जाओगे आर्ट्स या कॉमर्स के प्रोफेसर के पास, तो वे तुमको क्या बताएँगे? जो विद्या सीखनी है, उस विद्या के योग्य प्रोफेेसर के पास जाओ। उसी तरह यदि आध्यात्मिक ज्ञान सीखना है, तो अध्यात्म-ज्ञानी के पास जाओ। आत्मा क्या है, अनात्मा क्या है; बंध क्या है, मोक्ष क्या है-जो इसको जानते हैं, जिन्होंने साधना की है, साधना करके सत्य का प्रत्यक्षीकरण किया है, अनुभव ज्ञान प्राप्त किया है, उनके पास जाओ।
“ बिन दया सन्तन की ‘मेँहीँ’ जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं वो होनहारा है नहीं ।।”
योग का सातवाँ अंग है ध्यान। इस साधना को करते-करते जब पूर्णता आती है, तब समाधि होती है। यह समाधि योग का आठवाँ अंग है। समाधि दो प्रकार की होती है; एक होती है-सम्प्रज्ञात समाधि और दूसरी होती है-असम्प्रज्ञात समाधि। इस प्रकार समाधि में भी भेद है। समाधि में जब जीव-पीव दोनों मिलकर एक हो जाते हैं, तब द्वैतता मिट जाती है, अद्वैत हो जाता है। यह नादानुसंधान की साधना से होता है। जबतक कोई नादानुसंधान नहीं करता, तबतक मन पूर्णरूपेण वश में नहीं होता। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि ।
सत्तसब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।”
दृष्टियोग की साधना से दम अर्थात् इन्द्रिय-निग्रह और नादानुसंधान से शम अर्थात् मनोनिग्रह होता है।
आज संसार में नादानुसंधान की संज्ञा देकर लोग विविध रूपों में उसका प्रचार कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में नादानुसंधान क्या है-इसका ज्ञान किसको है, किसको नहीं है-यह कहना कठिन है। कोई कहते हैं-कान बंद करके सुनो-यह नादानुसंधान है। कोई कहते हैं-बिछावन पर लेटकर जमीन में कान लगाकर सुनो-यही नादानुसंधान है। कोई ट्वीन लगाकर, बजाकर सुनते और सुनाते हैं, उसी को नादानुसंधान कहते हैं, किन्तु यह नादानुसंधान नहीं है। नादानुसंधान के संबंध में उपनिषदों में लिखा है-
‘विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम् ।’
जो विन्दु-ध्यान करता है, विन्दु पर अपने को प्रतिष्ठित कर पाता है, तो नाद स्वतः प्रस्फुटित होता है, तब नाद-ध्यान होता है। उस समय हमारी दसो इन्द्रियाँ नीचे छूट जाती हैं। ग्यारहवीं इन्द्रिय मन जब आज्ञाचक्र सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है, तब नाद-श्रवण होता है। वैदिक ऋषियों ने जिसको ‘सुषुम्ना’ कहा है, सूफी फकीरों ने उसको ‘शहरग’ कहा है।
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।
कुदरती काबे की तू मेहराब में सुन गौर से ।
है आ रही धुर से सदा तेरे बुलाने के लिए ।।
गोश बातिन हो कुशादा जो करै कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिए ।।”
संत तुलसी साहब कहते हैं-प्रियतम को पाने लिए तुम बाह्य संसार में क्यों भटक रहे हो? उस दिलवर के पास जाने का रास्ता तुम्हारे दिल-अन्दर है। सुषुम्ना-मार्ग से प्रवेश करो, पाओगे। कृत्रिम काबे में नहीं; प्राकृतिक-प्रभुकृत काबे की मेहराब में लगन लगाकर सुनो। तुम्हारे बुलाने के लिए धुरधाम से आवाजे गैब आती है, उसको सुनो। स्मरण रखो कि स्थूल शरीरस्थ स्थूल कान से उसकी नहीं सुन सकते। सुषुम्ना में दृष्टि स्थिर होने पर बाहर का कान बन्द हो जाएगा, आन्तरिक कान खुलेगा। उसी कान से उस नाद को सुन सकोगे। आदिनाद परमात्म- धाम से आता है, वह तुमको परमात्मा से जाकर मिला देगा। नादविन्दूपनिषद् में नाद की महती महिमा गाई गई है; यथा-
“ मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
नियामनसमर्थोंऽयं निनादो निशितांकुशः ।।”
जिस तरह मदमस्त हाथी कदली-वन में जाकर वृक्षों को तोड़ता-फाड़ता, मचोड़ता, खाता और विचरण करता है, किन्तु जब महावत आता है और उसको अंकुश मारता है, तो वह पीछे की ओर भागता है। उसी तरह हमारा गजराज मन जो विषयों की वाटिका में विचरण करता है, नादानुसंधान करते-करते पीछे की ओर मुड़ता है अर्थात् विषय की ओर से निर्विषय की ओर हो जाता है। वह निर्विषय तत्त्व ही परमात्मा है।
“ नाद सों नादों में चलि धरु प्रणव सत ध्वनि सार ।
एक ओऽम् सत्तनाम ध्वनि धरि ‘मेँहीँ’ हो भव पार ।।”
जब कोई प्रणव की साधना करता है, तो जीव-पीव मिलकर एक हो जाता है। गो0 तुलसीदासजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ सरिता जल जलनिधि महँ जाई ।
होइ अचल जिमि जिव हरि पाई ।।”
नदी का जल समुद्र में जा-मिलकर एक हो जाता है, वहाँ वह अचल हो जाता है। अब उसकी संज्ञा ‘नदी’ की नहीं रह जाती, वह समुद्र हो जाता है। उसी तरह जीव पीव से मिलकर एकमेक हो जाता है, उसकी द्वैतता मिट जाती है। तब उसकी संज्ञा ‘जीवात्मा’ की नहीं, ‘परमात्मा’ की हो जाती है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत भागलपुर के वेदान्त सत्संग
भवन में दिनांक 03-05-1998 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जुलाई+अगस्त+सितम्बर 1998 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
एक माई दही बेच रही थी, लोगों ने पूछा-‘माई दही कैसा है?’ माई ने कहा-‘बाबू गुड़ मिलाकर खाएँगे तो दही मीठा लगेगा।’ वास्तविक बात तो यह थी कि माई का दही खट्टा था, लेकिन अपने दही को खट्टा कौन कहे। उसी प्रकार मुझमें जो दुर्गुण रूप खटाई है, उसे आपलोगों ने सद्गुण रूपी गुड़ मिलाकर अभिनन्दन पत्र, स्वागताध्यक्ष के भाषण और स्वागत-गान से मीठा बना दिया है। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय।)
आप जिन विद्वानों ने मेरा अभिनन्दन किया है उसका मैं अभिवन्दन करता हूँ। अररिया जिला वार्षिक संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन ग्राम भटगामा में होने जा रहा है। भटगामा = भट+गामा। भट्= योद्धा, वीर तथा गामा = गाँव, बस्ती। अर्थात् योद्धाओं की बस्ती। बाहर के शत्रुओं को जीतने वाले योद्धा या वीर कहे जाते हैं।
वास्तविक बात तो यह है कि हमलोगों के अंदर सदैव सत्य-असत्य, आसुरी-दैवी स्वभाव अच्छाई-बुराई के बीच द्वन्द्व होता रहता है। इस द्वन्द्व में जो जुझकर पराजित नहीं होता है। वही वीर है। इस क्षेत्र को गुरु महाराज सत्संग का गढ़ कहा करते थे। गुरुदेव पैदल तथा बैलगाड़ी से घूम-घूमकर संतमत-सत्संग का प्रचार-प्रसार किये हैं। प्रारंभ से ही इस क्षेत्र के कई अच्छे साधक एवं साधू हुए हैं। कई बार गुरुदेव के साथ मुझे भी इस गाँव में पहले आने का मौका मिला है। अभी विद्वान् उद्घोषक प्रो0 रवीन्द्र बाबू से जो मेरे बारे में कुछ सुना। वह आपलोगों की महानता है। किसी विद्वान ने कहा है-
‘जहाँ न जाय रवि, तहाँ जाय कवि।’
ये तो कविन्द्र रविन्द्र ही हैं, जहाँ सूर्य की पहुँच नहीं, वहाँ कवि पहुँच जाते हैं। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय।)
प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, शांति चाहता है, कल्याण चाहता है। क्यों? वह दुःख की अवस्था में है। अशान्त रहता है, इसलिए शांति चाहता है। अकल्याण की दशा में है, इसलिए कल्याण चाहता है। स्वाभाविक बात है कि जिसको प्यास लगती है, वही पानी पीना चाहता है। जिसको गरमी लगती है, वह शीतलता चाहता है। उसी तरह यह जीव दुःखी है, इसलिए सुख चाहता है। उसका यह दुःख आज का नहीं है, बल्कि जबसे संसार में आया है, तबसे उसके पीछे दुःख लगा हुआ है। इस दुनिया को ही दुःखालय कहते हैं। इस दुनिया में जितने भी लोग आए, कोई भी सुखी नहीं नहीं रहे। सब-के-सब दुःख उठाए। संत कबीर साहब ने तो कहा है-
“ तनधर सुखिया कोइ न देखा, जो देखा सो दुखिया हो ।
उदय अस्त की बात कहतु हैं, सबका किया बिबेका हो ।।
घाटे-बाढे़ सब जग दुखिया, क्या गिरही बैरागी हो ।
सुकदेव अचारज दुख के डर से, गर्भ से माया त्यागी हो ।।
जोगी दुखिया जंगम दुखिया, तपसी को दुख दूना हो ।
आसा तृस्ना सबको ब्यापै, कोई महल न सूना हो ।।
साँच कहौं तो कोई न मानै, झूठ कहा नहिं जाई हो ।
ब्रह्मा बिस्नु महेसुर दुखिया, जिन यह राह चलाईहो ।।
अवधू दुखिया भूपति दुखिया, रंक दुखी बिपरीती हो ।
कहै कबीर सकल जग दुखिया, संत सुखी मन जीती हो ।।”
सुखी कौन है? जो मन को जीता है, वहीं सुखी होता है। दरअसल मन को जीतनेवाले संत ही होते हैं। वास्तविक वीर, योद्ध वहीं हैं।
जब ब्रह्मा, विष्णु, महेश; सब-के-सब दुखी हुए, तो मृत्युलोक और स्वर्गलोक की बात ही क्या? जरा सोचकर देखिए, जिस समय हमलोग अपनी माता के गर्भ में थे, किस स्थिति में थे, वह स्थान कैसा था? गोस्वामी तुलसीदासजी इस भाँति वर्णन करते हैं-
“ आगे अनेक समूह संसृति उदरगत जान्यो सोऊ ।
सिर हेठ ऊपर चरण संकट बात पूछे नहिं कोऊ ।।
सोनित पुरीष जो मूत्र मल कृमि कर्दमावृत सोवई ।
कोमल शरीर गंभीर वेदन सीस धुनि धुनि रोवई ।।”
रोने का आरंभ वहीं हो गया। जब माता के गर्भ में थे, तब वहाँ रक्त, पीव, मल-मूत्र था और उसी के कीड़े में हम पड़े थे। वहाँ उन गंदगियों के कीड़े हमारे कोमल शरीर में काटते थे और अब हम छटपटाते थे। जिस माताजी के गर्भ में हम थे, वह बेचारी कुछ नहीं कर सकती थी। फिर पिताजी बेचारे क्या करते! हम रोते हुए पुकारते थे-रक्षा करो, हे प्रभु! हमें इस कष्ट से निकालो। हम आर्त्त होकर प्रार्थना करते थे। प्रभु की अव्यक्त कृपा हुई और उन्होंने हमें उस बंद कोठरी से निकाल दिया। अगर किसी को भी बंद कोठरी में रखें और उस कोठरी में किसी तरफ से भी हवा न जाए, तो वह वहाँ कितने कष्टों में रहेगा; सोचने की बात है। माता का गर्भ भी बंद कोठरी की तरह ही हैै। जाड़ा, गरमी, बरसात; कितनी ऋतुएँ वहाँ बीत जाती हैं; लेकिन प्रभु की कृपा से कुछ नहीं होता। यहाँ गरमी लगती है, तो माँ पंखा झेलने लगती है; ठंढ लगती है, तो ओढ़ना ओढ़ा देती है; लेकिन जब माँ के पेट में हम थे, तब वहाँ परमात्मा के अतिरिक्त और कौन सहायक था। परमात्मा ने ही हमारी रक्षा की।
“ दस मास रहे जब गर्भ में ही,
तब ही प्रभु से हम कौल कियो ।
मैं बाहर होऊँ हरिभक्ति करूँ,
तेहि कारण मोहि निकाल दियो ।।”
हमने प्रार्थना की, ‘हे प्रभु! इस दुःख की अवस्था से मुझे निकाल दो। मैं तुम्हारा भजन करूँगा।’ प्रभु ने प्रार्थना सुनी और हमें बाहर निकाल दिया। हम संसार में जिस समय आए, तो रोते हुए ही आए। कोई बच्चा जन्म लेता है, तो हँसता नहीं है, सभी बच्चे रोते हैं। यह रोना क्या है? दुःख का प्रतीक है। शिशु-अवस्था में भूख लगी है या प्यास; पेट में दर्द है या माथे में; कुछ बोल नहीं सकते, सिर्फ रोना-ही-रोना। जब भी हम रोते हैं, तो माताजी समझती है कि भूख लगी होगी और वह दूध पिलाती है। अरे! पेट में दर्द है, उसपर दूध पिला दिया जाए, तो दर्द बढ़ेगा कि घटेगा? किस कारण से बच्चा रो रहा है, यह माँ नहीं जानती; लेकिन अपने ज्ञान के आधार पर सभी उपाय करती है कि किसी तरह बच्चा चुप हो जाए।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ जननी न जाने पीर, सो केहि हेतु शिशु रोदन करै ।
सो करै विविध उपाय, जाते अधिक तब छाती जरै ।।”
उपाय तो वह करती है हमारा कष्ट दूर करने के लिए; लेकिन हमारा कष्ट और बढ़ता जाता है।
वर्षों पहले की घटना है। गरमी का महीना था, काफी गरमी पड़ रही थी। गुरु महाराज के साथ मैं मेल ट्रेन से मुरादाबाद जा रहा था। कंपार्टमेंट में गुरु महाराज थे, मैं था और एक नवदम्पति के साथ में एक छोटा बच्चा था। दिन का समय था। गरमी इतनी भयानक थी कि हमलोगों ने अपना कुरता उतारकर रख दिया था। गाड़ी चली जा रही थी। वह छोटा-सा बच्चा रोना शुरू किया। फिर चिल्लाने और फूट-फूटकर रोने लगा। उस माई का वह पहला ही बच्चा था। वह बेचारी घबड़ा गयी और कहती है, ‘बेटा! इतना तो तुम कभी नहीं रोता था, आज क्या हो गया है तुझे!’ पुचकारती, बहुत कुछ करती, पर वह बच्चा चुप होता ही नहीं था। मुझसे बच्चे की हालत देखी नहीं जा रही थी। मैंने उसकी माँ को एक नारंगी दी और कहा, ‘बच्चे को नारंगी खिलाओ, चुप हो जाएगा।’ नारंगी छिलकर वह खिलाने लगी। जबतक बच्चा नारंगी चूसता तो चुप रहता। नारंगी खाना बंद हुआ, तो रोना और दुगुना हो गया। फिर मैंने केला दिया। उसने कहा, ‘बाबा! केले-नारंगी, सब हैं मेरे पास। आज इसको पता नहीं क्या हो गया है, इतना रो रहा है।’ अब मेरे मन में यह होने लगा कि मैंने नारंगी दी है, कहीं महिला मन में यह न सोच ले कि बाबाजी ने ही बच्चे को कुछ कर दिया है। मैं उस बच्चे का अध्ययन करने लग गया। वह रोते-रोते बेहाल हो गया था। माँ उस बच्चे को गोद में लेती, तो बच्चा नीचे की ओर हो जाता, गोद में रहना ही नहीं चाहता। मैंने सोचा इस बच्चे को भी हमलोगों की तरह गरमी लग रही है, तभी यह नीचे उतरना चाहता है। मैंने कहा, ‘देखो माई! इतनी गरमी में इतने सारे कपड़े क्यों पहना रखी हो। सारे कपड़े उतार दो। छोटा-सा बच्चा है, नंगा रहेगा तो क्या होगा? इसे बाथरूम में ले जाओ और नहला दो।’ माँ ने कपड़े उतार दिये और बाथरूम में जाकर बच्चे को नहला दिया। नहाने के बाद जो बच्चा सोया, तो आराम से सोता रहा।
मेरे कहने का मतलब यह कि छोटा बच्चा बोल नहीं सकता है, केवल रोना-ही-रोना जानता है। अब देखिए, गर्भ में था तो रोना, गर्भ से निकला तो रोना। बच्चा थोड़ा-सा बड़ा हुआ, तो उसे अन्य बच्चे के साथ खेलने में मन लगता है। पर हम उसे पढ़ने के लिए डराते-धमकाते हैं, गुस्से में दो चार थप्पड़ भी लगा देते हैं, तब भी रोना-ही-रोना। फिर बच्चा स्कूल जाने लगता है। पाठ याद है, तो ठीक है, वरना गुरुजी की दो-चार छड़ी पड़ जाती है। वहाँ भी रोना। कुछ उम्र बढ़ गयी। अब माँ-बाप की मार नहीं पड़ती, गुरुजी की मार भी नहीं पड़ती; लेकिन एक छड़ी ऊपर लटकी हुई कि यदि अच्छी तरह नहीं पढ़े, अच्छे अंक नहीं लाए, तब अच्छे कॉलेज में नामांकन नहीं होगा। अच्छे अंकों से पास हो गये, तब तो ठीक है। यदि अच्छे अंक नहीं मिले, कहीं फेल हो गये, तो समझते हैं कि जीवन ही बेकार चला गया। पुनः रोना-धोना शुरू। अच्छे अंक मिल गये और अच्छी नौकरी मिल गयी, तब तो ठीक है, अन्यथा नौकरी के लिए इस कार्यालय से उस कार्यालय में, इस हाकिम से उस हाकिम के पास जाते हैं और दरवाजा खटखटाते हैं। आजकल के जमाने में नौकरी के लिए पैरवी भी चाहिए और परबी यानी पैसे भी, उसके बिना प्रायः नौकरी नहीं मिलती। अब नौकरी नहीं मिली, तो कोई कारोबार शुरू किया। व्यापार चला तो अच्छा लगा, कहीं घाटा लग गया, तो दिन-रात माथा पीटते हैं। जवानी आ गयी, विवाह हो गया। कहीं अनुकूल पत्नी मिल गयी, तब तो थोड़ा सुख अनुभव हुआ, कहीं कर्कशा पत्नी मिल गयी, तो दिन-रात खटपट होने लग गयी। फिर सोचता है क्यों विवाह किया, विवाह नहीं करते तो अच्छा था। उसी तरह स्त्री को कहीं पति अनुकूल नहीं मिला, शराबी-जुआरी या निकम्मा मिल गया, तो उसका जीवन-जीना दुभर हो जाता है। विवाह के बाद बच्चे हुए तो ठीक है, यदि नहीं हुए तो उस पीर-फकीर के पास जाओ, उस बाबाजी के पास जाओ, उस धाम जाओ। न जाने कौन-कौन उपाय करते और रोते हैं। कहीं बच्चा हुआ और कठिन रोग से ग्रसित हो गया तो रोना। कहीं दुर्भाग्य से रामनाम सत हो गया, तब तो रोना-ही-रोना। मन में विविध प्रकार की अभिलाषा संजोकर बच्चे को पढ़ाते-लिखाते होशियार बनाते हैं। यदि उसने सेवा की, तब तो ठीक रहा, यदि कहीं विवाह करके पत्नी लेकर अलग रहने लगा, तो माँ-बाप बेचारे अलग रोते हैं। सोचते हैं, ‘बच्चे को पढ़ा-लिखाकर इतना होशियार बनाया कि बुढ़ापे में काम आएगा, पर यह तो नमकहराम निकल गया। जिस समय जन्म लिया था, उसी समय फेंक देते तो कौन जानता! मल-मूत्र कर देता था, कै कर देता था, तो साफ कर देते थे। कभी हमने अवहेलना नहीं की। बल्कि लाड़-प्यार से सेवा करते रहे, वही अब बड़ा हो गया, तो माँ-बाप को देखता तक नहीं। भगवान बुद्ध ने ठीक ही कहा है-
“ कोनु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलिते सति ।
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेस्सथ ।।”
यहाँ क्या हँसी है! क्या आनंद है! यहाँ तो प्रतिदिन लोग रागादि की आग से प्रज्वलित हो रहे हैं, जल रहे हैं। जब अंधकार में पड़े हो तो प्रदीप की खोज क्यों नहीं करते? प्रकाश की ओर क्यों नहीं चलते?
संतों ने कहा, ‘जबतक अंधकार में रहोगे, कितने भी धनी हो जाओ, कितने भी ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित हो जाओ; लेकिन दुःख तुमको छोड़ेगा नहीं। और की बात तो जाने दो, जरा सोचकर देखो-जिनको मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पिताश्री कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उनको भी दुःख ने छोड़ा नहीं। उन्होंने पूर्व जन्म में बड़ी कड़ी तपस्या की थी। तपस्या में कितना कष्ट हुआ होगा। अब जब इस शरीर में आए और राजा दशरथ कहलाए, तो संतान नहीं। एक दिन राजा दशरथ के मन में बहुत ग्लानि हुई कि संतान नहीं है, अब राज-पाट कौन देखेगा? बहुत दुःखी हुए, रोए।
“ एक बार भूपति मन माहीं ।
भै ग्लानि मोरे सुत नाहीं ।।”
जब बाल-बच्चे हो गये और भगवान श्रीराम-जैसा पुत्र प्राप्त हो गया, तो सोचा कि हम उन्हें राजगद्दी पर बैठाएँगे; लेकिन कामना पूरी नहीं हो सकी, बल्कि कैकई की कुमंत्रणा से उन्हें राम को वन भेज देना पड़ा। बुढ़ापे में तो पुत्र प्राप्त हुआ, वह भी आँख से ओझल हो गया। पुत्र शोक में हा राम! हा राम!! कहते-कहते संसार से चले गये। यह क्या सुख है? संसार में जो कुछ भी संबंध है, सब स्वार्थ का संबंध है और कोई संबंध नहीं है। इसलिए गुरु नानकदेव जी ने कहा है-
“ जगत में झूठी देखी प्रीत।
अपने ही सुख सों सब लागे, क्या दारा क्या मीत ।।
मेरो-मेरो सभी कहत हैं, हित सों बांध्यो चीत ।
अंत काल संगी नहीं कोऊ, यह अचरज की रीत ।।
मन मूरख अजहूँ नहिं समुझत, सिख दे हार्यो नीत ।
नानक भवजल पार परै जो, गावै प्रभु के गीत ।।”
पति-पत्नी में प्रेम किसलिए? दोनों को एक-दूसरे से सुख मिलता है, इसलिए संबंध है। दोनों का संबंध विच्छेद हो जाए, तो देखिए ना एक-दूसरे के सुख-दुःख से कोई मतलब नहीं। एक ही घर में है; लेकिन दोनों में वैमनस्य है, कुछ भी स्वार्थसिद्धि नहीं हो रही है, इसलिए दोनों में संबंध नहीं। स्वार्थसिद्धि होगी, तो संबंध हो जाएगा। पिता-पुत्र के संबंध का भी वही हाल है। कुटुम्ब परिवार में भी वही बात है। जहाँ देखिये सर्वत्र स्वार्थ का ही संबंध है। आज आप ऊँचे पद पर हैं। ऊँचे पद पर होने के कारण लोग आपसे बहुत काम निकाल सकते हैं। इसलिए आपके आगे-पीछे घूमते रहेंगे। यदि आप उस पद से च्युत हो जाएँ, कोई आपको पूछने के लिए नहीं जाएँगे। आप बीमार हैं कि आराम से हैं, बाल-बच्चे का क्या हाल है, कोई नहीं पूछेंगे। आप बहुत धनी आदमी हैं। इसलिए लोग आपके आगे-पीछे घूमते हैं; क्योंकि मौका पड़ने पर आपसे कुछ सहायता मिल जाएगी। अगर आपके पास पैसे नहीं, तो कोई पूछनेवाला नहीं। यह संसार स्वार्थ का संसार है।
एक लड़का था। वह एक साधु बाबा के आश्रम पर बराबर जाता था। होते-होते सयाना हो गया और एक दिन विवाह भी हो गया। विवाह के बाद कई दिनों तक वह बाबाजी के पास नहीं गया। कुछ दिनों के बाद जब वह साधु बाबा के पास गया, तो उन्होंने पूछो, ‘अरे! कहाँ तो तुम रोज आते थे। इधर एक सप्ताह से गायब हो गये, बात क्या है?’ उसने उत्तर दिया, ‘बाबा! मेरा विवाह हो गया। इसी कारण से मैं नहीं आया।’ उन्होंने कहा, ‘विवाह हो गया, तो क्या हुआ?’ लड़के ने कहा, ‘बाबा! क्या करूँ, मेरे बिना वह रह नहीं सकती है। मुझपर जान देती है। थोड़ी देर के लिए यदि नजर से ओझल हो जाता हूँ, तो मेरे बिना छटपटाने लगती है। मुझे छोड़ना ही नहीं चाहती है।’ साधु बाबा ने कहा, ‘बेटा! ये सब कोई बात नहीं है। सब स्वार्थ की बात है।’ लड़के ने कहा,‘बाबा! आप क्या जानेंगे। आपने तो शादी की नहीं है। आप तो बाल-ब्रह्मचारी साधु बाबा हैं। जो विवाह करता है, उसे पता होता है।’ बाबा ने फिर कहा, ‘बेटा! यह स्वार्थ का संसार है। तुम अभी अनभिज्ञ हो। तुम बच्चे हो।’ लड़का बोला, ‘बाबा! मैं आपकी बात मानूँ या जो प्रत्यक्ष मेरे साथ घटना घट रही है, उसे मानूँ! बाबा ने उत्तर दिया, ‘अगर तुमको मेरी बात पर विश्वास नहीं है, तो मैं प्रमाणित कर देता हूँ। तुम घर जाओ और हलवा, रसगुल्ला, बड़ी, कचौड़ी आदि अच्छी-अच्छी चीजों के नाम लेकर पत्नी से कहो कि अमुक-अमुक चीज बनाओ, मुझे खाने की इच्छा है।’ मैं तुमको एक क्रिया बतला देता हूँ, जिस क्रिया को करने से तुम्हारे साँस की गति रुद्ध हो जाएगी। तुम्हारे घर में जो खंभा है, उस खंभे को दोनों पाँवों के बीच में फँसाकर लेट जाना और इस क्रिया के द्वारा साँस को रुद्ध कर लेना। तब तुम देखना क्या-क्या घटना घटती है। फिर मैं भी वहाँ पहुँच जाऊँगा।’ जबतक मैं वहाँ नहीं जाऊँगा, तुम उठना नहीं, वैसे ही पड़े रहना। वह अपनी पत्नी के पास गया और उससे कहा कि अमुक-अमुक चीजें खाने का मन कर रहा है, सो जल्दी से बना दो। आँख में कुछ दर्द-सा मालूम पड़ रहा है, मैं लेटता हूँ। पत्नी चौके में गई और बड़ी खुशियाली से सारी चीजें बनायीं। जो कहा, ‘वह तो बनायी ही और जो नहीं कहा, वह भी बनायी। इधर वह लड़का खंभे को अपने दोनों पाँवों के बीच में फँसा करके लेट गया। जब सब तैयारी हो गयी, तब पत्नी उसको उठाने के लिए आयी। आकर देखती है कि उसकी साँस बंद है। हाथ ऊपर-नीचे करती है, देह हिलाती-डुलाती है और सोचती है, हे भगवान! अब क्या करें। इतनी चीजें इतनी मेहनत से मैंने बनायीं, पर लगता है कि इनका राम-नाम सत्त हो गया। इतनी मेहनत लगी है, जिंदगी भर तो रोना-धोना है ही, पहले कुछ खा-पी लें। अगर अभी रोएँगे तो सारी चीजें धरी-की-धरी रह जाएँगी। यह सोचकर प्रेम से भरपेट भोजन कर आई, फिर पति के पास बैठकर रोने लगी। उसके सास-ससुर आए और उन्होंने पूछा, ‘क्या हुआ?’ कहने लगी, ‘देखिए ना, इनको क्या हो गया है?’ बेटा-बेटा कहकर वे भी रोने लगे। कुछ लोग रोते हुए कहने लगे, ‘एक ही लड़का था, वह भी चलता बना। अब इनके माँ-बाप क्या करेंगे? इनको कौन देखेगा?’ हजारों आदमियों की भीड़ इकट्ठी हो गयी। उसी समय बाबाजी घूमते-घामते आ गए। भीड़ देखकर पूछते हैं, ‘अरे! भीड़ किस बात की है?’ लोगों ने कहा, ‘सेठजी को एक ही लड़का था, वह भी चल बसा। लड़का तो आपके पास भी रोज जाता था।’ बाबा जाकर देखते हैं कि लड़का लेटा पड़ा है, उसकी पत्नी रो रही है। उसके माँ-बाप भी रोते हुए कह रहे थे, ‘भगवान्! हमें ही उठा लेता, पर यह क्या किया!’ वे पूछने लगे, ‘क्या हो गया इस बच्चे को?’ उसकी पत्नी ने कहा, ‘देखिये न बाबा! आपके पास से आया ही था और कहने लगा कि अमुक-अमुक चीजें बना दो, मैं खाऊँगा। सारी चीजें बनी रह गयीं, उनपर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं, पर खानेवाला ही नहीं रहा।’ बाबाजी ने कहा, ‘अब क्या करोगे? इसे ले जाओ और दफना दो।’ घर के लोगों ने कहा, ‘दफनाना तो है ही; लेकिन इसके पैरों के बीच खंभा है। खंभा तोड़ना तो ठीक नहीं होगा। अब यह तो मर ही गया है, इसलिए इसकी टाँगें ही काट देना चाहिए। कम-से-कम खंभा तो बच जाएगा।’ दो-तीन आदमियों ने कहा, ‘ठीक है।’ लड़का सुन रहा था, सोचने लगा कि कहीं टाँग ही न कट जाए। बाबाजी ने नजदीक जाकर धीरे से कहा, ‘घबराने की बात नहीं है, अभी लेटे रहो।’ फिर बाबाजी ने परिवार के लोगों से कहा, ‘यदि आपलोग सहयोग करेंगे, तो मैं इसे जीवित कर दूँगा।’ लड़के के पिता ने उत्तर दिया, ‘यह हमें जान से प्यारा है, आप जो कहेंगे, हम सब उपाय करेंगे। आप किसी तरह इसे जीवित कर दीजिए।’ बाबाजी ने एक गिलास जल मँगाया और अपने झोले से एक पुड़िया निकालकर वे बोले, ‘इसमें एक जड़ी का पाउडर है, इसे मैं इस जल में घोलता हूँ। कोई व्यक्ति जो इस लड़के का अपना है, इसे पीयेगा तो उसका शरीर छूट जाएगा, पर यह लड़का जीवित हो उठेगा। इसे कौन पीयेगा?’ सभी एक दूसरे का मुँह देखते रहे, पर कोई उसे पीने को तैयार नहीं हुआ। बाबा ने उसकी स्त्री से कहा, ‘तुमको तो यह जान से भी बढ़कर प्यारा था, तुम ही पी लो।’ उसने उत्तर दिया, ‘जब इसे पीकर मैं ही जीवित नहीं रहूँगी, तो इनके जीने से मुझे क्या लाभ होगा?’ उसने अपनी सास से कहा कि माँ जी! आप पी लीजिए। इसपर उस लड़के के पिता ने अपनी पत्नी से कहा, ‘नहीं, तुम मत पीओ। तुम जीवित रहोगी, तो लड़का फिर हो जाएगा।’ लोगों ने उनसे कहा, ‘आप ही पी लीजिए, लड़का तो जीवित हो जाएगा।’ उसने उत्तर दिया, ‘अब थोड़ी ही तो आयु बाकी है, पहले क्यों मारना चाहते हो।’ अंत में बाबाजी ने कहा, ‘अब तुमलोग नहीं पीना चाहते हो, तो यह लड़का मेरा बड़ा प्रिय है, मैं ही पी लेता हूँ।’ उसके परिवार के सब लोग कहने लगे, ‘हाँ बाबाजी! आप ही पी लीजिए। आपको आगे-पीछे कोई रोनवाला भी नहीं है।’ वे जैसे ही जड़ी को पीते हैं कि लड़का उठकर बैठ गया। बाबा को मुस्कराते देख लोगों ने पूछा, ‘आपको कुछ नहीं हुआ?’ उन्होंने कहा, ‘इस पुड़िया में और कुछ नहीं, मिसरी का पाउडर था। मैं तो तुम सबकी परीक्षा ले रहा था कि कौन इस लड़के को कितना चाहता है?’ इस घटना से लड़के की आँखें खुल गयीं। वह घर छोड़कर बाबाजी के साथ चला गया।
सभी सांसारिक संबंध स्वार्थ पर टिके हैं। जब बुरा समय आता है, तो सभी साथ छोड़ देते हैं। वस्तुतः संसार में कहीं सुख नहीं है। इन्द्रियों के द्वारा विषयोपभोग से जो आनंद हम प्राप्त करते हैं, वह अत्यल्प है और क्षणभंगुर है, इससे तृप्ति नहीं होती, बल्कि विषय-वासना बढ़ती ही जाती है। ठीक उसी प्रकार जैसे अग्नि की ज्वाला हवन-पदार्थ से बढ़ती जाती है। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में-
‘बुझै न काम अगिनि कहुँ विषय भोग बहु घी ते ।’
अतः कल्याणकामी जन को चाहिए कि विषय को त्यागकर निर्विषय की ओर चलें। विषयानुरक्ति को त्यागकर ईश्वर-भक्ति करें। यदि विषयभोग से किसी को भी सुख मिला होता, तृप्ति मिली होती, तो इतिहास में कहीं तो चर्चा होती कि अमुक को विषयभोग में शाश्वत सुख मिला; लेकिन कहीं भी इसकी चर्चा नहीं है। संसार की नश्वरता को देखते हुए संत कबीर साहब ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ सुकिरत करि ले, नाम सुमिरि ले, को जानै कल की ।।
जगत में खबर नहीं पल की ।।टेक।।
झूठ कपट करि माया जोरिन, बात करैं छल की ।।
पाप की पोट धरे सिर ऊपर, किस बिधि ह्वै हलकी ।।
यह मन तो है हस्ती मस्ती, काया मट्टी की ।।
साँस-साँस में नाम सुमिरि ले, अवधि घटै तन की ।।
काया अंदर हंसा बोलै, खुशियाँ कर दिल की ।।
जब यह हंसा निकरि जाहिंगे, मट्टी जंगल की ।।
काम क्रोध मद लोभ निवारो, याही बात असल की ।।
ज्ञान बैराग दया मन राखो, कहै कबीरा दिल की ।।”
सुकर्म और सुमिरन करना चाहिए, जिससे भवरोग का समन होगा। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी को कहना पड़ा-
“ रामकृपा नाासहिं सब रोगा ।
जौं एहि भाँति बने संयोगा ।।
सद्गुरु बैद वचन विस्वासा ।
संयम न यह विषय कै आसा ।।
रघुपति भगति संजीवन मूरी ।
अनूपान श्रद्धा मति पूरी ।।
ऐहि विधि भलेहि सो रोग नसाहीं ।
नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं ।।”
तात्पर्य यह कि भवरोग से ग्रसित जीव सद्गुरु वैद्य से रामभक्ति-संजीवनी बूटी प्राप्त कर श्रद्धा-युक्त होकर सेवन करेगा और विषयासक्ति रूप कुपथ्य नहीं करेगा, तब वह भवरोगों से मुक्त हो जाएगा।
पंच पापों से बचते हुए भगवद्भक्ति की विधिवत् विधि जानकर मनोयोगपूर्वक साधन करें। वास्तविक सुख इसी में है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अररिया जिला 8वाँ वार्षिक अधिवेशन दिनांक 12-02-1999 ई0 को भटगामा ग्राम (स्वामी देवनारायण बाबा एवं स्वामी निर्मलानन्द बाबा के पैतृक गाँव) में अपराह्नकालीन सत्संग के शुभ अवसर पर हुआ था।
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
यहाँ आश्रम में प्रतिदिन प्रातः, अपराह्ण और सायं; इन तीनों कालों में सत्संग होता है। आज रविवार का साप्ताहिक सत्संग है। सत्संग में और रामकथा में कोई अन्तर नहीं है। दोनों की उत्पत्ति का स्थान एक ही है और वह है-वेद। फिर भी गोस्वामीजी की दृष्टि से अवलोकन करने पर सत्संग श्रवण और रामकथा श्रवण में कुछ अन्तर प्रतीत होता है। यों तो रामकथा वा सत्संग सब कोई सुन सकते हैं, किन्तु गोस्वामीजी ‘रामकथा श्रवण के अधिकारी उनको मानते हैं, जिनको सत्संगति अति प्यारी हो।’ यथा-
“ रामकथा के तेइ अधिकारी ।
जिनके सतसंगति अति प्यारी ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ ब्रह्म पयोनिधि मन्दर, ज्ञान संत सुर आहिं ।
कथा सुधा मथि काढ़ई, भक्ति मधुरता जाहिं ।।”
ब्रह्म (वेद) समुद्र है, ज्ञान मन्दराचल है और सन्त देवता हैं, जो उस समुद्र को मथकर कथारूपी अमृत निकालते हैं, जिसमें भक्तिरूपी मधुरता बसी रहती है।
सुधा के संदर्भ में एक पौराणिक कथा है। सत्ययुग में मन्दराचल पहाड़ के द्वारा क्षीर समुद्र का मंथन हुआ था। शेषनाग की रस्सी बनायी गयी थी। देवों और दानवों ने मिलकर मंथन किया था। उससे चौदह रत्न निकले थे, जिनमें एक अमृत का घड़ा भी था। अमृत के लिए देवों और दानवों; दोनों दलों में संघर्ष हुआ। भगवान विष्णु ने मोहिनी-रूप धारण कर उसका वितरण किया। संतों ने देखा-जिसके लिए आपस में संघर्ष हो, वैमनस्य हो, ऐसी वस्तु से क्या लाभ? वस्तु ऐसी हो, जिससे सबको समान रूप से लाभ हो। वह ऐसी कौन-सी चीज है, जिससे देव, दानव, मानव, यक्ष, गन्धर्व आदि सबको लाभ हो? वह है-सत्संग। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज विनय- पत्रिका में लिखते हैं-
“ वेद पय-सिन्धु सुविचार मन्दर महा,
अखिल मुनिवृन्द निर्मथन कर्त्ता ।
सार सत्संगमुद्धृत्य इति निश्चितं,
वदत श्रीकृष्ण वैदर्भि भर्त्ता ।।
असुर सुर नाग नर जच्छ गन्धर्व खग,
रजनिचर सिद्ध जे चापि अन्ने ।
संत संसर्ग त्रयवर्ग पर परमपद,
प्राप्य निःप्राप्य गति त्वयि प्रसन्ने ।।
वृत्र बलि धुव्र प्रीांद मय व्याध गज,
गिद्ध द्विज बन्धु निज धर्म त्यागी ।
साधु-पद सलिल निर्धूत कल्मष सकल,
स्वपच जवनादि कैवल्य भागी ।।”
वेद क्षीर समुद्र है। सुन्दर विचार रूप मन्दार पहाड़ मथानी है। वहाँ देवों और दानवों ने मिलकर मंथन किया था। यहाँ के लिए वे कहते हैं-‘अखिल मुनिवृन्द निर्मथन कर्त्ता।’ अर्थात् अखिल मुनिवृन्द उसके मन्थन करनेवाले हैं। वहाँ चौदह चीजें निकली थीं और यहाँ क्या निकला? यहाँ एक ही चीज निकली, वह है ‘सार सत्संग’। यदि जिज्ञासा हो कि यह बात कहते कौन हैं? तो इसके उत्तर में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-‘वदत श्रीकृष्ण वैदर्भि भर्त्ता’ अर्थात् रुक्मिणीजी के पति भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं।
अब रामकथा का शुभारंभ इस प्रकार होता हैैै। रामचरितमानस में गोस्वामीजी लिखते हैं-पहले-पहल भगवान शंकर ने इस कथा की रचना की थी और उन्होंने काकभुशुण्डिजी को सुनाई। काकभुशुण्डिजी ने याज्ञवल्क्यजी से और याज्ञवल्क्यजी ने भारद्वाजजी से यह कथा कही। पुनः यह जिज्ञासा हो सकती है-रामचरितमानस की रचना गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने की है। उन्होंने किनसे सुनी? इसका समाधान गोस्वामीजी इस भाँति करते हैं-
“ मैं पुनि निज गुरु सन सुनी, कथा सो सूकर खेत ।
समुझि पड़ी नहिं बालपन, तब मैं रह्यो अचेत ।।”
अर्थात् वाराह क्षेत्र में उन्होंने अपने गुरु से यह कथा सुनी थी। पुनः गोस्वामीजी महाराज लिखते हैं-
“ रचि महेश निज मानस राखा ।
पाइ सुसमउ शिवा सन भाखा ।।”
भगवान शंकर ने इसकी रचना कर अपने मानस पटल पर अटल कर रख लिया था। जब समय आया, तो उन्होंने पार्वतीजी से यह कथा कही। चूँकि भगवान श्रीराम के चरित्र को भगवान शंकर ने अपने मानस पटल पर रखा, इसलिए इसका नाम ‘रामचरितमानस’ हुआ। यद्यपि रामचरितमानस में कथा-प्रसंग की प्रधानता है, तथापि इस कथा-प्रसंग में बहुत-सी गूढ़ बातें भी निहित हैं, जो सर्वसाधारण को विदित नहीं हैं। ग्रंथकार ने काव्य के नव रस, जप, तप, योग, विराग आदि को मानस का जलचर बनाकर रखा है। जलचर जलगर्भ में छिपे रहते हैं। वे सरलता से देखे नहीं जाते। मानस के जलचर को देखने के लिए हृदय की आँख (दिव्य दृष्टि) चाहिए। दिव्य दृष्टि खुले बिना रामचरितमानस के गूढ़ विषय को समझना असंभव है।
“ नव रस जप तप जोग विरागा ।
ते सब जलचर चारु तड़ागा ।।
अस मानस मानस चषु चाही ।
भइ कवि बुद्धि विमल अवगाही ।।”
इस दृष्टि को अपनाकर गोस्वामीजी को कहना पड़ा-
‘श्रोता वक्ता ज्ञाननिधि, कथा राम कै गूढ़ ।’
-रामचरितमानस
अर्थात् राम की जो निगूढ़ कथा है, उसके वक्ता और श्रोता दोनों को ज्ञाननिधि होना चाहिए। ज्ञाननिधि हुए बिना राम की निगूढ़ कथा को वे कह-सुन और समझ-बूझ नहीं सकेंगे।
“ गुरू नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।”
ज्ञान होता कहाँ है? हमलोग स्कूल, कॉलेज में जाकर पढ़ते हैं। वहाँ बहुत तरह की विद्या सीखते हैं। वे सारी विद्याएँ इस लोक कल्याण के लिए हैं, परलोक के लिए नहीं। एक-न-एक दिन हमको इह लोक का परित्याग कर परलोक जाना होगा। उसके लिए कहाँ ज्ञान मिलेगा? भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
अर्थात् उस ज्ञान को विनम्रता द्वारा, सेवा द्वारा और जिज्ञासा द्वारा जानो। तत्त्व का दर्शन करनेवाले ज्ञानी महात्मा उस ज्ञान को तुम्हें बताएँगे।
स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी में जो ज्ञान मिलता है, शिक्षा मिलती है, वह आँख से नीचे की विद्या मिलती है और साधु- संतों के पास जो विद्या मिलती है, वह आँख से ऊपर की विद्या मिलती है। अध्यात्म ज्ञान की दिशा आँख से ऊपर है, आँख से नीचे नहीं। जैसे-आँख में निवास काल में हमें इस स्थूल संसार का ज्ञान होता है, वह जाग्रतावस्था है। हम जब स्वप्नावस्था में चले जाते हैं, तो यह जागतिक ज्ञान नहीं रह जाता है। उस समय हम मानसिक जगत में भ्रमण करते हैं, उस समय हम आँख से नीचे कण्ठ में चले जाते हैं और जब सुषुप्ति अवस्था में जाते हैं, तब कंठ से उतरकर हृदय में चले आते हैं, वहाँ मानसिक जगत भी नहीं रहता है। पश्चात् जब हम सुषुप्ति से कण्ठ में आते हैं, तब फिर उस मानसिक जगत का ज्ञान होने लगता है। कण्ठ से ऊपर आँख में आने पर इस स्थूल जगत का ज्ञान होता है। संत लोग कहते हैं-इन आँखों से अपने को ऊपर उठा सको, तो सूक्ष्म जगत का ज्ञान होने लगेगा और अंत में उस देश का ज्ञान होगा, जिसके लिए संत कबीर साहब ने कहा है-
“ कहौ ँ उस देश की बतियाँ, जहाँ नहिँ होत दिन रतियाँ ।।
नहीँ रवि चन्द्र औ तारा, नहीं उँजियार अँधियारा ।।
नहीँ तहँ पवन औ पानी, गये वहि देस जिन जानी ।।
नहीँ तहँ धरनि आकासा, करै कोइ सन्त तहँ वासा ।।
उहाँ गम काल की नाहीं, तहाँ नहिं धूप औ छाहीं ।।
न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।।
सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।। सोहंगम नाद नहिँ भाई, न बाजै संख शहनाई ।।
निहच्छर जाप तहँ जापै, उठत धुन सुन्न से आपै ।।
मन्दिर में दीप बहु बारी, नयन बिनु भई अँधियारी ।।
कबीरा देस है न्यारा, लखै कोइ राम का प्यारा ।।”
उस देश के लखने और लखानेवाले कौन? संत सद्गुरु हैं। इसीलिए गोस्वामीजी ने कहा- श्रोता-वक्ता दोनों को ज्ञाननिधि होना चाहिए। दोनों को आँख से ऊपर के ज्ञान का ज्ञाता होना चाहिए, तभी रामकथा के गूढ़ रहस्य को समझ सकेंगे।
खेत उत्तम हो और बीज निर्जीव हो, तब फसल नहीं होगी। बीज सजीव हो और खेत ऊसर हो, तब भी फसल नहीं होगी, लेकिन बीज सजीव हो और खेत उत्तम हो, तो फसल लहलहा उठेगी। उसी तरह बीज डालनेवाले संत सद्गुरु होते हैं और शिष्य होते हैं खेत। क्रियावान शुद्धाचारी गुरु हों और सुयोग्य शिष्य हो, तो आध्यात्मिक फसल लहालहा उठेगी। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने उपर्युक्त बातें कहीं। अब वे भिन्न प्रकार से कथा का आरंभ करते हैं-
“ रामकथा मन्दाकिनी, चित्रकूट चित्त चारु ।
तुलसी सुभग सनेह वन, सिय रघुवीर विहारु ।।”
त्रेतायुग में श्री सीतारामजी बहुत दिनों तक चित्रकूट में निवास किए थे। उस चित्रकूट में आज जाकर हम देखें, तो न राम के दर्शन होंगे और न सीता के ही। चित्रकूट और मन्दाकिनी दोनों तो वहाँ हैं ही। गोस्वामीजी कठिन को सरल बनाकर कहते हैं-राम की कथा मन्दाकिनी नदी है। हमारा सुन्दर चित्त चित्रकूट है। अतएव हमारा हृदय स्वच्छ, पवित्र होना चाहिए, तब विशुद्ध सुन्दर स्नेह होगा । फिर तो हम जहाँ कहीं रहेंगे, प्रभु सीताराम इसमें विहार करेंगे और उनके दर्शन होंगे। चित्त कहाँ है-इस शरीर में। राम के प्रति चित्त में सुभग स्नेह होगा, तो शान्ति के पर्यंक पर श्रीराम विश्राम करेंगे।
‘विमल हृदि भवन कृत सान्ति परजंक सुभ,
सयन विस्त्राम श्रीराम राया ।’
-विनय-पत्रिका
श्रीसीताराम के दर्शन इसी शरीर में हो जाएँगे। दोनों के मिलने का स्थान हमारे अन्दर है। एक महात्मा हुए, योगी पंचानन भट्टाचार्य। उन्होंने गोस्वामी से मिलती-जुलती कितनी साम्यवाणी कही है-
‘देह कुंज वन प्रमोद कानन युगल मिलन हृदि माँझे ।’
वहाँ तो सीताराम का मिलन था और यहाँ राधेश्याम का मिलन है। शरीर-रूपी कुंजवन में प्रमोद कानन है। इसी में राधाकृष्ण का मिलन होता है। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है- काला। भगवान श्रीकृष्ण के स्थूल शरीर का रंग श्याम था और वे पीत वस्त्र धारण किए हुए थे यानी वे पीताम्बर-धारी थे। कवि का कथन है-आँखें बन्द करके देखिए, काला-अंधकार मालूम पड़ता है। भगवान श्रीकृष्ण का यह श्यामरूप=स्थूल रूप पहले देखने में आएगा। पश्चात् सूक्ष्मरूप-पीतवर्ण-ज्योतिरूप।
‘पीत ज्योति मांझे श्याम घन राजे
केमन साज आजि साजे ।’
श्याम अर्थात् अंधकार। वह पीत ज्योति यानी प्रकाश से परिपूर्ण है, लेकिन देखने की कला से देखिए। देखने की कला से देखने पर अंधकार के परे प्रकाश दीखेगा।
इस संदर्भ में महर्षि मेँहीँ-पदावली में इस भाँति वर्णन है-
‘पीली नीली लाल सफेदी स्याही सन्मुख आता है ।’
तथा,
“ सुषमनियाँ में मोरी नजर लागी ।
अगल बगल कहुँ दृष्टि न डोलै ,
सन्मुख बिन्दु पकड़ लागी ।।
ब्रह्मजोति खुलि गई अन्तर में ,
निसि अँधियारी हदस भागी ।।”
पुनः भट्टाचार्यजी कहते हैं-
“ भूमि वह्नि जल वायु नभ स्थल,
मन बुद्धि बल अहं आदि ।।
एरा अष्ट सखी से रूप निरखि,
निरखि निरखि आछेन न भूलै ।।”
भगवान श्रीकृष्ण के साथ उनकी आठ सखियाँ रहती थीं। हमारे शरीर के भीतर हमारे भगवान बैठे हुए हैं। यहाँ भी उनकी अष्ट सखियाँ हैं। ये अष्ट सखियाँ क्या हैं? वे हैं-अष्टधा प्रकृति। पाँच तत्त्व- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर; मन, बुद्धि और अहंकार। जब साधक जड़ात्मक मंडल को पार कर चेतन मंडल में यानी परा प्रकृति में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब अष्टधा प्रकृति नीचे छूट जाती है। इसीलिए कहा-
‘निरखि निरखि आछेन न भूलै ।’
हम बाहर संसार में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्त्ति को या उनके चित्र को देखते हैं, तो पाते हैं कि वे अपने पैर पर पैर रखकर बाँसुरी बजाते हैं। यह पैर पर पैर रखना और बाँसुरी बजाना क्या है? कवि उत्तर देते हैं-
“ चरणे चरण प्राणे ते अपान,
प्रणव बाजन बाँसी बाजै ।”
अर्थात् प्राण और अपान का मेल करना है। जो कोई ऐसा कर पाते हैं, तो उनका प्राणवायु रुद्ध हो जाता है और वे आन्तरिक ध्वनि सुनते हैं। शाण्डिल्योपनिषद् में लिखा है-
“ द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे ।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।”
जब ज्ञान-दृष्टि (सुरत-शब्द-वृत्ति) नासाग्र से बाहर बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो, तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ दृष्टि युगलकर अंगुल द्वादश पर दृढ़ थिर धरु ठहराई ।
प्राण स्पन्द बन्द होइ जाई, मनहु तजइ चंचलाई ।।
अणुहू से अणुरूप ब्रह्म संग, सहजहिं सुरति मिलाई । सुखदायिनी ध्वनि सहज गायत्री, हो तहँ सुनहु समाई ।।”
द्वादश अंगुल पर दृष्टि स्थिर होने से प्राण का स्पन्दन बन्द हो जाता है और मन की चंचलता मिट जाती है, वहाँ क्या मिलती है? अन्तर्ज्योति और अन्तर्नाद। परम प्रभु परमात्मा की ओर से वह धारा आ रही है। संत कबीर साहब की वाणी है-
“ कबीर धारा अगम की, सतगुरु दई बताय ।
ताहि उलटि सुमिरन करो, स्वामी संग मिलाय ।।”
‘धारा’ शब्द को उलटने पर ‘राधा’ शब्द बन जाता है। प्रणव ध्वनि के आधार से ‘राधा’ और ‘कृष्ण’ का मिलन होता है अर्थात् जीव-पीव का मिलन होता है। उस प्रणव ध्वनि को सारशब्द भी कहते हैं। जो साधक बहिर्मुख से उलटकर अन्तर्मुख हो उस अन्तर्नाद को पकड़ता है, वह परम प्रभु परमात्मा से जाकर मिल जाता है। यही राधा और कृष्ण का मिलन है।
किसी ने सीताराम कहा और किसी ने राधे श्याम। सीताराम और राधेश्याम कहने से भिन्न-भिन्न शब्द या भिन्न-भिन्न व्यक्ति का बोध होता है। वास्तव में ये दो नहीं हैं, एक-ही-एक हैं। गोस्वामीजी इसका स्पष्टीकरण इस भाँति करते हैं-
“ गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।
बन्दौं सीता राम पद, जिनहिं परम प्रिय खिन्न ।।”
‘गिरा’ और ‘अर्थ’। गिरा अर्थात् वाणी और उसका अर्थ कहने के लिए दोनों भिन्न-भिन्न हैं, लेकिन भिन्न नहीं हैं। जैसे जल और लहर; कहने से दो शब्द होते हैं, लेकिन दो वस्तुएँ नहीं होतीं, एक ही होती है। उसी तरह सीता और राम कहने के लिए दो शब्दों का प्रयोग होता है, किन्तु ये दो व्यक्ति नहीं हैं। जल और बीचि यानी जल और उसकी लहर। कहने के लिए ये दो हैं, लेकिन ये दो नहीं एक ही है। जल ही लहर है, लहर ही जल है। जल और उसका अंश लहर, दोनों एक ही तत्त्व हैं। उसी तरह सीताराम और राधेश्याम कहने के लिए भिन्न- भिन्न हैं, परन्तु ये भिन्न नहीं, अभिन्न हैं। कवि ने कहने की कितनी अच्छी कला अपनायी है-‘गिरा’ स्त्रीलिंग है उसका अर्थ ‘शब्द’ पुल्लिंग है। सीता स्त्रीलिंग है और राम पुल्लिंग है। आगे कहते हैं-जल पुल्लिंग है और बीचि स्त्रीलिंग है। राम पुल्लिंग है और सीता स्त्रीलिंग है। सीताराम और रामसीता कहने के लिए दोनों भिन्न-भिन्न हैं, लेकिन भिन्न नहीं अभिन्न हैं; अतएव-
“ सिया राममय सब जग जानी ।
करउँ प्रणाम जोड़ि जुग पाणी ।।” -रामचरितमानस
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, (सत्संग हॉल) भागलपुर में दिनांक 07-03-1999 ई0 को सप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अप्रैल 1999 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द आदरणीया, माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोग कबीर साहब के बारे में सुन रहे थे। संत कबीर साहब के संदर्भ में यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है-
“ कबीर का गाया गावै, तो गजब का धक्का खावै ।
कबीर की वाणी बुझै, तो तीनों लोक सूझै ।।”
यह लोक-प्रसिद्ध बात है कि कबीर की वाणी उलटी होती है-‘कबीर की उलटी वाणी, बरसै कम्बल भीजै पानी।’ वास्तव में हमलोगों की बुद्धि ही उलटी है, इसलिए उनकी वाणी को हम उलटी समझते हैं। कहते तो वे सुलटी ही हैं। उनकी इस संबंध की एक घटना प्रसिद्ध है।
संत कबीर साहब की बहुत ख्याति हो गई, तो बहुत लोग उनके पास आने लग गए, जिससे उनको भजन करने में बाधा होने लगी। उन्होंने सोचा कि लोगों को कुछ इस तरह की लीला दिखलाई जाय कि लोग मेरे पास आये ही नहीं। इसके लिए उन्होंने क्या किया, सो सुनिये। अभी कुछ दिन पूर्व होली पर्व हुआ। इसी तरह उनके जमाने में भी होली का दिन था। उन्होंने एक बोतल में पानी भरकर अपने हाथ में ले लिया। अपनी दायीं ओर रविदासजी को और बायीं ओर एक वेश्या को लेकर शहर की ओर घूमने के लिए चले और गाने लग लए-
‘अर रऽ रऽ रऽ भैया सुनले मोर कबीर ---------।’
“ दिल्लगी देवर भौजाई रे, कछु कहलो न जाय ।
ऐसन कठिन भौजाई रे, कछु कहलो न जाय ।।”
बीच-बीच में बोतल का पानी पीते और यही गाते चले जा रहे थे। लोगों को होता कि ये शराब पी रहे हैं और वेश्या बगल में है ही। चमार रविदासजी को भी बगल में ले लिये हैं। ठीक ही कबीर की बुद्धि बिगड़ गई है। लोग कहने लग गए-
“ दिन दस भक्ति कबीरा कीन्हा ।
अहो संग गणिका को लीन्हा ।।”
लोगों ने समझा कि कबीर साहब देवर और भौजाई की दिल्लगी की बात कहते हैं। लेकिन उनका कहना बड़ा विलक्षण था-‘दिल लगी देव वर भव जाई रे।’ अर्थात् जिसका दिल देववर-परमात्मा से लग गया, तो भव जाय रे-उसका संसार भवचक्र समाप्त हो जाता है। यानी आवागमन का चक्र छूट जाता है। संत कबीर साहब तो यह कह रहे थे, पर साधारण बुद्धि के लोग उसका अर्थ कुछ और ही समझ रहे थे। कबीर साहब कुछ पढ़े-लिखे नहीं थे, फिर भी इतने बड़े विद्वान थे कि उनकी बराबरी करनेवाला कोई नहीं। उसी समय एक पंडित जी थे। उन्होंने विद्वानों से शास्त्रर्थ कर उन सबको पराजित करके अपना नाम सर्वाजित रख लिया और आपनी माताजी से कहा-‘माँ! अब मेरा नाम सर्वाजित हो गया है, तुम भी मुझे सर्वाजित कहा करो।’ उनकी माता की श्रद्धा सन्त कबीर साहब में थी। उन्होंने कहा-‘बेटा! सबको तो तुमने जीत लिया, कबीर को जीतो, तब मैं तुमको सर्वाजित कहूँगी; वैसे नहीं।’ पंडितजी ने कहा-‘माँ! कबीर तो महामूर्ख है, वह कुछ भी पढ़ा-लिखा नहीं है। उसको क्या जीतना? उससे क्या शास्त्रर्थ करना, जब वह कुछ जानता ही नहीं।’ माँ ने कहा-‘बेटा! पहले जाओ तो सही।’ बैल की पीठ पर बहुत-सी पुस्तकें लादकर पंडितजी चले शास्त्रर्थ करने। गाँव के बाहर कुछ पनिहारिन पानी भर रही थीं। पंडितजी ने उनसे जिज्ञासा की-‘कबीर का घर कहाँ है?’ पनिहारी ने उत्तर दिया-
“ कबीर का घर शिखर पर, जहाँ सिलहिली गैल ।
पाँव न टिकै पिपीलिका, पंडित लादे बैल ।।”
कहाँ जा रहे हो भाई! बैल की पीठ पर पुस्तक लादकर? पंडितजी का माथा चकराया कि जिस गाँव की पनिहारिन की भाषा ऐसी है, तो कबीर कैसा होगा? लेकिन विद्या की ऐंठ थी। मन में सोचा चलकर देखें। वहीं से एक लोटा जल भर लिया और कबीर साहब के पास पहुँचकर उनके आगे रख दिया। लोटा पानी से लबालब भरा हुआ था। कबीर साहब ने अपनी गुदड़ी सीनेवाली सूई निकाली और उसे लोटे के पानी में डाल दी। पंडितजी द्वारा जलापूर्ण लोटा रखने का आशय यह था कि जैसे लोटा जल से लबालब भरा है, वैसे ही वह ज्ञान से लबालब भरे हुए हैं। कबीर साहब ने उस लोटे के जल में सूई डालकर उसका उत्तर दिया कि आपके ज्ञान को छेदकर मेरा ज्ञान नीचे चला जाएगा। जैसे लोटे के जल में सूई पड़ने से उसमें हलचल नहीं हुई, उसी तरह मेरा ज्ञान आपमें प्रवेश करने पर किसी प्रकार की हलचल नहीं होगी।
पश्चात् पंडितजी ने कहा-‘कबीर साहब! मैं आपसे शास्त्रर्थ करने के लिए आया हूँ।’ कबीर साहब ने कहा-‘मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, आप मुझसे क्या शास्त्रर्थ करेंगे?’ पंडितजी ने कहा-‘आप शास्त्र पढ़े नहीं हैं, तो कागज पर लिख दीजिए कि ‘पंडित जीता, कबीर हारा।’ कबीर साहब ने उत्तर दिया-‘मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, लिखूँगा कैसे? आप जो लिखना चाहें स्वयं लिख लें।’ पंडितजी ने ‘कबीर हारा, सर्वाजित जीता’ लिखकर कबीर साहब से हस्ताक्षर करने के लिए कहा। कबीर साहब ने कहा-‘मैं लिखने के नहीं जानता हूँ, हस्ताक्षर कैसे करूँ?’ पंडितजी ने कबीर साहब से अगूँठा-निशान करने का आग्रह किया। कबीर साहब ने अगूँठा-निशान कर दिया। पंडितजी फूले नहीं समाए कि अब माँ को जाकर दिखाऊँगा कि तुम जिस कबीर के बारे में कहती थी, देखा, वह हार गया। पंडितजी कागज लेकर जब माँ के पास पहुँचे, तो वहाँ वह लिपि हो जाती है-‘कबीर जीता, सर्वाजित हारा।’ उनकी माताजी ने कहा-‘इसमें स्पष्ट लिखा है ‘कबीर जीता, सर्वाजित हारा।’ पंडितजी ने कहा माँ! भूल हो गई, लिखा तो मैंने ही था।’ माँ ने कहा-‘पुनः कबीर के पास जाओ और लिखाकर लाओ।’ पंडितजी पुनः कबीर साहब के पास जाकर और अपना भूल बताकर ‘सर्वाजित जीता और कबीर हारा’ लिखाकर कबीर साहब से अगूँठा-निशान करवाया। जब वे अपनी माँ के पास आते हैं और पढ़ते हैं, तो फिर वही बात हो जाती है-‘कबीर जीता, सर्वाजित हारा।’ इस प्रकार तीन बार उन्होंने लिखकर लाया और तीनों बार वही परिणाम हुआ। अन्त में पंडितजी ने कबीर साहब के चरणों में गिरकर क्षमा याचना की और उनका शिष्यत्व ग्रहण कर अपना जीवन धन्य किया। एक दिन समय पाकर पंडितजी ने संत कबीर साहब से पूछा-‘आप तो कभी मदरसा गये नहीं, पर इतने बड़े विद्वान कैसे हो गये? मैंने सबको पराजित किया, पर आपसे पराजित हो गया। यह विद्या आपने कहाँ पढ़ी? कैसी पढ़ी?’ इसपर कबीर साहब ने उत्तर दिया-
“ मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
मूठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।।”
लगे हाथ पंडितजी ने पूछ दिया-‘आप कहते हैं कि मैंने समुद्र में डुबकी लगाई। किस समुद्र में आपने डुबकी लगाई-अरब सागर में, अटलांटिक महासागर में, प्रशान्त महासागर में या लालसागर में?’ तब कबीर साहब ने उत्तर दिया।
“ कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।”
अर्थात् यह शरीर सागर है। इसकी थाह कोई नहीं पाता। जो कोई इसमें जीवन-मुक्त होकर रहते हैं, उनको परमात्मा-रूपी बहुमूल्य पदार्थ मिलता है। संत रघुनाथ दासजी ने भी इस शरीर को सागर कहा है; यथा-
“ यह शरीर सागर अवगाहा ।
एहि कर नहीं कोइ पावत थाहा ।।
अन्तरि उलटि निरखै कोई ।
आवागमन मिटावै सोई ।।”
यह शरीर देखने में तो साढ़े तीन हाथ का है, पर अथाह समुद्र है। कबीर साहब ने तो कहा-
“ कहा मड़ावै मेड़िया, लम्बी भीत उसार ।
घर तो साढ़े तीन हथ, घना तो पौने चार ।।”
इस पौने चार का भी कोई पार नहीं पाता है।
‘कोई चतुर न पावै पार, नगरिया बावरी ।’
बहुत-से ज्ञान के कार्य आप संसार में देख रहे हैं, इसी मनुष्य-शरीर का मस्तिष्क काम कर रहा है। हमलोगों की आँख के नीचे भाग अज्ञान की दिशा है और आँख के ऊपर ज्ञान की दिशा है। जो शिक्षा स्कूल-कॉलेज में होती है, वह आँख से नीचे की होती है और संतों की शिक्षा आँख से ऊपर की होती है। स्वामी विवेकानन्दजी का पूर्व नाम नरेन्द्र था। उनके पिताजी वकील थे। अच्छी वकालत चलती थी। घर-मकान भी अच्छे बना लिये थे। सब ठीक-ठाक चल रहा था। जब उनके पिताजी का शरीर छूट गया, तो आय का श्रोत कुछ रहा नहीं। बड़ी गरीबी आ गई। इतनी गरीबी आ गई कि वे दाने-दाने के मुहताज हो गए। भोजन करनेवाले में एक तो वे स्वयं थे, उनकी दो-तीन बहनें और माताजी थीं। चार-पाँच सदस्यों का परिवार था। खाँएगे क्या, कुछ भी व्यवस्था नहीं थी। एक दिन उनके घर में भोजन के लिए मात्र एक आलू के सिवाय और कुछ नहीं था। बेचारी बूढ़ी माँ क्या करती? उसी एक आलू को टुकड़-टुकड़े करके उबालकर नमक-मशाला मिलाकर कटोरी नरेन्द्र के सामने देती है। नरेन्द्र एक चम्मच पानी लेकर उसे अपनी बहन के सामने कर देते हैं। वह भी एक चम्मच पानी लेती है और दूसरी बहन के आगे कर देती है। इस प्रकार घूमती हुई कटोरी माँ के पास आ गयी। उनकी आँखों से पानी गिर गया। बच्चे भूखे हैं, पर बेचारी करती भी क्या! साहस बटोरकर कहती है, ‘बेटा! तुमलोगों को भाई-बहनों में इतना प्रेम है, तो तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल होगा।’ इस घटना से स्वामी विवेकानंद को बड़ा दुःख हुआ। उनके मन में हुआ कि पढ़-लिख करके भी मैं कुछ कर नहीं पा रहा हूँ, हमारे घर के लोग भूखे मर रहे हैं। उन्होंने नौकरी के लिए कलकत्ता शहर की गली-गली को छान डाली; लेकिन किन्हीं ने नौकरी दी नहीं। उस समय के वे बी0ए0 पास थे। उस समय बी0ए0 की कुछ कीमत थी। कुछ ही नहीं, बहुत कीमत थी। फिर भी कलकत्ता वालों ने उनको नौकर रखने के योग्य नहीं समझा। हारकर वे चले गये रामकृष्ण परमहंसजी के पास और उनसे प्रार्थना की, ‘मेरी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय है, आप मुझपर दया कीजिए।’ परमहंसजी ने कहा, ‘जाओ माँ से कहो।’ माँ कहने का तात्पर्य माँ काली से था। विवेकानंदजी ने कहा, ‘आप कहिये, आपकी माँ है। आपकी बात सुनेगी, मेरी बात नहीं सुनेगी।’ परमहंसजी ने कहा, ‘वह मेरी माँ है, तेरी माँ है और जगज्जननी-सबकी माँ है। जाकर कहो।’ वे जाते हैं माँ काली के पास। आपनी दयनीय आर्थिक स्थिति के संबंध में कहना भूल जाते हैं और कहने लगते हैं, ‘हे माँ! मुझे ज्ञान दो, मुझे ध्यान दो, मुझे योग दो, भक्ति दो आदि।’ पश्चात् काली मंदिर से वे परमहंसजी के पास आए। परमहंसजी ने पूछा, ‘माँग लिया?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘जी नहीं, मैं तो अर्थ माँगना भूल गया।’ परमहंसजी ने कहा, ‘जाओ फिर से माँगो।’ दूसरी बार वे फिर गये, तो उन्हीं बातों को दुहराये, ‘ज्ञान दो, ध्यान दो, योग दो-----। पुनः जब परमहंसजी के पास गये, तो उन्होंने पूछा, ‘माँग लिया?’ विवेकानंदजी ने कहा, ‘मैं माँग न सका, भूल गया।’ परमहंसजी ने पुनः माँ काली के पास भेजा। इस प्रकार वे तीन बार वहाँ गये; लेकिन तीनों बार उन्होंने वे ही बातें कहीं, आर्थिक संकट की बात वे नहीं कह पाए। परमहंसजी ने कहा, ‘देखो, तुम्हारे भाग्य में धन है नहीं। तुम तीन बार माँ के पास गये और लौट आए। खैर, मेरे पास आए हो, तो मोटा खाना, मोटा पहनना तुमको मिलता रहेगा। इसमें कभी कमी नहीं होगी।’ तत्पश्चात् विवेकानंदजी ने परमहंसजी महाराज से विधिवत् दीक्षा ली और साधना की। संयोगवश उसी समय अमेरिका के शिकागो नगर में विश्वधर्म-सम्मेलन का आयोजन था, जिसमें भारत से एक पंडित गये हुए थे और इधर से स्वामी विवेकानंदजी गए। समस्त विश्व के प्रायः सभी धर्म के लोग उसमें सम्मिलित हुए थे। और क्रम-क्रम से सबका प्रवचन होता था। जब स्वामी विवेकानंदजी का समय आया और वे बोलने लगे, तो बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों ने एक स्वर से कहा, ‘भ्म पे समंतदमक इमलवदक समंतदपदहण्’ यह विद्या से परे का विद्वान है।
विचारणीय विषय है, जिस बी0ए0 पास नरेन्द्र को कलकत्ता में कोई पूछनेवाला नहीं था, वह स्वामी विवेकानंद बनकर विश्वविख्यात हो गया, कैसे? रामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने उनको कौन-सी विद्या सिखाई? उन्होंने उनको आँख से ऊपर की विद्या सिखाई। तब वे विद्या से बाहर का विद्वान हुए।
हमलोग की स्कूल-कॉलेज की शिक्षा आँख से नीचे की विद्या है। जिज्ञासा हो सकती है, आँख से ऊपर की विद्या क्या है? जब अंतस्साधना द्वारा अंतर्जगत् में प्रवेश करते हैं, तो वहाँ अंतर्ज्ञान होता है। यों तो हमलोग प्रतिदिन शरीर में प्रवेश करते हैं। अभी हमलोग जाग्रतावस्था में हैं। हमारी वृत्ति बाहर संसार में है। जब हमलोग सो जाते हैं, तो बाहर का ज्ञान नहीं रहता है, क्यों? इसलिए कि जाग्रतावस्था में हम आँख में रहते हैं और स्वप्नावस्था में कंठ में चले आते हैं; उस समय हम मानसिक जगत् में घूमते हैं। इसलिए बाहर संसार का ज्ञान भूल जाते हैं। सुषुप्ति अवस्था में हम कंठ से नीचे हृदय में चले जाते हैं। जब हम हृदय से ऊपर कंठ में चले जाते हैं, तो मानसिक जगत् में घूमते हैं। फिर कंठ से आँख में आ जाने पर स्थूल संसार का ज्ञान होता है।
संत लोग कहते हैं कि तुम जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; इन तीनों अवस्थाओं में प्रतिदिन जाते-आते हो; लेकिन क्रिया विशेष के द्वारा यदि तुम अपने को आँख से ऊपर उठा सको, तो सूक्ष्म जगत् का ज्ञान होगा, सूक्ष्मतर जगत का ज्ञान होगा, सूक्ष्मतम जगत का ज्ञान होगा, आत्मज्ञान होगा और परमात्मा का ज्ञान होगा।
आँख से ऊपर जाने का जो रास्ता है, उसका ज्ञान संतों के अतिरिक्त और किसी के पास नहीं है।
“ बिन दया संतन की मेँहीँ जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं, वो होनहार है नहीं ।।”
केवल किताब पढ़ लेने से आत्मज्ञान हो जाए, संभव नहीं। अगर किताब पढ़ लेने से ही सबको ज्ञान हो जाता है, तो इतने स्कूल और कॉलेज की आवश्यकता ही क्या थी। सब अपने घर में ही किताब पढ़-पढ़कर तैयार हो जाते। न मास्टर की जरूरत थी, न प्रोफेसर-प्रिंसिपल की। वास्तविक बात यह है कि इस संसार में जो विद्या हम सीखना चाहते हैं, उस विद्या के जो अध्यापक हैं, उनके पास जाकर सीखते हैं। उसी तरह आध्यात्मिक ज्ञान हमको सीखना है, तो जो आध्यात्मिक गुरु हैं, उनके पास जाना होगा। वे जो बतलायेंगे, हम करेंगे, तो प्राप्तव्य वस्तु की प्राप्ति होगी। कबीर साहब के कहने का ढंग कुछ निराला ही है। उन्होंने कहा है-
“ पाप करै बिनु गति नहीं, पाप करे तब चैन ।
कहै कबीर विचारि के, पाप करो दिन रैन ।।”
पाप करे शब्द में चार अक्षर हैं, पा को एक ओर बाकी बचे तीन अक्षरों को दूसरी ओर करके पढ़िये, क्या होता है? पा-पकरे। अब इसको इस तरह पढ़िये-
“ पा पकरे बिनु गति नहीं, पा पकरे तब चैन ।
कहै कबीर विचारि के, पा पकरो दिन रैन ।।”
उनके कहने का तात्पर्य यह है कि जब संतों के पाँव पकड़ोगे, तभी कल्याण होगा, अन्यथा नहीं।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर-3, बिहार में साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर दिनांक 21-3-1999 ई0 के अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 1999 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलागों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 88वाँ वार्षिक अधिवेशन 17, 18 और 19 अप्रैल को होने जा रहा है। इस सत्संग समारोह में सम्मिलित होने के लिए ही आपलोग यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं। आपलोगों की उपस्थिति और शान्त वातावरण देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि इतनी अधिक उपस्थिति में भी आपलोग इस तरह शान्त वातावरण बनाए हुए हैं। इसलिए आपलोगों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। (श्रीसदगुरु महाराज की जय-ध्वनि)
यह 88वाँ वार्षिक अधिवेशन आपलोगों को क्या संदेश दे रहा है? इसपर हमलोग ध्यान दें। 88 में दो आठ है। अगर दोनों आठ को हम जोड़ दें-8 और 8 सोलह हो जाएँगे। यह 88वाँ अधिवेशन कहता हैै- जो कोई इन तीन दिनों के सत्संग में सोलह आना मन देकर सुनेंगे, मनन करेंगे और सोलह आना आचरण में उतार लेगें, तो उनका सोलह आना कल्याण हो जाएगा। (श्रीसदगुरु महाराज की जय-ध्वनि)
आपलोग कहेंगे कि 8 और 8 क्यों जोड़ें? हम 8 और 8 को गुणा क्यों नहीं करेंगे, ये अधिक हो जाएँगे। 8 और 8 का गुणा कीजिएगा, तो 8 और 8 के गुणा से होता है-64। छह के आगे चार दीजिएगा-दस हो जाएँगे। यह दस क्या कह रहा है-कठोपनिषद् में यमराज और नचिकेता का प्रसंग आया है- बतलाया गया है कि हमलोगों का शरीर रथ है, इसपर आत्मा रथी है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है और बुद्धि सारथी है। हमारी दस इन्द्रियाँ हैं बाहर की। जबतक हमारी ये दस इन्द्रियाँ बाहर में दौड़ती रहेंगी अर्थात् हमारी ये इन्द्रियाँ बहिर्मुख रहेंगी, तबतक हम दसमुख रावण बने रहेंगे। यदि हम इन दसो इन्द्रियों को काबू कर रथ पर सवार रहें, तो दसो इन्द्रियों को काबू करने से हम बन जाएँगे दसरथ। जब हम दसरथ बन जाएँगे तो हमारे उरपुर में भगवान का अवतरण अवश्य होगा। अतएव हमलोग इन्द्रियों का दमन करके दशरथ बनें, फिर राम का साक्षात्कार करें। इन्द्रियाँ दमन के संबंध में गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ी मूल्यवान बात बतलायी है।
“ दसइ दसहु कर संयम, जो न करिय जिय आनि ।
साधन वृथा होइ सब, मिलहिं न सारंगपाणि ।।”
अगर हम अपनी इन्द्रियाँ को काबू में नहीं रखते हैं, खुला हुआ छोड़ देते हैं, तो हमारी साधना वृथा हो जाएँगी। प्रभु के दर्शन नहीं होंगे। इस दस के विषय में गोस्वामीजी ने और भी बात कही है, वह है-
“ राम नाम को अंक है, अरु सब साधन सून ।
अंक गये तो कुछ नहीं, अंक रहे दस गून ।।”
हम एक राम को पकड़कर रहें, यह है अंक इसके उपर जितना शून्य देते जाएँगे- दस गुणा होता जाएगा। अगर हम अंक को हटा देते हैं, तो केवल शून्य-ही-शून्य रह जाएगा। जितना भी शून्य देना चाहें दे दीजिए; लेकिन कीमत कुछ नहीं। उसी तरह हमलोग एक प्रभु को पकड़कर रहें, तो जितनी साधना करेंगे, दस गुणा बढ़ती जाएगी। अगर हम एक ईश्वर पर आस्था नहीं रखते हैं, विश्वास नहीं करते हैं, तो जितनी भी साधना करेंगे निष्फल हो जाएगी।
आप कहेंगे की जोड़ और गुणा की बात तो समझ में आ गयी। अब घटाव और भाग करके देखें, तो क्या होता है? उसका भी परिणाम देखिये-8 में 8 का भाग आप देते हैं तो लब्धी एक होती है और आठ में आठ को आप घटा देते हैं, तो शून्य हो जाता है। एक के सामने शून्य दीजिएगा, तो वही दस सामने आयेगा अर्थात् एक को हम पकड़कर रखते हैं यानी एक प्रभु की भक्ति करते हैं, तो हमारा कल्याण दस गुणा बढ़ता चला जाएगा। अगर हम एक को पकड़कर नहीं रखते हैं, तो अंक हट गया। बच गया शून्य। हमारा जीवन शून्य हो जाएगा। अंग्रेजी में कहते है-्रमतव (जीरो)। जी-जीवन, रो-रोते, यानी जीवन भर रोते रह जाएँगें। (श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
यह संतमत-सत्संग ईश्वर-भक्ति करने के लिए बतलाता है, वह राम कैसा, जिसकी हम भक्ति करें। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं-
“ आठइ आठ प्रकृति पर, निर्विकार श्रीराम ।
केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहुकाम ।।”
वह प्रभु राम अष्टधा प्रकृति के परे है यानी अहि, अप, अनल, अनिल, आकाश, सत्, रज और तम; इनके परे निर्विकार निराकर राम है। जब निर्विकार निराकार प्रभु हमें मिलेंगे, तो हम भी निराकार हो जाएँगे, वे प्रभु कहाँ मिलेंगे? गोस्वामी कहते हैं-
“ प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी ।
ब्रह्म निरीह विरज अविनासी ।।”
-रामचरितमानस
वह प्रभु सत्य है, वह जीवन सत्य है। इस जीव को उस प्रभु से मिला दें। इस सत् का उस सत् से संग हो जाएगा; असली सत्संग हो जाएगा। इससे बढ़कर और कोई सत्संग नहीं। यह है आन्तरिक सत्संग। हमारे गुरुदेव ने बताया-
“ नित्य सत्संग करो बनाई ।
अन्तर बाहर द्वै विधि गाई ।।
धर्मकथा बाहर सत्संगा ।
अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
जब हम अन्तर्मुख होकर अपने अन्दर ध्यान करेंगे, तो जीव पीव का संग होगा। यह प्रथम श्रेणी का सत्संग होगा। लेकिन जबतक प्रभु के दर्शन नहीं हुए हैं, तबतक बाहर सत्संग करें। इस बाहर के सत्संग में बहुत लाभ है।
‘इस सत्संग में लाभ बहुत है तुरत मिलावै गुरु से।’
-संत कबीर साहब
इस बाहरी सत्संग को करते रहेंगे, तो कभी-न- कभी संत सद्गुरु हमें मिल जाएँगे। वे संत सद्गुरु हमें शिक्षा-दीक्षा देकर परम प्रभु परमात्मा के दर्शन करा देंगे, उनसे मिला देंगे। इसलिए बाह्य सत्संग की भी बड़ी आवश्यकता है। भागवत में एक कथा आयी है-सुरसरी को भूतल पर लाने के लिए अंशुमान ने बड़ी तपस्या की, कठोर तपस्या की; लेकिन सफलता नहीं मिली। उनके पुत्र दिलीप ने बहुत वर्षोंतक उसी तरह कठोर तपस्या की; किन्तु वे भी असफल रहे। दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। उन्होंने बड़ी कठोर साधना की, बड़ी कड़ी तपस्या की। माँ भगवती गंगा प्रसन्न होकर प्रकट हो गयी। कहती है भगीरथ! माँगो, क्या वर माँगते हो? मैं तुमसे प्र्रसन्न हूँ। भगीरथ ने कहा कि माँ! आप मुझपर प्रसन्न हैं, तो मृत्यलोक चलिए। गंगाजी ने कहा भगीरथ पृथ्वी तल पर मैं कैसे जाऊँगी? वहाँ अगर मैं जाती हूँ, तो लोग आएँगे और अपने-अपने पापों को मुझमें धोएँगे, तो मैं पापिनी बन जाऊँगी। फिर अपने पापों का कहाँ धोऊँगी। भगीरथ ने कहा-‘माँ! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति, पुत्र-पत्नी, परिवार का परित्याग कर दिया है। जो संसार के लोगों के उपकार के लिए ही जीवन धारण करते हैं। जो सदाचार का पालन करते हैं, जो भगवद्भजन करते हैं, जो जगत् से विरागी हैं, प्रभुपद के अनुरागी हैं; ऐसे संत, सज्जन, महात्मा, साधु जब अंग का स्पर्श कर देंगे तुझको, तो तुम पवित्र हो जाएगी।’ (श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)।
भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर गंगाजी स्वर्ग से इस पृथ्वीतल पर आती है। तो संत-महात्मा लोग कैसे होते हैं, यह समझिये-जो सुरसरी दूसरे को पवित्र करती है, उस सुरसरी को भी पवित्र करनेवाले संत-महात्मा होते हैं। उन महात्माओं का यदि सत्संग करें, तो हम भी पवित्र हो जाएँगे। (श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि) इसलिए आवश्यकता है सत्संग की। श्रीमदाद्य शंकराचार्य जी महाराज कहते हैं-
“ सत्संग से हो जाता नर विषयों से निस्संग ।
फिर व्यामोह रहित हो जाता, हो सर्वत्र असंग ।।
मोह विगत होते ही, होता मन निश्चलतायुक्त ।
निश्चलता आते ही वह हो जाता जीवनमुक्त ।।”
और भी सुनिये-यह सत्संग क्या है? मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जब लंका पर विजय प्राप्त कर, श्रीसीताजी का उद्धार कर, ससैन्य सेवकों के सहित अयोध्या आते हैं, तो वहाँ उनका राज्याभिषेक होता है। सुरपुर के सुरगण उनकी स्तुति करने के लिए आये थे। उनकी स्तुति करने के लिए ब्रह्माजी एवं शंकरजी भी आये थे। स्तुति कर जब भगवान शंकर वहाँ से विदा होने लगे, तो भगवान श्रीराम से हाथ जोड़कर वरदान माँगते हैं। क्या कहते हैं-
“ बार-बार वर मागउँ, हरषि देहु श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायिनी, भगति सदा सत्संग ।।”
हे प्रभु! मैं आप से हाथ जोड़कर वरदान माँगता हूँ आप प्रसन्न होकर मुझे वरदान दीजिए कि आपके चरणों में मेरी रति हो और सदा सत्संग मुझे मिला करे। संत-समागम की महिमा भगवान शंकर पार्वतीजी से कहते हैं-
“ गिरिजा संत समागम, सम न लाभ कछु आन ।
बिन हरिकृपा न होई सो, गावहि वेद पुरान ।।”
हे गिरिजे! संतों के समागम के समान और कोई दूसरा लाभ नहीं। संतो ं के समागम का लाभ भी तभी मिलता है, जब प्रभु की अनुकम्पा होती है।
हमलोगों पर प्रभु की बड़ी अनुकम्पा है कि हमलोग यहाँ सत्संग में उपस्थित होकर सत्संग का लाभ लें रहे हैं। एक बंगाली महात्मा ने कहा-
‘करऽ साधु समागम पवित्र हइवे मन,
घुचिवे मोह अंधकार रे ।’
संत का संग करने से मन पवित्र होगा और मोह अधंकार दूर होगा, भ्रम नष्ट होगा। संत सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं-जागतिक सभी पदार्थ सुलभ हो सकते हैं; किन्तु संत समागम दुर्लभ है-
“ तात मिलै पुनि मात मिलै,
सुत भ्रात मिलै युवती सुखदाई ।
राज मिलै गज बाज मिलै,
सब साज मिलै मन वांछित पाई ।।
लोक मिलै सुर लोक मिलै,
विधि लोक मिलै वैकुंठहु जाई ।
सुन्दर और मिलै सब ही सुख,
संत समागम दुर्लभ भाई ।।”
इसी सन्त-समागम के लिए हमलोग यहाँ आये हैं। सत्संग की विशेषता पर बड़ा रोचक प्रसंग है। जब मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम लंका जाने के लिए समुद्र पर पुल बँधवा रहे थे। नल-नील मुख्य कारीगर थे और अन्य बंदर-भालू जंगल-पहाड़ ला-लाकर देते थे। नर-नील बड़े-बड़े वृक्षों को, बड़े-बड़े पहाड़ों को हाथ में लेकर पानी पर रखते जाते थे। वे बड़े-बड़े पत्थर और विशाल पेड़ पानी में डूबते नहीं थे, तैरते ही रहते थे। ऊपर में ही ज्यों-के-त्यों रह जाते थे। बन्दर-भालुओं को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतना भारी पहाड़, इतना बड़ा पेड़ पानी में डूबता क्यों नहीं है? कुछ बन्दर भालुओं ने भगवान श्रीराम से जाकर कहा-‘भगवन्! बड़ा आश्चर्य है।’ भगवान ने पूछा- ‘क्या आश्चर्य है?’ उनलोगों ने कहा-‘हमलोग बहुत बड़े-बड़े पहाड़ों को और बहुत बड़े-बड़े पेड़ों को लाकर नल-नील को देते है पुल बाँधने के लिए। वे पानी पर जैसे ही रखते हैं, वैसे ही रह जाते हैं, डूबते नहीं। भगवान श्रीराम नर-लीला करने के लिए संसार में आये ही थे। उनके कौतुहल को और बढ़ाने के लिए कहते हैं-‘क्या यह बात सच है! अपनी आँखों देखी कहते हो या किसी से सुनी हुई बात कहते हो? ऐसा भी कहीं होता है कि पानी पर पत्थर रखे और वह ऊपर में तैरता रहे, डूबे नहीं?’ उनलोगों ने कहा-‘भगवन्! हमलोग अपनी आँखों देखी बात कह रहे हैं, किसी से सुनी हुई बात नहीं। चलिये न जरा, देखिये न! भगवान बन्दर-भालुओं के साथ समुद्र के किनारे आते हैं और पूछते हैं-‘नल-नील! इतने बड़े-बड़े पत्थरों और इतने बड़े-बड़े वृक्षों को पानी में तुम रखते हो, फिर भी ये डूबते नहीं हैं, क्यों? क्या कारण है?’ नल-नील ने उत्तर दिया-‘भगवन्! यह तो आपकी ही महिमा है। आपकी ही महिमा से ही ये पत्थर और वृक्ष पानी पर तैर रहे हैं। भगवान श्रीराम ने कहा यदि मेरी महिमा से ही ये पत्थर और वृक्ष पानी पर तैर रहे हैं, तो मैं जो पत्थर पानी पर रखूँगा, वह ऊपर ही रहेगा, डूबेगा नहीं। नल-नील ने कहा-‘भगवन्! हाथ कंगन को आरसी क्या? एक पत्थर लीजिए और पानी पर रखकर देख लीजिये। िकसी बन्दर ने पत्थर का एक छोटा-सा टुकड़ा लाकर भगवान के हाथ में दिया। भगवान ने उस पत्थर के टुकड़े को पानी पर रखा। रखते ही वह गड़गड़ाकर नीचे चला गया। भगवान पूछते हैं-‘नल- नील! तुमलोग कहते थे, मेरी महिमा से ये पत्थर, पहाड़, वृक्ष, जंगल आदि पानी पर तैर रहे हैं। तो एक पत्थर का छोटा-सा टुकड़ा मेरे हाथ से छूटा, तो पाताल क्यों चला गया?’ नल-नील श्लेष अलंकार में उत्तर देते हैं। वे कहते हैं-‘भगवन्! यह तो जड़ पत्थर है। यदि आपके हाथ से चेतन ब्रह्मा भी छूट जाय, तो किस रसातल को चला जाय पता नहीं! (श्रीसद्गुरु महाराज कि जय-ध्वनि)
वस्तुतः यह सत्संग क्या है? भगवान का निज अंग है। इसलिए गो0 स्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते है-
‘देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग भव
भंग कारण शरण शोकहारी ।’
यह सत्संग प्रभु का निज अंग है। भव-भंगकारी और शरण शोकहारी है। पुरैनियाँ जिला में मधुबनी एक मोहल्ला है। वहाँ एक सत्संग मंदिर बना था। पचासों वर्ष पहले की बात है, उस मंदिर का उद्घाटन परम पूज्य गुरुदेव ने किया था। बहुत साधु-महात्मा आये थे और भी बहुत लोग आये थे। सत्संग हुआ था, भंडारा भी हुआ था। उन महात्माओं में से एक महात्मा ने परमपूज्य गुरुदेव से आकर पूछा-‘महाराजजी ! इतना भोज-भंडारा भइल, इतना लोग आइल, सत्संग भइल, सब कुछ भइल; लेकिन ठाकुरजी के पधरावल ना गइल।’ उनके कहने का तात्पर्य था-‘इतना भोज भंडारा हुआ, लोग सब आये, खाये, पिये सत्संग हुआ; लेकिन ठाकुरजी की स्थापना नहीं हुई।’ गुरुदेवजी ने कहने की कृपा की-‘ठाकुरजी की स्थापना तो हो गई।’ उक्त साधु ने कहा-‘हम तो ना देखलीं, कहाँ भइल?’ अर्थात् स्थापना कहाँ हुई, मैंने नहीं देखा। पुनः गुरुदेव ने उनसे कहने की कृपा की-‘सत्संग हुआ, यह तो आपने देखा और सुना न!’ उन्होंने उत्तर दिया-‘हाँ ई तॅ देखलीं (हाँ यह तो देखा)।’ गुरुदेव ने उत्तर दिया-‘सत्संग भगवान का निज अंग है। जब सत्संग हो गया, तो मंदिर में ठाकुरजी पधरा दिये गये अर्थात् स्थापना हो गयी।’। गोस्वामी तुलसीदासजी परम प्रभु परमात्मा से प्रार्थना करते हैं-
“ यत्र कुत्रपि मम जन्म निज कर्मवश,
भ्रमत जग योनि संकट अनेकम् ।
तत्र त्वद्भक्ति सज्जन समागम,
सदा भवतु मे राम विश्राममेकम् ।।”
हे राम! अपने कर्म के वशीभूत मेरा जन्म जहाँ कहीं भी, जिस किसी योनि में क्यों न हो; लेकिन आपसे यही वरदान माँगता हूँ कि वहाँ आपके श्रीचरणों में रति हो और संतों का समागम मिलता रहे। पुनः गोस्वामीजी कहते हैं-
“ जब द्रवहिं दीनदयाल राघव, साधु संगति पाइये ।
जेहि दरस परस समागमादिक, पापरासि नसाइये ।।”
जब प्रभु की कृपा होती है, तब साधु की संगति मिलती है, जिनके दर्शन से, स्पर्शन से समागमादिक अर्थात् वे कुछ साधना करने के लिए कहते हैं, उसके करने से पाप राशि का नाश होता है। वे क्या साधन करने के लिए बतलाते हैं? ध्यान करने के लिए बतलाते हैं। सामवेद में आया है-
“ यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।”
यदि कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान यदि पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है; इसके समान पापों का नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है।
हम सन्तों का समागम करें, उनके प्रवचन सुनें और वे जो क्रिया बतलावें, उस साधना को करें। इससे हम पाप मुक्त हो जाएँगे, पवित्र हो जाएँगे। पवित्र हो जाएँगे, तब क्या होगा? गुरु नानकदेवजी महाराज कहते है-
“ सूचै भाड़ै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।”
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। हम पवित्र हो जाएँगे और परम प्रभु परमात्मा पवित्र है ही। इस पवित्रता से उस पवित्रता का मेल हो जाएगा, इस ज्योति से उस ज्योति का मिलाप हो जाएगा। परिणाम स्वरूप आवागमन का चक्र छूट जाएगा। दैहिक, दैविक, भौतिक; इन त्रय तापों से मानव संतप्त होता रहता है, उससे वह सदा के लिए मुक्त हो जाएगा।
अभी हमलोग एकत्र होकर जो सत्संग कर रहे हैं, यह बाहर का सत्संग है। हमलोगों को चाहिए कि बाहर का भी सत्संग करें और अन्तर का भी सत्संग करें। अगर बाहर का सत्संग नहीं करते, तो अन्तर का सत्संग नहीं कर सकते। क्योंकि-‘बिनु सत्संग विवेक न होई।’
हमलोग भागवत कथा सुनते हैं, राम-कथा सुनते हैं, हरि-कथा सुनते हैं, हरिवंश की कथा सुनते हैं, पौराणिक कथाओं को सुनते हैं, सब कथाओं को सुनते हैं, ठीक है। लेकिन गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज क्या कहते हैं-
“ राम कथा के ते अधिकारी ।
जिन्हके सत्संगति अति प्यारी ।।”
सुनने के लिए सब कोई सुन सकते हैं, किसी के लिए मनाही नहीं है; किन्तु राम-कथा के वे ही अधिकारी होते हैं, जिनको सत्संगति अति प्यारी होती है। जिनको सत्संग से प्रेम नहीं है, वे कथा सुन तो लेंगे, परन्तु वास्तविक बात नहीं समझ सकेंगे। रामचरितमानस में लिखा है-
‘श्रोता वक्ता ज्ञान निधि, कथा राम कै गूढ़ ।’
राम की कथा बहुत गम्भीर है, गूढ़ है। इसकी सही समझदारी के लिए श्रोता और वक्ता दोनों को ज्ञान निधि होना चाहिए। दोनों में किसी की अयोग्यता के कारण कथा से जो लाभ होना चाहिए, उससे हम वंचित रहेंगे। तब तो वही बात होगी-‘गुरु गये कह के, चेला मुये बह के।’ बीज उत्तम हो और खेत ऊसर हो, तो उसमें फसल नहीं आयेगी। खेत उत्तम हो और बीज निर्जीव हो, तब भी फसल नहीं आयेगी। बीज सजीव हो और खेत ऊर्वर हो, फिर तो उसमें फसल लहलहा उठेगी। इसलिए श्रोता और वक्ता दोनों ज्ञाननिधि होने के लिए बताया। इसलिए आवश्यकता है सत्संग की।
हमलोग जाते हैं फुलवाड़ी। क्या हम किसी फूल से सुगन्ध माँगते हैं कि सुगंध दो। सुमन स्वतः सौरभ देता है, चातुर्दिक सुगन्धित करता है। हम सूर्य से नहीं माँगते कि प्रकाश दो, स्वाभाविक वह प्रकाश देता है। चन्द्रमा से हम शीतलता की माँग नहीं करते, वह स्वतः शीतलता प्रदान करता है। इसी तरह संत सद्गुरु से कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं है, वह स्वतः देते हैं। वे जानते हैं कि हमें क्या आवश्यकता है? तदनुकूल वे देते हैं। अगर कोई भक्त माँगता है और यदि उससे उसकी भलाई नहीं है, तो वह माँगने पर भी नहीं देंगे।
नारदजी ने तपस्या की। तपस्या करने पर कामदेव ससैन्य आया उसकी तपस्या भंग करने के लिए; लेकिन इनकी तपस्या को वह भंग नहीं कर सका। नारदजी के मन में अहंकार हो गया कि मैंने कामदेव को जीत लिया। ब्रह्माजी को कहा कि मैंने कामदेव को जीत लिया। उन्होंने कहा-देखो जी! यह बात कहने की नहीं है, अपने मन में रखने की है। नारदजी से रहा नहीं गया, उन्होंने शंकरजी से भी कहा। शंकर जी ने समझाया; लेकिन मन में तो अंहकार भरा हुआ था। भगवान विष्णु के पास जाकर उन्होंने कहा-मैंने कामदेव को जीत लिया। भगवान विष्णु ने देखा कि भक्त के हृदय में अंहकार का बीज पड़ गया है। अंकुर निकलेगा वृक्ष हो जाएगा। कहीं फल-फूल होने लग जाएगा, तो कठिनाई होगी। इसलिए अभी ही बीज का समूल नष्ट कर देना चाहिए। ऐसा सोचकर उन्होंने नारद जी की बड़ाई कर दी। भला कहिये, आप कामदेवजी को नहीं जीत सकेंगे, तो कौन जीत सकता है? आपके समान और है कौन? नारदजी मन-ही-मन उत्फुल होकर चलते बने। भगवान ने अपनी लीला रची। मुनिजी के जाने मार्ग में नगर बसायी। उसमें एक राजा, एक रानी, उसकी एक पुत्री और प्रजाएँ थीं। नारद जाते-जाते उस राजा के दरबार में चले गये। राजा ने मुनिजी को बड़े आदर से बैठाया। उनकी लड़की सयानी थी। राजा ने अपनी पुत्री को मुनिजी के सामने लाकर कहा-‘देखिये मुनिजी! यह मेरी पुत्री है। इसकी शादी करनी है। इसके पति कैसे होंगे? सो बतलाइए।’ मुनिजी ने राजकन्या की हस्तरेखा देखी। उसमें था कि उसके पति त्रिभुवनपति होंगे। नारदजी के मन में मोह हो गया। उन्होंने मन-ही-मन सोचा, यदि मेरे साथ इसकी शादी हो जाय, तो मैं त्रिभुवनपति बन जाऊँगा। राजा ने पुत्री के लिए स्वयंवर रचा। दूर-दूर के राजे-महाराजे, राजकुमार सब आये। लड़की वर-माला लेकर घूम रही है। नारदजी के मन में आया, मैं तो साधु बाबाजी ठहरा, मेरे गले में वह कैसे माला डालेगी? वे भगवान का स्मरण करने लगे। प्रसन्न होकर वहाँ भगवान प्रकट हो गये। मुनिजी उनसे प्रार्थना करते हैं-‘प्रभो ! मुझे आप अपनी सुन्दरता दीजिये, जिससे राजकुमारी मेरे गले मे वर-माला डाल दे।’ भगवान ने कहा- ‘मुनिजी जिसमें आपका कल्याण होगा, वैसा मैं अवश्य करूँगा।’ भगवान ने मुनिजी के शरीर को बहुत सुन्दर बना दिया; लेकिन मुँह बन्दर के ऐसा बना दिया। अब उस राज्य-सभा में जाकर नारदजी बैठते हैं। राजकुमारी वर-माला लेकर घूम रही है। बंदर का मुँह देखते ही लौट जाती है। नारदजी के मन होता है कि राजकुमारी शायद मुझको देख नहीं पा रही है। इसलिए वह वर-माला लेकर इधर-उधर चली जाती है। नारदजी उठकर उधर चले जाते हैं, जिस ओर राजकुमारी जाती है। बन्दर का मुँह देखकर राजकुमारी लौट जाती है। इस प्रकार कितनी बार नारदजी उठे और बैठे। अन्त में भगवान विष्णु आते हैं और उन्हीं के गले मे माला राजकुमारी माला डालती है। राजकुमारी को लेकर विष्णु भगवान चले जाते हैं। महादेवजी के गण ने कहा-क्या देखते हैं, मुनिजी! आप अपना चेहरा देखिये। जब वे अपना चेहरा देखते हैं, तो बन्दर का-सा था। वे भगवान पर बड़े क्रोधित हुए और रास्ते में जब भगवान से भेंट हुई, तो भगवान को खरी-खोटी बातें सुनाने लगे। यहाँ तक की शाप भी दे दिया कि जाओ, तुम भी स्त्री के लिए भटकोगे।
जब उनको बोध हुआ, तब उन्होंने भगवान से पूछा-‘प्रभो जब मैंने विवाह करना चाहा था, तो आपने किस कारण से करने नहीं दिया? भगवान ने कहा-‘देखिये मुनिजी! मेरे भक्त मेरे बच्चे के समान होते हैं। अगर कोई बच्चा आग पकड़ने के लिए जाय, तो उसकी माता आग पकड़ने से रोकती है। उसी प्रकार आप आग पकड़ने जा रहे थे, तो मैंने रोक दिया। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि भक्त जो वरदान माँगते हैं, यदि वह उनके हित के लिए नहीं है, तो भगवान देते नहीं, और जो कुछ चाहिये, वह बिना माँगे ही दे देते हैं। भक्त नारद के माँगने पर भी भगवान ने उनकी मनोकामना पूरी नहीं की। किन्तु बिना याचना किये ही सुदामाजी को भगवान ने धन- धान्य से परिपूर्ण कर दिया। (श्री सदगुरु महाराज की जय-ध्वनि)
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्।’ अपने भक्तों का योगक्षेम मैं करता हूँ। ‘योग’-जो चाहिये, जुटा देता हूँ और ‘क्षेम’-उसकी रक्षा करता हूँ। यह तो हुई भगवन्त की बात। अब सन्त की सुनिये सन्त दादूदयालजी ने कहा-
‘दादू जाने न कोई, सन्तन की गति गोई ।।’
इसी भागलपुर शहर में एक सज्जन प्रेमी सत्संगी है, वे पति-पत्नी दोनों कुप्पाघाट आकर परमपूज्य गुरुदेव के दर्शन और सत्संग करते थे। कुछ वर्ष पूर्व उनकी आर्थिक दशा बड़ी दयनीय थी; लेकिन बाहर मुँह से उन्होंने कभी नहीं कहा कि मेरी आर्थिक दशा दयनीय है, दया करें। एक दिन गुरुदेव की मौज उनपर हो गई। उनका नाम नहीं बताऊँगा। उनका नाम लेकर गुरु महाराज पूछते हैं-‘आप मुझे पका कटहल खिलाइएगा।’ उन्होंने कहा-‘जी हुजूर! खिलाऊँगा।’ कहकर घर चले गये। वहाँ उन्होंने अपने लड़के से कहा-‘जाकर देखो सब्जी मण्डी में कहीं पका कटहल हो, तो खरीदकर ले आओ, गुरुदेवजी की माँग है। उनके लड़के सब्जी मंडी में घूम आये, कटहल कहीं मिला नहीं। लड़के ने आकर कहा-‘अभी कटहल का समय है नहीं। सीजन कटहल का समाप्त है, मिलेगा कहाँ से? उक्त सज्जन ने कहा-‘देखो गाँव में कहीं हो?’ गाँव में भी खोज की गयी; लेकिन गाँव में भी कटहल नहीं मिला। कोई सज्जन कलकत्ता जा रहे थे, उन्होंने कहा-‘कलकत्ते में तो सब महीने में विभिन्न प्रकार के फल मिला करते हैं। अगर पका कटहल मिल जाय, तो लेते आइएगा।’ वहाँ से आकर उन्होंने कहा- ‘भाई नहीं मिला। अभी समय ही नहीं है, मिलेगा कैसे?’ ये बेचारे चिन्तित। सोचने लग गये, गुरु महाराज पका कटहल माँगे हैं, जबतक कटहल नहीं दूँगा, तो मुँह कैसे दिखाऊँगा? उनके पास जैसे ही जाऊँगा, वैसे ही पूछेंगे-‘कटहल लाया?’ तो क्या जवाब दूँगा? फिर वे मन-ही-मन सोचते हैं, यदि कहीं कटहल नहीं है, तो गुरु महाराज ने माँग क्यों की? कहीं-न-कहीं कटहल जरूर है, मेरी खोज में कमी है। गुरु महाराज ने मुझसे कहा, तो मैंने दूसरे से कहा, तीसरे से कहा। स्वयं तो मैंने चेष्टा की नहीं। ऐसा विचारकर वे सब्जी मंडी जाते हैं। देखते हैं बोरा के नीचे कुछ है। वे दुकानदार से पूछते है-‘बोरा के नीचे में क्या है?’ वह कहता है-‘पका कटहल है।’ (श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि) बोरा के नीचे तीन पके कटहल थे। तीनों कटहलों को लाकर उन्होंने गुरुदेव के श्रीचरणों में समर्पित कर दिया। गुरु महाराज कटहल क्या खाएँगे, वह तो उनकी मौज थी; लेकिन उनकी आर्थिक उन्नति कितनी होती है, सो देखिये-उनका एक ऑफिस भागलपुर में है, दूसरा ऑफिस कटिहार में, तीसरा ऑफिस राँची में है, चौथा ऑफिस ईरोड में और भी कहाँ-कहाँ है। मेरे कहने का तात्पर्य है कि जो सन्त होते हैं, उनसे माँगने की जरूरत नहीं। हमारी आवश्यकता को जानकर वे स्वयं दे देते हैं। गुरु-भक्तिन सहजोबाई ने बड़ा अच्छा कहा है-
‘मन की जानै सबै गुरू, कहा छिपावै अंध ।’
तथा-
“ गुरू देवै तासों अधिक, राम सकै नहीं देय ।
मूर्ख बिगाड़े आपने, गुरु तजि रामहीं सेय ।।”
जो संत सदगुरु होते हैं, वे सब जानते हैं। वे हमें लौकिक-पारलौकिक सभी कुछ देते हैं; लेकिन उनके ग्रहण करने कि क्षमता हममें होनी चाहिये। सूर्य प्रकाश देता है, किसी को कम और किसी को वेशी नहीं देता है। सबको समान प्रकाश देता है। उसकी किरण मिट्टी पर पड़ती है, तो देखिये, वहाँ पर कैसा होता है? पानी पर वही किरण पड़ती है, तो देखिये वहाँ पर कैसी चमक होती है? और वही किरण शीशे पर पड़ती है, तो वह वहाँ पर कैसी चमक होती है। जो जितना साफ रहता है, उसमें उतनी अधिक चमक होती है? मिट्टी गंदी है, इसलिए उसमें चमक नहीं आती है। उससे साफ पानी है, इसलिए कुछ चमक आती है और काँच बिल्कुल साफ है, इसलिए इसमें उससे अधिक चमक आती है। उसी तरह हमारा हृदय अपवित्र रहेगा, तो हम उनकी कृपा को कैसे ग्रहण कर सकेंगे? हमारा हृदय पवित्र होना चाहिए।
“ जब दर्शन देखा चाहिए, तो दरपन माँजत रहिए ।
जब दर्पन लागी काई तो दरस कहाँ ते पाई ।।”
एक कामिल फकीर का कलाम कितना अच्छा है, सुनिये-
“ दिल का हुजरा साफ कर, जाना के आने के लिए ।
ध्यान गैरों का उठा, उसको बिठाने के लिए ।।
एक दिल लाखों तमन्ना, उस पै और ज्यादा हविस ।
फिर ठिकाना है कहाँ, उसको बिठाने के लिए ।।
नकली मंदिर-मस्जिदों में, जाय सद अफसोस है ।
कुदरती मस्जिद का साकिन, दुख उठाने के लिए ।।”
हम अपने हृदय को पवित्र करें, शुद्ध करें। यह हृदय शुद्ध-पवित्र कैसे होगा? कहाँ होगा? जल से हम तन को पवित्र करते हैं। जल से तन की पवित्रता होती है, सत्संग से मन कि पवित्रता होती है और ध्यान से आत्मा कि पवित्रता होती है। तो हम तन पवित्र करें, मन पवित्र करें और आत्मा को भी पवित्र बनाएँ। इस संबंध में संत पलटू साहब ने इस प्रकार कहा है-
“ धुबिया फिर मर जायगा चादर लीजै धोय ।।
चादर लीजै धोय, मैल है बहुत समानी ।
चल सतगुरु के घाट भरा जहँ निर्मल पानी ।।
चादर भई पुरानी दिनों दिन बार न कीजै ।
सतसंगत में सौंद ज्ञान का साबुन दीजै ।।
छूटै कलिमल दाग नाम का कलप लगावै ।
चलिये चादर ओढ़ि बहुरि नहिं भव में आवै ।।
पलटू ऐसा कीजिए मन नहिं मैला होय ।
धुबिया फिर मर जायगा चादर लीजै धोय ।।”
संत तुलसी साहब कहते हैं-सत्संग करते-करते मन पवित्र होता है, शुद्ध होता है।
‘जब रंग संग अपंग आली री अंग सतमत मन मरै।’
हमारा मन दसो इन्द्रियों का राजा है। जब हम नित्य प्रति सत्संग करते रहेंगे, तो यह मन कुमन से सुमन हो जायगा और सुमन से आगे बढ़कर एक दिन अमन हो जाएगा। जब अमन हो जाएगा, तो हम एक दिन चैन कि वंशी बजाने लगेंगे। इसलिए सत्संग की बड़ी आवश्यकता है। हम दोनों तरहों के सत्संग को करें।
संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। जीवन को पवित्र बनाने के लिए, पवित्र बनाने के लिए बतलाया जाता है। जीवन को पवित्र बनाने के लिए-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पंच पापों से हम विरत रहें। एक ईश्वर पर हम विश्वास करें, ईश्वर कि प्राप्ति अपने अंदर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखें, सत्संग करें, ध्यान करें, गुरु-सेवा करें और अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करें। यह संतमत के उपदेशों का सार थोड़े शब्दों में कहा। पुनः आपलोग अपराह्णकाल के सत्संग में सुनेंगे।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत सत्संग का 88वाँ वार्षिक महाधिवेशन के सुअवसर पर बरारी, भागलपुर (बिहार) में दिनांक 17-4-1999 ई0 के
प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 1999 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
यदि आप अस्पताल में रोगियों की भीड़ अधिक देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का शारीरिक स्वास्थ्य-पतन हो चुका है। यदि आप कचहरी में मुकदमेबाजों की अधिक भीड़ देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का नैतिक पतन हो चुका हैं। यदि आप सिनेमाघरों में सिनेमा देखनेवालों की अधिक भीड़ देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का चारित्रिक पतन हो चुका है। किन्तु यदि सत्संग के नाम पर यदि इतनी उमड़ती भीड़ देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों कि आध्यात्मिक उन्नति हो रही है। मैं आपलोगों कि आध्यात्मिक उन्नति देखकर बहुत प्रसन्न हो रहा हूँ और आपलोगों को अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ। (श्रोतागण कि ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
यह संतमत-सत्संग है। संतमत अर्थात् सन्तों का मत। सन्त किसको कहते हैं? महोपनिषद् में आया है-
“ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।”
अर्थात् परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
उपनिषद् में आया-‘जिनके हृदय कि ग्रन्थि विच्छिन्न हो गयी हो।’ जिज्ञासा होती है कि वह ग्रन्थि कौन-सी है? इसका उत्तर गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज देते हैं-
“ जड़ चेतनहिं ग्रन्थि पड़ि गई ।
जदपि मृषा छूटत कठिनाई ।।”
यह ग्रन्थि जड़ और चेतन की है, जिन्होंने जड़ और चेतन की ग्रंथि को खोल डाला है। जड़ और चेतन कि ग्रन्थि खोलने से क्या मिलता है, उपलब्धि क्या होती है? सन्त कबीर साहब कहते हैं-
“ लाल लाल सब कोइ कहै, सबकी गाँठी लाल ।
गाँठी खोलिके परखै नाहीं, तासो भयो कंगाल ।।”
अर्थात् जड़-चेतन की ग्रन्थि खुलने से लाल मिलता है। वह कैसा लाल है? जिस लाल को पाकर जीवन निहाल हो जाता है, पानेवाला मालोमाल हो जाता है और उसके उपर काल की दाल भी नहीं गलती। वह लाल जागतिक लाल नहीं, जगत्पतिरूपी लाल यानी परम प्रभु परमात्मा है। कहने का तात्पर्य यह की जो परमप्रभु परमात्मा को प्राप्त किये हुये होते हैं, वे सन्त होते है। उनको कोई संशय नहीं, भ्रम नहीं, मोह नहीं, उनके उपर कोई कर्मबन्धन नहीं; क्योंकि वे परे से परे परमप्रभु परमात्मा को प्राप्त कर चुके हुए होते हैं।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस में संतो के गुण लिखते है, सन्त कैसे होते है ?
“ षट विकार जित अनघ अकामा ।
अचल अकिंचन सुखी सुख धामा ।।
अमित बोध अनीह मित भोगी ।
सत्य सार कवि कोविद योगी ।।
सुनु मुनि साधुन के गुण जेते ।
कहि न सकइ सारद श्रुति तेते ।।
सो मो सन कहि जात न कैसे ।
साक बनिक मनि गुन गन जैसे ।।”
गोस्वामीजी कहते हैं, जो सन्त होते हैं, वे षट् विकारजित होते हैं। अर्थात् काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद मात्सर्य; इन छहों पर जिनका अधिकार हो, जो इनके अधिकार में नहीं हों, वे सन्त होते हैं। जिनको काम अपने दाम में कभी बाँध नहीं सकता, क्रोध जिनके मन को अबोध कर प्रतिशोध की भावना उत्पन्न नहीं कर सकता है, मोह जिनको बेशोह नहीं कर सकता, पद पाकर भी जो मद में नहीं आते, जो किसी से डाह नहीं करते; बल्कि उनसे जो डाह करते हैं, उनकी वे परवाह नहीं करते हैं, वे सन्त होते हैं।
अनघ यानी निष्पाप। सन्त झूठ नहीं बोलते, चोरी नहीं करते, किसी नशीली चीज का सेवन नहीं करते, हिंसा नहीं करते, मांस-मछली आदि का भक्षण नहीं करते, व्यभिचार नहीं करते यानी पर-स्त्री पर-पुरुष गमन नहीं करते। अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; जो इन पंच पापों से विरत होते हैं, प्रभुपद में अनुरक्त रहते हैं, वे सन्त होते हैं।
अकाम = किसी प्रकार की कामना नहीं। उनको जागतिक इच्छा नहीं रहती; क्योंकि वे जगत्पति को पाये हुए होते हैं। जागतिक कामना उनके सामने फटकने नहीं पाती।
अचल = अपने धर्म में निश्चल, दृढ़ रहनेवाला। अकिञ्चन अर्थात् असंग्रही। शुचि = पवित्र मन, वचन और कर्म से जो पवित्र रहते हैं। वे सुख के सागर होते हैं। अमित बोध = उनमें कितना ज्ञान है, उसकी थाह कोई नहीं पा सकता। इसका अर्थ ये नहीं हो जाता कि वे स्कूल-कॅालेज की डिग्री प्राप्त किये होते हैं। वास्तविक बात तो यह है कि आँख के नीचे अज्ञान की दिशा है और आँख से ऊपर ज्ञान की दिशा है। हमलोगों की जो कुछ भी शिक्षा होती है स्कूल-कॉलेज में, वह आँख से नीचे की शिक्षा होती है। हजरत मोहम्मद साहब कुछ भी पढ़े-लिखे नहीं थे; लेकिन वे इतने बड़े ज्ञानी थे, उनका ज्ञान इतना महान था कि वह जहान में फैला हुआ है। सन्त कबीर साहब कुछ भी पढ़े-लिखे नहीं थे। उनके लिए तो कहा गया है कि वे ‘मसि कागज छूयो नहीं, कलम गह्यो नहीं हाथ’ ऐसे थे। लेकिन आज सन्त कबीर साहब कि वाणी को देखिये आप, उनकी एक-एक पंक्ति कि व्याख्या विद्वान् करते हैं। उसपर पी-एच0डी0 और डी0 लिट् कि उपाधि पाते हैं। फिर भी उनके निगूढ़ ज्ञान को सामने नहीं रख सकते हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेवजी महाराज विद्यालयों कि शिक्षा में नगण्य थे। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेवजी महाराज के शिष्य स्वामी विवेकानन्दजी थे। उनके पिताजी वकील थे। अच्छी वकालत चलती थी। जब उनका शरीरान्त हो गया। स्वयं विवेकानन्दजी तीन-चार, भाई-बहन थे। उनकी विधवा माँ थी। दाने-दाने के मुहताज हो गये। उस समय वे बी0ए0 पास कर चुके थे। कलकत्ते की गली-गली छान डाली, नौकरी नहीं मिली। किसी ने नौकर नहीं रखा उनको। वे रामकृष्ण परमहंस देवजी के पास जाते हैं और अपने आर्थिक संकट की बात कहते हैं। परमहंसजी महाराज कहते हैं-जाओ, माँ काली के पास। स्वामी विवेकानन्दजी कहते हैं-आप कहिये, आपकी माँ है, आपकी बात सुनेगी। परमहंसदेवजी महाराज ने कहा कि वह मेरी ही माँ नहीं, तेरी भी माँ है। वह मेरी और तेरी ही नहीं; वह जगज्जननी है, सबकी माँ है। सबकी सुनेगी, जाओ। स्वामी विवेकानन्द उनके पास जाते है, वे उनसे आर्थिक संकट कहना भूल जाते हैं। ज्ञान, ध्यान, जप, तप योग की माँग करते हैं। एक बार, दो बार, तीन बार गये और ऐसे ही कहकर चले आये। रामकृष्ण परमहंस देवजी ने कहा तुम्हारे भाग्य में धन नहीं है, फिर भी तुम मेरे पास आये हो, तो तुम्हारा मोटा खाना, मोटा कपड़ा नहीं छूटेगा, बराबर मिलता रहेगा। रामकृष्ण परमहंसदेवजी से स्वामी विवेकानन्द दीक्षा-ग्रहण करते हैं, साधना करते हैं। परमहंस देवजी ने उनको आँख से ऊपर कि विद्या सिखलायी। जब अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व-धर्म-सम्मेलन हुआ था, वहाँ दिक्-दिगन्त के बड़े-बड़े उद्भट विद्वान उपस्थित हुए थे। उन सबके प्रवचन हुए थे। और जब स्वामी विवेकानन्दजी का प्रवचन हुआ, तो इनके प्रवचन से प्रभावित होकर वहाँ के सभी विद्वानों ने एक स्वर से कहा था- ‘He is learned beyond the learning’ ये विद्या से बाहर का विद्वान है। परहंसदेवजी ने स्वामी विवेकानन्दजी को कौन-सी विद्या सिखलायी, वे स्वयं पढ़े-लिखे नहीं थे। वस्तुतः सन्तों का जो ज्ञान अलौकिक होता है, वह आँख से ऊपर का ज्ञान होता है। वे कहीं भी बैठे, कहीं भी देखते रहते हैं; कहीं भी बैठे कहीं के सुनते रहते हैं। उनको वहाँ जाकर देखना नहीं पड़ता, जाकर सुनना नहीं पड़ता।
योगीवर श्यामाचरण लाहिड़ी जी का नाम आपलोगों ने सुना होगा। वे पटना से आगे दानापुर कैण्ट में एक साधारण कर्मचारी का काम करते थे। उनको महायोगी बाबाजी के दर्शन रानीखेत में हुए। बाबाजी ने इनसे साधना करवायी। साधना में सिद्धि लाभ कर अपने ऑफिस दानापुर लौटकर आ गये। वे एक अंग्रेज के अंदर में काम करते थे। एक दिन उस अंग्रेज को बहुत चिन्तित देख लाहिड़ी महाशय ने उनके चिन्तित होने का कारण पूछा। उन्होंने बताया कि इंगलैण्ड से पत्र आया है। मेरी पत्नी बीमार है, अब वह जिन्दा है या नहीं पता नहीं। इसीसे मैं चिन्तित हूँ। लाहिड़ी महाशय ने कहा-‘थोड़ी देर के लिए एक कमरा खाली करवा दीजिये, मैं आपकी स्थिति का पता बता देता हूँ।’ एक कमरा खाली करा दिया गया। उसमें लाहिड़ी महाशय बैठ गये। थोड़ी देर के बाद वे निकलते हैं और कहते हैं कि आपकी पत्नी धीरे-धीरे स्वस्थ हो रही है। अब चिन्ता की बात नहीं। स्वस्थ होने के बाद वह यहाँ आयेगी। इस मध्यावधि में वह आपको पत्र लिखकर भेजेगी। उसमें अमुक-अमुक बातें लिखी रहेंगी। अंग्रेज उनको देखकर चकित हो गये। सोचने लगे यह कमरे में बैठा था और कैसे वहाँ कि बातें कह रहा है। कई दिनों के बाद उसकी पत्नी का हस्तलिखित पत्र उस अंग्रेज को मिलता है। जो-जो बातें लाहिड़ी महाशय ने बतलायी थीं, वे ही बातें उसमें लिखी हुई थीं। कुछ दिनों के बाद स्वस्थ होने पर उस अंग्रेज की पत्नी वहाँ आती है। संयोग से उस समय ऑफिस में लाहिड़ी महाशय भी थे। उनकी ओर संकेत कर वह कहती है-ये तो इंगलैण्ड में मुझसे मिले थे, आज ये यहाँ हैं! विचारणीय विषय है कुछ मिनट के अंदर ही लाहिड़ी महाशय इंगलैण्ड पहुँचते हैं और वहाँ की सारी बातों की जानकारी करके यहाँ भारत आ जाते हैं। इस अद्भुत प्रकार से होता है सन्तों का कहीं आना और जाना।
हमारे गुरुदेव थे। बड़ी कठिन तपस्या उन्होंंने की थी। बड़ी ऊँची साधना थी उनकी। वे एक जगह बैठकर जहाँ देखना चाहते थे, देख लेते थे। उनको कहीं जाने-आने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। उस समय भागलपुर में रामानुजम साहब नाम के कलक्टर थे। कभी-कभी वे गुरुदेव के पास दर्शनार्थ आया करते थे। पहले तो वे मेरे पास जाते और कहते बाबा के दर्शन करा दीजिये। मैं उनको अपने साथ ले जाकर दर्शन कराता। इस प्रकार बराबर आने-जाने से वे अधिक परिचित हो गये। एक बार उनकी बदली यहाँ से पटना हो गयी। रामानुजम साहब कुप्पाघाट आश्रम आकर परमपूज्य गुरुदेव से कहा-मेरी बदली हो गयी है, मैं पटना जा रहा हूँ। सन्त की अनन्त गति कौन जाने? गुरुदेव कहते हैं-नहीं, आपकी बदली नहीं हुई है। रामानुजम साहब पुनरावृत्ति करते हुए कहते हैं-ट्रान्सफर लेटर आ गया है हुजूर! गुरुदेव कहते हैं-नहीं-नहीं! आपकी बदली नहीं हुई है। जब गुरुदेव दो-दो बार कह देते हैं कि आपकी बदली नहीं हुई है, तो कलक्टर साहब क्या बोलते, चुप हो गये। गुरुदेव के पास से जब वे ऑफिस जाते हैं, तो देखते हैं कि स्थगन पत्र वहाँ रखा हुआ है। अब उनको आश्चर्य होता है कि हमारे अॅाफिस में आया हुआ स्थगन-पत्र का हमको पता ही नहीं है और कुप्पाघाट में बैठे-बैठे उन्होंने कैसे देख लिया की मेरा ट्रान्सफर नहीं हुआ है? (श्रोतागण की ओर से श्रीसदगुरु महाराज की जय-ध्वनि) इन गतिविधियों से जाना जाता है कि संतों की गति कितनी ऊँची होती है। सन्त दादूदयाल जी कहते हैं-
‘सन्तन की गति गोई दादू जाने न कोई ।’
सन्त कितने महान होते हैं? परम भक्तिन शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हुए भगवान श्रीराम को कहना पड़ा-
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोते अधिक सन्त करि लेखा ।।”
अर्थात् मुझसे अधिक करके सन्त को मानो। कैसे होते हैं सन्त? संस्कृत में जिनके हम सन्त कहते हैं, अंग्रेजी में सेन्ट (Saint) कहते हैं। जो सेन्ट (Saint) होते हैं, वास्तव में उनमें सेन्ट होती है अर्थात् सुगन्धि होती है। क्या वे सुगन्धित तैल-फुलैल लगाये हुये होते हैं-नहीं। एक बार का प्रसंग है-भगवान बुद्ध से उनके एक शिष्य ने पूछा था-भन्ते ! हम देखते हैं जूही, चमेली, बेली, तगर आदि फूलों की सुगन्ध हवा के अनुकूल चलती है। क्या कोई ऐसी भी सुगंध है, जो हवा के प्रतिकूल चलती हो? भगवान बुद्ध ने उत्तर दिया था-हाँ है, और वह है सदाचार की सुगंध, जो देवताओं तक जाती है। तो ऐसे होते हैं सन्त।
जिनको हम संस्कृत में सन्त और अंग्रेजी में (Saint) कहते हैं। उन्हीं को उर्दू फारसी में फकीर कहते हैं। फकीर हमलोग कैसे लिखते है-फे, काफ, ये, रे। फे का अर्थ फाका, उपवास। खुदा के निकट वास करता हो। काफ-कनायत यानी संतोष। शेखसादी ने कहा-
“ कनायत तमंगर कुनद मरदरा ।
खबर कुन हरीसों जहाँ गरदरा ।।”
ये-यादे इलाहि। वे खुदा की याद में रहते हैं। रे-रियाज, अभ्यास। लोगों को आदर्श देते हैं कि तुम भी साधनाभ्यास करो। ऐसे सन्त होते हैं, फकीर होते हैं, सेन्ट (Saint) होते हैं। उनका जो मत होता है, वही है सन्तमत। सन्तमत किसी एक सन्त के नाम पर प्रचलित मत नहीं है। सभी संतों का जो मत है, वह है सन्तमत। रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ यहाँ न पच्छपात कछु राखौं ।
वेद पुरान सन्तमत भाखौं ।।”
यहाँ पक्षपात की कोई बात नहीं। भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में संतों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा संतमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण संतों के मत में पृथक्त्व ज्ञात होता है; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पन्थाई भावों को हटाकर विचारा जाय और सन्तों मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय, तो यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत है। चाहे वे ईसाई हों, मुसाई हों, बौद्ध हों, जैन हों, सिक्ख आदि कोई भी हों; सभी एक हैं।
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना। यह रामचरितमानस है क्या? एक विलक्षण ग्रन्थ है। लोग अपनी-अपनी दृष्टि से देखा करते हैं। भिन्न-भिन्न दृष्टियों से भिन्न-भिन्न भावों में देखते हैं। एक राजा के दरबार में महावत ने हाथी को नहला- धुलाकर कर लाया। वह हाथी अपनी सूँढ़ से अपने शरीर पर धूल ले रहा था। एक पथिक उस रास्ते से जा रहा है। वह महावत से पूछता है कि अभी तुम हाथी को नहला-धुलाकर लोये हो, हाथी अपने शरीर पर धूल क्यों ले रहा है? महावत ने कहा, यह तो जंगली जानवर है। इसको क्या पता कि स्नान क्या होता है? स्नान क्या है, धूल क्या है, शुद्ध क्या है; इसको क्या पता है? यही जिज्ञासा अब्दुल रहीम खान खाना से किसी व्यक्ति ने की थी-
‘धूल धरत निज सीस पे कहु रहीम केहि काज ।’
रहीम कवि ने उत्तर दिया-
‘जेहि रज मुनि पत्नी तरी, सो खोजत गजराज ।’
अर्थात् हाथी आपने शरीर पर सामान्य धूल नहीं ले रहा है, बल्कि वह उस विशेष धूल की खोज में है, जिस धूल से अहल्या का उद्धार हुआ था। किसी ने सन्त कबीर साहब से भी पूछा था-राजा के दरबार में जो हाथी बँधा हुआ है, वह अपने सिर पर धूल क्यों लेता है?
“ राजा दुआरे बंधिया, माथा धुनै गयन्द ।
मनुष जनम कब पाइहौं, भजिहौं परमानन्द ।।”
वह माथा पर धूल क्यों ले रहा है, वह तो माथा धून रहा है कि कब हमको मनुष्य-शरीर मिले, जो हम ईश्वर भजन करें। सज्जनो! हमलोगों को मनुष्य का शरीर मिला हुआ है, अगर हम भगवद्-भजन नहीं करें, तो कहीं हमलोगों को भी उस हाथी की भाँति माथा धुनना न पड़े। (श्रोतागण की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि) इसीलिए अभी रामचरितमानस का जो पाठ हुआ है, उसमें नर-तन की विशेषता के उपर कहा गया है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अपनी प्रजा को उपदेश देते हैं-
“ बड़े भाग मानुष तनु पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा ।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा ।
पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ।।”
“ सो परत्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछिताइ ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि, मिथ्या दोष लगाइ ।।”
मनुष्य-शरीर की उपादेयता के संबंध में काग भुशुण्डिजी गरुड़जी से कहते है-
“ नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी ।
ज्ञान विराग भक्ति सुख देनी ।।”
इस मनुष्य-शरीर में नरक में जाने की निसेनी (सीढ़ी) है, स्वर्ग में जाने की सीढ़ी और मोक्ष यानी नजात में जाने का जीना है।
अगर हम कुरान शरीफ पर ध्यान देते हैं, तो उसमें पाते हैं-‘सूरे फातिहा’ में लिखा है-‘ये कयामत के दिन का मालिक! ऐ खुदा! मैं तुम्हारी ही वन्दगी करता हूँ और तुमसे ही सहायता माँगता हूँ, मुझे सीधा रास्ता दिखला। उनलोगों की राह जिनपर तू ने कृपा की; न की उसकी जिसपर तू गुस्सा हुआ।’ इस तरह अल्लाह की तीन दृष्टियाँ हुईं-सीधा रास्ता के लिए एक, मेहर की दृष्टि दूसरी और क्रूर दृष्टि तीसरी। क्रूर दृष्टि किसपर और मेहर नजर किसपर? जो बुरे-बुरे कर्मों को करते हैं, अत्याचार करते हैं, अनाचार करते हैं, दुराचार करते हैं, व्यभिचार करते हैं, बलात्कार आदि कुकर्म करते हैं; उनके ऊपर अल्लाह की क्रूर दृष्टि होती है। अल्लाह उनको दोजख की आग में जलाते हैं। जो अच्छे-अच्छे कर्मों को करते हैं, शुभ कर्मों को करते हैं, परोपकार करतें है, दूसरों की भलाई करते हैं, सेवा करते हैं, जकात आदि करते हैं; अल्लाह की उनपर मेहर की दृष्टि होती है। उनको वे बहिश्त का सुन्दर बाग दिखलाते हैं। वहाँ उनको उत्तम-उत्तम खाना, मेवा आदि मिलता है। पाक-साफ स्त्रियाँ मिलती हैं, बहुत तरह के सुख, आराम मिलते हैं और जो कहते हैं कि अल्लाह! मुझको सीधा रास्ता दिखला, वह सीधा रास्ता नजात का है, मोक्ष का है।
यदि हम बाइबिल की ओर दृष्टि करें, तो वैदिक धर्म में जिसको नरक और इस्लाम धर्म में दोजख कहते हैं, उसी को ईसाई धर्म में हेल (Hell) कहते हैं। जिसको वैदिक धर्म में स्वर्ग और ईस्लाम धर्म में बहिश्त कहते हैं, उसी को ईसाई धर्म में हेवन (Heven) कहते हैं। जिसको वैदिक धर्म में मुक्ति और इस्लाम धर्म में नजात कहते हैं, उसी को ईसाई धर्म में लिब्रेसन (libration) कहते हैं, इस दृष्टि से वैदिक हो, इस्लाम हो, ईसाई हो, सबके लिए ईश्वरी ज्ञान समान है।
अब हमको सोचना है कि हम अपने लिए कौन-सा रास्ता चुनें? क्या कोई नरक में जाना चाहता है? नरक में दुःख होता है। दुःख उठाना कोई नहीं चाहता है। अगर हम स्वर्ग की इच्छा करें, तो भगवान राम कहते हैं-‘स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।’ स्वर्ग सदा के लिए नहीं मिलता है। अभी हमारा यह शरीर इस संसार में है। शरीर छूटने के बाद हम कहाँ जाएँगे पता है? हम आँखें बन्द कर देखें, आँखें बन्द कर देखने पर अंधकार मालूम पड़ता है। यह अंधकार नरक में ले जाने का रास्ता है, दोजख में जाने का रास्ता है, हेल (Hell) में जाने का रास्ता है। अन्तस्साधना द्वारा जब हम अपने अंदर प्रकाश देखें, जलवा देखें, अल्लाह का नूर देखें, डिवाईन लाईट (Divine light) देखें, तो यह समझे कि हमारे लिए स्वर्ग का द्वार खुला हुआ है। और जब हम साधना करके अन्तर्नाद को पकड़ते है, तो वह मुक्ति में, नजात में (libration) ले जाता है।
नाद की साधना सभी सन्तों ने की। प्रभु ईसा मसीह ने कहा है-देखो, आकाश में द्वार खोल दिया गया है। और जो पहली आवाज मुझे सुनाई दी, वह विगुल जैसी आवाज मालूम पड़ी। मौलाना शेख मोहम्मद अकबर सावरी ने अपनी पुस्तक ‘इक्तबास उल-अनवार’ के पृष्ठ 36 और 106 पर लिखा है कि हजरत मोहम्मद साहब वर्षों तक गारे-हुरा में ‘आवाज मुस्तकीम’ (सीधा और पक्की आवाज) के अभ्यास में लीन रहे। मौलाना रूम कहते हैं-हजरत मुहम्मद साहब ने फरमाया है कि मेरे कानों में साधारण आवाज की तरह खुदा की आवाज मालूम पड़ती है। दाराशिकोह ने लिखा है-अन्धे लोग पूछते हैं कि अल्लाह कहाँ है? खुदा कहाँ है? अरे! खुदा के कलाम की आवाज और नूर से जहान भरपूर है। अपने कान से चतुराई और अहंकार की रूई को निकालो, फिर आवाजेगैब सुनोगे, खुदा की आवाज सुनोगे। चाहे ईसा मसीह को लीजिये, चाहे हजरत मोहम्मद साहब को लीजिये, चाहे ऋषि, मुनि, सन्तों को लीजिये; सबने नादानुसंधान की साधना कर मोक्ष प्राप्त किया है। श्रीमदाद्य शंकराचार्य जी कहते हैं कि भगवान शंकर ने कहा-
“ सदा शिवोक्तानि सपादलक्ष
लयावधानानि वसन्ति लोके ।
नादानुसंधानसमाधिमेकं
मन्यामहे मान्यतमं लयानाम् ।
नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं
त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं
विलीयते विष्णु पदे मनो मे ।।”
“ सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ।।”
अर्थ-योग-शास्त्र के प्रवर्त्तक भगवान शिवजी ने मन के लय होने के सवा लक्ष साधन बतलाए हैं, उन सबमें नादानुसंधान सुलभ और श्रेष्ठ है । हे नादानुसन्धान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं, आपके ही प्रसाद से मेरा प्राण-वायु और मन, ये दोनों विष्णु के परम पद में लय हो जाएँगे । योग-साम्राज्य में स्थित होने की इच्छा हो, तो सब चिन्ताओं को छोड़कर सावधान हो एकाग्र मन से अनहद नादों को सुनो ।’’
जो कोई अल्लाह को पाना चाहते हैं, खुदा को पाना चाहते हैं, गॉड (God ) को पाना चाहते हैं, परमब्रह्म परमात्मा को पाना चाहते हैं; उनको नादानुसंधान की क्रिया करनी चाहिए। जो नादानु- संधान की क्रिया करते हैं, उनको मुक्ति मिलती है, नजात मिलती है, (libration) लिब्रेशन मिलता है। सन्तमत बतलाता है कि लौकिक वा पारलौकिक किसी भी प्रकार की साधना के लिए मनुष्य-शरीर अपेक्षित है। मनुष्य-शरीर के अतिरिक्त अन्य किसी शरीर में रहकर हम अन्तस्साधना नहीं कर सकते और न प्रभु को पा सकते। यह मनुष्य-शरीर की विशेषता है। अन्त में भगवान श्रीराम कहते हैं-
भवाणर्व उत्तीर्ण हेतु मनुष्य-शरीर नाव, प्रभु कृपा अनुकूल बयार । सन्त सद्गुरु कर्णधार, जिनके हाथों में पतवार, फिर भी यदि हम हो न सकें भव पार, तो हमारा दुर्भाग्य है।
“ जो न तरइ भवसागर नर, समाज अस पाय ।
सो कृतनिन्दक मंदमति, आतम हन गति जाय ।।”
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतममत-सत्संग के 88वेंँ वार्षिक महाधिवेशन के सुअवसर पर बरारी, भागलपुर (बिहार) में दिनांक 17-04-1999 ई0 के
अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून 1999 ई0)
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